जो दूसरों की आज़ादी के हक में नहीं खड़ा होता, उसे अपनी आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए
न्यूज चैनलों की ‘परपीड़क सुख’ की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है. अकसर देखा गया है कि चैनलों को दूसरों के दुःख या परेशानी या कष्ट की खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है. लेकिन कहते हैं कि कभी-कभी ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ जाता है. संयोग देखिए कि कोई और नहीं बल्कि ‘परपीडक सुख’ में सबसे अधिक मजा लेने वाला चैनलों का चैनल ‘टाइम्स नाउ’ पहाड़ के नीचे आ गया है.
हुआ यह कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी.बी. सावंत द्वारा दाखिल मानहानि के एक मुकदमे में पुणे की एक स्थानीय अदालत ने ‘टाइम्स नाउ’ पर १०० करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया है.
यही नहीं, इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट में ‘टाइम्स नाउ’ की अपील पर कोर्ट ने कोई राहत देने से पहले चैनल से कोर्ट में २० करोड़ रूपये और ८० करोड़ रूपये की बैंक गारंटी जमा करने का आदेश दिया है. चैनल ने इसके बाद राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि वह राहत के लिए हाई कोर्ट के पास ही जाए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले ने न्यूज चैनलों के साथ-साथ सभी समाचार माध्यमों को सन्न कर दिया है. एडिटर्स गिल्ड से लेकर प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू तक अनेक मीडिया संगठनों और बुद्धिजीवियों ने इस फैसले की आलोचना की है. अरुण जेटली जैसे इक्का-दुक्का नेताओं ने भी इस फैसले से असहमति जाहिर की है.
लेकिन विरोध के सुर बहुत तीखे नहीं बल्कि दबे-दबे और कुछ सहमे-सहमे से हैं. विरोध में औपचारिकता अधिक है और गर्मी और शोर कम. यही नहीं, इस फैसले का विरोध जुर्माने की भारी राशि को लेकर ज्यादा है. सभी मान रहे हैं कि ‘टाइम्स नाउ’ से गलती हुई है और वह गलती जान-बूझकर नहीं हुई है.
ऐसे में, वे हर्जाने की इतनी भारी राशि को पचा नहीं पा रहे हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, मानहानि के किसी मुकदमे में यह पहला ऐसा मामला है जहां इतनी बड़ी राशि का हर्जाना ठोंका गया है. अच्छी बात यह है कि इस फैसले का किसी प्रमुख व्यक्ति ने खुलकर समर्थन नहीं किया है.
लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अलग-अलग कारणों से ‘टाइम्स नाउ’ पर ठोंके गए इस हर्जाने से अंदर ही अंदर खुश हैं. बहुतों को इसमें एक तरह का ‘परपीडक सुख’ मिल रहा है. यही कारण है कि देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के लिए गंभीर और गहरे निहितार्थों से भरे इस फैसले को लेकर वैसी बहस और चर्चा नहीं हो रही है, जैसीकि अपेक्षा थी.
यह संयोग नहीं है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने और बोलने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं या उतनी मुखर नहीं हैं जितनी अकसर दिखाई पड़ती हैं?
यह भी सिर्फ संयोग नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ पर मानहानि का मुकदमा करनेवाले जस्टिस पी.बी. सावंत सुप्रीम कोर्ट के उदार जजों में माने जाते रहे हैं जिन्होंने वायु तरंगों को सार्वजनिक संपत्ति घोषित करने का ऐतिहासिक फैसला दिया था. इस फैसले ने ही दूरदर्शन-आकाशवाणी को स्वायत्तता देने के साथ-साथ निजी न्यूज चैनलों के लिए प्रसारण को आसान बनाया था.
जस्टिस सावंत बाद में प्रेस काउन्सिल के मुखर और सक्रिय अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने हमेशा अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के हक में बोला और लिखा. आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन जैसे उदार जज को ‘टाइम्स नाउ’ के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
चैनलों के लिए यह सोच-विचार और आत्मावलोकन का समय है. मामला बहुत गंभीर है. उन्होंने अपने कारनामों से अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को खतरे में डाल दिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में पुणे कोर्ट का फैसला सिर्फ ‘टाइम्स नाउ’ तक सीमित मामला नहीं है.
