सोमवार, अगस्त 29, 2011

कांग्रेस के सेक्युलर विकल्प के बारे में सोचिये

धर्मनिपेक्षता की लड़ाई को रोजी-रोटी और व्यापक बदलाव की लड़ाई से जोड़े बिना संघ परिवार को अलग-थलग करना मुश्किल है

तीसरी किस्त



भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन से मुस्लिम समुदाय की दूरी साफ दिखाई दी. रामलीला मैदान से लेकर फेसबुक पर इस दूरी को महसूस किया जा सकता है. मुझे कुछ निजी मित्रों और फेसबुक के मुस्लिम साथियों से भी इस आंदोलन को लेकर कई शिकायतें सुनने को मिलीं. कुछ अपवादों को छोडकर सबको लग रहा है कि इस आंदोलन के पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी है. कुछ मित्रों का यह भी कहना है कि इसके पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी न भी हों तो कांग्रेस के खिलाफ अन्ना हजारे की इस मुहिम का फायदा अंततः बी.जे.पी को ही मिलेगा.

भ्रष्टाचार के खिलाफ और व्यापक बदलाव के जनांदोलनों को मुस्लिम समुदाय में मौजूद इन आशंकाओं और चिंताओं को समझना पड़ेगा. इनमें से कई आशंकाएं और चिंताएं वास्तविक हैं, कुछ आंशिक रूप से सही हैं और गंभीर बहस और संवाद की मांग करती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आंदोलन की पहचान से बन गए कई प्रतीकों खासकर “वंदे मातरम और भारत माता की जय” जैसे नारे, पिछली बार मंच पर लगी भारत माता की तस्वीर, मंच पर भांति-भांति के साधुओं-धर्मगुरुओं और बाबाओं की मौजूदगी, रामधुन और फ़िल्मी देशभक्ति के गानों के बीच लहराते तिरंगों के अलावा खुद अन्ना हजारे के अतीत में दिए नरेंद्र मोदी और राज ठाकरे समर्थक बयानों से मुस्लिम समुदाय में शक, डर और आशंकाएं बढ़ी हैं.

इसकी वजह यह है कि इनमें से कई प्रतीक संघ परिवार की पहचान से बहुत गहराई से जुड़े रहे हैं. यह ठीक है कि इन प्रतीकों खासकर नारों का एक लंबा इतिहास है और वे आज़ादी की लड़ाई के अभिन्न हिस्से रहे हैं. इस कारण गांधीवादी अन्ना हजारे में उन नारों, तस्वीरों और गीतों के प्रति अतिरिक्त आकर्षण हो सकता है. इसके साथ ही, यह भी सच है कि आंदोलन के दौरान मंच से और लोगों के बीच ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ जैसा नारा भी खूब लगा. पिछली बार मंच पर भगत सिंह की तस्वीर भी थी. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौर में भी कुछ नारों, प्रतीकों को लेकर विवाद और बहस रहा है.

यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आज़ादी के बाद पिछले कुछ दशकों में ये नारे संघ परिवारी संगठनों के ट्रेड मार्क से बन गए हैं. हालांकि सिर्फ इस कारण कुछ नारों-प्रतीकों को सांप्रदायिक मान लेना और उन्हें संघ परिवार के हवाले कर देना उचित नहीं है लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसा हो गया है. अच्छा होता कि इनसे बचा जाता. इससे न सिर्फ आंदोलन का दायरा बढ़ता बल्कि ऐसे आरोप लगानेवालों खासकर लोगों को बांटकर अपना उल्लू सीधा करनेवाली कांग्रेस जैसी कथित सेक्युलर पार्टियों को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिलता.


प्रतीकों की राजनीति की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं


अगर इस आंदोलन को आगे जाना है और बड़ी लड़ाईयां लड़नी हैं तो उसे नए नारे और प्रतीक गढ़ने होंगे और संकीर्ण नारों-प्रतीकों के बजाय आज़ादी के आंदोलन के उन नारों-प्रतीकों को पकडना होगा जिनकी व्यापक अपील रही है. लेकिन यह कहने के बाद यह कहना भी उतना ही जरूरी है कि प्रतीकों की राजनीति की अपनी सीमाएं होती हैं और कई बार प्रतीकों की राजनीति को साधने के चक्कर में समझौते भी करने पड़ते हैं. जैसे इस आंदोलन में भी शुरू में बाबा रामदेव, श्री-श्री रविशंकर से लेकर मौलाना महमूद मदनी और फादर विन्सेंट तक का मजमा जुटाने की कोशिश की गई थी. लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ, यह किसी से छुपा नहीं है.

लेकिन यहाँ स्पष्ट करना भी जरूरी है कि सिर्फ कुछ नारों-प्रतीकों और व्यक्तियों के आधार पर पूरे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को ख़ारिज कर देना और उसे संघ परिवार की साजिश मान लेना भी एक राजनीतिक भूल है. असल मुद्दा यह है कि ये नारे लगानेवाले क्या किसी सांप्रदायिक मुहिम के हिस्सा हैं? क्या वे किसी संप्रदाय या वर्ग के खिलाफ सडकों पर उतरे हैं? क्या अन्ना हजारे और उनके साथी प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी सांप्रदायिक जमात से जुड़े या संबंधित रहे हैं? क्या उनके मांगपत्र में कोई सांप्रदायिक मांग भी थी या है?

अगर इन सवालों के जवाब नहीं में हैं तो किस आधार पर इस आंदोलन को सांप्रदायिक आंदोलन बताया जा रहा है? इसके उलट सच यह भी है कि अगर इस आंदोलन के दौरान वंदे मातरम और भारत माता की जय के नारे लग रहे थे तो इंकलाब जिंदाबाद भी उतनी ही शिद्दत से गूंज रहा था. इसी तरह, इस बार मंच पर भारतमाता की तस्वीर नहीं थी. इसके अलावा इस आंदोलन के नेतृत्व में प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और अखिल गोगोई जैसे जनपक्षधर, धर्मनिरपेक्ष और जुझारू मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और किसान नेता शामिल थे. क्या इनकी धर्मनिरपेक्षता पर कोई सवाल उठाया जा सकता है?

इस सबके साथ यह भी याद रखना जरूरी है कि यह किसी वाम और रैडिकल संगठन का आंदोलन नहीं था. इसमें लिबरल, लोकतान्त्रिक और अराजनीतिक यानि हर तरह के लोग थे और जैसाकि बड़े जनांदोलनों के साथ होता है, इसमें भी समाज के विभिन्न वर्गों और उनके सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लोग शामिल होते गए. यह बहुत संगठित आंदोलन नहीं था और इसमें स्वतः स्फूर्तता का योगदान बहुत था. इसके कारण स्वाभाविक तौर कई कमजोरियां दिखीं.

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और आर.एस.एस का हव्वा

यह देखना भी जरूरी है कि इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश कौन बता रहा है और उसके पीछे उसका क्या मकसद है? वाम और रैडिकल बुद्धिजीवियों की वाजिब शिकायतों को छोड़ दिया जाए तो यह आरोप मुख्यतः कांग्रेस की ओर से आ रहा है. उसका मकसद किसी से छुपा नहीं है. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी कांग्रेस इस आंदोलन के निशाने पर है और उसकी बौखलाहट स्वाभाविक है. वह इस आंदोलन को तोड़ने और कमजोर करने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सभी हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है. इन्हीं हथकंडों में से एक हथकंडा इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश बताना है.

