निजी तेल कंपनियों के मुनाफे और सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण की तैयारी है पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना
ऐसा लगता है कि जैसे यू.पी.ए सरकार पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी के
लिए मौके का इंतज़ार कर रही थी. उसके उतावलेपन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता
है कि जैसे ही संसद का बजट सत्र समाप्त हुआ, उसने सरकारी तेल कंपनियों को कीमतें
बढाने का संकेत कर दिया.
दूसरी ओर, सरकारी तेल कम्पनियाँ भी जैसे इसी मौके का
इंतज़ार कर रही थीं. उन्हें लगा कि पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी का मौका पता
नहीं फिर कब मिलेगा, इसलिए एक झटके में कीमतों में कोई ६.५० रूपये (टैक्स सहित
लगभग ७.५० रूपये) प्रति लीटर की बढोत्तरी कर दी. पेट्रोल की कीमतों में यह अब तक
की सबसे बड़ी बढोत्तरी है.
हालाँकि इस बढोत्तरी के लिए सरकार यह कहते हुए बहुत दिनों से माहौल
बना रही थी कि बढ़ते आर्थिक संकट को देखते हुए कड़े फैसले करने का वक्त आ गया है.
लेकिन यह बढोत्तरी इतनी बे-हिसाब और अतार्किक है कि खुद सरकार के मंत्रियों और
कांग्रेस के नेताओं को भी इसका बचाव करना मुश्किल हो रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि कड़े फैसले की
दुहाईयाँ देनेवाले वित्त मंत्री भी यह कहकर इस फैसले से हाथ झाड़ने की कोशिश कर रहे
हैं कि पेट्रोल की कीमतें वि-नियमित की जा चुकी हैं और उसे सरकार नहीं, बाजार और
तेल कम्पनियाँ तय करती हैं. तकनीकी तौर पर यह बात सही होते हुए भी सच यह है कि तेल
कम्पनियां सरकार की हरी झंडी के बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ाती हैं.
इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि तेल कंपनियों की मांग और दबाव के बावजूद
पिछले छह महीनों से उन्हें पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की इजाजत नहीं दी गई कारण,
पहले उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव थे और उसके तुरंत बाद
संसद का बजट सत्र शुरू हो गया, जहाँ सरकार विपक्ष को एकजुट और आक्रामक होने का
मौका नहीं देना चाहती थी.
इसीलिए संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार किया गया. इस
मायने में यह संसद के साथ धोखा है और चोर दरवाजे का इस्तेमाल है. अगर सरकार को यह
फैसला इतना जरूरी और तार्किक लगता है तो उसे संसद सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार
करने के बजाय उसे विश्वास में लेकर यह फैसला करना चाहिए था.
दूसरी बात यह है कि पेट्रोल की कीमतों में इतनी भारी वृद्धि के फैसले का
कोई आर्थिक तर्क और औचित्य नहीं है. खासकर एक ऐसे समय में जब महंगाई आसमान छू रही
है, इस फैसले के जरिये सरकार ने महंगाई की आग में तेल डालने का काम किया है.
इस
तथ्य से सरकार भी वाकिफ है लेकिन उसने आमलोगों के हितों की कीमत पर तेल कंपनियों
खासकर निजी तेल कंपनियों और उनके देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे की
गारंटी को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है. इस फैसले का एक मकसद डूबते शेयर बाजार
को आक्सीजन देना भी है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के बाद शेयर बाजार में इन तेल
कंपनियों के शेयरों की कीमतों में तेजी दिखाई दी है.
मजे की बात यह है कि तेल कम्पनियाँ पेट्रोल की कीमतों में रिकार्ड
वृद्धि के बावजूद घाटे का रोना रो रही हैं और पेट्रोल सहित अन्य पेट्रोलियम
उत्पादों की कीमतों में और अधिक वृद्धि की दुहाई दे रही हैं. हैरानी नहीं होगी,
अगर अगले कुछ दिनों में सरकार डीजल और रसोई गैस की कीमतों में भी वृद्धि का फैसला
करे. बाजार का तर्क तो यही कहता है और देशी-विदेशी निवेशक भी यही मांग कर रहे हैं.
साफ़ है कि सरकार कड़े फैसले कंपनियों, शेयर बाजार और निवेशकों को खुश करने के लिए
ले रही है. यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तेल कंपनियों को घाटा नहीं,
मुनाफा हो रहा है. वर्ष २०११ में तीनों सरकारी तेल कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ
था. इंडियन आयल को ७४४५ करोड़ रूपये, एच.पी.सी.एल को १५३९ करोड़ रूपये और
बी.पी.सी.एल को १५४७ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ था.
तेल कंपनियों का यह तर्क भी आधा सच है कि पेट्रोल और अन्य पेट्रोलियम
उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है क्योंकि कच्चे तेल
की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊँची बनी हुई हैं और हाल के महीनों में डालर
के मुकाबले रूपये की कीमत में खासी गिरावट आने से आयात महंगा हुआ है.
सवाल यह है
कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में नरमी आ रही है और कीमतें
गिरी हैं तब कीमतों में वृद्धि का क्या औचित्य है? दूसरे, क्या रूपये की कीमत में
इतनी गिरावट आ गई है कि पेट्रोल की कीमतों में रिकार्डतोड़ बढ़ोत्तरी की जाये?
यही नहीं, सवाल यह भी है कि क्या कीमतों में वृद्धि के अलावा और कोई
रास्ता नहीं था? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि सरकार समेत सबको पता है
कि पेट्रोल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी
से पहले से ही बेकाबू महंगाई को काबू में करना और मुश्किल हो जाएगा? यह किसी से
छुपा नहीं है कि ऊँची मुद्रास्फीति दर का अर्थव्यवस्था पर कितना बुरा असर पड़ रहा
है.
आखिर सरकार ने और विकल्पों पर विचार करना जरूरी क्यों नहीं समझा? यह तथ्य है
कि पेट्रोल की कीमतों में लगभग आधा केन्द्र और राज्यों के टैक्स का अधिभार है. सच
पूछिए तो केन्द्र और राज्य सरकारें पेट्रोल को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल करती
हैं. सवाल है कि क्या पेट्रोल पर लगनेवाले टैक्स को कम करने का विकल्प नहीं
इस्तेमाल किया जा सकता था?
असल में, सरकार इस फैसले के जरिये देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को यह संकेत
देना और उनका विश्वास हासिल करना चाहती है कि वह उनके हितों को आगे बढ़ाने के लिए
कड़े फैसले लेने के लिए तैयार है. यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर बड़ी
देशी-विदेशी पूंजी यह आरोप लगाती रही है कि वह ‘नीतिगत लकवेपन’ का शिकार हो गई है
और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी कड़े फैसले करने से बच रही है.
कहने
की जरूरत नहीं है कि सरकार कारपोरेट और बड़ी पूंजी के जबरदस्त दबाव में है. आर्थिक
सुधारों को आगे बढ़ाने के एजेंडे के तहत सभी पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को पूरी
तरह विनियमित करने से लेकर सरकारी तेल कंपनियों को निजी क्षेत्र को सौंपना शामिल है.
सच यह है कि यू.पी.ए सरकार इसी एजेंडे को आगे बढ़ा रही है. पेट्रोलियम
उत्पादों की कीमतों को पूरी तरह विनियमित करने का सबसे ज्यादा फायदा देशी-विदेशी
बड़ी निजी तेल कंपनियों को होगा. वे लंबे अरसे से लेवल प्लेईंग फील्ड की मांग कर
रही है. यही नहीं, इससे सरकारी तेल कंपनियों के निजीकरण का तर्क भी बनेगा.
लेकिन
सवाल यह है कि जब पूरी दुनिया खासकर अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में आम आदमी की
कीमत पर निजी तेल कंपनियों के आसमान छूते मुनाफे को लेकर सवाल उठ रहे हैं, उस समय
भारत में तेल कंपनियों के मुनाफे के लिए सरकार आम आदमी के हितों को दांव पर लगाने
से नहीं हिचक रही है.
लाख टके का सवाल यह है कि यह आम आदमी की सरकार है या तेल
कंपनियों की सरकार?
('राष्ट्रीय सहारा'के 25 मई के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)