यह एक तरह से टेस्ट केस है. अगर यह एक नजीर बन गई तो अख़बारों और चैनलों का आज़ादी और निर्भीकता के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा. इसका सबसे अधिक फायदा ताकतवर लोग और कंपनियां उठाएंगी. वे इस फैसले का दुरुपयोग चैनलों और न्यूज मीडिया को धमकाने और उनका मुंह बंद करने के लिए करने लगेंगे.
आश्चर्य नहीं होगा, अगर इस फैसले से प्रेरणा लेकर ताकतवर राजनेता, अफसर, कारोबारी और कम्पनियाँ सिर्फ परेशान करने के लिए चैनलों और अखबारों पर मुकदमे ठोंकने लगें. कितने अखबार और चैनल ये मुकदमे लड़ने के लिए संसाधन जुटा पायेंगे?
यही नहीं, आखिर कितने चैनल और अखबार १०० करोड़ रूपये का हर्जाना देकर चलते और छपते रह सकते हैं? ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कड़े मानहानि कानूनों के कारण पत्रकारिता के तेवर पर असर पड़ा है. समाचार कक्षों में वकील नए गेटकीपर बन गए हैं. खबरों को संपादकों के साथ-साथ वकीलों के चश्मे से भी गुजरना पड़ता है.
इससे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप की स्थिति पैदा हो जायेगी जो वाचडाग पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो सकती है. लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि चैनलों को मनमानी करने, जान-बूझकर किसी पर कीचड़ उछालने और लापरवाही करने की छूट देनी चाहिए.
निश्चय ही, चैनलों को खबरों और विजुअल के चयन और प्रस्तुति में तथ्यों, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे सम्पादकीय मूल्यों के पालन पर जोर देना चाहिए. गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए.
लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि तमाम सावधानियों के बावजूद समाचार संकलन और माध्यम के साथ-साथ पत्रकारों की सीमाओं के कारण चैनलों से गलतियाँ होना असामान्य बात नहीं हैं. अलबत्ता, ध्यान दिलाने पर उन गलतियों खासकर तथ्यों सम्बन्धी भूलों को तुरंत दुरुस्त न करना कहीं बड़ी गलती है जो चैनल की बदनीयती को जाहिर करता है.
जाहिर है कि बदनीयती का कोई इलाज नहीं है. ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए. लेकिन अपराध और सजा के बीच भी कोई अनुपात, संतुलन और तर्क होना चाहिए. कहने की जरूरत नहीं कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में अदालत के फैसले में यह संतुलन और अनुपात नहीं है.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी की दुहाईयाँ देनेवाले चैनलों को इस बात का जवाब जरूर देना चाहिए कि वे खुद अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए मानहानि कानून की धमकी क्यों देने लगते हैं?
ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें ‘टाइम्स नाउ’ जैसे बड़े चैनलों ने मीडिया साइटों, ब्लाग लेखकों को ऐसे कानूनी नोटिस भेजे हैं. उनमें अपनी आलोचना सुनने को लेकर इतनी तंगदिली क्यों है? यही नहीं, ‘टाइम्स नाउ’ वह चैनल है जिसने कश्मीर मसले पर अरुंधती राय के बयान को देशद्रोह बताते हुए उनके खिलाफ अभियान चलाया था.
क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जो दूसरों की आज़ादी के हक में नहीं खड़ा होता, उसे अपनी आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए?
('तहलका' के १५ दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
न्यूज चैनलों की ‘परपीड़क सुख’ की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है. अकसर देखा गया है कि चैनलों को दूसरों के दुःख या परेशानी या कष्ट की खिल्ली उड़ाने में बहुत मजा आता है. लेकिन कहते हैं कि कभी-कभी ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ जाता है. संयोग देखिए कि कोई और नहीं बल्कि ‘परपीडक सुख’ में सबसे अधिक मजा लेने वाला चैनलों का चैनल ‘टाइम्स नाउ’ पहाड़ के नीचे आ गया है.
हुआ यह कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पी.बी. सावंत द्वारा दाखिल मानहानि के एक मुकदमे में पुणे की एक स्थानीय अदालत ने ‘टाइम्स नाउ’ पर १०० करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया है.
