जनांदोलनों ने लोकतंत्र को वास्तविक अर्थ और उसके दायरे को बढ़ाया है
चौथी किस्त
“....मैंने देखा कि
इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ
और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर
लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं
जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर
अपना रास्ता भटक जाते हैं।...“
-धूमिल
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले जन लोकपाल आंदोलन पर हमले अभी भी जारी हैं. मजे की बात यह है कि ये हमले दायें-बाएं और ऊपर-नीचे सभी तरफ से हो रहे हैं. कुछ बुद्धिजीवी मित्रों के साथ-साथ अधिकांश राजनीतिक दलों का आरोप है कि गैर निर्वाचित और अनुत्तरदायी सिविल सोसायटी का एक हिस्सा इस आंदोलन के जरिये संविधान और निर्वाचित संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है.
कुछ दलित-पिछड़े बुद्धिजीवियों के मुताबिक, “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” इस आंदोलन के जरिये बाबा साहब भीम राव आंबेडकर के बनाए उस संविधान को पलटने की कोशिश कर रहा है जिसने दलितों-पिछड़ों को “बराबरी के अधिकार से लेकर आरक्षण का हक” दिया है. उनका यह भी सवाल है कि इस सिविल सोसायटी ने उन्हें क्या दिया है?
दूसरी ओर, आमतौर पर संविधान और संसद के दायरे को न माननेवाली अरुंधती राय का मानना है कि माओवादी भारतीय राज्य को नीचे से पलटने की कोशिश कर रहे हैं जबकि यह आंदोलन भारतीय राज्य को ऊपर से पलटने की कोशिश कर रहा है और इसे विश्व बैंक से लेकर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का खुला समर्थन मिला हुआ है. यह एक तरह का तख्तापलट है जिसका मकसद भारतीय राज्य की भूमिका को और सीमित करना और सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण को जोर-शोर से आगे बढ़ाना है.
लेकिन क्रांति से कुछ भी कम स्वीकार न करने और कांस्पिरेसी थियरी में विश्वास रखनेवाले कुछ बुद्धिजीवी मित्रों को ठीक इसके उलट यह आंदोलन शासक वर्गों का षड्यंत्र दिखता है जो जनता के गुस्से को भटकाने और भारतीय राज्य को और मजबूत बनाने के मकसद से शुरू किया गया है. सबूत के तौर पर इस आंदोलन को बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के तमाम औद्योगिक संगठनों, कारपोरेट मीडिया आदि के खुले समर्थन को पेश करते हैं. उनके मुताबिक, जन लोकपाल की छुद्र सी मांग अंततः पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार और उसे मजबूत बनाने की मांग है.
यह और बात है कि इस समय नव उदारवादी सुधारों से लेकर अमेरिकापरस्ती का सबसे बड़ा पैरोकार और मुखपत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पिछले अप्रैल से ही इस आंदोलन के खुले विरोध में खड़ा है. उसे लगता है कि यह आंदोलन अलोकतांत्रिक है क्योंकि यह संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी करके अपनी बात थोपने की कोशिश कर रहा है.
इंडियन एक्सप्रेस ने इस आंदोलन के विरोध में न सिर्फ सम्पादकीय, लेखों की श्रृंखला छापी बल्कि इसके कर्ता-धर्ताओं की पोल खोलने वाली रिपोर्टें भी खूब छापी. इनमें ऐसी रिपोर्टें भी थीं कि इस आंदोलन में आरक्षण विरोही, दलित विरोधी और मुस्लिम विरोधी ताकतें सक्रिय हैं. मतलब यह कि एक्सप्रेस ने इसके विरोध बकायदा मुहिम सी चलाई.
लेकिन इसके बावजूद कुछ और बुद्धिजीवी मित्रों को लगता है कि यह आंदोलन यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस के इशारे पर चल रहा है जिसने भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों से ध्यान हटाने और लोकपाल कानून लाकर जनता के गुस्से को शांत करने के लिए इस आंदोलन को आगे बढ़ावा दिया है. दूसरी ओर, खुद कांग्रेस के प्रवक्ताओं और नेताओं ने इस आंदोलन को “खुले माओवादियों, कुर्सी तोड़नेवाले फासिस्टों और छुपे अराजकतावादियों” और “सी.आई.ए और अमेरिकी षड्यंत्र” के अलावा “आर.एस.एस और सांप्रदायिक शक्तियों” की साजिश करार दिया है.
