सोमवार, जनवरी 14, 2013

नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नए दौर की मार भी गरीबों पर पड़ रही है

बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए भले टल जाए लेकिन उसकी वापसी तय है  

कहते हैं कि हर आर्थिक-राजनीतिक संकट एक मौका भी होता है. वैश्विक आर्थिक संकट के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं है. आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के इस गहराते संकट को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नव उदारवादी आर्थिक सलाहकारों ने बहुत चालाकी के साथ मौके और उससे अधिक एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया है.
साल २०१२ के उत्तरार्ध में यू.पी.ए सरकार ने जिस तेजी और झटके के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले और सबसे कड़वे चरण को आगे बढ़ाया है, उससे ऐसा लगता है जैसे वह अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने का ही इंतज़ार कर रही थी.
हालाँकि यह पहली बार नहीं हो रहा है. भारत में विश्व बैंक-मुद्रा कोष की अगुवाई में १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पहले चरण की शुरुआत भी ऐसी ही परिस्थिति में हुई थी, जब भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के गहरे संकट में फंस गई थी.

उस समय भी अर्थव्यवस्था के संकट को बहाना बनाते हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए यह तर्क दिया गया था कि ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है (देयर इज नो आल्टरनेटिव).’ यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आज एक बार फिर ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (१९९१ में वित्त मंत्री) अर्थव्यवस्था के संकट की दुहाई देकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले चरण को अपरिहार्य बता रहे हैं.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और लोगों में उसे स्वीकार्य बनाने के लिए यह एक जानी-पहचानी रणनीति है जिसे ‘झटका उपचार’ (शाक थेरेपी) के नाम से भी जाना जाता है. सबसे पहले इसकी वकालत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के सबसे प्रमुख सिद्धांतकार और शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने की थी.
उन्होंने इसे ‘झटका नीति’ (शाक पालिसी) का नाम दिया था जिसे बाद में उनके एक शिष्य और अर्थशास्त्री जैफ्री साक्स ने ‘झटका उपचार’ (शाक थेरेपी) कहा. इस रणनीति में आर्थिक-राजनीतिक संकट को एक अवसर की तरह इस्तेमाल करके कड़वे आर्थिक फैसलों को एक झटके में और एकबारगी लागू करने पर जोर दिया जाता है ताकि लोगों को संभलने और उसपर प्रतिक्रिया करने का समय न मिल सके.  
हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार ने आर्थिक सुधारों के अगले दौर और उसके तहत कई कड़वे फैसलों को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा आर्थिक संकट को इस्तेमाल किया है. इसके लिए पिछले कई महीनों से गुलाबी अखबारों, मीडिया, कारपोरेट समूहों के जरिये अनुकूल माहौल बनाया जा रहा था.

कहा जा रहा था कि यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ (पॉलिसी पैरालिसिस) की शिकार हो गई है. वह आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है जिसके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि ‘नीतिगत पक्षाघात’ का सबसे ज्यादा शोर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट समूह और उनके हितों के मुखर पैरोकार मचा रहे थे.

रही-सही कसर वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने इस धमकी के साथ पूरी कर दी कि अगर सरकार ने आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया और कड़े कदम नहीं उठाये तो वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिरा देंगी. यू.पी.ए सरकार ने इस धमकी को बहाने की तरह इस्तेमाल किया और एक तरह से देश को डराने की कोशिश की कि अगर कड़े फैसले नहीं किये गए तो देश एक बार फिर १९९१ की तरह के संकट में फंस सकता है.
इस तरह आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण को पेश करने का स्टेज पूरी तरह से तैयार हो चुका था. इसके बाद सरकार ने आनन-फानन में कई बड़े नीतिगत फैसलों की घोषणा की जिसमें खुदरा बाजार और घरेलू एयरलाइंस सेवा को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बैंकिंग-बीमा और पेंशन क्षेत्र में विदेशी निवेश की इजाजत देने या उसकी सीमा सीमा बढ़ाने तक के फैसले शामिल थे.
इसके अलावा यू.पी.ए सरकार ने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने और उसका विश्वास जीतने के लिए वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स कानून में संशोधन करने और टैक्स कानून के छिद्र बंद करने के लिए लाये जा रहे ‘गार’ नियमों को ठन्डे बस्ते में डालने की घोषणा की. आवारा पूंजी यानी विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को निवेश सम्बन्धी कई रियायतें देने का एलान किया गया.

इसके साथ ही निवेश को बढ़ावा देने के नामपर एक हजार करोड़ रूपये से अधिक के प्रोजेक्ट्स को सीधी मंजूरी देने और उसकी राह में आनेवाली अडचनों को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट कमिटी आन इन्वेस्टमेंट का गठन किया गया. इसके पीछे तर्क दिया गया कि बड़े प्रोजेक्ट्स लालफीताशाही और पर्यावरण मंजूरी जैसे अडचनों के कारण लंबे समय तक फंसे रहते हैं.

