गुरुवार, मई 30, 2013

कैसिनो अर्थतंत्र में क्रिकेट ही नहीं, सब कुछ है ‘फिक्स’

सट्टेबाजों के हवाले है शेयर बाजार और जिंस बाजार से लेकर क्रिकेट और आर्थिक नीतियाँ तक 

शुरू से ही पानी की तरह बहते पैसे, ग्लैमर, रंगीन पार्टियों, खिलाड़ियों की बोली और ‘हितों के टकराव’ के कारण विवादों में घिरी रही इंडियन प्रीमियर लीग (आई.पी.एल) एक बार फिर ‘मैच फिक्सिंग’ और ‘स्पाट फिक्सिंग’ के आरोपों के कारण सुर्ख़ियों में है. इस मामले में हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं और उसके साथ ही कुछ बड़ी मछलियाँ भी पकड़ में आ गईं हैं.
इससे आई.पी.एल की चमक-दमक के पीछे छिपे बड़ी पूंजी, मनोरंजन उद्योग, कालेधन, सट्टेबाजी और माफिया गिरोहों के असली खेल पर से थोड़ा सा पर्दा हटा है लेकिन इससे ज्यादा की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि इससे आगे वह ‘ब्लैक होल’ है जिससे यह पूरी व्यवस्था निकली और बनी है.   
इसलिए आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग या स्पाट फिक्सिंग’ के खेल से बहुत हैरान होने की जरूरत नहीं है और न ही खिलाड़ियों से लेकर टीम प्रबंधकों/मालिकों के ‘फिक्सर’ में बदलने पर इतना चौंकने की जरूरत है. सच यह है कि राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था तक और खेलों से लेकर मीडिया तक हर जगह ‘फिक्सिंग’ और ‘फिक्सरों’ का बोलबाला है.

आश्चर्य नहीं कि आज बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के पक्ष में अर्थनीति ‘फिक्स’ की जा रही है, इस या उस कारपोरेट समूह के पक्ष में नीतियां ‘फिक्स’ की जा रही हैं, बड़े आर्थिक फैसले कंपनियों के हक में ‘फिक्स’ किये जा रहे हैं और यहाँ तक कि कोर्ट के फैसले भी ‘फिक्स’ करवाने के दावे किये जा रहे हैं.   

इन आरोपों को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि बड़ी पूंजी और कम्पनियाँ अपने अनुकूल नीतियों और फैसलों को प्रभावित करने के लिए बाकायदा लाबीइंग करके मंत्रिमंडल से लेकर नौकरशाही तक में अपने अनुकूल नेताओं और अफसरों को ‘फिक्स’ करवा रही हैं.
याद कीजिए, नीरा राडिया टेप्स को जिसमें नेता, उद्योगपति, अफसर और संपादक/पत्रकार किस तरह मंत्री से लेकर कोर्ट और नीतियों से लेकर फैसलों तक को अपने मुताबिक ‘फिक्स’ करने के लिए लाबीइंग करते सुनाई पड़ते हैं. उसके बाद पिछले कुछ सालों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला खदानों और हाईवे से लेकर एयरपोर्ट के ठेकों के आवंटन पर नजर डालिए, आपको ‘फिक्सिंग’ और लाबीइंग के बढ़ते दबदबे का अंदाज़ा हो जाएगा.      
हैरानी की बात नहीं है कि इनदिनों जब पूरा देश आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग’ की सनसनी में डूबा हुआ है, उसी समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल पेट्रोलियम मंत्रालय की सिफारिश पर प्राकृतिक गैस की कीमत ‘फिक्स’ करने पर विचार कर रहा है. प्रस्ताव यह है कि गैस की कीमतें ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से २.५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू यानी कोई ५९.५ फीसदी बढ़ाकर ६.७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दिया जाए.

वैसे सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता का आरोप है कि पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली का प्रस्ताव इसे ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दुगुना बढ़ाकर पहले साल ८ डालर, दूसरे साल १० डालर, तीसरे साल १२ डालर और अगले दो सालों तक १४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने की है ताकि मुकेश अम्बानी की रिलायंस को हजारों करोड़ रूपये का छप्परफाड मुनाफा हो सके.  

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, गैस की कीमतों में प्रति एक डालर की बढ़ोत्तरी से जहाँ उर्वरक कारखानों पर ३१५५ करोड़ रूपये और बिजलीघरों पर १००४० करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, वहीँ गैस कंपनियों को हजारों करोड़ का अतिरिक्त मुनाफा होगा.
सवाल यह है कि सरकार गैस की कीमतें ‘फिक्स’ करने के लिए इतनी बेचैन क्यों हैं? हालाँकि मोइली का दावा है कि इससे सरकारी टेक कंपनियों को सबसे ज्यादा फायदा होगा लेकिन तथ्य यह भी है कि इससे रिलायंस का मुनाफा कई गुना बढ़ जाएगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि रिलायंस पिछले एक-डेढ़ साल से गैस की कीमतें बढ़ाने के लिए जबरदस्त लाबीइंग कर रहा है. आरोप है कि रिलायंस के दबाव के आगे झुकने से इनकार करने के कारण पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को कुर्सी गंवानी पड़ी.
लेकिन गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए चल रही लाबीइंग कोई अपवाद नहीं है. यह सिर्फ एक उदाहरण है फैसलों और नीतियों की ‘फिक्सिंग’ का. असल में, जब पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था ही कैसिनो अर्थतंत्र में बदल दी गई है जहाँ पैसे से पैसा बनानेवाले सट्टेबाज ही नीतियां और फैसले तय कर रहे हों, वहां लाबीइंग और फिक्सिंग अपवाद नहीं रह गए हैं बल्कि नियम बन गए हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज अर्थतंत्र के सबसे बड़े सूचक- शेयर बाजार से लेकर जिंस बाजार तक सट्टेबाजों के कब्जे में हैं और आर्थिक नीतियों से लेकर बजट तक पर उनका दबाव साफ़ देखा जा सकता है.