लेकिन अगर यह आंदोलन आर.एस.एस की साजिश होता और उसके इशारे पर चल रहा होता तो बी.जे.पी शुरू से खुलकर इसके साथ होती. लेकिन सच यह है कि जन लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस और बी.जे.पी के स्टैंड में कोई खास फर्क नहीं था. खुद लाल कृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली कई बार इस आंदोलन की मुख्य मांग से असहमति जता चुके थे. इसी तरह, इस आंदोलन के एक प्रमुख नेता जस्टिस संतोष हेगड़े की अवैध खनन पर रिपोर्ट के कारण कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को जाना पड़ा और भाजपा की खूब किरकिरी हुई. यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तेज होने से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के लिए भी मुंह दिखाना मुश्किल हो रहा था.

आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के गिरते राजनीतिक ग्राफ के बावजूद भाजपा अभी भी चढ़ नहीं पा रही है क्योंकि लोग उसकी भी असलियत समझ चुके हैं. इस आंदोलन को लेकर उसके बदलते रुख के और लगातार दायें-बाएं करने के कारण न सिर्फ उसकी भी फजीहत हुई बल्कि लोगों के गुस्से का निशाना बनना पड़ा. इसके बावजूद कांग्रेस भाजपा की पुनर्वापसी का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को इस आंदोलन से दूर और अपने पीछे खड़ा रखने का खेल, खेल रही है. ऐसा करते हुए कांग्रेस खुद को धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम समाज के सबसे बड़े खैरख्वाह के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. इस आंदोलन की अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण वह कुछ हद तक कामयाब होती भी दिख रही है.

लेकिन कांग्रेस की ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बारे में क्या कहा जाए? उसके पिछले इतिहास को एक मिनट के लिए भूल भी जाएं तो धर्मनिरपेक्षता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का आलम यह है कि मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक पिछडेपन को दूर करने के बारे में जस्टिस राजेंदर सच्चर और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट पिछले कई सालों से ठन्डे बस्ते में पड़ी है लेकिन यू.पी.ए सरकार एक कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है. इसी तरह, एन.ए.सी के आगे बढाने के बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक संसद में पेश करने में सरकार के हाथ-पाँव काँप रहे हैं.

यही नहीं, इन दिनों कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते ऐसी दांतकाटी दोस्ती चल रही है कि न सिर्फ दोनों एक-दूसरे के संकट में मदद के लिए खड़े हो जा रहे हैं जैसे जन लोकपाल के मुद्दे पर संसद में पेश प्रस्ताव कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने मिलकर तैयार किया. भाजपा की इस मदद के बदले में सरकार ने हिंदू आतंकवादी समूहों की जांच धीमी कर दी है.

एक और नमूना देखिए, सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार द्वारा गठित-पोषित सलवा जुडूम को अवैध घोषित कर दिया लेकिन उसकी मदद में यू.पी.ए सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने जा रही है. सच पूछिए तो कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता का सवाल सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का नहीं बल्कि भाजपा का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का रहा है.

इसके बावजूद ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिससे पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते अच्छी समझदारी और लेन-देन का खेल चल रहा है. असल में, इन दोनों की राजनीति यह है कि राष्ट्रीय राजनीतिक स्पेस को मिलजुलकर कब्जे में रखा जाए. इसके लिए दोनों एक-दूसरे की राजनीतिक मदद करने में भी पीछे नहीं रहते हैं. इस मामले में निस्संदेह, भाजपा की सबसे अच्छी दोस्त कांग्रेस है जो अपनी कारगुजारियों से उसकी वापसी की राजनीतिक जमीन तैयार करने में लगी है.

धर्मनिरपेक्षता को कांग्रेस के भरोसे छोड़ने के खतरे


सच पूछिए तो भाजपा के राजनीतिक पुनरुज्जीवन के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नहीं बल्कि खुद कांग्रेस सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. भाजपा अगर आएगी तो इसलिए कि कांग्रेस उसे यह मौका दे रही है. अगर कांग्रेस भ्रष्टाचार से दूर रहती, महंगाई पर लगाम लगाती और गरीबों के हित में कदम उठा रही होती तो भाजपा के लिए मौका कहाँ आता? पिछले आम चुनावों के बाद भाजपा जिस मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई थी, उसे फिर से खाद-पानी किसने दिया है? मुख्य विपक्षी दल होने और तीसरे मोर्चे की दुर्गति के कारण कांग्रेस की राजनीतिक गलतियों और अपराधों का फायदा स्वाभाविक तौर पर भाजपा को मिलेगा. मौजूदा राजनीतिक और चुनावी ढांचे में इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.

तथ्य यह है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के शुरू होने तक भाजपा ने ही कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक मोर्चा खोल रखा था. वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से राजनीतिक कमाई करने के लिए खूब जोर लगाये हुए थी लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में खुद उसकी गन्दी कमीज किसी से छुपी नहीं थी. इसलिए उसकी मुहिम को कोई खास सफलता नहीं मिल रही थी.

अलबत्ता, तमिलनाडु चुनावों में जयललिता बाजी मार गईं जबकि केरल में वाम मोर्चे के हाथ बाजी आते-आते रह गई. इससे साफ था कि कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ नीचे गिर रहा है. कांग्रेस की राजनीतिक ढलान की अन्य वजहों में आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और जगन मोहन रेड्डी के मुद्दे पर आगे कुआं, पीछे खाई में फंस जाना और महाराष्ट्र जैसे राज्य में शासन पर पकड़ ढीली पड़ते जाना भी है.

साफ है कि कांग्रेस अपने ही भूलों, कमजोरियों और गलतियों के कारण लड़खड़ा रही है. लेकिन लगता नहीं कि कांग्रेस ने इनसे कुछ सीखा है. उलटे भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस के टालमटोल के रवैये से लोगों का गुस्सा फूट कर सड़कों पर आ गया. भाजपा इसका फायदा जरूर उठाने की कोशिश करेगी लेकिन यह उतना आसान नहीं होगा.

जन लोकपाल के मुद्दे पर हुए आंदोलन ने भाजपा को भी एक्सपोज कर दिया है. इस आंदोलन का सबसे बड़ा राजनीतिक योगदान यह है कि इसने कांग्रेस के विकल्प के रूप में खुद को पेश कर रही भाजपा के दावे पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. इससे कांग्रेस और भाजपा से इतर एक नए विकल्प की सम्भावना बनी है.

असल में, साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई का सबसे बड़ा सबक यह है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने और राजनीति में अलग-थलग करने के लिए कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज जरूरी है. इसके बिना भाजपा को रोकना मुश्किल है. यही नहीं, जो लोग भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस पर दाँव लगा रहे हैं, वे बड़ी भूल कर रहे हैं. इस अर्थ में , कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज किसी पिटे-पिटाए और अविश्वसनीय तीसरे मोर्चे पर दाँव लगाने के बजाय किसी व्यापक जन आंदोलन से निकलनेवाले विकल्प की ओर ले जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ये सम्भावना है. इस आंदोलन के दायरे के बढ़ने और उसमें देश भर में चल रहे जनांदोलनों के जुड़ने से इस सम्भावना के हकीकत बनने की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अगर मुस्लिम समुदाय इस जनतांत्रिक आंदोलन से दूर रहता है तो वह जाने-अनजाने भाजपा की मदद करेगा.

जाहिर है कि इससे बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो सकती है. इस सिलसिले में अंतिम बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई भी लड़ाई जनविरोधी नीतियों को लागू कर रही कांग्रेस के साथ नहीं बल्कि उसके खिलाफ खड़े होकर और उसे रोजी-रोटी और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों से जोड़कर ही आगे बढ़ाई जा सकती है.



जारी...आगे बात करेंगे संसद और संविधान के साथ आन्दोलनों के संबंधों की...अपनी प्रतिक्रियाएं भेजते रहिये... 

रविवार, अगस्त 28, 2011

कौन न मर जाए इनकी सादगी पर ए खुदा....