यही नहीं, सरकार ने आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी वचनबद्धता साबित करने के लिए राजकोषीय घाटे में कटौती की आड़ में पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि और सब्सिडीकृत गैस सिलेंडरों की संख्या छह तक सीमित करने की भी घोषणा की. राजकोषीय घाटे में कटौती के मकसद से केलकर समिति का गठन किया गया जिसने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश से लेकर पेट्रोलियम-खाद्य-उर्वरक सब्सिडी में कटौती और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जैसी कई सिफारिशें की हैं.
वित्त मंत्री उन्हें एक-एक करके लागू करने में जुटे हुए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का फैसला भी आर्थिक सुधारों के ही पैकेज का हिस्सा है और इसका मुख्य मकसद सब्सिडी के बोझ को कम करना है.
हालाँकि इन फैसलों का देशव्यापी विरोध हुआ है और आमलोगों में नाराजगी बढ़ी है. यहाँ तक कि यू.पी.ए गठबंधन के अंदर भी दरार पड़ गई और तृणमूल कांग्रेस के बाहर निकलने के कारण सरकार अल्पमत में आ गई है.

लेकिन यू.पी.ए सरकार न सिर्फ अपने फैसलों पर डटी हुई है बल्कि वह नव आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले और फैसले किये जा रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूह यू.पी.ए सरकार के इन ‘साहसिक और कड़े’ फैसलों से खुश हैं, सरकार की तारीफों के पुल बांधने में जुटा हुआ है और अब ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकायतें बंद हो गई हैं.
जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर दांव बहुत सोच-समझकर लगाया है. असल में, उसने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है. पहला, उसने जिस ‘शाक थेरेपी’ वाली रणनीति के साथ इन आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया, उसके कारण सरकार पर भ्रष्टाचार-घोटालों और याराना पूंजीवाद को बढ़ावा देने जैसे गंभीर आरोप तात्कालिक तौर पर राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर हो गए हैं.
दूसरे, यू.पी.ए सरकार ने देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करके उसका विश्वास जीतने में कामयाबी हासिल की है. बड़ी पूंजी का समर्थन सत्ता में बने रहने के लिए कितना जरूरी है, यह किसी से छुपा नहीं है. तीसरे, वह इन सुधारों के मुखर समर्थक मध्य वर्ग को भी आकर्षित करने में सफल रही है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था का संकट खत्म हो जाएगा? इसका उत्तर है- बिलकुल नहीं. इसकी वजह यह है कि जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण यह आर्थिक संकट आया है, उन्हीं सुधारों में उसका उत्तर खोजने से संकट खत्म होनेवाला नहीं है. यूरोप का उदाहरण सामने है.

यह संभव है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए टल जाए लेकिन फिर कुछ समय बाद उसकी वापसी भी तय है. आश्चर्य नहीं कि पिछले चार महीनों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के अनुकूल फैसलों के कारण तात्कालिक तौर पर देश में आवारा पूंजी का प्रवाह फिर से बढ़ा है जिससे शेयर बाजार सुधरा है और डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट थमी है और औद्योगिक उत्पादन में भी तात्कालिक उछाल दिखा है.

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसे ही अर्थव्यवस्था में सुधार के ‘हरे अंकुर’ (ग्रीन शूट्स) बता रहे हैं. लेकिन असल सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की ताजा खुराक से भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट पूरी तरह से दूर हो जाएगा? इसकी क्या गारंटी है कि यह संकट दोबारा नहीं आएगा?
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के हर नए डोज से अर्थव्यवस्था में कुछ समय के लिए एक बुलबुला पैदा होता है. अर्थव्यवस्था एक उछाल लेती है और ८-९ फीसदी की वृद्धि दर को उसकी सेहत का सबसे बड़ा प्रमाण मान लिया जाता है. लेकिन पिछले दो दशकों का इतिहास इसका गवाह है कि अर्थव्यवस्था का संकट जल्दी ही फिर लौट आता है.
उस समय एक बार फिर से बड़ी पूंजी के लिए और रियायतों की मांग शुरू हो जाती है. संकट को टालने के नामपर उसे और रियायतें दी जाती हैं. इस तरह से धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा रही है. लेकिन याद रहे कि इन रियायतों की असली कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ती है जिन्हें बिना किसी अपवाद के इन कड़े फैसलों की मार झेलनी पड़ती है.

यही नहीं, सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जब अर्थव्यवस्था उछाल पर होती है तो उसकी मलाई बड़ी पूंजी, निवेशक, कम्पनियाँ, अमीर और उच्च मध्य वर्ग चट कर जाते हैं और आमलोगों खासकर गरीबों के हिस्से छाछ भी नहीं आती है. लेकिन जब संकट की कीमत चुकाने की बारी आती है तो उसकी पूरा बोझ उनपर ही डाला जाता है.
 
ताजा संकट भी इसका अपवाद नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस खेल ने पूरे लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है क्योंकि बड़ी पूंजी के इस सर्वव्यापी राज में सरकारें बदलने से भी नव आर्थिक सुधारों की दिशा नहीं बदलती.

आमलोगों की राय का कोई मतलब नहीं रह गया है. आखिर क्या कारण है कि सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ लगानेवाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के लटकाए रखे जाने को ‘नीतिगत पक्षाघात’ नहीं मानते हैं?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 29 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)