लेकिन बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की अगुवाई में चल रही इस संगठित और कानूनी सट्टेबाजी को अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी माना जाता है और इन सट्टेबाजों को खुश करने के लिए वित्त मंत्री से लेकर पूरी सरकार तक क्या-क्या नहीं करते हैं?  

ऐसे में, आई.पी.एल में ४० हजार करोड़ रूपये की सट्टेबाजी पर इतना हाय-तौबा क्यों मचाया जा रहा है? जबकि यह सिर्फ कानूनी सट्टेबाजी बाजार का विस्तार और वास्तव में, उसका अंडरवर्ल्ड है. लेकिन ‘अंडरवर्ल्ड’ की गुंजाइश वहीँ पैदा होती है जहाँ उसका खुला बाजार भी हो. कंसल्टिंग फर्म- के.पी.एम.जी के मुताबिक, देश में कोई तीन लाख करोड़ रूपये का गैरकानूनी सट्टा बाजार है.
लेकिन यह शेयर बाजार से लेकर मुद्रा-जिंस बाजार और रीयल इस्टेट तक फैले लाखों करोड़ रूपये के कानूनी सट्टेबाजी बाजार का बहुत छोटा हिस्सा है. इस कानूनी सट्टेबाजी के बाजार का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले मुंबई शेयर बाजार में शेयरों के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर २८६५४ करोड़ रूपये का है. वर्ष २०१२-१३ में शेयरों के वायदा कारोबार का कुल टर्नओवर ७१६३५७६ करोड़ रूपये रहा.
यही नहीं, एन.एस.ई में करेंसी के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर लगभग २०१४० करोड़ रूपये रहा और वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक उसका कुल टर्नओवर ३७२५८४२ करोड़ रूपये तक पहुँच गया.

लेकिन जिंस बाजार ने सबको पीछे छोड़ दिया है जहाँ वर्ष ११-१२ में कुल १४०२६ सौदे हुए जिनकी कीमत १,८१,२६,१०४ करोड़ रूपये थी जबकि वर्ष १२-१३ (१ अप्रैल से ३० दिसंबर तक) में कुल १०११९ सौदे हुए जिनकी कीमत १,१६,२६,८४२ करोड़ रूपये थी.

इसमें वास्तविक सौदे कम और सट्टेबाजी के जरिये पैसे से पैसे बनानेवाले सौदे ज्यादा थे. इस सट्टेबाजी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष ११-१२ में एम.सी.एक्स में ७३ करोड़ टन (कुल कीमत २४,६३३ अरब रूपये) के कच्चे तेल के वायदा सौदे हुए लेकिन इसमें एक बैरल कच्चे तेल की भी डिलीवरी नहीं हुई.

इस तरह शेयर बाजार से लेकर करेंसी बाजार और फिर जिंस बाजार तक हर जगह वायदा कारोबार में लाखों करोड़ रूपये की सट्टेबाजी हो रही है. इसमें बड़े देशी-विदेशी निवेशक सभी शामिल हैं और यह पूरी तरह से कानूनी है.
सच पूछिए तो शेयर बाजार आज मुट्ठी भर बड़े देशी और खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) की धुन पर ही नाचता है. वे उसे जब चाहते हैं, चढाते हैं, जब चाहते हैं, गिराते हैं और इस तरह वह एक कैसिनो में बदल चुका है.
इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि वास्तविक निवेश के लिए वित्तीय वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक आई.पी.ओ के जरिये शेयर बाजार से सिर्फ ६०४३ करोड़ रूपये ही जुटाया जा सका.         
लेकिन मामला सिर्फ शेयर बाजार या जिंस बाजार और उसमें जारी सट्टेबाजी तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी बढ़ती ताकत और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करने की लगातार बढ़ती क्षमता का है. आज स्थिति यह हो गई है कि अर्थनीति शेयर बाजार को देखकर और उसके मुताबिक बनती है. बाजार के बड़े खिलाड़ियों के प्रतिनिधि के बतौर रेटिंग एजेंसियां सरकार पर बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल सुधारों को आगे बढ़ाने का दबाव बनाए रखती हैं.

सरकारों का तर्क है कि उनकी बात स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. वे उनको नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले साल यू.पी.ए सरकार ने इसी बहाने खुदरा कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बीमा और पेंशन कारोबार में विदेशी पूंजी का हिस्सा बढ़ाने और उसकी इजाजत देने जैसे कई फैसले किये थे.

क्या ये फैसले ‘फिक्स’ नहीं थे? बड़ी पूंजी समर्थित आर्थिक सुधारों को आगे न बढ़ाने पर रेटिंग एजेंसी देश की निवेश की रेटिंग गिराने की धमकी दे, कारपोरेट मीडिया उसे लेकर देश में घबराहट का माहौल पैदा करे और सरकार ‘कोई विकल्प नहीं है’ का तर्क देते हुए ‘राष्ट्रहित’ में उसे मान ले, इससे ज्यादा ‘फिक्स’ और क्या हो सकता है?
लेकिन ऐसे ‘फिक्सरों’ की कमी नहीं है. यह एक संगठित उद्योग बन चुका है. इन्हें राजनीतिक पार्टियों से लेकर लाबीइंग कंपनियों तक में देखा जा सकता है. सत्ता के गलियारों में उनकी पैठ बहुत ऊपर तक है.
यहाँ तक कि वे सरकार के थिंक टैंक तक में बैठे हुए हैं. लेकिन मूल बात यह है कि ये सभी बिना किसी अपवाद के इस या उस कारपोरेट समूह के हितों को आगे बढ़ाने में जुटे रहते हैं. उनमें से कई विश्व बैंक और मुद्रा कोष की सेवा कर चुके हैं और कई का बड़े कारपोरेट समूहों से परोक्ष या सीधा संबंध है.
जाहिर है कि आई.पी.एल आसमान से नहीं टपका है और न ही धरती फाड़कर पैदा हुआ है. यह इसी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की पैदाइश है जिसमें अर्थतंत्र एक बड़े कैसिनो में बदल चुका है और जिससे हर साल लाखों करोड़ रूपये का काला धन निकल रहा है. आखिर वह काला धन कहाँ जाएगा?