एक आंदोलन और उसकी इतनी व्याख्याएं, इतने मकसद और चौतरफा हमले. दायें बाजू से लेकर बाएं बाजू तक सभी एक दूसरे से उलट बात कहते हुए भी एक बात पर सहमत हैं कि यह आंदोलन एक षड्यंत्र है. इन विद्वानों में मतभेद सिर्फ इस बात को लेकर है कि यह षड्यंत्र किसका है. मतलब ‘कन्फ्यूजन’ ही ‘कन्फ्यूजन’ है.
जानता हूँ कि आप भी ‘कन्फ्यूज’ हो रहे होंगे. आखिर माजरा क्या है? मजे की बात यह है कि फेसबुक पर इस आंदोलन के कुछ बाल उत्साही अंध विरोधियों ने इस ‘कन्फ्यूजन’ की काट खोज ली है और वे दायें-बाएं, उपर-नीचे और सीधे-तिरछे सभी तरह के हमलों पर तालियाँ बजाने में व्यस्त हैं. मित्रों, इन्हें माफ कीजिएगा, इन्हें खुद पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं?
आइये, इनमें से कुछ आरोपों की पड़ताल करते हैं.
संविधान और संसद : साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं...
सबसे पहले धूमिल की एक लंबी कविता ‘पटकथा’ से कुछ पंक्तियाँ:
“यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।...”
जुबान के मदारी फिर से सक्रिय हैं. वे अपनी भाषा से जनतंत्र में जान फूंकने में लगे हैं. वे संसद और संविधान की आड़ लेकर हमले कर रहे हैं. वे लच्छेदार कानूनी भाषा में यह साबित करने में जुटे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं के खिलाफ है और उन्हें चुनौती दे रहा है. वे याद दिलाने और लोगों को डराने में लगे हैं कि जैसे फासीवाद संसद का विरोध करते हुए आया था, वैसी ही कोशिश यह आंदोलन भी कर रहा है. उनकी शिकायत है कि इस आंदोलन की अगुवा कथित सिविल सोसायटी जो मुट्ठी भर ‘शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट’ का प्रतिनिधित्व कर रही है, वह पूरे देश की आवाज़ होने का दावा कैसे कर सकती है?
सवाल यह है कि संविधान और संसद की चिंता किसे सता रही है? गौर से देखिए कि ये कौन लोग और शक्तियां हैं जो संसद और संविधान की आड़ लेकर अपने पापों को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं? इसमें वह सरकार और वे छोटी-बड़ी पार्टियां हैं जो खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई हैं और जिनका अपना खुद का इतिहास संविधान की धज्जियाँ उड़ाने और संसद को अपनी मनमानियों के लिए इस्तेमाल करने का रहा है. इसमें वे नेता और अफसर हैं जो खुद भ्रष्टाचार की गंगा में दिन-रात डुबकियां लगा रहे हैं और ऐसा करते हुए उन्हें संसद और संविधान का मजाक उड़ाने में कोई संकोच नहीं होता है.
इसमें बड़ी पूंजी यानि कारपोरेट जगत के वे प्रतिनिधि हैं जिन्होंने कानून बनाने से लेकर नीति निर्माण तक की प्रक्रियाओं में जबरदस्त रूप से घुसपैठ कर ली है और इस पूरी प्रक्रिया को संस्थाबद्ध करने में कामयाब हो गए हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे कानूनों और नीतियों की पूरी फेहरिश्त है जिनका खाका सबसे पहले सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम और विश्व बैंक-मुद्रा कोष के बंद कमरों में तैयार किया गया और बाद में संसद ने उसपर मुहर लगाने का काम किया. लेकिन ये सभी अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल की मांग पर संसद की सर्वोच्चता और संविधान की पवित्रता की दुहाई देने में लगे हैं.