आँखें खोलिए इसमें आपको नए दौर के जनांदोलनों की धमक सुनाई देगी

दूसरी किस्त

पिछले कुछ दिन मेरे लिए बहुत पीड़ा और जबरदस्त आत्मसंघर्ष के रहे हैं. अपने कई मित्रों और बुद्धिजीवियों जिनके प्रति मेरे मन में बहुत आदर और वैचारिक दोस्ताना है और रहेगा, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन पर उनके रुख के कारण उनसे असहमतियां और दूरी बढ़ी है.

कई बार यह असहमतियां कटुता की हद तक पहुँच गई हैं, एक-दूसरे पर व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं और कुछ साथी गली-गलौज और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप पर भी उतर आए. अरुंधती राय से लेकर अनेक निजी मित्रों और यहाँ तक कि पत्नी अमृता राय की सोच के विपरीत खड़ा होने के अलगाव और पीड़ा का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं.

हालांकि यह पहली बार नहीं है. १९८९-९२ के बीच बाबरी मस्जिद को लेकर चले सांप्रदायिक फासीवादी अभियान और उसके बाद मंडल कमीशन के जरिये पिछड़े वर्गों के लिए २७ फीसदी आरक्षण लागू करने के खिलाफ हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान हमारे रूख के कारण मेरे कई निजी मित्र खिलाफ हो गए. यह वह दौर था जब अधिकांश कांग्रेसी रातों-रात भगवा हो चुके थे और आरक्षण विरोधियों के आगे बोलने का मतलब पिटाई और सार्वजनिक अपमान को आमंत्रित करना था.

इसके बावजूद बी.एच.यू में हम सिर्फ मुट्ठी भर लोग थे जो खुलकर भगवा साम्प्रदायिकता और आरक्षण विरोधी सामंती-जातिवादी शक्तियों के खिलाफ बोल रहे थे और गालियाँ सुन रहे थे. अपने कुछ साथियों के साथ मारपीट भी हुई.

लेकिन हम डटे रहे और अपनी बात जोर-शोर से कहते रहे. दबाव इतना अधिक था कि छात्रसंघ चुनावों के दौरान ब्रोचा छात्रावास की सभा में आरक्षण का समर्थन कर रहे छात्र जनता के सवर्ण और बाहुबली प्रत्याशी ने कह दिया कि वह आरक्षण के विरोध में है. हम आरक्षण के समर्थन में थे. आइसा ने नारा दिया कि ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए, जीने का अधिकार चाहिए.’

इलाहाबाद में आइसा के नेतृत्व में छात्रों ने विहिप नेता अशोक सिंघल को यूनिवर्सिटी से खदेड़ दिया. इसके बाद का इतिहास सबको पता है. इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमायूं और जे.एन.यू विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनावों में आइसा की जीत हुई.

उससे पहले, पंजाब में आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पहले इंदिरा गाँधी और फिर राजीव गाँधी सरकार ने जो उन्माद पैदा किया था, उसके खिलाफ बोलना देशद्रोह से कम नहीं था. इसके बावजूद राजीव सरकार द्वारा लाये गए काले कानून ५९ वें संविधान संशोधन के खिलाफ बनारस में राष्ट्रीय सम्मेलन करवाने में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.

बाबरी मस्जिद के खिलाफ सांप्रदायिक अभियान के दौरान अखबारों की सांप्रदायिक और निहायत ही शर्मनाक भूमिका के खिलाफ प्रेस काउन्सिल की टीम से शिकायत करनेवालों में आगे रहे जिसका खामियाजा यह भुगता कि अगले कई महीनों तक बनारस के अखबारों में आइसा की प्रेस विज्ञप्तियों को बैन कर दिया गया, धरना-प्रदर्शन की रिपोर्टों से हमारे नाम हटा दिए जाते थे.

लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि हम अलग-थलग पड़ गए हैं, कभी अपने स्टैंड को लेकर सफाई देने की जरूरत नहीं महसूस की और खम ठोंकर लड़ते रहे. लेकिन पहली बार एक अलगाव सा महसूस हो रहा है जबकि इस बार हम “भीड़” के साथ हैं. कुछ असहज सा महसूस हो रहा है. खासकर दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों में इस आंदोलन को लेकर साफ तौर पर दिख रहे डर, शक और आशंकाओं के कारण यह असहजता बढ़ी है.

बेशक, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है. फिर भी कहना चाहूँगा कि अन्ना के जन लोकपाल आंदोलन को लेकर अपने कई वाम मित्रों और बुद्धिजीवियों की कुछ आलोचनाओं और असहमतियों से आंशिक सहमति के बावजूद उनके अंतिम निष्कर्षों से असहमत हूँ.

मैं यह भी जानता हूँ कि आनेवाले सप्ताहों और महीनों में अनेकों मुद्दों और बड़े सवालों पर हम फिर साथ होंगे और कई नई बहसें भी होंगी. असल में, हमारी एकता और मित्रता की बुनियाद ये बहसें भी हैं. निश्चय ही, ऐसी बहसों से कई बार धुंधली सी दिख रही चीजें साफ़ होती हैं. इस आंदोलन के प्रति अपनी राय पहले के एक पोस्ट में भी रख चुका हूँ, इसलिए उसे यहाँ नहीं दोहराऊंगा. आइये, उससे आगे कुछ और मुद्दों और सवालों पर बहस को आगे बढ़ाएं.

आखिर इन आरोपों को बार-बार क्यों दोहराना पड़ रहा है?

इस आंदोलन की सबसे ज्यादा आलोचना इस बात के लिए हुई है कि इसे आर.एस.एस और हिंदू सांप्रदायिक संगठन चला रहे हैं और इसमें शामिल “उन्मादी और हिंदू अंधराष्ट्रवादी भीड़” में मुख्यतः “शहरी हिंदू-सवर्ण इलीट” हैं जो आरक्षण विरोधी भी हैं. इन आरोपों के प्रमाण के बतौर आर.एस.एस/बी.जे.पी नेताओं के इस आंदोलन के समर्थन में दिए बयानों, उनके कुछ नेताओं खासकर वरुण गाँधी के रामलीला मैदान में पहुँचने, आरक्षण विरोधी संगठन- यूथ फार इक्वालिटी की सक्रियता से लेकर इस आंदोलन में लगाये जा रहे नारों – ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ और तिरंगे फहराने को पेश किया जा रहा है.

पहली बात तो यह है कि इस आंदोलन में सिर्फ यही वर्ग नहीं हैं बल्कि सबसे ज्यादा इसमें निम्न मध्यवर्गीय शहरियों, छात्र-नौजवानों, छोटे दुकानदारों, व्यापारियों, नई अर्थव्यवस्था के प्रोफेशनलों के अलावा समाज के सभी वर्गों के लोग शामिल हैं. दिल्ली-मुंबई से बाहर निकलने पर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों और यहाँ तक कि गांवों में भी आम किसान, मजदूर, गरीब, नौजवान और कमजोर वर्ग के लोग भी जुलूसों-धरना और प्रदर्शनों में शामिल हुए हैं. ये भी सच है कि इनमें से सभी सिर्फ जन लोकपाल के लिए ही नहीं बल्कि अपनी समस्याओं और तकलीफों के साथ-साथ एक बड़े बदलाव की उम्मीद में इस आंदोलन के साथ जुड़े हैं.

सच पूछिए तो इसमें शामिल लोगों में इतनी विविधता दिखती है कि इसके आलोचकों को इसे आर.एस.एस या आरक्षण विरोधी वाई.एफ.इ का आंदोलन साबित करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ रही है. याद रखिये कि इससे पहले बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले सांप्रदायिक फासीवादी अभियान या आरक्षण विरोधी आन्दोलनों को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी. उसके लिए प्रमाण जुटाने में इतना पसीना नहीं बहाना पड़ा था.

