बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए भले टल जाए लेकिन उसकी वापसी तय है
उस समय भी अर्थव्यवस्था के संकट को बहाना बनाते हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए यह तर्क दिया गया था कि ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है (देयर इज नो आल्टरनेटिव).’ यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आज एक बार फिर ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (१९९१ में वित्त मंत्री) अर्थव्यवस्था के संकट की दुहाई देकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले चरण को अपरिहार्य बता रहे हैं.
कहा जा रहा था कि यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ (पॉलिसी पैरालिसिस) की शिकार हो गई है. वह आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है जिसके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि ‘नीतिगत पक्षाघात’ का सबसे ज्यादा शोर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट समूह और उनके हितों के मुखर पैरोकार मचा रहे थे.
इसके साथ ही निवेश को बढ़ावा देने के नामपर एक हजार करोड़ रूपये से अधिक के प्रोजेक्ट्स को सीधी मंजूरी देने और उसकी राह में आनेवाली अडचनों को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट कमिटी आन इन्वेस्टमेंट का गठन किया गया. इसके पीछे तर्क दिया गया कि बड़े प्रोजेक्ट्स लालफीताशाही और पर्यावरण मंजूरी जैसे अडचनों के कारण लंबे समय तक फंसे रहते हैं.
लेकिन यू.पी.ए सरकार न सिर्फ अपने फैसलों पर डटी हुई है बल्कि वह नव आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले और फैसले किये जा रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूह यू.पी.ए सरकार के इन ‘साहसिक और कड़े’ फैसलों से खुश हैं, सरकार की तारीफों के पुल बांधने में जुटा हुआ है और अब ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकायतें बंद हो गई हैं.
यह संभव है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए टल जाए लेकिन फिर कुछ समय बाद उसकी वापसी भी तय है. आश्चर्य नहीं कि पिछले चार महीनों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के अनुकूल फैसलों के कारण तात्कालिक तौर पर देश में आवारा पूंजी का प्रवाह फिर से बढ़ा है जिससे शेयर बाजार सुधरा है और डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट थमी है और औद्योगिक उत्पादन में भी तात्कालिक उछाल दिखा है.
यही नहीं, सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जब अर्थव्यवस्था उछाल पर होती है तो उसकी मलाई बड़ी पूंजी, निवेशक, कम्पनियाँ, अमीर और उच्च मध्य वर्ग चट कर जाते हैं और आमलोगों खासकर गरीबों के हिस्से छाछ भी नहीं आती है. लेकिन जब संकट की कीमत चुकाने की बारी आती है तो उसकी पूरा बोझ उनपर ही डाला जाता है.
ताजा संकट भी इसका अपवाद नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस खेल ने पूरे लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है क्योंकि बड़ी पूंजी के इस सर्वव्यापी राज में सरकारें बदलने से भी नव आर्थिक सुधारों की दिशा नहीं बदलती.
आमलोगों की राय का कोई मतलब नहीं रह गया है. आखिर क्या कारण है कि सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ लगानेवाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के लटकाए रखे जाने को ‘नीतिगत पक्षाघात’ नहीं मानते हैं?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 29 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)
कहते हैं कि हर आर्थिक-राजनीतिक संकट एक मौका भी होता है. वैश्विक
आर्थिक संकट के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं
है. आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के इस गहराते संकट को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक
मैनेजरों और नव उदारवादी आर्थिक सलाहकारों ने बहुत चालाकी के साथ मौके और उससे
अधिक एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया है.
साल २०१२ के उत्तरार्ध में यू.पी.ए सरकार
ने जिस तेजी और झटके के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले और सबसे कड़वे चरण
को आगे बढ़ाया है, उससे ऐसा लगता है जैसे वह अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने का ही
इंतज़ार कर रही थी.
हालाँकि यह पहली बार नहीं हो रहा है. भारत में विश्व बैंक-मुद्रा कोष
की अगुवाई में १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पहले चरण की शुरुआत भी ऐसी
ही परिस्थिति में हुई थी, जब भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के गहरे संकट में
फंस गई थी. उस समय भी अर्थव्यवस्था के संकट को बहाना बनाते हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए यह तर्क दिया गया था कि ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है (देयर इज नो आल्टरनेटिव).’ यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आज एक बार फिर ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (१९९१ में वित्त मंत्री) अर्थव्यवस्था के संकट की दुहाई देकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले चरण को अपरिहार्य बता रहे हैं.