इनमें एक्सप्रेस ब्रांड वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार बुद्धिजीवी भी हैं जो अकसर आर्थिक सुधारों की धीमी गति के लिए लोकतंत्र और संसदीय प्रक्रियाओं की सुस्ती पर खीजते पाए जाते हैं. जिन्हें भारतीय लोकतंत्र की तुलना में सिंगापुर, ताइवान, मलेशिया और कोरिया का लोकतंत्र ज्यादा आकर्षित करता है. इसमें वे अफसर बुद्धिजीवी भी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन संविधान, संसद, कानून और प्रक्रियाओं को धता बताने के लिए चोर दरवाजे खोजने में लगा दिया. उन्हें भी संविधान और कानूनी प्रक्रियाओं की चिंता सता रही है.
यही नहीं, संसद और संविधान की सर्वोच्चता और निर्वाचित बनाम गैर निर्वाचित की दुहाई भारत मुक्ति मोर्चा के वे मित्र भी दे रहे हैं जो जन लोकपाल के दायरे में निचले दर्जे के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को रखने का इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि ‘निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों में दलित-पिछड़े वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी ज्यादा हैं जिन्हें भ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर परेशान किया जा सकता है.’ ठीक ही है. आखिर भ्रष्टाचार में समता (इक्वालिटी इन करप्शन) का अधिकार का सवाल है?
यहाँ विस्तार से यह उल्लेख करके समय नहीं बर्बाद करना चाहता कि पिछले ६३ वर्षों में विभिन्न रंगों-झंडों की सरकारों और पार्टियों ने संविधान के साथ क्या किया है और संसद कहाँ से कहाँ पहुँच गई है? भारतीय संविधान, संसदीय प्रक्रियाओं और कानून के किसी भी विद्यार्थी से पूछ लीजिए, वह बता देगा कि पिछले छह दशकों में संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी, उल्लंघन और अवमानना की गई है?
यह भी कि संसद में क्या, कब, कैसे और क्यों होता है? इसके साथ यह भी कि हमारी संसद के माननीय सदस्यों की उपलब्धियां क्या है? आप खुद इलेक्शन वाच की यह साईट देख लीजिए जिसमें सदस्यों के खुद के दिए ब्यौरे शामिल हैं:
http://www.nationalelectionwatch.org/
यहाँ यह भी न भूलें कि संसद के बनाए कानूनों के साथ क्या होता है? वह गरीबों पर कितनी सख्ती से लागू होता है और अमीरों और ताकतवर लोगों के लिए कितना मुलायम बन जाता है? कैसे उन कानूनों में इतना छिद्र छोड़ा जाता है कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के लिए जगह बनी रहे? हैरानी की बात नहीं है कि भ्रष्टाचार मौजूदा व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन गया है? इस हद तक कि कई बुद्धिजीवी इसे व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी लुब्रिकेंट बताते हैं.
उनके मुताबिक, भ्रष्टाचार को एक हद तक स्वीकार कर लेना चाहिए बशर्ते व्यवस्था चलती रहे. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भ्रष्टाचार को स्वीकार्य बनाने के लिए भांति-भांति के तर्क दिए जाते थे कि भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है, भ्रष्टाचार को खत्म करना संभव नहीं है, यह लोगों की मनोवृत्ति में शामिल है, भ्रष्टाचार नैतिक पतन के कारण बढ़ रहा है आदि-आदि.
संसद और संविधान : हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन....
इससे पहले की आगे और बात की जाए, संसद और संविधान के नए आशिकों के लिए धूमिल की कुछ और पंक्तियाँ :
“...लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है...”
आश्चर्य नहीं कि इन दिनों संविधान और संसद का स्वाद वे मित्र बता रहे हैं जिनके मुंह में लगाम नहीं है. अलबत्ता उनका दावा यह है कि गरीब और हाशिए की जनता संविधान और संसद से मिले अधिकारों का खूब लुत्फ़ उठा रही है. लेकिन संविधान और संसद के बारे में देश के करोड़ों गरीबों, बेकारों, बीमारों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का क्या ख्याल है, उसके लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है. कश्मीर घाटी से लेकर मणिपुर तक देश का एक अच्छा खासा हिस्सा आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर कानून (अफ्स्पा) से लेकर अन्य कई काले कानूनों के साये में जी और लड़ रहा है.
बहुत से मित्रों की यह सौ फीसदी जायज शिकायत है कि अन्ना हजारे पर इतनी चर्चा हो रही है लेकिन पिछले दस साल से अफस्पा के खिलाफ लड़ रही इरोम शर्मिला के अनशन की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है? धीरज रखिये, हमारी महान संसद इस पर विचार कर रही है. फिर खुद सरकार कहती है कि देश के नौ राज्यों में कोई ८३ जिले नक्सल उग्रवाद से प्रभावित हैं जो संविधान और संसद को उलटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन नक्सली किसी दूसरे ग्रह से नहीं हैं और उनकी कतारों में वही गरीब दलित और आदिवासी हैं जो संविधान प्रदत्त अपने बुनियादी हकों के इंतज़ार में बैठे-बैठे थक गए.
निश्चित ही, संविधान और संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे मित्र देश के अलग-अलग इलाकों में जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट में इनका दोष नहीं मानते होंगे? आखिर संविधान में ऐसा कहाँ लिखा है? आखिर हमारी संसद ने अंग्रेजों के भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके देश विकास का रास्ता साफ किया है!
मित्रों को निश्चय ही, इससे भी कोई शिकायत नहीं होगी कि देश में ८ फीसदी की विकास दर के बावजूद ७८ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर करने को मजबूर हैं? आखिर संविधान में सबको बराबरी का अधिकार और दलितों और पिछड़ों के लिए विशेष अवसर की व्यवस्था की है. लेकिन अगर अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ रही है तो इसमें संविधान का क्या कसूर है?
सुना नहीं, अपने एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि दिल्ली से गांव के विकास के लिए चले हर एक रूपये में सिर्फ १५ पैसे ही नीचे जमीन पर पहुँचते हैं! बाकी बीच में ही लूट लिए जाते हैं लेकिन गरीबों के इस पैसे की लूट के खिलाफ बोलना संविधान और संसद का अपमान है, उनकी सर्वोच्चता को चुनौती है, गैर निर्वाचितों की तानाशाही है और फासीवाद को बढ़ावा है. यह किसकी आत्मा बोल रही है भाई? एक बार फिर धूमिल याद आ रहे हैं:
“...वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।...”
इस संयुक्त परिवार की ओर से जनता को यह भी सलाह दी जा रही है कि कोई शिकायत है तो पांच साल इंतज़ार कीजिये, चुनाव में वोट देकर अपनी पसंद की सरकार चुन लीजिए या खुद निर्वाचित हो जाइये. फिर पांच साल इंतज़ार करिए. फिर चुनाव का इंतज़ार कीजिये. नहीं-नहीं, जनतंत्र में यह शिकायत का कोई मतलब नहीं है कि ऐसा करते-करते १५ चुनाव बीत गए. यह मत पूछिए कि क्या मिला? एक बार फिर धूमिल की याद आ रही है:
“सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
श्रीमान् किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
गूँगे हैं
बहरे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।
गिरते हुये लोग हैं
अकड़ते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
असंख्य रोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-
चुनाव है।”
लेकिन मित्रों, जनता बावली हुई जा रही है. वह इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है. वह कहीं अफ्स्पा और दूसरे काले कानूनों को हटाने, कहीं जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट रोकने, कहीं भूमि सुधार-न्यूनतम मजदूरी-सामाजिक सम्मान, कहीं रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य के अधिकार और कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है. उसे संविधान और संसद की आड़ लेकर समझाना मुश्किल है. आखिर संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘हम भारत के लोग’ का जिक्र है, वह जनता संसद और संविधान की जन्नत के हकीकत को समझ गई है.
चलते-चलते यह याद दिलाना जरूरी है कि इस देश में अगर जनतंत्र जीवित है और उसके साथ-साथ संविधान और संसद की कुछ मर्यादा बची हुई है तो इसलिए कि लोगों ने उसे बचाए रखने के लिए बहुत कुर्बानियां दी हैं. सच पूछिए तो इस देश में जनांदोलनों ने जनतंत्र की आत्मा को जिन्दा रखा है अन्यथा संसद और संविधान की आड़ लेकर जनतंत्र की हत्या करने की न जाने कितनी बार कोशिशें की गईं हैं. यही नहीं, गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को जो कुछ मिला है, वह किसी संविधान और संसद की नहीं बल्कि उनकी लड़ाइयों का नतीजा है. उन्हें समझाने वाले चाहे जो समझाएं लेकिन उन्हें पता है कि बिना लड़े यहाँ कुछ नहीं मिलता.