इसका अर्थ यह है कि इस आंदोलन में ऐसा बहुत कुछ है जिसके कारण इसकी पहचान बताने के लिए मित्रों को इतना जोर लगाना पड़ रहा है. साफ है कि जो मित्र इसे “शहरी-हिंदू-सवर्ण और इलीट” और तिरंगा लहरानेवाली “अंधराष्ट्रवादी उन्मादी भीड़” बता रहे हैं, उन्होंने या तो निष्कर्ष पहले से तय कर लिया था और उसके लिए जान-बूझकर कुछ तथ्यों को अनदेखा किया और कुछ को जरूरत से ज्यादा उछाला या फिर लगता है कि वे मौजूदा दौर की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाइयों को अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं. इस कारण वे इस आंदोलन को पहले से बने बनाए वैचारिक सांचे में जांचने-परखने की कोशिश कर रहे हैं.

नई अर्थव्यवस्था के मजदूरों और उनकी तकलीफों को पहचानिये

मैं रामलीला मैदान और इससे पहले अप्रैल में जंतर-मंतर पर गया था. कुछ मित्र जिन्हें “खाए-पिए-अघाये” मध्यवर्ग बता रहे हैं और जो उनके मुताबिक, “संसद, संविधान और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं” को उलटने की तैयारी के साथ इस आंदोलन में कूदा है और जिसे “कारपोरेट पूंजी और उससे निर्देशित मीडिया” का पूरा समर्थन मिल रहा है, उन मित्रों की कल्पनाशक्ति, तर्कशक्ति और राजनीतिक समझ की दाद देनी पड़ेगी.

अगर वह “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग है तो इसका मतलब इस व्यवस्था के बने रहने में उसका निहित स्वार्थ है. फिर वह इस व्यवस्था को “ऊपर से पलटने” की कोशिश क्यों कर रहा है? क्या इसलिए कि “राज्य और उसकी शक्तियों और सार्वजनिक सेवाओं को और अधिक निजी हाथों यानि बड़ी कारपोरेट पूंजी” को सौंपा जा सके?

असल में, जिसे “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग बताया जा रहा है, वह कौन है? अगर गौर से देखें तो वह भारतीय अर्थव्यवस्था में पिछले बीस वर्षों में खासकर शहरों में तेजी से फले-फूले और लगातार फैलते सेवा क्षेत्र में काम करनेवाला २० से लेकर ४० वर्ष का वह युवा है जो औसतन १० से लेकर २५ हजार रुपये महीने की तनख्वाह पर काल सेंटरों, होटलों-रेस्तराओं, शापिंग मालों, स्टोर्स, टेलीकाम-बैंक-बीमा-वित्तीय संस्थाओं, मार्केटिंग, सेल्स, प्राइवेट स्कूलों से लेकर मीडिया आदि विभिन्न सेवा क्षेत्रों में काम कर रहा है. अगर इनमें आटोमोबाइल से लेकर उपभोक्ता सामान बनानेवाली मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के कुशल और अकुशल मजदूरों को जोड़ दिया जाए तो नई अर्थव्यवस्था के इन नए श्रमिकों का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है.

निश्चय ही, नई अर्थव्यवस्था के इन सेवाकर्मियों की तनख्वाहें और उनका रहन-सहन देश के असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले उन ७८ फीसद श्रमिकों की तुलना में काफी बेहतर है जो सिर्फ २० रूपये प्रतिदिन पर गुजारा करने के लिए मजबूर हैं. लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि अपेक्षाकृत बेहतर वेतन के बावजूद शहरों में लगातार बढ़ती महंगाई और दैनिक रहन-सहन की बढ़ती लागत ने इन तनख्वाहों को भी बेमानी बना दिया है. अधिकतर शहरी परिवारों में पति-पत्नी दोनों के काम किये बिना गुजर मुश्किल है.

यही नहीं, नई अर्थव्यवस्था के उजाले के पीछे का गहरा और घुटन भरा अँधेरा भी कम लोगों को दिखाई देता है. तथ्य यह है कि इन सेवाकर्मियों की सेवाशर्तें बहुत बदतर हैं. कोई जाब सेक्युरिटी नहीं है. श्रमिकों को मिलनेवाली कानूनी सुविधाएँ भी नहीं मिलती हैं. काम के लंबे, थकाऊ और तनाव भरे घंटों के बावजूद छुट्टी से लेकर स्वास्थ्य सुविधा का कोई ठिकाना नहीं है.

ऊपर से बैक, कार, टी.वी-फ्रिज से लेकर घर की खातिर लिए गए बैंक लोन की ई.एम.आई का दबाव. ऐसा लगता है जैसे इसमें काम करनेवालों का कोई भविष्य नहीं है. आप कभी इन युवाओं से बात करें, आपको उनकी कुंठा, चिंता, निराशा-हताशा, आशंकाओं, मुश्किलों का अंदाज़ा लगेगा. नई अर्थव्यवस्था के इन सबसे बड़े पैरोकारों का इससे मोहभंग होने लगा है.

यह सही है कि किसी बड़े लोकतान्त्रिक आंदोलन में शिक्षित-प्रशिक्षित न होने के कारण उसके अंदर राजनीति को लेकर एक खास तरह की नाराजगी, उब और नफ़रत भी है. यह भी सही है कि कई मौकों पर उसकी कुंठा-निराशा आक्रामक राष्ट्रवाद और अराजनीतिक भड़ासों में जैसे वर्ल्ड कप में जीत में तिरंगा फहराने में निकलती रही है.

यह भी सही है कि इसका एक बहुत छोटा हिस्सा ९० के दशक और २००६-०७ के आसपास आरक्षण विरोधी या उससे पहले सांप्रदायिक फासीवादी अभियानों में भी शामिल रहा है. लेकिन यह भी सच है कि वह अब वहीँ नहीं खड़ा है और उसने पिछले और उसके पहले के चुनावों में बी.जे.पी के खिलाफ वोट दिया है.

आर.एस.एस अप्रासंगिक हो रहा है, उससे डरने की नहीं उसे और अलग-थलग करने की जरूरत है

यही नहीं, वह आर.एस.एस के सांप्रदायिक फासीवाद की असलियत समझ चुका है. आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में आर.एस.एस की शाखाओं में न सिर्फ युवाओं की संख्या घटी है बल्कि इस कारण उनकी कुल शाखाओं में गिरावट आई है. सच यह है कि धीरे-धीरे आर.एस.एस अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है. इसके बावजूद मैं सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को कम करके नहीं आंकने की भूल नहीं करूँगा.

बेशक, आर.एस.एस और उसके सहोदरों को अलग-थलग करने और उनके खिलाफ राजनीतिक-वैचारिक अभियान जारी रहना चाहिए लेकिन मैं उसके खतरे को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के पक्ष में भी नहीं हूँ. निश्चय ही, कांग्रेस और कुछ कथित सेक्युलर राजनीतिक दलों और नेताओं को यह मुफीद बैठता है लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता की असलियत अब किसी से छुपी नहीं है.

बहरहाल, यह पहली बार है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जरिये नई अर्थव्यवस्था का यह मध्यमवर्गीय मजदूर तबका अपनी सीमित, अकेली और बंद दुनिया से न सिर्फ बाहर आया बल्कि मौजूदा व्यवस्था में व्यापक बदलाव के प्रति उसकी ललक साफ़ दिखी. सबसे बड़ी बात यह कि उसका जबरदस्त राजनीतिकरण हुआ है.