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आई.पी.एल इसी कालेधन को खपाने और सट्टेबाजी के एक संगठित अंडरवर्ल्ड को एक लोकप्रिय प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया गया है. सट्टेबाजी उसकी मूल संरचना में निहित है. वह खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों से ज्यादा फिक्सरों का टूर्नामेंट है.

उसमें वही हो रहा है जिसके लिए उसे शुरू किया गया था. उसपर अब हैरानी और चिंता क्यों? अगर चिंता ही करनी है तो गैस की कीमतें जिस तरह से ‘फिक्स’ हो रही हैं, उसपर कीजिए.

('शुक्रवार' के नए अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                 

शुक्रवार, मई 24, 2013

न्यूज मीडिया के बड़े शार्क

सारदा चिट फंड घोटाला कुछ छोटी मछलियों के मीडिया का तालाब गन्दा करने भर का मामला नहीं है

पहली क़िस्त

“आपको प्रेस की स्वतंत्रता की पूरी गारंटी है, बशर्ते आप उसके मालिक हों.”

-    ए.जे लीब्लिंग, ‘द न्यूयार्कर’ से जुड़े रहे अमेरिकी पत्रकार 

न्यूज चैनल सहित कई चैनलों और अखबारों के मालिक और पश्चिम बंगाल में सारदा चिट फंड घोटाले के मुख्य आरोपी सुदीप्ता सेन की गिरफ्तारी के बाद से देश में मीडिया स्वामित्व, उसके स्वरुप, कारोबारी और दूसरे हितों और उसका न्यूज मीडिया के अंतर्वस्तु पर पड़नेवाले घोषित/अघोषित प्रभावों पर बहस तेज हो गई है.
हालाँकि यह बहस नई नहीं है और न ही मीडिया कारोबार में सक्रिय किसी कम्पनी का धतकर्म पहली बार सामने आया है. यह सारदा चिट फंड की तरह अवैध धंधों/कारोबार में शामिल किसी कंपनी के अपने धंधों को आवरण/संरक्षण/विश्वसनीयता देने के लिए मीडिया के धंधे में घुसने का भी कोई पहला या अकेला मामला नहीं है.
इससे पहले भी सारदा की तरह ही जे.वी.जी और कुबेर जैसी कई चिट फंड कंपनियों ने भी धूमधाम के साथ अखबार शुरू किये, उसके जरिये एक विश्वसनीयता हासिल की और उसकी आड़ में लाखों लोगों को बेवकूफ बनाया और उनकी जीवन भर की कमाई लूट ली.

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इनदिनों २४ हजार करोड़ रूपये की अवैध वसूली के आरोपी सहारा का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जी न्यूज के संपादकों पर कोयला घोटाले में फंसी जिंदल स्टील एंड पावर कम्पनी से खबरें रोकने के बदले पैसा मांगने का आरोप लगा है और आंध्र प्रदेश में साक्षी मीडिया समूह के मालिक जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं.

साफ़ है कि सारदा चिट फंड घोटाला कोई अपवाद नहीं है बल्कि वह एक प्रवृत्ति या पैटर्न की ओर इशारा करता है. इस प्रवृत्ति या पैटर्न के कई पहलू हैं.
पहला यह कि वैध-अवैध धंधों/कारोबार खासकर चिट फंड/फिनांस/रीयल इस्टेट आदि में आम लोगों को झांसा देकर पैसा बनाने के बाद या उसी दौरान सुदीप्तो सेन जैसा कोई ठग उसका एक हिस्सा मीडिया के धंधे में लगाकर अखबार और आजकल न्यूज चैनल शुरू करता है जिससे न सिर्फ उसके अवैध धंधों को पुलिस/प्रशासन और राजनेताओं से संरक्षण हासिल करने में मदद मिलती है बल्कि धंधे को भी एक तरह की विश्वसनीयता हासिल हो जाती है.
यही नहीं, इससे फर्जी और अवैध धंधे और धंधेबाज को मीडिया की जांच-पड़ताल और छानबीन से भी बच निकलने का मौका मिल जाता है क्योंकि मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित लेकिन पक्का और ठोस समझौता है कि वे एक-दूसरे के वैध-अवैध धंधों और धतकरमों के बारे में कोई रिपोर्ट नहीं करेंगी.

जैसे कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है, वैसे ही मीडिया कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में लिखने/दिखाने से परहेज करती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि खुद को साफ़-सुथरी कहनेवाली और हमेशा भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने का दावा करनेवाली बड़ी कारपोरेट मीडिया कंपनियों के अखबारों/चैनलों से लेकर छोटे धंधेबाजों/ठगों के अखबारों/चैनलों में भी शायद ही कभी एक-दूसरे के वैध-अवैध धंधों और कारनामों के बारे में छपता या दिखाया जाता है.

इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू यह है कि मीडिया कम्पनियाँ जैसे-जैसे बड़ी हो रही हैं, उनका कारपोरेटीकरण हो रहा है, उनका मुनाफा बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वे मीडिया से इतर दूसरे धंधों/कारोबार की ओर बढ़ रही है. हाल के वर्षों में ऐसे अनेकों उदाहरण सामने आए हैं जिनमें मीडिया कंपनियों ने रीयल इस्टेट, शापिंग माल्स, चीनी मिल, पावर स्टेशन, माइनिंग से लेकर हर तरह के कारोबार में निवेश करना और विस्तार करना शुरू कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अपने कारोबार को फ़ैलाने में उन्हें अपनी मीडिया कंपनियों से खासी मदद मिल रही है क्योंकि उसके प्रभाव का इस्तेमाल करके वे सरकार और नेताओं/अफसरों के जरिये आसानी से लाइसेंस/ठेके और जमीन हासिल कर ले रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में सामने आए बड़े घोटालों में कई बड़ी मीडिया कंपनियों और उनके मालिकों के नाम भी लाभार्थियों के रूप में सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, कोयला खदानों के आवंटन में हुई धांधली और घोटाले में कुछ मीडिया कंपनियों (जैसे लोकमत समूह और उसके मालिक विजय दर्डा) के नाम चर्चा में आए थे.

यही नहीं, ऐसी पुष्ट/अपुष्ट रिपोर्टें आपको देश के हर बड़े शहर/राज्यों की राजधानियों में सुनने को मिल जायेंगी कि कैसे इन मीडिया कंपनियों ने अवैध तरीके से जमीन कब्जाया, रीयल इस्टेट में निवेश किया है और माइनिंग के पट्टे आदि हासिल किये हैं.

कहते हैं कि इसी लोभ में बहुतेरी मीडिया कंपनियों ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संसाधनों से संपन्न राज्यों में अपने अखबार और चैनल का विस्तार किया है क्योंकि उससे माइनिंग के ठेके हासिल करने में आसानी होती है.

इसी से जुड़ा इस प्रवृत्ति का तीसरा पहलू यह है कि मीडिया की इस शक्ति और प्रभाव ने बड़ी कंपनियों/कार्पोरेट्स को भी मीडिया कारोबार में घुसने के लिए प्रेरित किया है. हालाँकि उनकी हमेशा से मीडिया कारोबार में दिलचस्पी रही है लेकिन हाल के वर्षों में जबसे आर्थिक उदारीकरण के नामपर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के निजीकरण और प्राकृतिक संसाधनों खासकर जल-जंगल-जमीन-खनिजों को कब्जाने की होड़ शुरू हुई है और दूसरी ओर, मीडिया कंपनियों के रसूख और लाबीइंग शक्ति बढ़ी है, बड़े कार्पोरेट्स भी मीडिया कंपनियों में बड़े पैमाने पर निवेश करते दिखाई पड़े हैं.
उदाहरण के लिए, पिछले दो वर्षों में मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने न सिर्फ टी.वी-18 समूह (सी.एन.बी.सी और आई.बी.एन) बल्कि ई.टी.वी समूह की कंपनियों में भी लगभग ५० फीसदी शेयर खरीद लिए हैं. इसी तरह कुमारमंगलम बिरला की आदित्य बिरला समूह ने टी.वी. टुडे समूह में लगभग २७ फीसदी का मालिकाना हासिल कर लिया है.

अनिल अम्बानी की ज्यादातर मीडिया कंपनियों में ५ से लेकर २० फीसदी तक शेयर हैं. ओसवाल समूह ने एन.डी.टी.वी में लगभग १५ फीसदी शेयर ख़रीदे हैं. यही नहीं, मीडिया कंपनियों और बड़े कारपोरेट समूहों के बीच बढ़ते गठजोड़ का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि सभी बड़ी मीडिया कंपनियों के निदेशक मंडल में बड़े कारपोरेट समूहों के प्रमुख शामिल हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ये तीनों ही प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं. इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में स्वामित्व के ढाँचे में बड़े और बुनियादी बदलाव भी हो रहे हैं. मीडिया उद्योग के इस नए पिरामिड में सबसे ऊपर मुट्ठी भर वे बड़े कारपोरेट मीडिया समूह हैं जिनकी संख्या मुश्किल से २० के आसपास है.
लेकिन तथ्य यह है कि वे ही आज मीडिया कारोबार को नियंत्रित और निर्देशित कर रहे हैं. वे वास्तव में अभिजात्य शासक वर्ग के हिस्से हैं और इसका सबूत यह है कि उनके नाम देश के पचास और सौ सबसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की सूची में छपते रहते हैं. इन चुनिंदा मीडिया समूहों के हाथ में देश के सबसे अधिक पढ़े जानेवाले २० सबसे बड़े अखबार और सबसे अधिक देखे जानेवाले १० न्यूज चैनल हैं.
हाल के वर्षों में उदारीकरण और भूमंडलीकरण का फायदा उठाकर उन्होंने न सिर्फ विदेशी निवेश आकर्षित किया है बल्कि उनका तेजी से विस्तार हुआ है. इन बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों ने क्रास मीडिया प्रतिबंधों और उससे संबंधित रेगुलेशन के अभाव का फायदा उठाकर न सिर्फ अखबार, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट जैसे सभी मीडिया प्लेटफार्मों पर अपने कारोबार का विस्तार किया है बल्कि उन्होंने भौगोलिक सीमाओं को लांघकर क्षेत्रीय भाषाओँ के मीडिया बाजार में भी घुसपैठ की है.

इसके कारण हाल के वर्षों में मीडिया उद्योग में प्रतियोगिता बढ़ी और तीखी हुई है और इसमें छोटे-मंझोले प्रतियोगियों के लिए टिकना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है. इस बीच, कई छोटे और मंझोले अखबार/चैनल बंद हो गए हैं या बड़े मीडिया समूहों द्वारा खरीद लिए गए हैं.

इससे मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण बढ़ा है और बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों के कारण एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को भी मजबूत होते हुए देखा जा सकता है. आज वे ही तय करते हैं कि देश में लोग क्या पढेंगे, देखेंगे और सोचेंगे? वे ही देश का एजेंडा तय करते हैं और जनमत बनाने में उनकी भूमिका पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई है.
इसकी वजह यह भी है कि आज मीडिया की पहुँच और उसका उपभोग बढ़ा है, अखबारों/न्यूज चैनलों के पाठकों/दर्शकों की संख्या में कई गुना का इजाफा हुआ है और इसके साथ ही, बढ़ते शहरीकरण/आप्रवासन/व्यक्तिकरण के कारण सूचनाओं के लिए लोगों की निर्भरता उनपर बढ़ी है.
आज राजनीति और राज-समाज आदि के बारे में लोगों खासकर शहरी मध्यवर्ग की सूचनाओं का मुख्य स्रोत कारपोरेट न्यूज मीडिया होता जा रहा है.
जारी ....
(अगली क़िस्त जून के पहले सप्ताह में ..इस बीच, आप इसे 'कथादेश' के जून अंक में पढ़ सकते हैं ...)

बुधवार, मई 22, 2013

भ्रष्टाचार के तमाशे में दर्शकों को ‘बकरा’ बनाते चैनल

भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग को तमाशा बनाने के खतरे

गंभीर से गंभीर मसले को भी चुटकी बजाते तमाशा बनाने में न्यूज चैनलों की ‘प्रतिभा’ असंदिग्ध है. चैनल इसे साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं. उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार और नियम-कानूनों के उल्लंघन के आरोपों में घिरे यू.पी.ए सरकार के दो केन्द्रीय मंत्रियों- पवन बंसल और अश्विनी कुमार के इस्तीफे के प्रसंग को ही लीजिए.
 
जब कांग्रेस नेतृत्व और सरकार पर इन दोनों मंत्रियों के इस्तीफे का दबाव चरम पर था, नेतृत्व के अंदर निर्णायक चर्चा जारी थी, उसी समय चैनलों ने रेल मंत्री पवन बंसल के एक बकरे को चारा खिलाने की घटना के बहाने इस मामले को तमाशा बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा.
उस शाम तीन-चार घंटों के लिए चैनलों पर भ्रष्टाचार, शुचिता, नैतिकता, संवैधानिक-कानूनी प्रावधानों आदि पर चर्चा के बजाय बकरे को चारा खिलाते पवन बंसल के बहाने भांति-भांति के ज्योतिषी मंत्रीजी का भाग्य बांचने लगे.

वे अमावस्या को सफ़ेद बकरे को चारा खिलाने से लेकर बकरे की बलि चढ़ाने जैसे टोटकों के फायदे-नुकसान बताने लगे. हमेशा की तरह इस मौके पर भी ज्योतिषियों में इस टोटके के बावजूद बंसल के भविष्य को एकराय नहीं थी. कुछ का मानना था कि बंसल इस पूजा के बाद इस संकट बच निकलेंगे जबकि कुछ को यह लग रहा था कि उन्होंने यह पूजा करने में देर कर दी.

लेकिन ज्योतिषियों और तांत्रिकों के साथ चैनल जिस तरह से बंसल के भविष्य को बकरा पूजा से जोड़ कर पेश कर रहे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि बंसल भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामले के बजाय किसी निजी संकट में फंसे हों.
हालाँकि चैनल बकरा पूजा के बहाने अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश कर रहे बंसल का मजाक भी उड़ा रहे थे लेकिन यह भी इस मुद्दे को तमाशा बनाने के खेल का ही हिस्सा था. इस तरह चैनलों ने शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर और संवेदनशील मसले को हल्का और छिछला बना दिया.
यह सही है कि विपक्ष और कोर्ट के साथ-साथ चैनलों और अखबारों ने भी नए खुलासों, कड़ी टिप्पणियों और चर्चा/बहस के जरिये कांग्रेस नेतृत्व पर लगातार दबाव बनाए रखा जिसके कारण उसे मंत्रियों को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वे भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दे को जिस तरह एक सनसनीखेज तमाशे में बदल देते हैं और उसे किसी एक मंत्री या अफसर तक सीमित कर देते हैं, उससे भ्रष्टाचार के नीतिगत, प्रक्रियागत और सांस्थानिक पहलू दर्शकों की नजरों से ओझल हो जाते हैं.             

नतीजा यह कि इस तमाशे से भले ही किसी मंत्री/मंत्रियों की कुर्सी चली जाए लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. उल्टे भ्रष्टाचार खत्म होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. इसके कारण धीरे-धीरे लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह की निराशा और ‘इम्युनिटी’ पैदा हो रही है.
इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और राजनीतिक दलों के संयुक्त तमाशे ने सनसनी चाहे जितनी पैदा की हो लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर उनकी समझ का विस्तार नहीं किया है.
ऐसे में, जब लोग राजनीतिक दलों और सरकार में भ्रष्टाचार को फलते-फूलते देखते हैं और यहाँ तक कि खुद न्यायपालिका और मीडिया को भी उस भ्रष्टाचार में शामिल पाते हैं तो उनकी निराशा और हताशा बढ़ने लगती है.