मंगलवार, जनवरी 08, 2013

इस आन्दोलन ने महिला आन्दोलन को फिर से जिन्दा कर दिया है

यह अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है

दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए प्राणान्तक घावों के बावजूद जीना चाहती थी. देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते थे. लेकिन वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई. यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर यौन हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी.
उसके जाने के बाद भी दिल्ली, पंजाब, बिहार, गुजरात से लेकर बंगाल तक से स्त्रियों पर यौन हिंसा, बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं. अखबारों और चैनलों में अब भी ऐसी ख़बरों की भरमार है. लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है. इस बार अखबारों और न्यूज चैनलों में स्त्रियों पर होनेवाली बर्बर हिंसा की खबरों से ज्यादा जगह और सुर्ख़ियों में उसके विरोध की खबरें हैं.
उस बहादुर लड़की के संघर्ष और शहादत ने देश के लाखों नौजवानों खासकर लड़कियों और आम लोगों में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है. दिल्ली से लेकर देश भर के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में हजारों-लाखों युवा और आम नागरिक ‘हमें न्याय चाहिए’ और ‘हमें चाहिए- आज़ादी’ के नारों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं.
खासकर दिल्ली में जिस बड़ी संख्या में युवा सड़कों पर और उसमें भी खासकर सत्ता के केन्द्र रायसीना पहाड़ी, विजय चौक और इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं और पुलिसिया दमन के बावजूद पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, उसने सत्ता प्रतिष्ठान के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग को एक साथ चौंका और डरा दिया है.

हड़बड़ी और घबड़ाहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने कानून में बदलाव और दिल्ली गैंग रेप की जांच के लिए दो न्यायिक आयोग बनाने से लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किये हैं.
यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष तक रोज बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने से लेकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के वायदे कर रहे हैं. लेकिन लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है.
इंडिया गेट से लेकर विजय चौक तक हजारों की संख्या में पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल तैनात कर सैन्य छावनी बना देने और मेट्रो स्टेशन बंद करने के बावजूद हजारों की संख्या में नौजवान जंतर-मंतर पहुंचकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं. अपना गुस्सा जाहिर करने पहुँच रहे लोगों में छात्र-युवा लड़के और लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन उसमें ४० से ज्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है.
असल में, यह एक इन्द्रधनुषी विरोध प्रदर्शन है जिसमें रैडिकल वामपंथी संगठनों-आइसा, आर.वाई.ए, एपवा और दूसरे वामपंथी संगठन जैसे एस.एफ.आई, एडवा, एन.आई.एफ.डब्ल्यू आदि से लेकर जे.एन.यू छात्रसंघ तक और अस्मिता जैसे सांस्कृतिक संगठन से लेकर और जागोरी जैसे नारीवादी संगठनों तक कई रंगों-विचारों के संगठन हैं तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी से लेकर घोर दक्षिणपंथी ए.बी.वी.पी जैसे संगठन भी हैं.

लेकिन ए.बी.वी.पी जैसे संगठन और बाबा रामदेव जैसे धर्मगुरु को न सिर्फ इस आंदोलन में कोई तवज्जो नहीं मिली है बल्कि लोगों और खासकर युवाओं ने खुद ही अलग-थलग कर दिया है. इसके उलट आइसा-एपवा जैसे रैडिकल-वाम संगठन वहां नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और उनके तर्कों और विचारों को सुना जा रहा है.

लेकिन सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा संख्या में आम नौजवान खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं जो खुद वहां पहुँच रही हैं. इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है. वे सभी गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि ‘बस, अब बहुत हो चुका.’ सबके अपने पीड़ादायक अनुभव हैं जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का हौसला और साहस देते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन सभी लड़कियों-महिलाओं और उनके पुरुष साथियों और परिवारजनों ने चाहे वह घर की बंद चहारदीवारी हो या घर के बाहर कालोनी-मुहल्ले की सड़क या बस स्टैंड या खुद बस-मेट्रो या बाजार/शापिंग माल्स या आफिस या स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी या कोई और सार्वजनिक स्थान- लगभग हर दिन, कम या ज्यादा अश्लील फब्तियां, यौन उत्पीडन और अत्याचार अंदर जमा होते गुस्से के बावजूद डरकर और चुपचाप झेला है.
लेकिन दिल्ली गैंग रेप की बर्बरता ने उस डर को तोड़ दिया. उन हजारों-लाखों युवाओं खासकर लड़कियों को यह समझ में आ चुका है कि लड़ने और घरों से बाहर निकलकर अपनी आवाज़ बुलंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
उनका वर्षों से जमा गुस्सा फूट पड़ा है. उस गुस्से में शुरुआत में बदले की भावना भी दिखी जो न्याय की मांग करते हुए बलात्कारियों को फांसी की सजा और उनका रासायनिक बधियाकरण करने और कड़े से कड़े कानूनों की मांग कर रही थी.

लेकिन धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है जो न्याय का मतलब बदला नहीं समझती है, जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती हैं, जो कड़े कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस, कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले रही हैं जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नामपर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. वे ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

आश्चर्य नहीं कि जंतर-मंतर पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा युवा खासकर लड़कियां और महिलाएं उस गोलबंदी के साथ बैठने और नारे लगाने और गीत गाने में जुट रही हैं जिसकी अगुवाई वे प्रगतिशील-वाम संगठन कर रहे हैं जिसमें बलात्कारियों को फांसी की मांग के बजाय यह नारा लग रहा है कि ‘हमें क्या चाहिए- बेख़ौफ़ आज़ादी, घर में आज़ादी, रात में-दिन में घूमने-फिरने, आने-जाने की आज़ादी, काम करने की आज़ादी, स्कूल-कालेज जाने की आज़ादी, सिनेमा जाने की आज़ादी, प्रेम करने की आज़ादी...आज़ादी-आज़ादी.’ इस प्रक्रिया में उन हजारों युवाओं का राजनीतिकरण हो रहा है और उन्हें स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखने और समझने की दृष्टि मिल रही है. 
यहाँ ‘व्यक्तिगत, राजनीतिक बन रहा है और राजनीति, व्यक्तिगत मामला बन रही है (पर्सनल इज पोलिटिकल, पोलिटिकल इज पर्सनल).’ माफ कीजियेगा, वे भीड़ नहीं हैं क्योंकि वे एक उद्देश्य के साथ सड़कों पर उतरे हैं. वे ‘अराजकता के कद्रदान’ (कोनोसुर आफ एनार्की) तो कतई नहीं हैं क्योंकि यह सरकार और प्रशासन की अपराधियों-माफियाओं के साथ मिलकर पैदा की हुई अराजकता के खिलाफ एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बहाल करने की मांग का आंदोलन है.

