बुधवार, अप्रैल 06, 2011

जनांदोलनों की राह में खड़े हैं नव उदारवादी आर्थिक सुधार और एन.जी.ओ



अरब जगत में जनक्रांति और जनांदोलनों के नए उभार ने भारत में जनांदोलनों की मौजूदा दशा-दिशा को लेकर एक नई बहस शुरू कर दी है. बहुतेरे विश्लेषक इस बात पर हैरानी जाहिर कर रहे हैं कि भारत में भी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक हालात काफी हद तक अरब देशों जैसे ही हैं.

भ्रष्टाचार चरम पर है, क्रोनी कैपिटलिज्म का बोलबाला है, सरकार की साख लगातार गर्त में जा रही है, तमाम संस्थाओं का तेजी से क्षरण हो रहा है, अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार के बावजूद बड़ी आबादी को उसका लाभ नहीं मिल पा रहा है, गैर बराबरी बढ़ रही है, महंगाई आसमान छू रही है, बेरोजगारी दर नए रिकार्ड बना रही है और देश के एक बड़े हिस्से में विद्रोह से हालात हैं. इसके बावजूद क्या कारण है कि भारत में मिस्र या ट्यूनीशिया जैसी जनक्रांति या जनांदोलन नहीं हो रहे हैं?

इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह समझना जरूरी है कि अरब जगत और भारत के बीच कई समानताओं के बावजूद यह तुलना असंगत और बेमानी है. दोनों के बीच सबसे बड़ा फर्क तो यह है कि भारत में एक कार्यकारी लोकतंत्र है और वह तमाम सीमाओं, दबावों और विसंगतियों के बावजूद राजनीतिक बदलाव और अभिव्यक्ति की आज़ादी की उतनी गुंजाइश छोड़ता है कि लोगों के आक्रोश को संघनित होने और फट पड़ने के आसार कमजोर हो जाते हैं.

इसके साथ ही, यह भी मानना पड़ेगा कि साख के गंभीर संकट के बावजूद भारतीय शासक वर्ग ने अभी तक बहुत चतुराई के साथ राजनीतिक चुनौतियों और अंतर्विरोधों को मैनेज किया है.

इसलिए इस प्रश्न में छिपी चिंता और बेचैनी से सहमत होते भी यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जनांदोलन न तो हवा में पैदा होते हैं और न सिर्फ बौद्धिक भावुकता और जुगाली से पैदा होते हैं. हर जनांदोलन अपने देश और काल-परिस्थिति की पैदाइश होता है. यह भी ठीक है कि जनांदोलनों की आग में ही पककर कोई लोकतंत्र और समाज और निखरता है.

असल में, जनांदोलन समाज की सामूहिक इच्छा, आकांक्षा, सोच और परिवर्तन की अभिव्यक्ति होते हैं. जब भी कोई समाज और देश राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक रूप से ठहराव और गतिरोध का शिकार हो जाता है, जनांदोलन ही उसे तोड़ते और नई दिशा देते हैं.

इस मायने में, जनांदोलन किसी समाज और देश की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता की अभिव्यक्ति हैं. इस लिहाज से आज भारत में अनुकूल राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद किसी बड़े, व्यापक और जनतांत्रिक जनांदोलन का न होना एक बड़ी चिंता की बात है. इससे मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और वैचारिक गतिरुद्धता का पता चलता है.

लेकिन इसके साथ ही यह कहना भी बहुत जरूरी है कि आज भी देश के अधिकांश हिस्सों में स्थानीय स्तर पर बहुतेरे जनांदोलन चल रहे हैं. इन जनांदोलनों की सबसे खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और जल, जंगल और जमीन की कारपोरेट लूट के खिलाफ चल रहे हैं.

इनमें कई जनांदोलन स्वतः-स्फूर्त हैं, कई छोटे-छोटे जनसंगठनों या राजनीतिक दलों की अगुवाई में चल रहे हैं, कई संवैधानिक-जनतांत्रिक दायरों में और कुछ उससे बाहर भी चल रहे हैं और कई किसी खास मुद्दे (जैसे नर्मदा बचाओ) पर राष्ट्रीय पहचान भी हासिल कर चुके हैं. तात्पर्य यह कि जमीन पर बहुत बेचैनी और हलचल है.

लेकिन स्थानीय और छोटे-छोटे जनांदोलनों के बीच राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक समन्वय नहीं है, उनके बीच गहरे राजनीतिक मतभेद भी हैं और कई मामलों में व्यक्तिगत मतभेद और अहम की लड़ाइयां भी हैं. इसके अलावा कई आन्दोलनों में किसी एक खास मुद्दे से आगे देखने और उसे एक व्यापक राजनीतिक-वैचारिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ने की दृष्टि का अभाव भी दिखाई देता है.

लेकिन इन महत्वपूर्ण कारणों के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े, व्यापक और जनतांत्रिक जनांदोलन की गैर-मौजूदगी के पीछे और भी कई बड़े कारण हैं. एक बड़ा कारण तो खुद नव उदारवादी अर्थनीति और नई आर्थिक नीतियां हैं. यह बहुत अंतर्विरोधी बात लग सकती है कि जिन नीतियों के खिलाफ देश में सबसे अधिक जनांदोलन चल रहे हैं, वही बड़े जनांदोलनों को खड़े होने से रोक रही है.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और नई आर्थिक नीतियों के साथ देश में एक बड़े मध्य और नव धनिक वर्ग का उदय हुआ है जिसे वास्तव में, इन नीतियों का फायदा मिला है. नतीजा, ये वर्ग न सिर्फ इन नीतियों के खुले समर्थक के रूप में सामने आया है बल्कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण से निकली समृद्धि ने उसकी आँखों पर पट्टी बांध दी है.

जाहिर है कि इस कारण इस प्रभावशाली वर्ग के बड़े और मुखर हिस्से के निहित स्वार्थ इन नीतियों के जारी रहने और मौजूदा व्यवस्था के बने रहने से जुड़ गए हैं. ७०-८० के दशक तक इस मध्य वर्ग की न सिर्फ जनांदोलनों के साथ गहरी सहानुभूति थी बल्कि उसका एक बड़ा हिस्सा इन जनांदोलनों की अगली कतार में भी दिखता था.

लेकिन अब यह वर्ग व्यवस्था के साथ खड़ा दिखता है. उसे मौजूदा व्यवस्था से वैसी गहरी शिकायत और नाराजगी नहीं है, जैसी हाशिए पर धकेल दी गई देश की एक बड़ी आबादी में है. वह अब बुनियादी बदलाव के नहीं बल्कि सुधारों के साथ खड़ा है.

दूसरे, विश्व बैंक के निर्देश पर राष्ट्रीय सरकारों ने भारत समेत तमाम विकासशील देशों में गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ) का जाल सा बिछा दिया है जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मदद और केन्द्रीय-स्थानीय सरकारों के समर्थन से ग्रासरूट स्तर पर लोगों के गुस्से और नाराजगी को समेटने और उन्हें कुछ राहत देने और सीमित और क्रमिक सुधारों की दिशा में मोडना शुरू कर दिया है. इससे व्यवस्था को जनांदोलनों का झटका झेलने के लिए एक तरह कुशन मिल गया है.

एन.जी.ओ ने जनांदोलनों की धार को कमजोर और भोथरा कर दिया है. सच तो यह है कि कई जनांदोलनों का भी धीरे-धीरे एनजीओकरण हो गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये एन.जी.ओ इस व्यवस्था के साथ गहरे नाभिनालबद्ध हैं और उन्होंने व्यवस्था और जनांदोलनों के बीच जबरदस्त घालमेल पैदा कर दिया है.

जाहिर है कि अन्य कई कारणों के साथ इन दोनों कारणों ने भी फिलहाल देश में जनांदोलनों की अग्रगति को रोक दिया है. जनांदोलनों की शक्तियों के लिए यह समय परीक्षा का है. उन्हें जनांदोलनो को न सिर्फ एन.जी.ओ के कब्जे से बाहर निकलना होगा बल्कि अपना एजेंडा व्यापक, खुला और जनतांत्रिक करना होगा और अपनी धार भी तेज करनी होगी.

(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

क्या ये सच नहीं है कि जिस जनांदोलन में दिल्ली का देश दिवास्वप्न देख रहा है और रोमांचित हो रहा है, वो भी ऐसे ही एनजीओ वालों की देन है, जो खुद भी निजी महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं उठ पाए हैं?
amrita