उन्हें यह समझने में भी देर नहीं लगती है कि इस तमाशे में बकरा तो उन्हें बनाया जा रहा है.
('तहलका' के 31 मई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

सोमवार, मई 20, 2013

मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम में लगा है कार्पोरेट मीडिया

मोदी की बारीक छवि पुनर्निर्मिति (इमेज मेकओवर) में जुटा है मीडिया
दूसरी क़िस्त
लेकिन साथ में ही बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स यह भी चाहते हैं कि संसदीय विपक्ष का स्थान (स्पेस) भी उनके हाथ से नहीं निकल पाए और विपक्ष में कांग्रेस रहे. यही नहीं, वह एक ऐसे करिश्माई नेता की खोज में है जो न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध हो बल्कि अपने करिश्मे से लोगों को झांसा देने और इन आर्थिक नीतियों के लिए आम लोगों खासकर गरीबों का समर्थन जुटाने में भी माहिर हो.
कहने की जरूरत नहीं है कि शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स को भाजपा नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी में वह सम्भावना दिख रही है. मोदी ने गुजरात में हिंदुत्व और कारपोरेट विकास का ऐसा नशीला काकटेल तैयार किया है जहाँ न सिर्फ देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों को मुंह-मांगी रियायतें/छूट मिली हुई है बल्कि उन्हें कोई राजनीतिक चुनौती भी नहीं है क्योंकि जनता का बड़ा हिस्सा हिंदुत्व के नशे में खोया हुआ है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट विकास के इस मोदी माडल का देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स में जबरदस्त आकर्षण है. वे मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक संकट और गतिरोध से बाहर निकालने के लिए मोदी को सबसे बेहतर दाँव मान रहे हैं.

आश्चर्य नहीं है कि मोदी इस समय कार्पोरेट्स के सबसे चहेते नेता हैं और अगले आम चुनावों से पहले बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स का बड़ा हिस्सा मोदी के पीछे गोलबंद होता जा रहा है. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि पिछले कुछ महीनों में बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स और उनके लाबी संगठनों ने जिस तरह खुलकर मोदी को मंच दिया है और उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर मुहर लगाया है, वैसा इससे पहले शायद ही कभी दिखाई पड़ा हो.

यही नहीं, बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स अपनी व्यापक रणनीति के तहत विपक्ष की जगह को भी अपने मातहत रखने और भविष्य के विकल्प के बतौर कांग्रेस और उसके नेता राहुल गाँधी को रेस में बनाए रखने की भी कोशिश कर रहे हैं. इस तरह बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स दोनों हाथों में लड्डू रखने की कोशिश कर रहे हैं.
उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में बड़ी पूंजी की यह भूमिका बहुतों से छुपी नहीं है लेकिन नई बात यह है कि वह अब पर्दे के पीछे से नहीं बल्कि खुलकर अपनी राजनीतिक पसंद बता रही है, उसे आगे बढ़ा रही है और उसके सामने अपना एजेंडा रख रही है.
इसका सबूत है, पिछले कुछ सप्ताहों में कारपोरेट लाबी संगठनों- एसोचैम, फिक्की और सी.आई.आई
के सम्मेलनों में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के एजेंडे के तहत मोदी और राहुल को पेश करना और राजनीतिक बहस को कारपोरेट विकास के इर्द-गिर्द सीमित करने की कोशिश.        
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में ‘मोदी बनाम राहुल’ की बहस को देखा-समझा जाना चाहिए. असल में, कारपोरेट न्यूज मीडिया और उसके चैनल बुनियादी तौर पर कार्पोरेट्स के ही विस्तारित हाथ या ‘वैचारिक उपकरण’ हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे न सिर्फ द्विदलीय व्यवस्था की वकालत में जुटे हैं बल्कि लोगों के लोकतांत्रिक चयन को ‘मोदी बनाम राहुल’ में सीमित करने और उसमें भी मोदी को वरीयता देने के अभियान में सक्रिय हैं.

कारपोरेट मीडिया की इस अभियान में गहरी संलग्नता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे न सिर्फ कहीं दबे-कहीं खुले नरेन्द्र मोदी को आगे बढ़ाने में जुटे हैं बल्कि ‘आजतक’ और ‘हेडलाइंस टुडे’ (इंडिया टुडे समूह) और ‘आई.बी.एन-७’ और ‘सी.एन.एन-आई.बी.एन’ (टीवी-१८ समूह) जैसे चैनलों ने तो मोदी की मेजबानी करने में भी संकोच नहीं किया.

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ‘इंडिया टुडे समूह’ में आदित्य बिरला समूह ने पिछले दिनों २७ फीसदी शेयर ख़रीदे हैं और ‘टीवी-१८ समूह’ में मुकेश अम्बानी ने १७०० करोड़ रूपये का निवेश किया है. दरअसल, मोदी को मीडिया की बहुत जरूरत है क्योंकि शासक वर्गों खासकर कार्पोरेट्स की पहली पसंद होने के बावजूद २००२ के गुजरात नरसंहार के धब्बे के कारण मोदी की राजनीतिक स्वीकार्यता अभी भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पा रही है.
जाहिर है कि मोदी को एक बड़े और बारीक छवि पुनर्निर्मिति (इमेज मेकओवर) जरूरत है. कारपोरेट मीडिया इसी काम में लगा है और बहुत बारीकी से मोदी की छवि को एक ‘विकासपुरुष’ के रूप में गढ़ने की कोशिश कर रहा है.
इसके लिए उसने मोदी के नेतृत्व में गुजरात में पिछले दस सालों में हुए ‘विकास’ की आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियों को मध्यवर्ग और उसके जरिये आमलोगों के बीच न सिर्फ जोरशोर से ‘बेचने’ (मार्केट) करने की कोशिश की है बल्कि उन कहानियों को एक तरह की विश्वसनीयता देने की मुहिम को भी आगे बढ़ाया है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मंचों पर मोदी के ‘विकास’ के बड़े-बड़े दावों और विचारों को कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर चैनलों ने बिना किसी आलोचनात्मक जांच-पड़ताल और छानबीन के आगे बढ़ाया है. जैसे न्यूज मीडिया का काम सिर्फ पोस्ट-आफिस और डाकिये का हो जो संदेशों को बिना जांचे-परखे एक-दूसरे तक पहुंचाता है.