वे विजय चौक और इंडिया गेट पर भारतीय संविधान या संसद या राष्ट्रपति भवन या नार्थ-साउथ ब्लाक को ध्वस्त करने भी नहीं पहुंचे थे और न ही उनका इरादा राजधानी और सत्ता के शीर्ष पर कोई अराजकता पैदा करना था.
यही नहीं, सरकारी और प्रशासनिक संवेदनहीनता से नाराजगी और गुस्से के बावजूद वे तालिबानी न्याय के पक्ष में नहीं हैं. अलबत्ता वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की नींद में खलल जरूर डालना चाहते हैं. वे उनकी शांति जरूर भंग करना चाहते हैं.
यह भी सच है कि वे समूचे राजनीतिक वर्ग और सत्ताधारियों से नाराज हैं. उन्हें लगता है और सौ फीसदी सही लगता है कि दिल्ली की वह बहादुर लड़की उस बस में गैंग रेप का विरोध करती और लड़ती हुई इसलिए मारी गई क्योंकि अपराधी-लम्पट तत्वों, भ्रष्ट पुलिस और परिवहन विभाग और उनके सबसे बड़े संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को आमलोगों की कोई परवाह नहीं है.
अफसोस की बात यह है कि इस जनउभार और धीरे-धीरे उसके आंदोलन बनने का स्वागत करने के बजाय कई उदार बुद्धिजीवी उससे भयभीत नजर आ रहे हैं. उन्हें यह एक अराजक भीड़ लग रही है जिसकी आक्रामकता और जल्दबाजी में वे फासीवादी आहट देख रहे हैं. उन्हें इसमें कानून के राज और व्यवस्था के प्रति खुला तिरस्कार और मखौल दिख रहा है.

उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है जोकि देश में पिछले कई दशकों और अनेकों बलिदानों के बाद खड़ा किये गए लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा. उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों पर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रही है.

सचमुच, उदार बुद्धिजीवियों की इस चिंता से चिंतित होने और सतर्क होने का समय आ गया है. सवाल यह है कि वे कैसा लोकतंत्र चाहते हैं? वे कैसी व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं? ये सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि एक ऐसे समय में जब देश में सत्ता-कार्पोरेट्स गठजोड़ की ओर से लोकतांत्रिक अधिकारों खासकर अभिव्यक्ति की आज़ादी, विरोध के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार आदि पर संगठित हमले बढ़ रहे हैं और खुद लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता-संकुचित होता जा रहा है, उस समय दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने ही नागरिकों और उनके सड़क पर उतरने से डर क्यों लग रहा है?
क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल पर होनेवाले चुनाव हैं? क्या नागरिकों का काम हर पांच साल पर उपलब्ध विकल्पों में एक सरकार चुन देना भर है? जाहिर है कि लोकतंत्र का मतलब नागरिकों का राजकाज के मुद्दों पर चुप रहना नहीं बल्कि सक्रिय भागीदारी है.

इस सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है. विरोध का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. इस मायने में दिल्ली में गैंग रेप के खिलाफ भड़के गुस्से और लोगों खासकर युवा लड़के-लड़कियों का सड़क पर उतरना और विरोध जाहिर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. उसने विरोध करने के अधिकार को फिर से बहाल करने की कोशिश की है. 

वे इन विरोध प्रदर्शनों में एक नागरिक के दायित्वबोध के साथ पहुँच रहे हैं. वे वहां भारतीय लोकतंत्र के एक सजग और सक्रिय नागरिक की तरह पहुँच रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग से हिसाब मांग रहे हैं.
यही नहीं, उन्हें वहां पहुंचकर विरोध जताने और अपनी आवाज़ उठाने की ताकत का अहसास हुआ है.  युवाओं के इस विरोध और आंदोलन ने एक भ्रष्ट, जड़, संवेदनहीन व्यवस्था को झकझोर दिया है. इस आंदोलन ने सत्ता में बैठे नेताओं की जवाबदेही की मांग करके लोकतंत्र को कमजोर नहीं बल्कि मजबूत किया है. इस आंदोलन ने अपनी तीव्रता के कारण बहुत छोटी अवधि में कई कामयाबियां हासिल की हैं.
इसकी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा से लेकर उनकी आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे उपर पहुंचा दिया है.

याद कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और उनकी आज़ादी और सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए थे? इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था?

कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी सबसे आखिर में और चलताऊ अंदाज़ जगह पाते रहे हैं.
लेकिन इस आंदोलन के बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए महिलाओं के मुद्दों को नजरंदाज कर पाना मुश्किल होगा. इस अर्थ में इस आंदोलन दूसरी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है.
इसने एक बलात्कार को दूसरे बलात्कार के खिलाफ खड़ा करने, एक आंदोलन को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और एक मुद्दे के विरुद्ध दूसरे मुद्दे को खड़ा करने की संकीर्ण अस्मितावादी बुद्धिजीवियों की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है.
इस आंदोलन की तीसरी बड़ी कामयाबी यह है कि लंबे अरसे बाद किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में और मुखरता के साथ मध्यम और निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएं खासकर युवा छात्राएं/लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में सड़कों पर उतरी हैं.