वह आज की राजनीति पर बात कर रहा है, उसके विकल्पों पर बात करने और सुनने के लिए तैयार दिख रहा है और इस आंदोलन को आगे ले जाने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रहा है. निश्चय ही, बड़े बदलाव के वाम-रैडिकल आन्दोलनों के लिए जमीन तैयार है और वाम-रैडिकल राजनीतिक शक्तियों को यह मौका नहीं गंवाना चाहिए.

आप अब भी चाहें तो इसे “खाया-पिया-अघाया” मध्यवर्ग कहें लेकिन मुझे तो यही आज और खासकर भविष्य का मजदूर वर्ग दिखता है. याद रखिये, अगले १०-१५ वर्षों में देश में गांवों से ज्यादा लोग शहरों में होंगे और उनमें से सबसे ज्यादा इसी नई ‘होटल-रेस्तरों’ अर्थव्यवस्था (गेल ओम्वेट से उधार) में काम कर रहे होंगे. और हाँ, उसमें सबसे ज्यादा दलित-पिछड़े ही होंगे.

यही नहीं, देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय और हजारों कालेज परिसरों में लाखों छात्र एक अनिश्चित भविष्य की आशंकाओं के बीच बेचैन और अपनी राह खोज रहे हैं. क्या इन्हें अनदेखा करके देश में कोई भी जनतांत्रिक आंदोलन चल सकेगा या सफल हो सकेगा? यहाँ तक कि किसानों-मजदूरों-आदिवासियों-दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों के तबकाई आंदोलन भी बिना इन्हें साथ लिए कामयाब नहीं हो सकते हैं.

इसलिए मित्रों, नई अर्थव्यवस्था के इन मजदूरों और छात्र-युवाओं के राष्ट्रीय राजनीतिक रंगमंच पर आगमन का अभिनन्दन कीजिये. इससे डरने की नहीं, इसका स्वागत करने की जरूरत है. इसमें बहुत संभावनाएं हैं.

जारी...कल तीसरी किस्त में इस आन्दोलन और साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई के बारें में कुछ और बातें करेंगे...  अपनी राय बताते रहिये...

शनिवार, अगस्त 27, 2011

अन्ना आंदोलन की आलोचनाओं को ध्यान से सुनिए



राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से डरा हुआ क्यों है?


पहली किस्त

उमड़-घुमड़ कर बरसते बादलों के बीच उमस भरे मौसम और देश के गर्म होते राजनीतिक माहौल के बीच लोगों में बेचैनी बढ़ती जा रही है. भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल के समर्थन में शुरू हुए आंदोलन ने जहाँ एक ओर इस बेचैनी को पकड़ा है और लोगों के गुस्से को बाहर निकलने की जमीन दी है, वहीँ दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों की बेचैनी बढ़ा दी है. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस आंदोलन और उससे अधिक इससे पैदा हो रहे नए राजनीतिक हालात से कैसे निपटें?

आश्चर्य नहीं कि कुछ वास्तविक और कुछ दिखावटी मतभेदों के बावजूद मुख्यधारा के लगभग सभी राजनीतिक दल इस मामले में एकजुट हो गए हैं कि इस आंदोलन को किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देना है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री के न्यौते पर आयोजित “सर्वदलीय” बैठक में संसद की सर्वोच्चता के समूह गान के साथ-साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की जन लोकपाल को निश्चित समय सीमा के अंदर संसद में पास करने की मांग को ठुकरा दिया गया.

हालांकि इस आंदोलन से पैदा हुई सरकार विरोधी भावनाओं में अपना-अपना हिस्सा पाने के लिए सभी विपक्षी दल बेचैन हैं लेकिन इसके लिए वे भी तैयार नहीं हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन लोकपाल जैसी कोई ‘प्रभावी और सशक्त’ संस्था बने.

मजे की बात यह है कि जन भावनाओं के दबाव में सत्ता पक्ष या विपक्ष के लगभग सभी दल एक ‘प्रभावी और सशक्त लोकपाल’ के गठन की बातें कर रहे हैं. लेकिन संसद में मौजूद लगभग सभी दलों को लगता है कि लोकतंत्र में जन लोकपाल जैसा “अलोकतांत्रिक, सर्वशक्तिमान, सभी संस्थाओं से ऊपर, निरंकुश और अनुत्तरदायी” निकाय का गठन संविधान की मूल भावना और लोकतान्त्रिक मूल्यों और उसूलों के खिलाफ है. लेकिन किसी गलतफहमी में मत रहिए कि वे इस कारण जन लोकपाल का विरोध कर रहे हैं. यह सिर्फ आवरण है. सच्चाई कुछ और है.

सच यह है कि वे जन लोकपाल के उतने विरोधी नहीं हैं जितने इस बात से बौखलाए हुए हैं कि देश भर में हजारों-लाखों की संख्या में लोग सडकों पर उतर कर न सिर्फ इस तरह का कड़ा कानून बनाने की मांग कर रहे हैं बल्कि उन्हें अपना नौकर बताकर उनसे हिसाब मांग रहे हैं और उन्हें निर्देशित करने की कोशिश कर रहे हैं. असल में, उन्हें इस आंदोलन की मुख्य मांग जन लोकपाल से उतनी समस्या नहीं है जितनी इस आंदोलन से हो रहे राजनीतिकरण और आम लोगों के लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सीधी भागीदारी से है.

मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इसके दूरगामी नतीजों से डर लग रहा है. उनका पहला डर यह है कि कहीं मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का दायरा और न फैल जाए और उसमें बड़े और व्यापक नीतिगत मुद्दे न जुड़ने लगें. उसकी यह आशंका निराधार नहीं है. पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में एक ओर सी.पी.आई-एम.एल और आइसा-आर.वाई.ए जैसे जुझारू वाम दलों और जन संगठनों ने उसे जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट और नव उदारवादी अर्थनीति से जोड़कर और काले कानूनों और राज्य दमन के खिलाफ आंदोलन तेज किया है, वहीँ अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहे अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान भी कंपनियों द्वारा किसानों की जमीन छीनने, शिक्षा-स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण और चुनाव सुधार जैसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, उससे साफ़ है कि यह आंदोलन जन लोकपाल के गठन पर नहीं रुकनेवाला है.

बहुतेरे वाम और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों, दलित चिंतकों और राजनीतिक विश्लेषकों को यह भले दिख न रहा हो लेकिन राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को यह साफ़ दिख रहा है. इसलिए उसकी घबराहट को समझना मुश्किल नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में रैडिकल वाम से लेकर असम में अखिल गोगोई के किसान संग्राम समिति जैसे प्रगतिशील जनसंगठनों की भागीदारी बढ़ती जाती है और इसी तरह उसके मुद्दे और व्यापक नीतिगत सवालों की ओर जाते हैं तो राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान (कारपोरेट इसका अभिन्न अंग है) के लिए जनांदोलनों की बाढ़ को संभाल पाना मुश्किल हो जाएगा. यही नहीं, इन जनांदोलनों से नई वैकल्पिक राजनीति के रास्ते भी खुल सकते हैं.

दूसरे, राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को यह डर सता रहा है कि अगर जन लोकपाल के सवाल पर झुके तो वैचारिक-राजनीतिक रूप लोकतंत्र में लोकशक्ति की सर्वोच्चता को स्वीकार करना पड़ेगा जिसे अब तक संविधान, संसद और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की आड़ में नकारने की कोशिश की जा रही है. यही नहीं, इससे लोकशक्ति का आत्मविश्वास और उत्साह बढ़ जाएगा और फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. जनांदोलनों की बाढ़ सी आ जायेगी. यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा डर नहीं है. जब युवराज राहुल गाँधी संसद में कहते हैं कि लोकपाल बनना चाहिए लेकिन लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी करना ठीक नहीं है और इससे एक गलत नजीर पड़ जायेगी.