यही नहीं, इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट में ‘टाइम्स नाउ’ की अपील पर कोर्ट ने कोई राहत देने से पहले चैनल से कोर्ट में २० करोड़ रूपये और ८० करोड़ रूपये की बैंक गारंटी जमा करने का आदेश दिया है. चैनल ने इसके बाद राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसे कोर्ट ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि वह राहत के लिए हाई कोर्ट के पास ही जाए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले ने न्यूज चैनलों के साथ-साथ सभी समाचार माध्यमों को सन्न कर दिया है. एडिटर्स गिल्ड से लेकर प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू तक अनेक मीडिया संगठनों और बुद्धिजीवियों ने इस फैसले की आलोचना की है. अरुण जेटली जैसे इक्का-दुक्का नेताओं ने भी इस फैसले से असहमति जाहिर की है.
लेकिन विरोध के सुर बहुत तीखे नहीं बल्कि दबे-दबे और कुछ सहमे-सहमे से हैं. विरोध में औपचारिकता अधिक है और गर्मी और शोर कम. यही नहीं, इस फैसले का विरोध जुर्माने की भारी राशि को लेकर ज्यादा है. सभी मान रहे हैं कि ‘टाइम्स नाउ’ से गलती हुई है और वह गलती जान-बूझकर नहीं हुई है.
ऐसे में, वे हर्जाने की इतनी भारी राशि को पचा नहीं पा रहे हैं. रिपोर्टों के मुताबिक, मानहानि के किसी मुकदमे में यह पहला ऐसा मामला है जहां इतनी बड़ी राशि का हर्जाना ठोंका गया है. अच्छी बात यह है कि इस फैसले का किसी प्रमुख व्यक्ति ने खुलकर समर्थन नहीं किया है.
लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अलग-अलग कारणों से ‘टाइम्स नाउ’ पर ठोंके गए इस हर्जाने से अंदर ही अंदर खुश हैं. बहुतों को इसमें एक तरह का ‘परपीडक सुख’ मिल रहा है. यही कारण है कि देश में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के लिए गंभीर और गहरे निहितार्थों से भरे इस फैसले को लेकर वैसी बहस और चर्चा नहीं हो रही है, जैसीकि अपेक्षा थी.
यह संयोग नहीं है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानवाधिकार के लिए लड़ने और बोलने वाली चर्चित आवाजें इस मुद्दे पर खामोश हैं या उतनी मुखर नहीं हैं जितनी अकसर दिखाई पड़ती हैं?
यह भी सिर्फ संयोग नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ पर मानहानि का मुकदमा करनेवाले जस्टिस पी.बी. सावंत सुप्रीम कोर्ट के उदार जजों में माने जाते रहे हैं जिन्होंने वायु तरंगों को सार्वजनिक संपत्ति घोषित करने का ऐतिहासिक फैसला दिया था. इस फैसले ने ही दूरदर्शन-आकाशवाणी को स्वायत्तता देने के साथ-साथ निजी न्यूज चैनलों के लिए प्रसारण को आसान बनाया था.
जस्टिस सावंत बाद में प्रेस काउन्सिल के मुखर और सक्रिय अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने हमेशा अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी के हक में बोला और लिखा. आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन जैसे उदार जज को ‘टाइम्स नाउ’ के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
चैनलों के लिए यह सोच-विचार और आत्मावलोकन का समय है. मामला बहुत गंभीर है. उन्होंने अपने कारनामों से अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को खतरे में डाल दिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में पुणे कोर्ट का फैसला सिर्फ ‘टाइम्स नाउ’ तक सीमित मामला नहीं है.
यह एक तरह से टेस्ट केस है. अगर यह एक नजीर बन गई तो अख़बारों और चैनलों का आज़ादी और निर्भीकता के साथ काम करना बहुत मुश्किल हो जाएगा. इसका सबसे अधिक फायदा ताकतवर लोग और कंपनियां उठाएंगी. वे इस फैसले का दुरुपयोग चैनलों और न्यूज मीडिया को धमकाने और उनका मुंह बंद करने के लिए करने लगेंगे.
आश्चर्य नहीं होगा, अगर इस फैसले से प्रेरणा लेकर ताकतवर राजनेता, अफसर, कारोबारी और कम्पनियाँ सिर्फ परेशान करने के लिए चैनलों और अखबारों पर मुकदमे ठोंकने लगें. कितने अखबार और चैनल ये मुकदमे लड़ने के लिए संसाधन जुटा पायेंगे?