उन्होंने जिस तरह से पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय स्त्री की के आगमन की सूचना है. अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं नहीं आईं थीं.

इस आंदोलन की चौथी कामयाबी यह है कि इसने महिला आंदोलन को पुनर्जीवित कर दिया है. इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है. उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. उन्हें अब घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है. उनपर अब नैतिकता और इज्जत की रक्षा के नामपर भांति-भांति की पाबंदियां थोपना आसान नहीं होगा. वे अब और खुलकर अपनी इच्छाएं जाहिर कर सकेंगी और चुनाव की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगी. इस तरह पितृ-सत्ता को चुनौती बढ़ेगी.
हालाँकि पितृ-सत्ता के खिलाफ यह लड़ाई बहुत लंबी और कठिन है लेकिन इस आंदोलन ने जिस तरह से महिला आंदोलन को नई ताकत, उर्जा और गति दी है, उससे यह उम्मीद बढ़ी है कि पितृ-सत्ता के खिलाफ आंदोलन को नया आवेग मिलेगा.
क्या अब भी कहना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन से डरने के बजाय इससे आश्वस्त और आशान्वित होने की जरूरत है? सच पूछिए तो इस आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र और समाज को और बेहतर और जीवंत बनाने में मदद की है.

उस अनाम बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद भी लोग अगर घरों-कालेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अँधेरे को और गहरा करता, सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती जाती.

इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा है और साफ़ कर दिया है कि लोकतंत्र में लोगों से उपर कुछ भी नहीं है. 

('जनसत्ता' में सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जनवरी को प्रकाशित लेख का पूर्ण रूप)                  


रविवार, जनवरी 06, 2013

सामन्ती-ब्राह्मणवादी भारत के बैकलैश के प्रतिनिधि हैं भागवत

‘बलात्कार की संस्कृति’ के पोषक स्त्रियों की आज़ादी और बराबरी की मांग से बौखला गए हैं    

बलात्कारियों के छुपे हमदर्द अब बाहर निकलने लगे हैं. वैसे तो उनके हमदर्द हर जगह मिल जाएंगे लेकिन भारतीय संस्कृति और नैतिकता के स्वयंभू ठेकेदार भगवा ध्वजाधारियों से बड़ा और संगठित हमदर्द उनका और कोई नहीं है. यह तथ्य एक बार फिर साबित हो रहा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) के सर संघचालक मोहन राव भागवत के उस बयान को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने दावा किया है कि बलात्कार भारत में नहीं, ‘इंडिया’ में होते हैं. उन्होंने यह भी कहा बताते हैं कि बलात्कार गांवों और जंगलों में नहीं होते हैं.

भागवत ने अपने भाषण में किसी भ्रम की गुंजाइश को खत्म करने के लिए यह स्पष्ट किया कि शहरों में लोग पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण कर रहे हैं जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं.
जाहिर है कि भागवत दिल्ली गैंग रेप की ओर इशारा कर रहे थे क्योंकि उनकी निगाह में पश्चिमी संस्कृति में डूबी राजधानी दिल्ली और उसमें रात के नौ बजे अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखकर लौट रही वह बहादुर लड़की पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित ‘इंडिया’ के प्रतिनिधि हैं.
अगर अब भी कोई शक की गुंजाइश रह गई तो उसे भगवा ब्रिगेड के एक और संस्कृति-रक्षक और मध्यप्रदेश के उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने यह कहकर पूरा कर दिया कि महिलाओं को ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं लांघना चाहिए क्योंकि सीता की तरह लक्ष्मण रेखा लांघने पर सीताहरण भी होता है.

विजयवर्गीय के मुताबिक, महिलाओं के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ भारतीय संस्कृति है. भागवत के बचाव में उतरे भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने लीपापोती करते हुए तर्क दिया कि संघ प्रमुख भारतीय संस्कारों, परंपरा और मूल्यों का उल्लेख कर रहे थे जिसमें महिलाओं के सम्मान को सबसे उपर स्थान दिया जाता है.
सवाल यह है कि क्या यह दिल्ली गैंग रेप जैसी बर्बर और शर्मनाक घटना को परोक्ष रूप से स्वाभाविक ठहराने और बलात्कार के लिए उस बहादुर लड़की को ही दोषी बताने की कोशिश नहीं है? असल में, यह भारतीय संस्कृति की आड़ में ‘बलात्कार की संस्कृति’ का बचाव है. ‘बलात्कार की संस्कृति’ उसे कहते हैं जिसमें बलात्कार का संस्कृति, परंपरा, संस्कार से भटकाव लेकर कपड़े, चालचलन आदि बहानों से बचाव किया जाता है और बलात्कार के लिए पीड़िता को ही दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है.
कहने की जरूरत नहीं है कि सामंती पुरुष-सत्तात्मक भारतीय समाज में ‘बलात्कार की संस्कृति’ आम है और उसकी आड़ में बलात्कार को इस या उस बहाने उचित ठहराने वालों की कमी नहीं है. आमतौर पर बलात्कार की किसी भी घटना के बाद सबसे पहले महिला के चाल-चलन, कपड़ों, आधुनिकता पर सवाल उठाये जाते हैं और उसे ही दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है. गोया उसने ही बलात्कार का न्यौता दिया हो.