जाहिर है कि ऐसा कहने और समझनेवाले वे अकेले नेता नहीं हैं. प्रधानमंत्री से लेकर कानून और संविधान के जानकार तमाम मंत्रियों और अरुण जेतली जैसे विपक्ष के नेताओं तक के इससे मिलते-जुलते वक्तव्य आ चुके हैं. ये सभी लोकशक्ति की सक्रियता और इलीट नीति निर्माण क्लब में उसका हस्तक्षेप बढ़ने की आशंका से परेशान हैं. उन्हें पता है कि एक बार जन लोकपाल पर झुके तो अगली बार सबको रोजगार और भोजन या समान शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार से लेकर भूमि अधिग्रहण और सेज कानून को रद्द करने जैसी मांगे उठने लगेंगी.

एक मायने में भ्रष्टाचार विरोधी यह आंदोलन इस दौर के मिजाज का संकेत है. इससे आम लोगों और खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के अंदर बढ़ती बेचैनी का पता चलता है. याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि पिछले कई सालों और खासकर कुछ महीनों में पूरे देश में सरकारों की शह पर जल-जंगल-जमीन-खनिज और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट, भ्रष्टाचार और काले कानूनों के खिलाफ जबरदस्त जनसंघर्ष चल रहे हैं. सचमुच, ऐसा लगता है कि जैसे देश ‘मिलियन म्युटीनिज’ (लाखों विद्रोहों) से गुजर रहा है. लेकिन इन जनसंघर्षों से अभी तक शहरी मध्यवर्ग न सिर्फ अछूता था बल्कि उसके परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन से सत्ता प्रतिष्ठान इन आन्दोलनों को कुचलने में जुटा हुआ था.

लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शहरी मध्यवर्ग के कूद पड़ने और उसे मिल रहा व्यापक जनसमर्थन इस बात का सबूत है कि आने वाले दिनों और महीनों में इस आंदोलन से प्रेरणा लेकर और कई जनांदोलन खड़े होंगे और कई में तेजी आएगी. इतिहास गवाह है कि जिन देशों में भी ऐसे जनांदोलन खड़े हुए हैं, वे अकेले नहीं आए हैं बल्कि अपने साथ आन्दोलनों की श्रृंखला सी लेकर आए हैं.

इसके साथ ही, राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान का तीसरा डर यह है कि अब तक उसके साथ खड़े मध्यवर्ग की निराशा और गुस्से का इस तरह से फूटना एक मायने में, नई उदारवादी अर्थनीतियों के प्रति मोहभंग का लक्षण भी है. इससे शासक वर्गों द्वारा पूरे देश में इन भ्रष्ट और जनविरोधी नीतियों को लेकर बनाई गई ‘आम सहमति’ के भी बिखरने और आपसी अंतर्विरोधों के बढ़ने के आसार दिख रहे हैं.

कहने का मतलब यह कि यह देश में जबरदस्त बेचैनी, उथल-पुथल और राजनीतिक मंथन का दौर है. इससे शासक वर्गों में घबराहट स्वाभाविक है. इसलिए वे इस आंदोलन को हड़पने से लेकर उसे तोड़ने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ समेत सभी तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. अन्ना हजारे और उनके साथियों पर जबरदस्त दबाव है. यह दोहरा दबाव है. एक ओर, सरकार और पूरा राजनीतिक वर्ग इसे बर्बाद करने और हड़पने के लिए जोर-आजमाइश कर रहा है, वहीँ दूसरी ओर, इस आंदोलन से जुड़े लाखों-करोड़ों समर्थकों की उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं. यह तलवार की धार पर चलने जैसा है.

लेकिन यह याद रखना बहुत जरूरी है कि हर आंदोलनकारी और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में संभावनाओं के साथ आशंकाएं भी मौजूद होती हैं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है. इसलिए इस आंदोलन को लेकर उन सभी वाम, रैडिकल, धर्मनिरपेक्ष और दलित बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं को पूरी गंभीरता के साथ सुना और उनपर विचार किया जाना चाहिए जो आमतौर पर प्रगतिशील और रैडिकल जनांदोलनों के साथ खड़े रहे हैं, उनके शुभचिंतक हैं और जिनकी प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता है.

यही नहीं, इन आलोचनाओं से इस आंदोलन में कुछ मुद्दों पर पुनर्विचार, सुधार और उसके समृद्ध और प्रभावी होने की सम्भावना बढ़ गई है. इसलिए इनपर तीखी प्रतिक्रिया के बजाय ठन्डे दिमाग से सोचा-विचारा जाना चाहिए. जनांदोलनों में इतनी उदारता और लचीलापन होना चाहिए.

इसमें कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन में भांति-भांति की राजनीतिक और गैर राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हैं. इनमें “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” या “आर.एस.एस के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक हिंदू संगठन” या “आरक्षण विरोधी संगठन” या “कारपोरेट समर्थित एन.जी.ओ/मीडिया” भी शामिल हैं और उनमें से कई इसके नेतृत्व में भी हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि इसमें रैडिकल वाम और जनतांत्रिक आन्दोलनों की शक्तियां भी शामिल हैं. उनमें से कई अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन के साथ भी हैं और कई स्वतंत्र तौर पर भी आंदोलन चला रहे हैं. जैसे सी.पी.आई-एम.एल और उसके जनसंगठन पिछले कई महीनों से स्वतंत्र तौर पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला रहे हैं.

लेकिन कई वाम, धर्मनिरपेक्ष और जनवादी बुद्धिजीवी अन्ना हजारे और वृहत्तर भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों की उपरोक्त कारणों से आलोचना करते हुए भूल जाते हैं कि हरेक बड़े जनांदोलन में अंतर्विरोध, कमियां और कमजोरियां होती हैं. यह भी कि उनमें समाज के विभिन्न वर्गों की भागीदारी होती है, उनमें अलग-अलग विचारधाराओं और सोच के लोग भी हो सकते हैं और उन्हें शासक वर्गों के एक हिस्से का समर्थन भी प्राप्त हो सकता है.

लेकिन क्या सिर्फ इस आधार पर किसी जनांदोलन को ख़ारिज किया जा सकता है? असल मुद्दा यह है कि उस जनांदोलन की दिशा क्या है, उसकी विचारधारा-राजनीति क्या है और उसमें आमलोगों की कितनी और किस हद तक भागीदारी है?

(कल अगली किस्त में इन आलोचनाओं की पड़ताल करेंगे...मेरी अपेक्षा है कि आप भी अपनी राय जरूर दें.)

गुरुवार, अगस्त 25, 2011

कर्ज लेकर घी पी रहा है अमेरिका

अमेरिकी अर्थव्यवस्था का बढ़ते संकट में आवारा पूंजी की भूमिका  



 
अमेरिकी अर्थव्यवस्था दो साल के भीतर एक बार फिर गहरे संकट में फंसती हुई दिख रही है. अधिकांश विशेषज्ञों को आशंका है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था दोबारा मंदी की चपेट में आ सकती है. आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार मंद पड़ रही है, घरेलू मांग सुस्त बनी हुई है, उपभोग में गिरावट दर्ज की गई है, बेरोजगारी दर अभी भी बहुत ऊँची है और वित्तीय बाजारों में घबराहट का माहौल है.

ऐसे में, एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने अमेरिकी सरकार की साख को झटका देते हुए उसके ऋणपत्रों की रेटिंग को अपनी सर्वोच्च रेटिंग – ए.ए.ए से एक दर्जा नीचे घटाते हुए ए.ए प्लस करने का एलान करके इस घबराहट को और बढ़ा दिया है.

हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति सहित अर्थव्यवस्था के मैनेजर इस फैसले से सहमत नहीं है और बाजार को आश्वस्त करने में जुटे हुए हैं. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है. उसकी लडखडाहट साफ दिख रही है. अर्थव्यवस्था से आ रहे विभिन्न आर्थिक और वित्तीय संकेतों से इसकी पुष्टि होती है.

बीते पखवाड़े अमेरिकी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) से संबंधित पिछले कुछ वर्षों के संशोधित आंकड़े जारी किये जिनसे कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. इनसे यह पता चला कि दो साल पहले आई मंदी पूर्व के अनुमानों से कहीं ज्यादा गहरी और गंभीर थी और उसके बाद दिखी आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार अनुमानों से कहीं धीमी थी.

इससे मंदी की दोबारा वापसी की आशंकाओं ने जोर पकड़ा है. स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दूसरी तिमाही में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र १.३ फीसदी रही है जबकि पहली तिमाही में यह सिर्फ ०.३ फीसदी थी. इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले छह महीने में मात्र ०.८ फीसदी रह गई है.

इसके अलावा जून में उपभोक्ता व्यय नकारात्मक हो गया और जुलाई में भी उसमें गिरावट दर्ज की गई है. हालांकि जुलाई महीने में रोजगार में मामूली वृद्धि दर्ज की गई है लेकिन बेरोजगारी दर अभी भी ९.१ प्रतिशत की असहनीय ऊँचाई पर बनी हुई है. आर्थिक वृद्धि की इतनी धीमी रफ़्तार को आमतौर पर मंदी के आगमन का संकेत माना जाता है.

साफ है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी पिछली मंदी के प्रभावों से उबर नहीं पाई है. दूसरी ओर, अमेरिकी सरकार पर तेजी से बढ़ते घरेलू और विदेशी कर्जों के कारण वैश्विक वित्तीय पूंजी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के स्थायित्व और टिकाउपन को लेकर भी आशंकित है.

उल्लेखनीय है कि अमेरिकी सरकार पर कुल १४.५ खरब डालर का कर्ज है और जिस तरह से यह कर्ज बढ़ रहा है, उसके कारण आवारा पूंजी के प्रवक्ता और कई विशेषज्ञ यह कहने लगे हैं कि अमेरिका कर्ज लेकर घी पीने यानी अपने साधनों से बाहर जाकर खर्च करने के चरम पर पहुँच चुका है और यह स्थिति अब बहुत दिनों तक नहीं चल सकती है. आवारा पूंजी की हितरक्षक स्टैण्डर्ड और पुअर ने भी अमेरिकी साखपत्रों की रेटिंग को कम करते हुए यही कारण बताया है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर कर्ज का बोझ खतरे की सीमा को पार कर रहा है. रिपोर्टों के मुताबिक, बीते दिसंबर से इस जुलाई तक अमेरिकी सरकार पर हर दिन औसतन लगभग ५.४८ अरब डालर का कर्ज चढ़ता जा रहा है. हालत यह हो गई है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार सरकारी कर्ज कुल जी.डी.पी के लगभग १०० फीसदी तक पहुँच गया है.

इस तरह अमेरिका उन देशों की सूची में शामिल हो गया है जहाँ सरकारी कर्ज उनके जी.डी.पी के बराबर या उससे अधिक हो गया है. यही नहीं, अगर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के सभी कर्जों को जोड़ दिया जाए तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर कोई ५०.२ खरब डालर का कर्ज है जोकि उसके जी.डी.पी का लगभग साढ़े तीन गुना है.

निश्चय ही, यह स्थिति चिंताजनक है. इससे न सिर्फ अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की स्थिति पैदा हो गई है बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी अनिश्चितता और अस्थिरता के बदल मंडराने लगे हैं. यह स्वाभाविक भी है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था अकेले आज भी वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगभग एक चौथाई है और उसके इंजन की तरह काम करती है.

ऐसे में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का मतलब यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था भी झटके खाने लगेगी. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लेकर यह चिंता इसलिए और भी बढ़ गई है क्योंकि अधिकांश यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं पिछली वैश्विक मंदी की मार और वित्तीय/कर्ज संकट से अब तक नहीं उबर पाईं हैं.

जाहिर है कि इस कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में चिंता और घबराहट का माहौल है. लेकिन दूसरों को उपदेश देने में सबसे आगे रहनेवाला अमेरिका खुद अपने अंदर झांकने और अपनी आर्थिक रणनीति पर किसी पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं दिख रहा है.

यह वही अमेरिका है जिसकी अगुवाई में ७० और ८० के दशक में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने आर्थिक संकट में फंसे विकासशील देशों को कर्ज देने के लिए कड़ी शर्तें तय की थीं जिन्हें वाशिंगटन सहमति के नाम से जाना जाता है. उस दौर में वैश्विक आवारा पूंजी के प्रतिनिधि के बतौर मुद्रा कोष-विश्व बैंक ने भारत समेत अधिकांश विकासशील देशों पर कर्जों के लिए जिस तरह की शर्तें थोपीं और उसकी कीमत वसूली, उसे आसानी से भुलाना मुश्किल है.

अब वही वैश्विक आवारा पूंजी अमेरिका से भी कीमत वसूलने और इसके लिए उसे भी शर्तों में बांधने की कोशिश कर रही है. स्टैण्डर्ड और पुअर ने उसकी क्रेडिट रेटिंग में कटौती करके दबाव बनाने की कोशिश की है. दूसरी ओर, घरेलू राजनीति में रिपब्लिकन यही काम थोड़े अलग तरीके से कर रहे हैं. दोनों अमेरिकी वित्तीय घाटे में कटौती और इसके लिए सरकारी खर्चों में भारी कटौती के लिए अभियान चला रहे हैं.

मजे की बात यह है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान और कमोबेश दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां और उनके राजनेता भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाहट के लिए चादर से बाहर पैर पसारने को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

लेकिन वे यह नहीं बता रहे हैं कि चादर से बाहर पैर किसने और किसके लिए फैलाया? सिर्फ बढ़ते सरकारी घाटे और कर्ज का शोर है. पिछले दिनों अमेरिकी कांग्रेस में राष्ट्रपति और रिपब्लिकन सांसदों के बीच कर्जों की सीमा बढ़ाने को लेकर छिडे राजनीतिक महाभारत में भी तथ्य कम और शोर ज्यादा था. रणनीति यह थी कि घाटे और बढ़ते कर्ज को लेकर अमेरिकी जनता में डर और घबराहट का ऐसा माहौल बनाया जाए ताकि कर्ज और घाटे की सीमा तय करने के साथ-साथ खर्चों में कटौती के लिए लोगों को तैयार किया जाए.

खासकर रिपब्लिकन पार्टी के अंदर एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी कट्टर नव उदारवादी टी पार्टी समूह ने कर्ज का बोझ घटाने के लिए कर्ज की सीमा को बांधने और इसके लिए सरकारी खर्चों में भारी कटौती के पक्ष में पिछले कई महीनों से जबरदस्त अभियान छेड रखा था.

दिलचस्प तथ्य यह है कि कटौती की सीमा और तरीकों पर कुछ दिखावटी असहमतियों को छोड़ दिया जाए तो इस मुद्दे पर डेमोक्रटिक पार्टी और राष्ट्रपति ओबामा भी सैद्धांतिक तौर पर रिपब्लिकनों के साथ खड़े हैं. इसी सहमति का नतीजा है अमेरिकी संसद में हुआ कर्ज समझौता जिसमें यह तय किया गया है कि अगले दस वर्षों में वित्तीय घाटे में २.१ खरब डालर की कटौती की जायेगी.