यही नहीं, आखिर कितने चैनल और अखबार १०० करोड़ रूपये का हर्जाना देकर चलते और छपते रह सकते हैं? ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों में कड़े मानहानि कानूनों के कारण पत्रकारिता के तेवर पर असर पड़ा है. समाचार कक्षों में वकील नए गेटकीपर बन गए हैं. खबरों को संपादकों के साथ-साथ वकीलों के चश्मे से भी गुजरना पड़ता है.
इससे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप की स्थिति पैदा हो जायेगी जो वाचडाग पत्रकारिता के लिए घातक साबित हो सकती है. लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि चैनलों को मनमानी करने, जान-बूझकर किसी पर कीचड़ उछालने और लापरवाही करने की छूट देनी चाहिए.
निश्चय ही, चैनलों को खबरों और विजुअल के चयन और प्रस्तुति में तथ्यों, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे सम्पादकीय मूल्यों के पालन पर जोर देना चाहिए. गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए.
लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि तमाम सावधानियों के बावजूद समाचार संकलन और माध्यम के साथ-साथ पत्रकारों की सीमाओं के कारण चैनलों से गलतियाँ होना असामान्य बात नहीं हैं. अलबत्ता, ध्यान दिलाने पर उन गलतियों खासकर तथ्यों सम्बन्धी भूलों को तुरंत दुरुस्त न करना कहीं बड़ी गलती है जो चैनल की बदनीयती को जाहिर करता है.
जाहिर है कि बदनीयती का कोई इलाज नहीं है. ऐसे मामलों में कानून को अपना काम करना चाहिए. लेकिन अपराध और सजा के बीच भी कोई अनुपात, संतुलन और तर्क होना चाहिए. कहने की जरूरत नहीं कि ‘टाइम्स नाउ’ के मामले में अदालत के फैसले में यह संतुलन और अनुपात नहीं है.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी की दुहाईयाँ देनेवाले चैनलों को इस बात का जवाब जरूर देना चाहिए कि वे खुद अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए मानहानि कानून की धमकी क्यों देने लगते हैं?
ऐसे अनेकों मामले हैं जिनमें ‘टाइम्स नाउ’ जैसे बड़े चैनलों ने मीडिया साइटों, ब्लाग लेखकों को ऐसे कानूनी नोटिस भेजे हैं. उनमें अपनी आलोचना सुनने को लेकर इतनी तंगदिली क्यों है? यही नहीं, ‘टाइम्स नाउ’ वह चैनल है जिसने कश्मीर मसले पर अरुंधती राय के बयान को देशद्रोह बताते हुए उनके खिलाफ अभियान चलाया था.
क्या यह दोहराने की जरूरत है कि जो दूसरों की आज़ादी के हक में नहीं खड़ा होता, उसे अपनी आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार रहना चाहिए?
('तहलका' के १५ दिसंबर'११ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
5 टिप्पणियां:
आप उस वीडियो को भी उपल्ब्ध कराते जिसके आधार पर हाई कोर्ट ने यह फ़ैसला दिया तो ज्यादा अच्छा रहता।
सर बहुत ही शानदार लेख है। टाइम्स नाउ को तो एक महीने अपने लिए चिंतन शिविर लगाना चाहिए। हो सके तो अभिव्यक्ति की आजादी और सीमाओं को समझने के लिए कुछ जजों से क्लास लें।
सर बहुत ही शानदार लेख है। टाइम्स नाउ को तो एक महीने अपने लिए चिंतन शिविर लगाना चाहिए। हो सके तो अभिव्यक्ति की आजादी और सीमाओं को समझने के लिए कुछ जजों से क्लास लें।
सर बहुत ही शानदार लेख है। टाइम्स नाउ को तो एक महीने अपने लिए चिंतन शिविर लगाना चाहिए। हो सके तो अभिव्यक्ति की आजादी और सीमाओं को समझने के लिए कुछ जजों से क्लास लें।
सरजी, उम्मीद नहीं थी कि टाइम्स नाउ की गलती की तुलना आप अरुंधती राय के बयान से करेंगे।
ध्यान देना होगा। बयान सिर्फ एक व्यक्ति का होगा, जबकि टीवी जैसे मीडिया संस्थानों में एक बुलेटिन निकालने के लिए कम से के कम दस से पचास लोगों की मदद की जरूरत होती है। ऐसे में थोड़ी बहुत चूक को आप भ्रष्ट लोगों के भ्रष्टाचार और उसकी धृष्टता से जोड़ देंगे तो ये उचित नहीं।
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