यही नहीं, ‘बलात्कार की संस्कृति’ का इस कदर बोलबाला है कि बलात्कार के मामलों को दबाने या छुपाने की कोशिश की जाती है क्योंकि उसके सामने आने से महिला और उससे अधिक उसके परिवार की ‘इज्जत’ जाने का खतरा है.

इसी से जुड़ा ‘बलात्कार की संस्कृति’ का दूसरा पहलू यह है कि बलात्कार को पुरुषसत्ता एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती है. पुरुष वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बलात्कार के बर्बर हथियार का सहारा लिया जाता है और उसके जरिये न सिर्फ स्त्री यौनिकता को नियंत्रित किया जाता है बल्कि सामंती दबदबे को बनाए रखने की कोशिश की जाती है. स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के जरिये ही स्त्री और सामंती-ब्राह्मणवादी समाज में अवर्णों यानी दलितों-पिछडों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों की अधीनता सुनिश्चित होती है.
आश्चर्य नहीं कि मोहन भागवत के सामंती-मध्ययुगीन ‘भारत’ में गांवों में सबसे अधिक बलात्कार होते हैं जिनमें सामंती-ब्राह्मणवादी दबदबे और वर्चस्व को बनाए रखने और उसे साबित करने के लिए दलित-पिछड़े समुदाय की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है.

यही नहीं, पिछले कुछ दशकों में सामंती-ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना को दलित-पिछड़े समुदायों की ओर से चुनौती देने पर सबक सिखाने और बदले की कार्रवाई में दलितों-पिछडों के नरसंहार, आगजनी से लेकर स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार जैसी बर्बर घटनाओं की लंबी श्रृंखला है.

लेकिन सामंती-ब्राह्मणवादी ‘भारतीय संस्कृति’ के रक्षक भगवा ब्रिगेड ने न सिर्फ इसका कभी विरोध नहीं किया बल्कि कई मौकों पर वे सामंती गुंडा गिरोहों की अगुवाई करते दिखाई दिए हैं. उनके लिए यह कभी भारतीय संस्कृति, परंपरा या संस्कार या फिर स्त्री का अपमान नहीं लगा. यही नहीं, भगवा ध्वजधारियों ने खुद भी बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है.
इसका प्रमाण भगवा ब्रिगेड के आदर्श राज्य गुजरात में २००२ के राज्य प्रायोजित नरसंहार में देखने को मिला था जब मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाने के लिए कई जगहों पर महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ हुई थीं. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि उन बलात्कारियों की अगुवाई विहिप-बजरंग दल के गुंडों ने की थी.
साफ़ है कि भगवा ब्रिगेड को न सिर्फ बलात्कार से कोई आपत्ति या परहेज नहीं है बल्कि सबक सिखाने के लिए अपने ‘आदर्श भारत’ में वह इसका इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकिचाता है. लेकिन मामला सिर्फ ‘विधर्मियों’ यानी हिंदू राष्ट्र के दुश्मनों को सबक सिखाने तक सीमित नहीं है. भगवा ब्रिगेड उन सभी स्त्रियों के खिलाफ भी है जो घर की चाहरदीवारी से बाहर शिक्षा और कामकाज के लिए निकल रही हैं या सामंती बंधनों को तोड़कर आज़ादी और बराबरी की मांग कर रही हैं.

याद रहे, भगवा ब्रिगेड के ए.बी.वी.पी-बजरंग दल-विहिप-श्रीराम सेने जैसे संगठनों ने पिछले कई वर्षों से ‘भारतीय संस्कृति’ की रक्षा के नामपर स्त्रियों के जींस पहनने, पब जाने, वैलेंटाइन डे मनाने से लेकर विधर्मियों-विजातियों से प्रेम करने के खिलाफ हिंसक मुहिम छेड रखी है.     
खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत सिलचर के बाद अब इंदौर में कहा है कि स्त्री-पुरुष के बीच एक सामाजिक सौदा (कांट्रेक्ट) है कि स्त्री घर-बच्चों को संभालेगी और पुरुष कमाकर उनका भरण-पोषण करेगा. अगर स्त्री इस कांट्रेक्ट को तोडती है, पुरुष उसे छोड़ सकता है. इसी तरह अगर पुरुष इस कांट्रेक्ट को पूरा नहीं कर पाता है तो स्त्री उसे छोड़ सकती है और नए कांट्रेक्ट के लिए जा सकती है. भागवत की हाँ में हाँ मिलाते हुए विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने भी पश्चिमी संस्कृति को कोसा है जिसके कारण भारतीय संस्कृति की पवित्रता दूषित हो रही है.
इन ताजा बयानों से साफ़ है कि भगवा ब्रिगेड दिल्ली गैंग रेप की बर्बर घटना के बाद दिल्ली और देश भर में भड़के आंदोलन में महिलाओं की आज़ादी और बराबरी की मांग से कितना घबराया और बौखलाया हुआ है. जाहिर है कि उसे इस मांग में न सिर्फ आदर्श भारतीय संस्कृति के लिए गंभीर खतरा दिखाई दे रहा है बल्कि उसके हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट की बुनियाद भी लडखडाने लगी है.

लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है. भगवा ब्रिगेड के ये बयान उस सामंती-ब्राह्मणवादी ‘भारत’ की बेचैनी और बैकलैश की अभिव्यक्ति भी हैं जो दिल्ली से लेकर देश के तमाम शहरों में महिलाओं के साथ बड़ी संख्या में छात्र-युवाओं और आम लोगों के सड़कों पर उतरकर आज़ादी और बराबरी की मांग की प्रतिक्रिया में पैदा हुई हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोहन भागवतों, विजयवर्गियों, सिंघलों से लेकर अभिजीत मुखर्जियों तक के बयानों में वही सामंती-ब्राह्मणवादी भारत पलटवार कर रहा है जिसने स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है.
लेकिन संघ प्रमुख के बयानों के बाद भगवा ब्रिगेड इस सामंती-ब्राह्मणवादी भारत के मुख्य प्रवक्ता के रूप में उभरा है. इस मायने में उसमें और तालिबान से लेकर खाप पंचायतों और देवबंदी मुल्लाओं में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.
उन सबकी राय में अद्दभुत समानता है कि स्त्री की जगह सिर्फ घर के अंदर और घरेलू कामों तक सीमित है. यही उनकी आदर्श भारतीय संस्कृति की लक्ष्मण रेखा है जिसके अंदर स्त्रियों को सबसे ज्यादा शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है और जिसे आज गांवों-कस्बों और शहरों में करोड़ों स्त्रियां लांघ रही हैं, तोड़ रही हैं और चुनौती दे रही हैं.

वे घर की चाहरदीवारी के भीतर के अंधेरों-घुटन और यौन हिंसा से बाहर आज़ादी की हवा में सांस लेना चाहती हैं और ले रही हैं. वे इस आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार नहीं हैं. उन्होंने सड़कों पर उतरकर बलात्कारियों और उनके खुले-छुपे समर्थकों को खुली चुनौती दी है.

लेकिन भागवत और उनकी भगवा ब्रिगेड और खाप जैसे उनके संगी-साथी आसानी से हार माननेवाले नहीं हैं. वे दिल्ली से लेकर देश भर में बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के खिलाफ उतरे लाखों युवाओं खासकर महिलाओं को वापस घर की चाहरदीवारी में बंद करने की हरसंभव कोशिश करेंगे.
आश्चर्य नहीं होगा अगर वैलेंटाइन डे आते-आते भगवा ब्रिगेड के बजरंगी-श्रीराम सेने पश्चिमी संस्कृति का प्रतिकार करने के नामपर युवा लड़के-लड़कियों पर हमले करते और उन्हें अपमानित करते नजर आएं.
लेकिन क्या वे इतिहास के पहिये को आगे बढ़ने से रोक पाएंगे? दिल्ली से लेकर देश भर में बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ उठी आवाजों का सन्देश साफ है- भागवत जैसों के लिए घर में बैठने का समय आ गया है.                                    

शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

छात्र-युवा आंदोलन की पुनर्वापसी के मायने

छात्रसंघ और छात्र-युवा आन्दोलन लोकतान्त्रिक राजनीति के प्राण-वायु हैं

दिल्ली गैंग रेप और महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के खिलाफ देश भर खासकर दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन में छात्रों-युवाओं की सक्रिय, सचेत और नेतृत्वकारी भूमिका को सबने नोटिस किया है. इस बर्बर और शर्मनाक घटना के विरोध में जिस तरह से दिल्ली की सड़कों खासकर मुख्यमंत्री निवास-रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट और फिर जंतर-मंतर पर छात्रों-युवाओं का गुस्सा फूटा और पुलिस की ओर से हुए लाठीचार्ज, आंसूगैस और ठन्डे पानी की बौछारों के बावजूद वे डटे रहे, उसने सत्ता प्रतिष्ठान और समूचे राजनीतिक वर्ग को हिला कर रख दिया है.  
हालाँकि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में छात्र-युवाओं के इस तरह से सड़क पर उतरने और विरोध करने की तुलना ‘फ्लैश मॉब’ से करके उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है लेकिन सच यह है कि इसने ६० से लेकर ८० के दशक तक के छात्र-युवा आंदोलनों के तूफानी दौर और जज्बे की याद दिला दी है.

यह एक मायने में राष्ट्रीय जीवन और परिदृश्य से गायब से हो गए छात्र-युवा आंदोलन के पुनर्रूज्जीवन और वापसी का संकेत भी हो सकता है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मंडल-मंदिर से विभाजित और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के तड़क-भड़क से प्रभावित छात्र-युवा आंदोलन काफी कमजोर हो गया था और उसकी धमक क्षीण सी हो गई थी.

यही नहीं, शासक वर्गों ने छात्र-युवा आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर में खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों/कालेजों में पहले छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया और फिर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के जरिये छात्रसंघों को कमजोर, अराजनीतिक और पालतू बनाने की कोशिश की.
इसकी वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर कांग्रेस पार्टियों की केन्द्र सरकार रही हो या राज्य सरकारें सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आन्दोलनों से डरती रही हैं क्योंकि ६० से ८० के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देनेवाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.
इसके अलावा छात्र-युवा आन्दोलनों को कमजोर करने में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और उनके जेबी छात्र-युवा संगठनों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है. इन सत्तारुढ़ पार्टियों ने अपने छात्र-युवा संगठनों को केवल राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ और गुंडागर्दी करने के लिए इस्तेमाल किया है.