इसके तहत यह भी तय हुआ है कि कर्ज की सीमा में एक खरब डालर की बढोत्तरी के बदले में अगले दस वर्षों में सरकारी खर्चों में ९१७ अरब डालर की कटौती की जायेगी. असली खेल यहीं हो रहा है. इस कटौती की गाज इन्फ्रास्ट्रक्चर, गृह निर्माण, सामुदायिक सेवाओं, शिक्षा के अलावा लोगों की सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी हकदारियों पर गिरेगी.

मतलब यह कि चादर से बाहर पैर पसारने की कीमत आम अमेरिकी जनता को चुकानी पड़ेगी. लेकिन इस कटौती का अमेरिकी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा बजट के अलावा पूरी दुनिया में आतंकवाद से युद्ध के नाम लड़े जा रहे युद्धों पर हो रहे बेतहाशा खर्च पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. वर्ष २०१० में अमेरिका का कुल रक्षा बजट ६८० अरब डालर था.

इसके अलावा इराक और अफगानिस्तान में युद्ध के लिए अलग से ३७ अरब डालर का प्रावधान है. यही नहीं, अनुमानों के मुताबिक, आतंकवाद से युद्ध के नामपर पिछले दस वर्षों में अफगानिस्तान से लेकर इराक तक अमेरिका का युद्ध बजट ३.७ खरब डालर तक पहुँच गया है और आशंका है कि अंतिम आकलन में यह ४.४ खरब डालर तक जा सकता है.

लेकिन इसमें कोई कटौती नहीं होगी क्योंकि रक्षा बजट और युद्धों में अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक तंत्र इसी सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के इशारे पर चलता है. यही नहीं, इस कटौती की मार से एक बार फिर वह अमेरिकी कारपोरेट जगत और सुपर अमीर वर्ग बच निकला जिसको हासिल टैक्स छूट और रियायतों के कारण भी वित्तीय घाटा और सरकारी कर्ज इस हद तक बढ़ा है.

हालत यह है कि बड़ी-बड़ी अमेरिकी कम्पनियाँ भी आज एक डालर टैक्स नहीं दे रही हैं. उदाहरण के लिए, जेनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने २०१० में १४.२ अरब डालर के व्यवसाय के बावजूद एक पैसा टैक्स नहीं दिया, उलटे ३.२ अरब डालर का टैक्स लाभ बटोर लिया.

असल में, ७० के दशक के आखिरी वर्षों में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में मुक्त बाजार की जिस नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी ने जोर पकड़ा, उसके केन्द्र में बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और अमीरों को अधिक से अधिक टैक्स छूट और आम लोगों पर बोझ बढ़ाना शामिल था.

इस प्रक्रिया ने पिछले तीन दशकों में अमेरिका में यह स्थिति पैदा कर दी है कि अमेरिकी समाज में सबसे अमीर एक फीसदी लोग कुल राष्ट्रीय आय का एक चौथाई और कुल संपत्ति का ४० फीसदी गड़प कर जा रहे हैं. कोई २५ साल पहले यह आंकड़ा १२ और ३३ फीसदी का था. साफ है कि इस बीच सुपर अमीरों की आय तेजी से बढ़ी है. इसके उलट इन २५ वर्षों में आम अमेरिकी नागरिकों की वास्तविक आय में कमी आई है.

याद रहे, इस पूरी प्रक्रिया को राष्ट्रपति जार्ज बुश के कार्यकाल में और तेजी मिली. बड़ी पूंजी और सुपर अमीरों को जमकर टैक्स छूट और रियायतें दी गईं. नतीजा, वर्ष २००० के बाद से कर्ज और वित्तीय घाटा दोनों तेजी से बढ़े हैं. रही सही कसर पिछली वैश्विक मंदी के दौरान बड़े बैंकों, बीमा और वित्तीय कंपनियों और आटोमोबाइल जैसे औद्योगिक क्षेत्र को सैकड़ों अरब डालर के राहत और उत्प्रेरक पैकेजों ने पूरी कर दी. लेकिन इन सबपर कोई चर्चा नहीं हो रही है. ऐसे में, अमीरों और कारपोरेट जगत पर टैक्स बढ़ाने की बात करना भी पाप की तरह हो गया है.

लेकिन क्या इससे अमेरिकी संकट टल जाएगा? अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा कर्ज डील से संकट और गहराएगा क्योंकि खर्चों में भारी कटौती के कारण पहले से मंदी से लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था फिर से मंदी की चपेट में फंस सकती है. यूरोप में यही हो रहा है जहाँ अर्थव्यवस्थाएं इसी तरह के कड़े मितव्ययिता उपायों और कटौतियों के कारण एक के बाद एक संकट में फंसती जा रही हैं.

यह अमेरिका के साथ भी हो सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर ऐसा हुआ तो वित्तीय घाटे में कटौती और कर्ज में कमी की योजना धरी की धरी रह जायेगी. इस तरह अमेरिका अपने साथ-साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट में फंसा देगा जिसकी कीमत हम-आप सबको चुकानी पड़ेगी.

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २५ अगस्त को प्रकाशित आलेख)

सोमवार, अगस्त 22, 2011

शंका करना आज का युगधर्म है लेकिन शंकावाद से बचिए...

आर.एस.एस-भाजपा का डर कौन दिखा रहा है और क्यों?


आज फेसबुक पर कुछ छोटी-छोटी टिप्पणियां डाली है...किसी भरे-पूरे लेख के बजाय आज यही आपसे साझा कर रहा हूँ:


‘वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन दौलत

गोला,बारूद,पुलिस,फौज के बावजूद ?


वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना बंद कर देंगे’

-गोरख पाण्डेय

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शंका करना युगधर्म है लेकिन शंकावाद से बचिए...

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कांग्रेस और बी.जे.पी में कोई फर्क नहीं है..न भ्रष्टाचार में..न नीतियों में..न जनांदोलनों के दमन में..दोनों नव उदारवादी अर्थनीति और कारपोरेट लूट के समर्थक हैं...दोनों जन लोकपाल के विरोधी हैं..यही नहीं, छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम के संस्थापकों और संचालकों में कांग्रेस और भाजपा दोनों हैं..और अब सलवा जुडूम को अवैध ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रिव्यू पेटिशन मनमोहन सिंह सरकार डाल रही है..

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कुछ साथियों को डर है कि इस आंदोलन का फायदा आर.एस.एस-भाजपा न उठा ले जाएं..इस डर से वे कांग्रेस को बर्दाश्त करने के लिए तैयार हैं..उनसे सिर्फ एक सवाल: क्या कांग्रेस खुद अपने कारनामों से उन्हें यह मौका नहीं दे रही है? याद रखिये, आर.एस.एस/भाजपा का कांग्रेस से अच्छा कोई दोस्त नहीं है..लोगों में गुस्सा है और राजनीति में कभी शून्य नहीं होता..अगर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में नहीं होता तो इसका नेतृत्व कौन कर रहा होता?

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“इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,

इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,

आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,

यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।“

-दुष्यंत कुमार

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भारत सचमुच, “मिलियन म्यूटनीज” से गुजर रहा है. देश में जनांदोलनों की बाढ़ सी है. छत्तीसगढ़ से झारखण्ड तक आदिवासी, उत्तर प्रदेश से आंध्र प्रदेश तक में किसान जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट के खिलाफ, दलित जमीन-मजदूरी-सामाजिक सम्मान के लिए, पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में बुनियादी मानवाधिकारों, गुडगावां से कोयम्बतूर तक मजदूर अपने हकों और छात्र-नौजवान रोजगार और शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं..अब मध्यवर्ग भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जरिये इन छोटी-छोटी ‘लाखों क्रांतियों’ का हिस्सा बन चुका है.

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“ इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां “

-दुष्यंत कुमार

नहीं, नहीं...खिडकियां खुलने लगी हैं...संभावनाएं बनने लगी हैं..

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