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और लोगों में उसे
स्वीकार्य बनाने के लिए यह एक जानी-पहचानी रणनीति है जिसे ‘झटका उपचार’ (शाक
थेरेपी) के नाम से भी जाना जाता है. सबसे पहले इसकी वकालत नव उदारवादी आर्थिक
सुधारों के सबसे प्रमुख सिद्धांतकार और शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्री मिल्टन
फ्रीडमैन ने की थी.
उन्होंने इसे ‘झटका नीति’ (शाक पालिसी) का नाम दिया था जिसे
बाद में उनके एक शिष्य और अर्थशास्त्री जैफ्री साक्स ने ‘झटका उपचार’ (शाक थेरेपी)
कहा. इस रणनीति में आर्थिक-राजनीतिक संकट को एक अवसर की तरह इस्तेमाल करके कड़वे
आर्थिक फैसलों को एक झटके में और एकबारगी लागू करने पर जोर दिया जाता है ताकि
लोगों को संभलने और उसपर प्रतिक्रिया करने का समय न मिल सके.
हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार ने आर्थिक सुधारों के अगले
दौर और उसके तहत कई कड़वे फैसलों को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा आर्थिक संकट को
इस्तेमाल किया है. इसके लिए पिछले कई महीनों से गुलाबी अखबारों, मीडिया, कारपोरेट
समूहों के जरिये अनुकूल माहौल बनाया जा रहा था. कहा जा रहा था कि यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ (पॉलिसी पैरालिसिस) की शिकार हो गई है. वह आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है जिसके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि ‘नीतिगत पक्षाघात’ का सबसे ज्यादा शोर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट समूह और उनके हितों के मुखर पैरोकार मचा रहे थे.
रही-सही कसर वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने इस धमकी के साथ पूरी
कर दी कि अगर सरकार ने आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया और कड़े कदम नहीं उठाये तो
वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिरा देंगी. यू.पी.ए सरकार ने इस धमकी को बहाने की तरह
इस्तेमाल किया और एक तरह से देश को डराने की कोशिश की कि अगर कड़े फैसले नहीं किये
गए तो देश एक बार फिर १९९१ की तरह के संकट में फंस सकता है.
इस तरह आर्थिक सुधारों
के दूसरे चरण को पेश करने का स्टेज पूरी तरह से तैयार हो चुका था. इसके बाद सरकार
ने आनन-फानन में कई बड़े नीतिगत फैसलों की घोषणा की जिसमें खुदरा बाजार और घरेलू
एयरलाइंस सेवा को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बैंकिंग-बीमा और पेंशन
क्षेत्र में विदेशी निवेश की इजाजत देने या उसकी सीमा सीमा बढ़ाने तक के फैसले
शामिल थे.
इसके अलावा यू.पी.ए सरकार ने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने और
उसका विश्वास जीतने के लिए वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स कानून में संशोधन करने
और टैक्स कानून के छिद्र बंद करने के लिए लाये जा रहे ‘गार’ नियमों को ठन्डे बस्ते
में डालने की घोषणा की. आवारा पूंजी यानी विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को निवेश
सम्बन्धी कई रियायतें देने का एलान किया गया. इसके साथ ही निवेश को बढ़ावा देने के नामपर एक हजार करोड़ रूपये से अधिक के प्रोजेक्ट्स को सीधी मंजूरी देने और उसकी राह में आनेवाली अडचनों को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट कमिटी आन इन्वेस्टमेंट का गठन किया गया. इसके पीछे तर्क दिया गया कि बड़े प्रोजेक्ट्स लालफीताशाही और पर्यावरण मंजूरी जैसे अडचनों के कारण लंबे समय तक फंसे रहते हैं.
यही नहीं, सरकार ने आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी वचनबद्धता साबित
करने के लिए राजकोषीय घाटे में कटौती की आड़ में पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की
कीमतों में वृद्धि और सब्सिडीकृत गैस सिलेंडरों की संख्या छह तक सीमित करने की भी
घोषणा की. राजकोषीय घाटे में कटौती के मकसद से केलकर समिति का गठन किया गया जिसने
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश से लेकर पेट्रोलियम-खाद्य-उर्वरक
सब्सिडी में कटौती और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जैसी कई सिफारिशें की हैं.
वित्त
मंत्री उन्हें एक-एक करके लागू करने में जुटे हुए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि
डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का फैसला भी आर्थिक सुधारों के ही पैकेज का हिस्सा है और
इसका मुख्य मकसद सब्सिडी के बोझ को कम करना है.
हालाँकि इन फैसलों का देशव्यापी विरोध हुआ है और आमलोगों में नाराजगी
बढ़ी है. यहाँ तक कि यू.पी.ए गठबंधन के अंदर भी दरार पड़ गई और तृणमूल कांग्रेस के
बाहर निकलने के कारण सरकार अल्पमत में आ गई है. लेकिन यू.पी.ए सरकार न सिर्फ अपने फैसलों पर डटी हुई है बल्कि वह नव आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले और फैसले किये जा रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूह यू.पी.ए सरकार के इन ‘साहसिक और कड़े’ फैसलों से खुश हैं, सरकार की तारीफों के पुल बांधने में जुटा हुआ है और अब ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकायतें बंद हो गई हैं.
जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर दांव
बहुत सोच-समझकर लगाया है. असल में, उसने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है.
पहला, उसने जिस ‘शाक थेरेपी’ वाली रणनीति के साथ इन आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया,
उसके कारण सरकार पर भ्रष्टाचार-घोटालों और याराना पूंजीवाद को बढ़ावा देने जैसे
गंभीर आरोप तात्कालिक तौर पर राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर हो गए हैं.
दूसरे, यू.पी.ए
सरकार ने देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करके उसका विश्वास जीतने में कामयाबी हासिल
की है. बड़ी पूंजी का समर्थन सत्ता में बने रहने के लिए कितना जरूरी है, यह किसी से
छुपा नहीं है. तीसरे, वह इन सुधारों के मुखर समर्थक मध्य वर्ग को भी आकर्षित करने
में सफल रही है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था का संकट खत्म हो जाएगा?
इसका उत्तर है- बिलकुल नहीं. इसकी वजह यह है कि जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के
कारण यह आर्थिक संकट आया है, उन्हीं सुधारों में उसका उत्तर खोजने से संकट खत्म
होनेवाला नहीं है. यूरोप का उदाहरण सामने है. यह संभव है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए टल जाए लेकिन फिर कुछ समय बाद उसकी वापसी भी तय है. आश्चर्य नहीं कि पिछले चार महीनों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के अनुकूल फैसलों के कारण तात्कालिक तौर पर देश में आवारा पूंजी का प्रवाह फिर से बढ़ा है जिससे शेयर बाजार सुधरा है और डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट थमी है और औद्योगिक उत्पादन में भी तात्कालिक उछाल दिखा है.
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसे ही अर्थव्यवस्था में सुधार के ‘हरे
अंकुर’ (ग्रीन शूट्स) बता रहे हैं. लेकिन असल सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी
आर्थिक सुधारों की ताजा खुराक से भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट पूरी तरह से दूर हो जाएगा?
इसकी क्या गारंटी है कि यह संकट दोबारा नहीं आएगा?
असल में, नव उदारवादी आर्थिक
सुधारों के हर नए डोज से अर्थव्यवस्था में कुछ समय के लिए एक बुलबुला पैदा होता
है. अर्थव्यवस्था एक उछाल लेती है और ८-९ फीसदी की वृद्धि दर को उसकी सेहत का सबसे
बड़ा प्रमाण मान लिया जाता है. लेकिन पिछले दो दशकों का इतिहास इसका गवाह है कि
अर्थव्यवस्था का संकट जल्दी ही फिर लौट आता है.
उस समय एक बार फिर से बड़ी पूंजी के लिए और रियायतों की मांग शुरू हो
जाती है. संकट को टालने के नामपर उसे और रियायतें दी जाती हैं. इस तरह से
धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा
रही है. लेकिन याद रहे कि इन रियायतों की असली कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ती है
जिन्हें बिना किसी अपवाद के इन कड़े फैसलों की मार झेलनी पड़ती है. यही नहीं, सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जब अर्थव्यवस्था उछाल पर होती है तो उसकी मलाई बड़ी पूंजी, निवेशक, कम्पनियाँ, अमीर और उच्च मध्य वर्ग चट कर जाते हैं और आमलोगों खासकर गरीबों के हिस्से छाछ भी नहीं आती है. लेकिन जब संकट की कीमत चुकाने की बारी आती है तो उसकी पूरा बोझ उनपर ही डाला जाता है.
ताजा संकट भी इसका अपवाद नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस खेल ने पूरे लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है क्योंकि बड़ी पूंजी के इस सर्वव्यापी राज में सरकारें बदलने से भी नव आर्थिक सुधारों की दिशा नहीं बदलती.
आमलोगों की राय का कोई मतलब नहीं रह गया है. आखिर क्या कारण है कि सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ लगानेवाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के लटकाए रखे जाने को ‘नीतिगत पक्षाघात’ नहीं मानते हैं?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 29 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)