शुक्रवार, दिसंबर 02, 2011

मीडिया का सांप्रदायिक पूर्वाग्रह साफ़ दिखता है

न्यूजरूम में मुसलमान पत्रकारों की कमी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को मजबूत करती है  

तीसरी और आखिरी किस्त



निश्चय ही, यह मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग का नतीजा है. इसी पूर्वाग्रह का विस्तार आम मुस्लिम मामलों, समस्याओं और मुद्दों की मीडिया और चैनलों में रिपोर्टिंग और कवरेज में भी दिखाई देती है. कभी गौर से देखिए कि चैनलों में मुस्लिम समुदाय से जुड़ी किस तरह की खबरों को सबसे ज्यादा कवरेज मिलती है?

यही नहीं, मुस्लिम मुद्दों पर समुदाय की राय पेश करने के लिए किन्हें अतिथि के बतौर बुलाया जाता है? आप पाएंगे कि मुस्लिम समुदाय के मुद्दों और समस्याओं के बतौर तलाक और शादी जैसे पर्सनल मामलों, मौलानाओं और मौलवियों द्वारा विभिन्न मामलों पर दिए जानेवाले फतवों, मस्जिद-कब्रिस्तान के झगडों आदि को ही उछाला जाता है.


इन रिपोर्टों से ऐसा लगता है जैसे मुसलमानों में सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य बुनियादी जरूरतों की कोई समस्या ही नहीं है. ऐसा नहीं है कि इन मुद्दों पर कभी रिपोर्ट नहीं आती है लेकिन ऐसी यथार्थपूर्ण रिपोर्टों और गढ़ी हुई अतिरेकपूर्ण रिपोर्टों के बीच का अनुपात ०५:९५ का है. यानी ९५ फीसदी रिपोर्टें एक खास पूर्वाग्रह और सोच के साथ लिखी और पेश की जाती है जो मुस्लिम समुदाय की स्टीरियोटाइप छवियों को ही और मजबूत करती है.

इस पूर्वाग्रह के पीछे एक बड़ा कारण यह माना जाता रहा है कि चैनलों के न्यूज रूम में पर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं है. इस कारण चैनलों की रिपोर्टिंग में वह सेंसिटिविटी नहीं दिखाई पड़ती है.

इसमें कोई शक नहीं है कि चैनलों के न्यूजरूम में मुस्लिम पत्रकारों की संख्या देश की आबादी में उनकी संख्या की तुलना में नगण्य है. निश्चित तौर पर इसका असर चैनलों की रिपोर्टिंग, उसके टोन और एंगल और दृष्टिकोण पर पड़ता है.

यही नहीं, चैनलों में जो मुस्लिम पत्रकार हैं भी, वे नीति निर्णय में प्रभावशाली पदों पर नहीं हैं. जो इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार संपादक हैं भी वे मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ने के डर से अपने चैनलों में कुछ भी अलग नहीं करते हैं.

यह सचमुच अफसोस की बात है कि हिंदी के जिन दो प्रमुख चैनलों में समाचार निदेशक और संपादक के पदों पर मुस्लिम पत्रकार हैं, उन चैनलों में भी आतंकवादी हमलों/बम विस्फोटों की रिपोर्टिंग और कवरेज उतनी ही पूर्वाग्रहग्रस्त, गैर जिम्मेदार, अतिरेकपूर्ण, सनसनीखेज और सांप्रदायिक होती है जितनी अन्य चैनलों की.

लब्बोलुआब यह कि मीडिया और न्यूज चैनलों में गहराई से बैठे सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और द्वेष के कारण मीडिया में मुस्लिम समुदाय और इस्लाम की ऐसी एकांगी छवि गढ़ी गई है जिसके कारण पूरा समुदाय और इस्लाम धर्म न सिर्फ निशाने पर है बल्कि अपने को अलग-थलग महसूस करने लगा है.

('कथादेश' के दिसंबर'११ अंक में प्रकाशित स्तम्भ की तीसरी और आखिरी किस्त)

2 टिप्‍पणियां:

Indra ने कहा…

उम्मीद है कि आपका यह लेख मीडिया संगठनों पर असर डालेगा और मुस्लिम भाइयों को संबल देगा। मै आप से अनुरोध करना चाहूँगा कि इस तरह की खबरें जब भी दिखें तुरन्त आपका एक लेख उस पर आना चाहिए।

कलम की रौशनी ने कहा…

lekin sir....muslim patrkaar kar bhi kya kar sakte hai....agar kuch karenge bhi to naukri se nikal diye jayenge.....