तथ्य यह है कि मोदी के अधिकांश दावे अर्धसत्य और कुछ तो पूरी तरह से झूठे हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि कारपोरेट मीडिया बड़ी पूंजी का भोंपू बन गया है. यही नहीं, चैनलों ने लगातार मोदी के ‘विकास’ के आधे सच्चे-आधे झूठे दावों और आइडियाज को बहस और चर्चा का मुद्दा बनाकर उसे एक विश्वसनीयता भी प्रदान की है.
यह सही है कि इन चर्चाओं में मोदी माडल के आलोचकों को भी जगह दी जाती है लेकिन अंततः इससे मोदी के ‘विकास’ को ही एक तरह की वैधता और विश्वसनीयता मिलती है. इसी तरह मोदी के विकल्प में राहुल को पेश करके एक तरह से मोदी को एक तुलनात्मक बढ़त दी जाती है.
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि मोदी के छवि निर्माण में देश-विदेशी पी.आर कंपनियों और स्पिन डाक्टरों की संगठित टीम का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. इस छवि निर्माण अभियान पर सैकड़ों करोड़ रूपये खर्चे जा रहे हैं. इसमें चैनलों से लेकर सोशल मीडिया के प्लेटफार्म का भी संगठित और योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इन तौर-तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर रही है या उसके पास पी.आर कंपनियों-सोशल मीडिया टीमों की कमी है. उसका और यू.पी.ए सरकार का प्रचार बजट मोदी से कम नहीं है. मजे की बात यह है कि कारपोरेट मीडिया ‘मोदी बनाम राहुल’ के कृत्रिम टकराव का इस रूप में भी लाभार्थी है कि उसे दोनों के प्रचार बजट का बड़ा हिस्सा मिल रहा है.
 
कहने की जरूरत नहीं है कि मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था और घटते कारपोरेट विज्ञापनों के बीच चुनाव उसके लिए बड़ी उम्मीद बन कर आया है. चुनावों के लिए उसकी जल्दबाजी की वजह यह भी है कि उसे ‘मोदी बनाम राहुल’ की ऊँचे दांवों की लड़ाई में अपने लिए छप्पर-फाड़ मुनाफे की उम्मीद दिखाई दे रही है.

यह और बात है कि इस प्रक्रिया में अमीर होते कारपोरेट न्यूज मीडिया के बीच भारतीय लोकतंत्र की दरिद्रता कुछ और बढ़ जाएगी.

('कथादेश' के मई'13 के अंक में प्रकाशित स्तंभ की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

रविवार, मई 19, 2013

टेलीविजन निर्देशित जनतंत्र की ओर

कारपोरेट मीडिया और ‘मोदी बनाम राहुल’ का संकीर्ण विकल्प    

पहली क़िस्त 

राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ न्यूज चैनल भी अगले आम चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं. हालाँकि आम चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में होने हैं लेकिन बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता के बीच उसके इस साल अक्टूबर-नवंबर तक होने के भी कयास लगाये जा रहे हैं. इसके संकेत इससे भी मिलते हैं कि दिल्ली की सत्ता की दावेदार पार्टियां खासकर कांग्रेस और भाजपा और उनके प्रधानमंत्री पद के घोषित-अघोषित उम्मीदवार खासे सक्रिय हो गए हैं.
व्यूह रचना तैयार होने लगी है. गठबंधन टूटने-बिगडने लगे हैं. नेताओं के दौरों और बैठकों में तेजी आ गई है. पार्टियों और नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाजी शुरू हो गई है और उसका सुर लगातार कर्कश और तेज होने लगा है.
इसके साथ ही न्यूज चैनल भी चुनाव मोड में आ गए हैं. चैनलों पर भी राजनीतिक खबरें लौट आईं हैं. बुलेटिनों में राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों की खबरें सुर्खियाँ बनने लगी हैं. नेताओं, पार्टियों के प्रवक्ताओं के साथ-साथ राजनीतिक पंडितों और रिपोर्टरों की मांग बढ़ गई है.

चैनल नेताओं के घरों और पार्टियों के दफ्तरों से लेकर उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं. ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ के अंदाज़ में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की सभाओं और भाषणों का लाइव प्रसारण बढ़ गया है. राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों पर प्राइम टाइम चर्चाएं/बहसें बढ़ गईं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक दल और उनके नेता भी चैनलों की रिपोर्टिंग, बहसों और लाइव प्रसारणों में खूब दिलचस्पी ले रहे हैं. वे चैनलों पर दिखने और बोलने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं. असल में, न्यूज चैनलों के पर्दे आगामी चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक युद्ध के असली अखाड़े बन गए हैं जहाँ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच छवि और ‘परसेप्शन’ की लड़ाई लड़ी जा रही है.  
आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक पार्टियां और उससे अधिक उनके नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दावेदार
अपनी रणनीति और कार्यक्रम चैनलों को ध्यान में रखकर बना रहे हैं. वे चैनलों को अपनी बातों, दावों और वायदों को लोगों तक पहुंचाने और इस तरह अपनी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
इन शुरूआती रुझानों और पिछले कुछ चुनावों के अनुभवों से यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस बार के आम चुनावों में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका पहले के किसी भी आम चुनाव की तुलना में ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण रहेगी.

इसका संकेत इस तथ्य से मिलता है कि चुनावों की घोषणा और प्रचार शुरू होने से पहले ही चैनलों पर न सिर्फ प्रचार युद्ध शुरू हो गया है बल्कि ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ की होड़ भी शुरू हो गई है.

यही नहीं, चैनलों ने जिस तरह से पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री के दावेदार के बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी को उछाला है और पूरे राजनीतिक मुकाबले को इन दोनों के बीच सीमित कर दिया है, उससे पूरा चुनाव संसदीय चुनाव से ज्यादा राष्ट्रपति चुनाव लगने लगा है.

हालाँकि राजनीतिक मैदान में और कई खिलाडी हैं और पिछले डेढ़ दशकों से आम चुनावों के नतीजे विभिन्न राज्यों के नतीजों के जोड़ से बनते रहे हैं जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं की भूमिका बढ़ती जा रही है लेकिन न्यूज चैनल उसे अमेरिकी पैटर्न के द्वि-दलीय राष्ट्रपति चुनाव बनाने पर तुले हैं.
पूरी चुनावी चर्चा और बहस को बिलकुल अमेरिकी पैटर्न पर प्रधानमंत्री पद के दोनों कथित उम्मीदवारों- नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया है. दोनों उम्मीदवारों के व्यक्तित्व पर चैनलों और बाकी न्यूज मीडिया का इतना अधिक फोकस है कि एकाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक मुद्दे, नीतिगत सवाल और विचार पृष्ठभूमि में चले गए हैं.
सच पूछिए तो ऐसा लगने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र भी अमेरिका और दूसरे कई विकसित पश्चिमी देशों की तरह काफी हद तक एक ‘टीवीकृत लोकतंत्र’ (टेलीवाईज्ड डेमोक्रेसी) बनता जा रहा है जहाँ राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन और डेमोक्रटिक पार्टी के उम्मीदवारों के नैन-नक्श, चाल-ढाल और फैशन से लेकर वक्तृत्व कला, प्रस्तुति और स्टाइल की चर्चा उनके राजनीतिक विचारों, नीतियों, और कार्यक्रमों से कहीं ज्यादा होती है.

इसकी वजह यह है कि अमेरिकी राजनीति में विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच आर्थिक-राजनीतिक-वैदेशिक नीति के मामले में फर्क बहुत कम रह गया है. कुछ यही स्थिति ब्रिटेन की भी हो गई है.

सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र भी उसी दिशा में बढ़ रहा है या बढ़ाया जा रहा है? यह किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस के वर्चस्व के खात्मे के बाद शासक वर्ग लंबे अरसे से कोशिश कर रहा है कि राजनीतिक विकल्प को शासक वर्ग की दोनों प्रतिनिधि पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के बीच सीमित कर दिया जाए और उन्हीं दोनों के बीच सत्ता का अदल-बदल होता रहे.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक-वैदेशिक-राजनीतिक नीतियों में कुछ मामूली-दिखावटी फर्कों के व्यापक समानता है. यही नहीं, साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर उनमें अंतर दिखाने की कोशिश की जाती है लेकिन सच यह है कि यह भी काफी हद तक भ्रम है.
दोनों ही पार्टियां सांप्रदायिक गोलबंदी का इस्तेमाल करती रही हैं, फर्क सिर्फ यह है कि भाजपा कट्टर हिंदुत्व का कार्ड खेलती है जबकि कांग्रेस नरम हिंदुत्व का सहारा लेती रही है. जनता का बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे इस सच्चाई को समझने लगा है कि ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे की वास्तविक विकल्प नहीं हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि शासक वर्गों की तमाम कोशिशों के बावजूद बड़ी संख्या में लोग न सिर्फ द्विदलीय व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं है बल्कि वह लगातार इन दोनों से इतर विकल्प की तलाश कर रहे हैं. क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार इसका प्रमाण है.

हालाँकि शासक वर्ग इन क्षेत्रीय और छोटे दलों को कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाले दो गठबंधनों में समेटने और अपने हितों के मातहत लाने में कामयाब रहा है लेकिन वह खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स इस व्यवस्था से बहुत खुश नहीं हैं. उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही है.

शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की नाराजगी की वजह यह है कि गठबंधनों के अंदर
राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, हितों के टकराव और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से पैदा होनेवाले मतभेदों, खींचतान और पापुलिज्म के कारण नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में मुश्किलें-रुकावटें आती हैं, देरी होती है और कई बार ‘पापुलिज्म’ के दबाव में जनता को कुछ राहतें/रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
यही नहीं, शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था (अरेंजमेंट) से बेचैनी की वजह यह भी है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर ‘जल-जंगल-जमीन-खनिज’ की कारपोरेट लूट को देश भर में गरीब, किसान, श्रमिक और आदिवासी खुली चुनौती दे रहे हैं लेकिन यू.पी.ए सरकार उसे दबाने या संभालने में बहुत कामयाब नहीं हो पाई है.
जाहिर है कि शासक वर्ग इस स्थिति को बदलना चाहता है और इसकी जगह ‘एक विचार-दो पार्टियों’ की व्यवस्था को आगे बढ़ाना चाहता है जिससे वह बेहतर राजनीतिक प्रबंधन के साथ उन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ा सके जो आम लोगों खासकर गरीबों-दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर बड़ी पूंजी-कारपोरेट की लूट का रास्ता साफ करते हैं.

इस समझ और रणनीति के तहत ही बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स अगले आम चुनावों से पहले कांग्रेस और यू.पी.ए के विकल्प के बतौर भाजपा और एन.डी.ए को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कांग्रेस-यू.पी.ए की साख पाताल में पहुँच चुकी है और उसका दुबारा सत्ता में लौटना मुश्किल है.

जारी...

('कथादेश' के मई अंक में प्रकाशित स्तंभ की पहली क़िस्त)