नतीजा सामने है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण और उसे धर्मों, जातियों, क्षेत्रों और भाषाओँ के आधार पर बांटने में इन शासक पार्टियों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण ने उसे आम छात्र-युवाओं और उनके वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया और इसके कारण छात्र-युवाओं का बड़े पैमाने पर अराजनीतिकरण हुआ.  

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों से देश में इक्का-दुक्का और क्षेत्र विशेष तक सीमित छात्र-युवा आन्दोलनों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर छात्र-युवा आंदोलन की धमक नहीं सुनाई दी है. ऐसा लगने लगा था, जैसे छात्र-युवा आंदोलन इतिहास की बात हो गए हों. लेकिन २०१० में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्र-युवाओं की बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी ने छात्र-युवा आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की नई उम्मीदें पैदा कर दीं.
इसी दौरान आइसा जैसे रैडिकल-वाम और कुछ दूसरे वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों के संघर्षों के दबाव में जे.एन.यू से लेकर इलाहाबाद और पटना तक कई विश्वविद्यालयों में इस साल छात्रसंघों के चुनाव हुए और उसमें आइसा और अन्य वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों की जीत हुई.
इसका असर हमारे सामने है. दिल्ली के बर्बर गैंग रेप के बाद विरोध में सबसे पहले वाम छात्र संगठनों की अगुवाई वाला जे.एन.यू छात्रसंघ उतरा. उसने मुनीरका और वसंत विहार में बाहरी रिंग रोड को घंटों जाम रखा.

उसके अगले दिन आइसा-आर.वाई.ए-एपवा की अगुवाई में जे.एन.यू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर पर जोरदार प्रदर्शन किया जिसपर पुलिस ने वाटर कैनन से ठंडे पानी की बौछारें छोडीं और लाठीचार्ज किया. लेकिन नाराज छात्र-युवा पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं हुए.

मुख्यमंत्री निवास पर छात्र-युवाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई को पूरे देश ने न्यूज चैनलों पर देखा. इसके बाद तो जैसे लोगों खासकर छात्र-युवाओं के सब्र का बाँध टूट पड़ा. रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई.
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे छात्र-युवाओं खासकर छात्राओं ने एक तरह से राजधानी में सत्ता के केन्द्रों को घेर लिया. पुलिस के लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन के बावजूद वे पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इंडिया गेट पर तो पुलिस ने हद कर दी जहाँ शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों खासकर छात्राओं-महिलाओं तक पर लाठियां चलाने में उसे कोई संकोच और शर्म महसूस नहीं हुई.
लेकिन इस दमन से यह आंदोलन कमजोर नहीं हुआ बल्कि पूरे देश में फ़ैल चुका है. इस आंदोलन में छात्रों-युवाओं खासकर महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी और उसके कारण बने जन-दबाव का ही नतीजा है कि इसने एक झटके में महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे पर ला खड़ा किया है.

केन्द्र और राज्य सरकारों से लेकर सभी राजनीतिक दलों की नींद टूट गई है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाले यौन हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से लेकर पुलिस को चुस्त और संवेदनशील बनाने, हेल्पलाइन शुरू करने जैसे फैसले-वायदे लिए जा रहे हैं.

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस मुद्दे पर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा-एपवा जैसे संगठनों ने विरोध की पहल नहीं की होती और दिल्ली सहित पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में छात्र-युवा सड़कों पर नहीं निकले होते तो क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों की नींद खुलती?
दिल्ली गैंग रेप अपनी सारी बर्बरता के बावजूद क्या बलात्कार का एक और मामला बनकर पुलिस-कोर्ट तक सीमित नहीं रह जाता? क्या महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा का सवाल हाशिए से राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ पाता? क्या महिलाओं के विभिन्न मुद्दों पर देश भर में शुरू हुई बहस और उससे पैदा हो रही सामाजिक जागरूकता संभव हो पाती?
कहने का गरज यह कि छात्र-युवा आंदोलन और छात्रसंघ किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के प्राणवायु हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उनपर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आन्दोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के तबके मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि देश के अधिकांश राज्यों में विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यहाँ तक कि बी.एच.यू., जामिया और ए.एम.यू जैसे कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में न सिर्फ छात्रसंघों के चुनाव प्रतिबंधित हैं बल्कि वहां छात्र संगठनों की गतिविधियों और सभा-चर्चाओं तक पर भी रोक है. इस कारण पिछले वर्षों में छात्र-युवाओं की कई पीढ़ियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ और छात्र-युवा आंदोलन ठंडे से पड़ते गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को भारी नुकसान हुआ है. छात्र-युवा राजनीति का गला घोंट देने के कारण न सिर्फ नया नेतृत्व नहीं आ रहा है बल्कि उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद मजबूत हुआ है.

समय आ गया है जब छात्र-युवा आन्दोलनों के महत्व और उनकी भूमिका को देखते हुए न सिर्फ सभी विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव अनिवार्य किये जाएँ बल्कि छात्र-युवा राजनीति को भी प्रोत्साहित किया जाए.

छात्रों-युवाओं को भी सत्तारुढ़ पार्टियों के जेबी छात्र-युवा संगठनों और अपराधी छात्र-युवा नेताओं के बजाय रैडिकल बदलाव की राजनीति करनेवाले वैचारिक-राजनीतिक छात्र-युवा संगठनों को आगे बढ़ाना होगा. अन्यथा उनके छात्रसंघ की भी वही मूकदर्शक की भूमिका होगी जो मौजूदा आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की रही?

('दैनिक भास्कर' के 4 जनवरी के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण)