गुरुवार, सितंबर 29, 2011

चैनलों की दाल में काला

रिलायंस के नाम से चैनलों की जुबान क्यों कांपने लगती है?





भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में न्यूज चैनलों का जज्बा और उत्साह देखते ही बनता है. पिछले कई महीनों से चैनलों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक युद्ध सा छेड रखा है. उनके जोश को देखकर लगता है कि वे भ्रष्टाचार को खत्म करके ही मानेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि चैनलों ने जिस तरह से एक के बाद एक कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है या उन्हें जोर-शोर से उछाला और मुद्दा बनाया है, उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल और जनमत बना है.

इसके कारण कई बड़े घोटालेबाज जेल गए हैं, कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को कुर्सी गंवानी पड़ी है और देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जोर पकड़ने लगा है.

लेकिन लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में चैनल या तो थकने लगे हैं या फिर उनके आकाओं ने उनकी लगाम खींचनी शुरू कर दी है. उदाहरण के लिए, बीते पखवाड़े संसद में पेश रिपोर्ट में सी.ए.जी ने एयर इंडिया में अनियमितताओं और विमानों की खरीदी में गडबडियों पर ऊँगली उठाने के साथ कृष्णा-गोदावरी घाटी (के.जी. बेसिन) में गैस की खोज, उसकी कीमत तय करने और उत्पादन आदि में मुकेश अम्बानी की रिलायंस को अनुचित तरीके से फायदा पहुँचाने से लेकर कंपनी की धांधलियों और मनमानियों को आड़े हाथों लिया. लेकिन न्यूज चैनलों ने थके मन से एयर इंडिया की अनियमितताओं पर रस्मी हो-हल्ला किया और चुप मार गए.

लेकिन उससे भी हैरान करनेवाली बात यह है कि के.जी बेसिन-रिलायंस मामले पर सी.ए.जी की रिपोर्ट के बावजूद चैनलों ने न तो उसे प्राइम टाइम चर्चा लायक समझा और न ही उसे समग्रता में रिपोर्ट किया. इस खबर को करते हुए चैनलों में वह उत्साह भी नहीं दिखा जो हाल के महीनों में अन्य घोटालों को रिपोर्ट करते हुए दिखा था.

यह हैरान करनेवाला इसलिए भी था कि चैनलों को अपनी ओर से कुछ खास नहीं करना था क्योंकि सी.ए.जी की रिपोर्ट में सारा खुलासा मौजूद था. यह भी २ जी स्पेक्ट्रम की तरह गैस जैसे प्राकृतिक और कीमती सार्वजनिक संसाधन को राष्ट्रीय हितों की कीमत पर निजी लाभ के लिए दुरुपयोग का गंभीर मामला है.

यही नहीं, इसमें राजनीतिक एंगल भी मौजूद था. पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को रिलायंस समर्थक माना जाता रहा है. पिछले कैबिनेट फेरबदल में हटाया गया था. उससे पहले अमेरिकी विरोध के कारण मणिशंकर अय्यर को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया था.

नीरा राडिया टेप्स में एक बातचीत में यह प्रसंग आ चुका है कि “कैसे अब कांग्रेस भी मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी है.” इसके अलावा हाल में, रिलायंस और बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के बीच बड़ी डील हुई है. इस डील को लेकर भी कई सवाल उठे हैं.

इसके बावजूद अधिकांश न्यूज चैनलों पर इस मुद्दे पर रहस्यमयी चुप्पी छाई रही. ऐसा लगा कि जैसे कुछ हुआ नहीं है या सी.ए.जी की रिपोर्ट में कोई दम नहीं है. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय सबसे बड़े योद्धा अर्नब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाऊ’ भी रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़े. ‘खबर हर कीमत पर’ का दावा करनेवाले चैनल की जुबान नहीं खुली.

यह स्वाभाविक भी था. आखिर खुद मुकेश अम्बानी और उनका रिलायंस उसी दिन चैनल पर प्रसारित हो रहे “रियल हीरोज” कार्यक्रम में प्रायोजक के बतौर एडिटर इन चीफ के साथ मंच पर मौजूद थे. कमोबेश यही हाल बाकी चैनलों का भी था.

क्या यह नीरा राडिया प्रभाव है? याद रहे, नीरा राडिया रिलायंस के मीडिया मैनेजमेंट का काम देखती हैं. उनपर आरोप है कि वे रिलायंस और अपने दूसरे कारपोरेट क्लाइंट टाटा के पक्ष में सकारात्मक जनमत बनाने के लिए अनुकूल समाचारों को आगे बढ़ाने और प्रतिकूल समाचारों को दबाने में समाचार माध्यमों और संपादकों/पत्रकारों को इस्तेमाल करती रही हैं.

यहाँ तक कि कई संपादक उनके लिए लाबीइंग करते हुए भी पाए गए. इस बार भी जिस तरह से के.जी. बेसिन की खबर को चैनलों ने ‘अंडरप्ले’ किया है, उससे लगता है कि कोई न कोई ‘अदृश्य शक्ति’ है जो चैनलों के मुंह पर पट्टी बांधने में कामयाब हुई है.

क्या वह ‘अदृश्य शक्ति’ रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों की विज्ञापन देने की वह शक्ति है जिसे कोई निजी चैनल अनदेखा नहीं कर सकता है? आखिर रिलायंस जैसे बड़े विज्ञापनदाता और प्रायोजक को नाराज करने का जोखिम कितने चैनल उठा सकते हैं? इसके उलट लगभग सभी चैनलों पर एयर इंडिया में अनियमितताओं पर सी.ए.जी की रिपोर्ट को न सिर्फ पर्याप्त कवरेज मिली बल्कि सबने प्राइम टाइम चर्चाएँ भी कीं.

मजे की बात यह है कि इन सभी चर्चाओं में अनियमितताओं के दोषी अधिकारियों/मंत्रियों को पहचानने और उन्हें निशाना बनाने के बजाय चैनलों का सबसे अधिक जोर इस बात पर था कि एयर इंडिया को बचाने के लिए उसका निजीकरण क्यों जरूरी है.

गोया निजीकरण हर मर्ज का इलाज हो. अगर ऐसा ही है तो टेलीकाम क्षेत्र में २ जी की लूटपाट में कौन शामिल थे? असल में, न्यूज चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की यही सीमा है. उनके लिए भ्रष्टाचार और घोटाला सिर्फ एक घटना या प्रकरण है जो कि कुछ व्यक्तियों खासकर नेताओं और अफसरों तक सीमित है.

सच यह है कि यह भ्रष्टाचार का मांग पक्ष है. लेकिन भ्रष्टाचार का आपूर्ति पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है. वे छोटी-बड़ी कम्पनियाँ जो अपने मुनाफे के लिए नेताओं और अफसरों को घूस खिलाकर तमाम नियम-कानूनों को तोड़ती-मरोड़ती हैं, संगठित लाबीइंग के जरिये अपने अनुकूल नियम-कानून बनवाती हैं, उनके अपराधों की कोई चर्चा नहीं होती है या बहुत कम होती है.

इसके उलट चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानि कारपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि यह किसी से छुपा नहीं है कि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है. फिर क्यों न माना जाए कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के पीछे चैनलों का अघोषित एजेंडा सार्वजनिक क्षेत्र को बदनाम करने और उसके निजीकरण का रास्ता साफ़ करने का है?

अगर ऐसा नहीं है तो चैनलों पर कारपोरेट भ्रष्टाचार निशाने पर क्यों नहीं है? उसकी वैसी चर्चा क्यों नहीं है, जैसी प्रशासनिक/राजनीतिक भ्रष्टाचार की है? चैनलों की दाल में जरूर कुछ काला है.

('तहलका' के ३० सितम्बर अंक में प्रकाशित)

बुधवार, सितंबर 28, 2011

सस्ते तेल का जमाना गया, उसके विकल्प के बारे में सोचिये


कच्चे तेल पर सट्टेबाजों की नजर और बड़ी तेल कंपनियों को भारी मुनाफे की लत लग चुकी है



यू.पी.ए सरकार ने जब से पेट्रोल की कीमतें सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दी हैं, देशी तेल कम्पनियाँ बिना नागा हर दूसरे-तीसरे महीने पेट्रोल की कीमतों में एकमुश्त बड़ी बढोत्तरी किये जा रही हैं. इसके लिए कभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ती कीमतों का बहाना बनाया जाता है और कभी डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट का रोना रोया जाता है.

सरकार हर बार हाथ झाड़कर खड़ी हो जाती है कि इस मामले में कुछ नहीं कर सकती है क्योंकि देश अपने कुल पेट्रोलियम खपत का ७० फीसदी आयात करता है. एक खालिस कारोबारी की तरह सरकार का तर्क है कि चूँकि कच्चे तेल का आयात अंतर्राष्ट्रीय कीमतों पर होता है, इसलिए घरेलू उपभोक्ताओं को भी पेट्रोलियम उत्पादों के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतें अदा करने के लिए तैयार रहना चाहिए.

दूसरी ओर, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे पेट्रोलियम की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव का दौर जारी है. पिछले तीन वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें १४५ डालर प्रति बैरल से लेकर ८० डालर प्रति बैरल के रेंज में चढ़-उतर रही हैं. फ़िलहाल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जहाँ अमेरिकी डब्ल्यू.टी.आई कच्चे तेल की कीमत ८५ डालर प्रति बैरल के आसपास है, वहीँ ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत ११० डालर प्रति बैरल के आसपास है.

माना जा रहा है कि आनेवाले महीनों में कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का यह दौर जारी रहेगा. हालांकि तात्कालिक तौर पर यूरोपीय देशों सहित अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सुस्ती के कारण तेल की कीमतों पर दबाव कम हुआ है लेकिन इसके बावजूद अधिकतर विश्लेषकों का मानना है कि आनेवाले महीनों और वर्षों में कच्चे तेल की कीमतें ऊपर की ओर ही जाएँगी.

साफ है कि सस्ते तेल का जमाना बीत गया. मतलब यह कि कच्चा तेल अब ४० से ५५ डालर प्रति बैरल नहीं मिलनेवाला है. यही नहीं, वह ६० से ८० डालर प्रति बैरल के रेंज से भी बाहर निकल चुका है. कच्चे पेट्रोलियम का नया नार्मल रेंज ९० से ११० डालर प्रति बैरल के बीच माना जा रहा है.

कहने का मतलब यह कि इस दर को लेकर अब कोई खास शिकायत या बहस नहीं रह गई है. कहीं कोई हंगामा नहीं है. दुनिया के बड़े या छोटे देशों की ओर से विरोध में आवाजें नहीं उठ रही हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया और खासकर भारत जैसे देशों को अब कच्चे पेट्रोल की ऊँची कीमतें चुकाने के लिए तैयार रहना होगा.

असल में, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे पेट्रोलियम की लगातार बढ़ती कीमतों के पीछे कई कारण हैं. तात्कालिक तौर पर मध्य पूर्व के तेल उत्पादक देशों में राजनीतिक अस्थिरता, जन असंतोष और युद्ध के कारण आपूर्ति में बाधा के अलावा चीन और भारत जैसे विकासशील देशों तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में तेल की बढ़ती मांग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.

दीर्घकालिक कारणों में सबसे जोर-शोर से “पीक आयल” की थीसिस पर चर्चा हो रही है जिसके मुताबिक, दुनिया में तेल के भण्डार सीमित हैं और तेल की बढ़ती जरूरतों के कारण जिस तेजी से उसका दोहन हो रहा है, उससे तेल के भंडार निरंतर छीज रहे हैं. ऐसे में , वह दिन दूर नहीं जब कच्चे तेल का उत्पादन अपने सर्वोच्च स्तर (पीक आयल) पर पहुंचकर ठहर जाएगा और फिर गिरना शुरू हो जाएगा.

हालांकि विश्लेषकों में इस मुद्दे पर मतभेद है कि “पीक आयल” की स्थिति कब आएगी लेकिन अधिकांश विश्लेषक वर्ष २०१२ से लेकर २०१८ के बीच इस स्थिति के आने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अगले कुछ वर्षों में पीक आयल की स्थिति आनेवाली है जब कच्चे तेल के उत्पादन में ठहराव और फिर गिरावट आना शुरू हो जाएगा.

लेकिन निकट भविष्य में तेल की मांग में कमी आती नहीं दिखाई पड़ रही है. खासकर चीन और भारत जैसे देशों में तेल की खपत और तेजी से बढ़ेगी. जाहिर है कि मांग और आपूर्ति में बढ़ते फासले के कारण कीमतों पर दबाव और बढ़ेगा.

हालांकि तेल की खपत और मांग में वृद्धि के मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए अगले चालीस-पचास वर्षों तक तेल के भण्डार खत्म होनेवाले नहीं हैं लेकिन तेल की आपूर्ति में थोड़े भी उतार-चढ़ाव से उसकी कीमतों में कहीं ज्यादा उतार-चढ़ाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. तेल की कीमतों की इस संवेदनशील स्थिति ने हाल के वर्षों में सट्टेबाजों को इसपर दांव लगाने के लिए ललचाया है.

इसके अलावा दुनिया भर में शेयर बाजार समेत अन्य वित्तीय बाजारों की खस्ताहाल स्थिति ने भी वित्तीय बाजार के बड़े सट्टेबाजों को जिंस बाजार की ओर आकर्षित किया है. आश्चर्य नहीं कि पिछले दो-ढाई वर्षों में जिंस बाजार में लगभग सभी जिंसों की कीमतों में भारी उछाल दर्ज किया गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सट्टेबाजों ने कच्चे तेल पर बड़े दांव लगाने शुरू कर दिए हैं. इसका सीधा असर उसकी कीमतों पर पड़ रहा है. तेल की कीमतों को जमकर ‘मैनीपुलेट’ किया जा रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्ती के कारण कच्चे तेल की मांग में धीमी वृद्धि के बावजूद कीमतें नीचे आना तो दूर लगातार चढ़ रही हैं.

इसे बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियाँ भी शह दे रही हैं क्योंकि इससे उनका मुनाफा भी खूब तेजी से बढ़ रहा है. हालत यह हो गई है कि तेल की मांग और कीमतों में गिरावट के बावजूद बड़ी तेल कंपनियों के मुनाफे में भारी बढोत्तरी दर्ज की गई है.

इससे साफ है कि अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार में न सिर्फ बड़े सट्टेबाजों और बड़ी तेल कंपनियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है बल्कि कीमतों का मैनिपुलेशन भी नए रिकार्ड बना रहा है. यह भारत जैसे देशों के लिए खतरे की घंटी है. इससे तुरंत सबक लेने की जरूरत है. भारत को जल्दी से जल्दी पेट्रोल पर अपनी निर्भरता कम करने और उर्जा के वैकल्पिक साधनों की खोज को राष्ट्रीय प्राथमिकता पर लाना होगा अन्यथा भारतीय अर्थव्यवस्था सहित आम लोगों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

अफसोस की बात यह है कि नीति निर्माताओं में ऐसी कोई चिंता नहीं दिखाई पड़ रही है. सरकार और नीति निर्माताओं में एक तरह की निश्चिन्तता का माहौल है. गोया देश में तेल का कभी न खत्म होनेवाला कुआं खोज निकला गया है.

सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की पेट्रोलियम पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं जो अंधाधुंध निजी वाहनों और आटोमोबाइल उद्योग को बढ़ा रही है. भारतीय औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठन एसोचैम के मुताबिक, भारत में तेल की बढ़ती मांग के कारण २०१२ तक देश को अपनी कुल जरूरतों का लगभग ८५ फीसदी कच्चा तेल आयात करना पड़ेगा.

इसका मतलब यह हुआ कि आनेवाले वर्षों में आयातित कच्चे तेल पर निर्भरता के कारण भारत अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार के ‘मैनिपुलेशन’ की कीमत चुकाता रहेगा और सट्टेबाजों और बड़ी तेल कंपनियों की थैलियाँ भरता रहेगा. यह और बात है कि इसकी असली कीमत हमें-आपको चुकानी पड़ेगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में २४ सितम्बर को प्रकाशित )

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

रेड्डी बंधुओं के अवैध खनन का सर्वदलीय साम्राज्य


बेल्लारी में दिखता है भाजपा का असली 'चाल, चरित्र और चेहरा'


कहते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं. लेकिन अब यह सिर्फ फिल्मों के संवादों में सुना जाता है. कानून के ये मिथकीय ‘हाथ’ व्यवस्थागत और सर्वदलीय भ्रष्टाचार के कारण किस हद तक लकवाग्रस्त और कमजोर हो चुके हैं, इसका एक और सबूत है कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के बेल्लारी-अनंतपुर इलाके में पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सत्ता के खुले संरक्षण में बिना किसी रोक-टोक के जारी लौह अयस्क के अवैध खनन का काला कारोबार.

हालांकि बीते सप्ताह कानून के ये हाथ कांपते-लड़खड़ाते अवैध खनन के लिए कुख्यात बेल्लारी के रेड्डी भाइयों में से एक और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की सरकार में पर्यटन, युवा मामलों और ढांचागत विकास के कैबिनेट मंत्री रहे जी. जनार्दन रेड्डी तक पहुँच गए लेकिन कहने की जरूरत नहीं है कि रेड्डी बंधुओं पर हाथ डालने में सी.बी.आई ने काफी देर लगा दी.

इस कारण यह गिरफ्तारी एक रस्म अदायगी भर बनकर रह गई है. याद रहे कि कोई इक्कीस महीने पहले यानी दिसम्बर २००९ में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर आंध्रप्रदेश की तत्कालीन रोसैया सरकार ने राज्य के अनंतपुर जिले में अवैध खनन और अनियमितताओं के आरोप में रेड्डी बन्धुओँ की ओबुलापुरम माइनिंग कंपनी के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई थी लेकिन तमाम सबूतों और रिपोर्टों के बावजूद सी.बी.आई हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.

यहाँ तक कि कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की ताजा रिपोर्ट में बेल्लारी जिले में अवैध खनन और लौह अयस्क के गैर कानूनी निर्यात के लिए दोषी करार दिए जाने के बावजूद सी.बी.आई रेड्डी बंधुओं के खिलाफ कार्रवाई करने से हिचकिचाती रही. साफ है कि सी.बी.आई ने रेड्डी बंधुओं को सबूत नष्ट करने के लिए पर्याप्त समय दिया.

लेकिन इससे रेड्डी भाइयों के राजनीतिक रसूख और दबदबे का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हालांकि रेड्डी बंधु भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हैं और जी. जनार्दन रेड्डी के अलावा उनके भाई जी. करुणाकर रेड्डी अभी हाल तक कर्नाटक की भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री थे लेकिन यह अब किसी से छुपा नहीं है कि अवैध खनन के उनके कारोबार को आंध्र प्रदेश के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाई. एस. राजशेखर रेड्डी का पूरा संरक्षण हासिल था.

माना जाता है कि एक कांस्टेबल के बेटे से अरबों का साम्राज्य खड़ा करने में रेड्डी बंधुओं की कामयाबी के पीछे भाजपा के शीर्ष नेताओं सहित वाई.एस राजशेखर रेड्डी का भी बहुत बड़ा हाथ था. उनके बीच गहरे कारोबारी रिश्ते रहे हैं. कहते हैं कि राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी की अकूत संपत्ति में एक बड़ा हिस्सा इस अवैध खनन के जरिये भी इकठ्ठा किया गया है.

सच पूछिए तो आंध्र प्रदेश-कर्नाटक में अवैध खनन का यह कारोबार एक तरह से कांग्रेस-भाजपा के संयुक्त उपक्रम की तरह चल रहा था. आश्चर्य नहीं कि कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी २५ हजार पन्नों की रिपोर्ट में लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने न सिर्फ भाजपाई मुख्यमंत्री येदियुरप्पा और रेड्डी बंधुओं बल्कि पिछले दस साल में कर्नाटक की कांग्रेस, जे.डी-एस और भाजपा की सभी सरकारों को दोषी ठहराया है.

इस कारण यह कहना गलत नहीं होगा कि बेल्लारी में अवैध खनन का कारोबार सर्वदलीय सहमति और भागीदारी के साथ चल रहा था और जिसको जब मौका मिला, उसने लूटने में कोई कसर नहीं उठा रखी. यही नहीं, बेशकीमती सार्वजनिक संपत्ति की इस बेदर्द लूट में यू.पी.ए के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है.

असल में, सी.बी.आई के हाथ यूँ ही नहीं कांप रहे हैं. तथ्य यह है कि आंध्र और कर्नाटक में अवैध खनन और उसके निर्यात का यह विशाल कारोबार बिना केन्द्र सरकार और उसके विभिन्न महकमों की मदद के नहीं चल सकता था. चाहे केन्द्रीय खनन मंत्रालय हो या वन एवं पर्यावरण मंत्रालय या भारतीय खनन ब्यूरो या फिर सीमा शुल्क विभाग- इन सभी के अधिकारियों और कर्मचारियों की मिलीभगत के बिना यह कारोबार इस हद तक फल-फूल नहीं सकता था.

लोकायुक्त के अलावा सुप्रीम कोर्ट की केन्द्रीय उच्चाधिकारप्राप्त समिति (सी.इ.सी) की रिपोर्टों में इसका पूरा ब्यौरा है कि किस तरह दोनों राज्यों में राज्य सरकार के विभिन्न महकमों के अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ-साथ केन्द्र सरकार के अधिकारी-कर्मचारी भी बेल्लारी के खनन माफिया की सेवा में जुटे हुए थे.

जाहिर है कि यह राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव नहीं था. दरअसल, बेल्लारी देश में बेशकीमती खनिज संसाधनों की खुली लूट का शर्मनाक प्रतीक बन गया है. उल्लेखनीय है कि देश के कुल लौह अयस्क खनन का लगभग २५ फीसदी कर्नाटक से आता है और कर्नाटक के कुल लौह अयस्क खनन का ६० फीसदी से अधिक बेल्लारी से आता है.

यही नहीं, बेल्लारी के लौह अयस्क की गुणवत्ता बहुत अच्छी मानी जाती है और उसकी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में काफी मांग है. इसी “बेल्लारी गणराज्य” में खनन माफिया की समानांतर सरकार चल रही थी जहाँ खनन कारोबार से जुड़े जिंदल-अदानी जैसे बड़े कारपोरेट समूहों, रेड्डी बंधुओं और कांग्रेसी अनिल लाड जैसे स्थानीय खनन कारोबारियों और खनन माफियाओं का हुक्म चलता था.

इनमें भी खासकर रेड्डी बंधुओं की तूती बोलती थी क्योंकि कर्नाटक की भाजपा सरकार उनकी दया पर टिकी रही है. यह किसी से छुपा नहीं है कि शुरू में येदियुरप्पा की अल्पमत सरकार को बहुमत में लाने के लिए विपक्षी विधायकों की खरीद-फरोख्त के लिए “आपरेशन कमल” रेड्डी बंधुओं के पैसे से ही पूरा हुआ. लेकिन रेड्डी बंधुओं ने इसकी पूरी कीमत भी वसूली. दो रेड्डी भाइयों के अलावा उनके करीबी बी. श्रीरामलू को कैबिनेट मंत्री का पद मिला.

जी. जनार्दन रेड्डी बेल्लारी के जिला प्रभारी मंत्री भी थे और उनकी मर्जी के बिना वहां पत्ता भी नहीं खड़कता था. जिले के कलक्टर से लेकर सभी विभागों के छोटे से लेकर बड़े अधिकारी और कर्मचारियों की नियुक्ति उनकी मर्जी से होती थी. रेड्डी बंधुओं के दबदबे का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब २००९ में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने बेल्लारी के कुछ अधिकारियों का तबादला कर दिया तो रेड्डी बंधुओं के समर्थक विधायकों ने बगावत कर दी थी. सरकार बचाने के लिए भाजपा आलाकमान के निर्देश पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं के आगे घुटने टेकने पड़े थे.

लेकिन रेड्डी बंधुओं के इस दबदबे की असली कीमत बेल्लारी और उसकी गरीब जनता को चुकानी पड़ी है. इन सभी ने मिलकर बेल्लारी और अनंतपुर में जिस तरह से लूटपाट मचाई, वह औपनिवेशिक काल में हुए पूंजी के आदिम संचय को मात देने वाला था. कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये:

• कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े के मुताबिक, वर्ष २००६ से २०१० के बीच अकेले कर्नाटक से लगभग तीन करोड़ टन अवैध लौह अयस्क का खनन और निर्यात किया गया जिसके कारण देश को लगभग १६ हजार करोड़ रूपये का नुकसान उठाना पड़ा है.

• बेल्लारी में कोई एक अरब टन लौह अयस्क का भण्डार होने का अनुमान है लेकिन मुनाफे की हवस में जिस तरह से अंधाधुंध अवैध खनन हो रहा है, उसके कारण इस भंडार के जल्दी ही खत्म हो जाने की आशंका है. लोकायुक्त ने २००८ की रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि अगर इसी रफ़्तार से खनन हुआ तो अगले २५-३० वर्षों में यह भंडार खत्म हो जाएगा. लेकिन उसपर कोई ध्यान दिया गया और सभी नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए अवैध-वैध खनन चलता रहा. इससे यह आशंका जाहिर की जा रही है कि अगले ५ से ८ सालों में बेल्लारी का यह कीमती खनिज भण्डार खत्म हो जाएगा.

इस बेतहाशा दोहन का अर्थ यह भी है कि देश की जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि कुछ निजी कंपनियों और लोगों की लालच को पूरा करने के लिए उस बेशकीमती प्राकृतिक संसाधन को लुटाया जा रहा है जिसपर अगली पीढ़ियों का भी बराबर का अधिकार है.

• यही नहीं, अवैध खनन की जबरदस्त मार बेल्लारी के जंगल और पर्यावरण पर भी पड़ी है. सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकारप्राप्त समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, “जो इलाका कभी हरे-भरे, खूबसूरत पहाड़ी इलाके के रूप में दिखता था, वह खनन और उससे जुडी गतिविधियों के कारण आज युद्ध से तबाह इलाके की तरह दिखाई देता है जिसमें बड़े-बड़े दाग मौजूद हैं.” समिति के अनुसार, खनन के कारण बेल्लारी के लगभग ४५ फीसदी जंगल खत्म हो गए हैं.

• एक ओर बेल्लारी को रौंदा और लूटा जा रहा था और खनन कम्पनियाँ और रेड्डी बंधु मनमाना मुनाफा कम रहे थे, दूसरी ओर बेल्लारी के मुट्ठी भर लोगों को छोडकर इसका कोई फायदा आम गरीबों को नहीं मिला है. बेल्लारी आज भी देश के सबसे गरीब और पिछड़े जिलों में से एक है. विडम्बना देखिए कि एक ओर बेल्लारी में अवैध खनन की लूट से अमीर बने नए दौलतिए हेलीकाप्टर और हवाई जहाज से लेकर मर्सिडीज बेंज और बी.एम.डब्ल्यू जैसी महँगी गाडियां खरीदने और विशाल बम रोधी अट्टालिकाएं बनवाने में लगे हुए हैं, उसी समय बेल्लारी के गरीबों, महिलाओं और बच्चों को खदानों में धूल-गर्द के बीच मामूली मजदूरी पर गुजरा करना पड़ रहा है. उन्हें स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी जूझना पड़ रहा है.

बेल्लारी की लूट का अंदाज़ा इन रिपोर्टों से लगाया जा सकता है कि देश में निजी विमानों के कुल बाज़ार में १० फीसदी हिस्सा बेल्लारी का है. बेल्लारी की विभिन्न खनन कंपनियों के पास कोई आठ विमान/हेलीकाप्टर हैं. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के सैंडल लाने के लिए विमान मुंबई भेजे जाने की खूब चर्चा हुई लेकिन कहते हैं कि रेड्डी बंधु अपने निजी हेलीकाप्टर से रोज बंगलुरु आते-जाते थे. उनका अपना हेलीपैड था.

“बेल्लारी गणराज्य” की लूट और बर्बादी की यह कहानी बहुत लंबी है. लेकिन बेल्लारी और अनंतपुर में जो हुआ और हो रहा है, वह कोई अपवाद नहीं है. तथ्य यह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में झारखण्ड के सिंहभूम और पूरे कोयला क्षेत्र, उडीशा के क्योंझर, सुंदरगढ़ और आई.बी घाटी, छत्तीसगढ़ के रायगढ़, गुजरात के जामनगर, कच्छ, और जूनागढ़ से लेकर कर्नाटक-आंध्र प्रदेश के बेल्लारी-अनंतपुर तक बेशकीमती खनिजों की लूट की कहानी एक है.

झारखण्ड के मधु कोड़ा और बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं में कोई खास फर्क नहीं है. हर जगह राज्य और केन्द्र सरकारों के सीधे संरक्षण में राजनेताओं, अफसरों, खनन कंपनियों और अपराधियों का गठजोड़ खनन के नाम पर लूट खसोट में लगा है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि इस गठजोड़ ने केन्द्र और राज्य सरकारों को बंधक बना लिया है. सच पूछिए तो पिछले कई दशकों से देश में खनन के नाम पर जो लूट-खसोट का खेल चल रहा है, उसी के उत्तर उदारीकरण दौर का नया और बर्बर रूप है. सच यह है कि आज़ादी से पहले अंग्रेजों ने खनिजों को लूटा और आज़ादी के बाद से खनन के नाम पर निजी कंपनियों और ठेकेदारों ने जमकर मनमानी की. मजदूरों का जमकर शोषण किया गया.

खनन उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद हालांकि मजदूरों की स्थिति में थोड़ा सुधार आया लेकिन राजनीतिक संरक्षण में अफसरों और ठेकेदारों की लूट-खसोट बदस्तूर जारी रही. धनबाद के कोयला माफिया की कथाएं कौन भूल सकता है?

लेकिन रही-सही कसर १९९३ में नरसिम्हा राव की सरकार ने खनन क्षेत्र को निजी और विदेशी पूंजी के लिए खोलकर पूरी कर दी. इस फैसले ने एक तरह से देश के बेशकीमती संसाधनों की लूट का रास्ता साफ़ कर दिया. आज पूरे देश में पास्को से लेकर वेदांता तक बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इसी लूट में अपने-अपने हिस्से के लिए जोर-आजमाइश करने में लगी हैं.

उन्हें मौका मिला तो तय है कि वे रेड्डी बंधुओं को बहुत पीछे छोड़ देंगी. लेकिन सवाल है कि क्या देश अपनी कीमती खनिज सम्पदा को इसी तरह लुटते देखता रहेगा? आखिर इस पर जितना हक हमारा है, उतना ही हमारी अगली पीढ़ियों का भी.

('जनसत्ता' में १२ सितम्बर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

सोमवार, सितंबर 12, 2011

काठ की हांडी को दोबारा चढ़ाने की कोशिश कर रही है भाजपा


बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद में है भाजपा


कहते हैं कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती है. लेकिन लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने यह मुहावरा नहीं सुना है. यही कारण है कि वह इन दिनों काठ की हांड़ी दोबारा चढ़ाने की कोशिश कर रही है. पिछले एक सप्ताह में उसके राष्ट्रीय नेतृत्व ने दो ऐसे बड़े फैसले किये हैं जिनसे उसकी दुविधा, हताशा और घबराहट का पता चलता है.

सबसे पहले खुद पार्टी नेताओं को हैरान करते हुए ‘प्राइममिनिस्टर इन वेटिंग’ लाल कृष्ण आडवाणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण के लिए देश भर में रथयात्रा शुरू करने का एलान कर दिया.

और अब पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तराखंड में मौजूदा मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को हटाकर पूर्व मुख्यमंत्री बी.सी. खंडूरी को सत्ता सौंपने की घोषणा कर दी है. इन फैसलों से पता चलता है कि देश के मुख्य विपक्षी दल में नए विचारों और नेतृत्व का किस कदर अकाल पैदा हो गया है.

अन्यथा उम्र के इस पड़ाव और सक्रिय राजनीति से विदाई की इस वेला में आडवाणी की इस राजनीतिक बेचैनी और लालसा का क्या तर्क हो सकता है? इसी तरह, खुद को ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ बतानेवाली भाजपा उत्तराखंड में इस बेशर्मी से कोश्यारी-खंडूरी-निशंक के बीच सत्ता के ‘म्यूजिकल चेयर’ का खेल नहीं खेल रही होती.

ऐसा लगता है कि भाजपा लोगों को बेवकूफ समझती है. यही कारण है कि उसने उत्तराखंड में पिछले पांच साल में दो बार मुख्यमंत्री बदला और जल्दी ही होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले मैदान में खंडूरी को उतारकर काठ की हांड़ी को दोबारा चढ़ाने की कोशिश की है.

लोग कहने लगे हैं कि भाजपा ने उत्तराखंड को मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश बना दिया है. राज्य बनने के बाद पहले दो वर्षों के कार्यकाल में भाजपा ने पहले नित्यानंद स्वामी और फिर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वे भी २००२ में पार्टी की हार को टाल नहीं सके.

इसके बाद २००७ में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद बी.सी. खंडूरी लाए गए लेकिन उन्हें २००९ के आम चुनावों में प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें हारने के आरोप में हटाकर निशंक को कुर्सी सौंप दी गई.

लेकिन जब यह लगने लगा कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे निशंक आसन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी की नैय्या पार नहीं लगा पाएंगे, तो एक बार फिर खंडूरी पर दांव लगाने का फैसला किया है. लेकिन क्या उत्तराखंड के लोग भी खंडूरी पर दांव लगाने को तैयार हैं?

सवाल यह है कि अगर उनका नेतृत्व इतना चमत्कारी होता तो वे २००९ में पार्टी को राज्य की एक भी लोकसभा सीट क्यों नहीं दिलवा पाए? दूसरे, पार्टी को खंडूरी के नेतृत्व पर इतना ही विश्वास है तो उन्हें २००९ में हटाया क्यों?

ऐसा लगता है कि भाजपा की उम्मीद लोगों को सीमित स्मृति पर टिकी है लेकिन सच यह है कि वह खुद स्मृति दोष की शिकार है. लगता है कि पार्टी दिल्ली में १९९३ से १९९८ के बीच खुराना-साहब सिंह वर्मा-सुषमा स्वराज के प्रयोग के हश्र को भूल गई?

इसी तरह, १९९८ में चुनावों से ठीक कुछ महीने पहले साहब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया था लेकिन नतीजा यह हुआ कि उसके बाद से दिल्ली में आज तक भाजपा विपक्ष में बैठी है.

असल में, भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि वह दावे भले नेतृत्व के ‘चमत्कार’ पर जरूरत से कुछ ज्यादा ही भरोसा करती है. लेकिन नेतृत्व के ‘चमत्कार’ की सीमाएं होती हैं. इस राजनीतिक सबक को भाजपा भूल रही है. वाजपेयी के चमत्कारिक नेतृत्व को भी २००४ के चुनावों में मुंह की खानी पड़ी और २००९ में आडवाणी का जादू फीका रहा.

तथ्य यह है कि नए नेतृत्व के साथ-साथ नए विचारों और कार्यक्रमों की भी जरूरत होती है. अन्यथा, यह नई बोतल में पुरानी शराब से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है. सच यह है कि भाजपा की सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की नहीं बल्कि नए विचारों और कार्यकर्मों की है. इस मामले में पार्टी का दिवालियापन जगजाहिर हो चुका है.

लेकिन पार्टी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है. पर इसके अनगिनत उदाहरण सामने हैं. यह पार्टी नेतृत्व का दिवालियापन ही है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आडवाणी के नेतृत्व में रथयात्रा निकालने जा रही है.

क्या भाजपा को मालूम नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद उसकी विश्वसनीयता पाताल छू रही है? जो पार्टी कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं से लेकर येदियुरप्पा के आगे घुटने टेक चुकी हो और जिसकी सभी राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों, उसके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कौन गंभीरता से लेगा? यही नहीं, पिछली एन.डी.ए सरकार के टेलीकाम, तहलका से लेकर ताबूत घोटाले की कथाएं लोगों की स्मृति से क्षीण नहीं हुई हैं.

सच पूछिए तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा नेताओं और सरकारों के इसी रिकार्ड के कारण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व भाजपा के पास नहीं बल्कि एक गैर राजनीतिक एन.जी.ओ और उसके नेता अन्ना हजारे के पास है. भाजपा नेता मानें या न मानें लेकिन अन्ना हजारे की सफलता, भाजपा की विफलता से निकली है.

असल में, नेतृत्व से ज्यादा उसकी साख और विश्वसनीयता महत्वपूर्ण होती है. लेकिन चाहे आडवाणी हों या खंडूरी, उनके नेतृत्व की क्या साख है? क्या आडवाणी ने अपनी राज्य सरकारों में बढ़ते भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ किया? उलटे वे एक ऐसे लाचार नेता के रूप में सामने आए हैं जिसने महाभारत के धृतराष्ट्र की तरह आँखें बंद कर रखी हैं.

यही नहीं, नेतृत्व हवा में नहीं जमीन पर बनता है. अगर जमीन फिसलन भरी है तो अच्छे से अच्छे नेतृत्व को फिसलने से नहीं बचाया जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तराखंड में निशंक और खुद खंडूरी ने शासन में कोई कमाल तो दूर लोगों की न्यूनतम अपेक्षाएं भी पूरी नहीं की हैं.

उत्तराखंड के निर्माण से लोगों की जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें चाहे कांग्रेस की नारायण दत्त तिवारी सरकार रही हो या भाजपा की तमाम सरकारें – किसी ने पूरा नहीं किया है. लूट-खसोट और भाई-भतीजावाद की ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई है जिसमें न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा को अलग करना मुश्किल है बल्कि उसमें राज्य और उसके लोगों के हित सबसे पहले कुर्बान किये जाते हैं. इसकी अपवाद न खंडूरी की पूर्ववर्ती सरकार थी और न निशंक की मौजूदा सरकार.

ऐसे में, भाजपा नेतृत्व की काठ की हांडी दोबारा चढ़ाने की कोशिश का हश्र क्या होगा, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. हालांकि उत्तराखंड में लोगों के पास बहुत विकल्प नहीं है. कांग्रेस से लोगों की निराशा किसी से छुपी नहीं है. लगता है कि भाजपा इसे देखते हुए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की उम्मीद कर रही है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में १२ सितम्बर को प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप)

मंगलवार, सितंबर 06, 2011

चैनलों पर ‘अगस्त क्रांति’


संतुलन चैनलों की डिक्शनरी में नहीं है  



ऐसा लग रहा था, जैसे देश दिल्ली के रामलीला मैदान में सिमट गया हो. यह न्यूज चैनलों पर अन्ना हजारे की ‘अगस्त क्रांति’ की नान स्टाप 24x7 लाइव कवरेज थी. बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर सिर्फ अन्ना और अन्ना छाए हुए थे. बेशक, चैनलों ने अगस्त का दूसरा पखवाड़ा अन्ना हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन को समर्पित कर दिया था.

चैनलों का स्टूडियो न्यूज से निकलकर रामलीला मैदान पहुँच गया था, एंकर और रिपोर्टर्स धूप-उमस-बारिश और शोर के बीच पल-पल की खबर और अक्सर भीड़ के शोर से मुकाबला करते नजर आए और हर शाम प्राइम टाइम चर्चाओं में भावनाएं, भावनाओं से टकराती दिखीं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पूरे समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन को जिस तरह का सकारात्मक, सहानुभूतिपूर्ण और व्यापक कवरेज मिला, उसने न सिर्फ इस आंदोलन के पक्ष में देशव्यापी माहौल बना बल्कि उसने कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया.

कुछ इस आंदोलन और कुछ इसके कवरेज ने सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को खलनायक की तरह खड़ा कर दिया. इस हद तक कि संसद में हुई बहस में शरद यादव पूछने लगे कि इस ‘डिब्बे’ का क्या करें? उनके कहने का मतलब यह था कि अन्ना हजारे से तो निपटा जा सकता है लेकिन इन चैनलों से कैसे निपटें?

यह शिकायत करनेवाले शरद यादव अकेले नहीं हैं. सरकार, राजनीतिक दलों, सिविल सोसायटी के कुछ समूहों से लेकर वाम-धर्मनिरपेक्ष-दलित और अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों और कई मीडिया आलोचकों ने इस कवरेज की आलोचना की है. चैनलों पर अन्ना आंदोलन की ‘एकतरफा, अत्यधिक, असंतुलित, पक्षपातपूर्ण’ कवरेज और इसमें चैनलों और उनके पत्रकारों के ‘सीधे भागीदार, भोंपू और चीयरलीडर’ बन जाने के आरोप लगे हैं.

यह भी कि यह आंदोलन टी.आर.पी के लिए रचा गया ‘रियलिटी शो’ या कुछ के मुताबिक, ‘कारपोरेट मीडिया द्वारा प्रायोजित और निर्देशित षड्यंत्र’ था. यहाँ तक कहा गया कि अगर अन्ना हजारे को चैनलों पर 24x7 और एकतरफा कवरेज नहीं मिली होती तो यह आंदोलन न खड़ा होता और न ही इतनी दूर चल पाता.

इन आलोचनाओं में आंशिक सच्चाई है. यह सच है कि इस आंदोलन को चैनलों पर अत्यधिक और असंतुलित कवरेज मिला है. लेकिन यह शिकायत करनेवाले भूल जाते हैं कि यह चैनलों का स्वभाव बन चुका है. वे तथ्यों से कम और भावनाओं से अधिक चलते हैं. संतुलन शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. पिछले दिनों राहुल गाँधी की भट्टा-पारसौल पदयात्रा को तीन-चार दिनों तक ऐसी ही एकतरफा कवरेज मिली थी. हालांकि उनकी अलीगढ़ किसान रैली में रामलीला मैदान की तुलना में एक चौथाई लोग भी नहीं आए थे.

ऐसे और उदाहरणों की कमी नहीं है. अधिकांश मौकों पर चैनलों की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल सरकार, नेताओं, बड़ी पार्टियों और कारपोरेट ने किया है. पहली बार एक जनांदोलन और उसके नेताओं ने मीडिया सफलता के साथ ऐसा इस्तेमाल किया है. अन्ना टीम ने आंदोलन की रणनीति बनाते हुए मीडिया के इस्तेमाल को केन्द्र में रखा. दूसरी बात यह है कि अगर चैनलों का कवरेज अतिरेकपूर्ण था तो यह कहना दूसरा अतिरेक है कि अगर चैनलों का खुला समर्थन न होता तो यह आंदोलन खड़ा नहीं हो पाता या इतने बड़े पैमाने पर फ़ैल नहीं पाता.

ऐसा माननेवाले मीडिया खासकर चैनलों के प्रभाव और शक्ति को कुछ ज्यादा ही आंक रहे हैं. अगर इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए कि मीडिया अकेले इतना बड़ा और व्यापक आंदोलन खड़ा कर सकता है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि चैनल देश के भाग्य विधाता बन गए हैं.

यह सही है कि कई चैनलों खासकर टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी को यह मुगालता है कि वे ही देश चला रहे हैं लेकिन इससे बड़ा भ्रम कुछ और नहीं हो सकता है. यह भ्रम खुद इस देश की जनता ने कई बार तोड़ा है. याद कीजिये, ‘इंडिया शाइनिंग’ का मीडिया कैम्पेन जो मुंह के बल गिरा था. माफ़ कीजिये, मीडिया और न्यूज चैनल आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते हैं. किसी आंदोलन के पीछे कई राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक कारक और परिस्थितियां होती हैं.

अलबत्ता वे किसी आंदोलन को समर्थन और कवरेज देकर एक प्रतिध्वनि प्रभाव (इको इफेक्ट) जरूर पैदा कर सकते हैं. यह हुआ भी. चैनलों ने रामलीला मैदान की आवाजों को देश के करोड़ों घरों में गुंजाने में मदद की. इससे आंदोलन और उसके मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने और सरकार पर दबाव बढ़ाने में मदद मिली.

चैनल एक हद तक ‘मैजिक मल्टीप्लायर’ की भूमिका अदा कर सकते हैं यानी किसी मुद्दे/आंदोलन के प्रभाव को कई गुना बढ़ा सकते हैं लेकिन उसके लिए भी अनुकूल परिस्थितियां होनी चाहिए. यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए अनुकूल राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां मौजूद थीं.

भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है, सरकार और लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों की साख पाताल में पहुँच चुकी है और लोगों में एक बेचैनी, गुस्सा और हताशा थी जो अन्ना हजारे के जरिये फूट पड़ी.

सच पूछिए तो लोगों की इस बेचैनी और गुस्से को आवाज़ देना चैनलों की मजबूरी थी. वे इसे चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते थे. यह एक अच्छा बिजनेस सेन्स और रणनीति भी थी. असल में, इस आंदोलन में चैनलों के मध्यवर्गीय दर्शक भी बड़े पैमाने पर शामिल थे या उनकी खुली सहानुभूति थी. दूसरे, चैनलों के गेट-कीपरों में भी मध्यवर्ग का बहुमत है. नतीजा, वे पहले भी पब्लिक मूड के साथ बहते रहे हैं और एक बार फिर बहते नजर आए.

तीसरी बात यह है कि यह २०११ का आंदोलन था जब इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि देश में १५० से ज्यादा छोटे-बड़े डिब्बे मतलब न्यूज चैनल और लाखों सदस्यों वाले सोशल नेटवर्किंग साइट्स हैं. याद रखिये जब कमिश्नर के कुत्ते के गायब होने और अमिताभ बच्चन को सर्दी लगने की ‘खबर’ ब्रेकिंग न्यूज बन सकती है तो राजधानी और देश के और शहरों में हजारों लोगों के सड़कों पर उतर आने की खबर कैसे छुप सकती थी?

इसके साथ यह भी सच है कि मीडिया के इस्तेमाल के खेल में अन्ना की टीम ने सरकार को लगातार दूसरी बार मात दे दी है. लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. यह सिर्फ ब्रेक है. ब्रेक के बाद एक बार फिर खेल जल्दी ही शुरू होगा. देखते रहिए.


(आत्म-स्वीकृति : मैं खुद भी आंदोलन के समर्थन में हूँ.)

('तहलका' के १५ सितम्बर के अंक में प्रकाशित)

रविवार, सितंबर 04, 2011

देखो, देखो ! कौन ले रहा है संसद और संविधान की आड़


जनांदोलनों ने लोकतंत्र को वास्तविक अर्थ और उसके दायरे को बढ़ाया है


चौथी किस्त


“....मैंने देखा कि

इस जनतांत्रिक जंगल में

हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है

हरे-हरे हाथ

और पेड़ों पर

पत्तों की जुबान बनकर

लटक जाते हैं

वे ऐसी भाषा बोलते हैं

जिसे सुनकर

नागरिकता की गोधूलि में

घर लौटते मुसाफिर

अपना रास्ता भटक जाते हैं।...“

-धूमिल


भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले जन लोकपाल आंदोलन पर हमले अभी भी जारी हैं. मजे की बात यह है कि ये हमले दायें-बाएं और ऊपर-नीचे सभी तरफ से हो रहे हैं. कुछ बुद्धिजीवी मित्रों के साथ-साथ अधिकांश राजनीतिक दलों का आरोप है कि गैर निर्वाचित और अनुत्तरदायी सिविल सोसायटी का एक हिस्सा इस आंदोलन के जरिये संविधान और निर्वाचित संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है.

कुछ दलित-पिछड़े बुद्धिजीवियों के मुताबिक, “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” इस आंदोलन के जरिये बाबा साहब भीम राव आंबेडकर के बनाए उस संविधान को पलटने की कोशिश कर रहा है जिसने दलितों-पिछड़ों को “बराबरी के अधिकार से लेकर आरक्षण का हक” दिया है. उनका यह भी सवाल है कि इस सिविल सोसायटी ने उन्हें क्या दिया है?

दूसरी ओर, आमतौर पर संविधान और संसद के दायरे को न माननेवाली अरुंधती राय का मानना है कि माओवादी भारतीय राज्य को नीचे से पलटने की कोशिश कर रहे हैं जबकि यह आंदोलन भारतीय राज्य को ऊपर से पलटने की कोशिश कर रहा है और इसे विश्व बैंक से लेकर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का खुला समर्थन मिला हुआ है. यह एक तरह का तख्तापलट है जिसका मकसद भारतीय राज्य की भूमिका को और सीमित करना और सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण को जोर-शोर से आगे बढ़ाना है.

लेकिन क्रांति से कुछ भी कम स्वीकार न करने और कांस्पिरेसी थियरी में विश्वास रखनेवाले कुछ बुद्धिजीवी मित्रों को ठीक इसके उलट यह आंदोलन शासक वर्गों का षड्यंत्र दिखता है जो जनता के गुस्से को भटकाने और भारतीय राज्य को और मजबूत बनाने के मकसद से शुरू किया गया है. सबूत के तौर पर इस आंदोलन को बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के तमाम औद्योगिक संगठनों, कारपोरेट मीडिया आदि के खुले समर्थन को पेश करते हैं. उनके मुताबिक, जन लोकपाल की छुद्र सी मांग अंततः पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार और उसे मजबूत बनाने की मांग है.

यह और बात है कि इस समय नव उदारवादी सुधारों से लेकर अमेरिकापरस्ती का सबसे बड़ा पैरोकार और मुखपत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पिछले अप्रैल से ही इस आंदोलन के खुले विरोध में खड़ा है. उसे लगता है कि यह आंदोलन अलोकतांत्रिक है क्योंकि यह संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी करके अपनी बात थोपने की कोशिश कर रहा है.

इंडियन एक्सप्रेस ने इस आंदोलन के विरोध में न सिर्फ सम्पादकीय, लेखों की श्रृंखला छापी बल्कि इसके कर्ता-धर्ताओं की पोल खोलने वाली रिपोर्टें भी खूब छापी. इनमें ऐसी रिपोर्टें भी थीं कि इस आंदोलन में आरक्षण विरोही, दलित विरोधी और मुस्लिम विरोधी ताकतें सक्रिय हैं. मतलब यह कि एक्सप्रेस ने इसके विरोध बकायदा मुहिम सी चलाई.

लेकिन इसके बावजूद कुछ और बुद्धिजीवी मित्रों को लगता है कि यह आंदोलन यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस के इशारे पर चल रहा है जिसने भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों से ध्यान हटाने और लोकपाल कानून लाकर जनता के गुस्से को शांत करने के लिए इस आंदोलन को आगे बढ़ावा दिया है. दूसरी ओर, खुद कांग्रेस के प्रवक्ताओं और नेताओं ने इस आंदोलन को “खुले माओवादियों, कुर्सी तोड़नेवाले फासिस्टों और छुपे अराजकतावादियों” और “सी.आई.ए और अमेरिकी षड्यंत्र” के अलावा “आर.एस.एस और सांप्रदायिक शक्तियों” की साजिश करार दिया है.

एक आंदोलन और उसकी इतनी व्याख्याएं, इतने मकसद और चौतरफा हमले. दायें बाजू से लेकर बाएं बाजू तक सभी एक दूसरे से उलट बात कहते हुए भी एक बात पर सहमत हैं कि यह आंदोलन एक षड्यंत्र है. इन विद्वानों में मतभेद सिर्फ इस बात को लेकर है कि यह षड्यंत्र किसका है. मतलब ‘कन्फ्यूजन’ ही ‘कन्फ्यूजन’ है.

जानता हूँ कि आप भी ‘कन्फ्यूज’ हो रहे होंगे. आखिर माजरा क्या है? मजे की बात यह है कि फेसबुक पर इस आंदोलन के कुछ बाल उत्साही अंध विरोधियों ने इस ‘कन्फ्यूजन’ की काट खोज ली है और वे दायें-बाएं, उपर-नीचे और सीधे-तिरछे सभी तरह के हमलों पर तालियाँ बजाने में व्यस्त हैं. मित्रों, इन्हें माफ कीजिएगा, इन्हें खुद पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं?

आइये, इनमें से कुछ आरोपों की पड़ताल करते हैं.


संविधान और संसद : साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं...

सबसे पहले धूमिल की एक लंबी कविता ‘पटकथा’ से कुछ पंक्तियाँ:

“यह जनता…

उसकी श्रद्धा अटूट है

उसको समझा दिया गया है कि यहाँ

ऐसा जनतन्त्र है जिसमें

घोड़े और घास को

एक-जैसी छूट है

कैसी विडम्बना है

कैसा झूठ है

दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है।...”

जुबान के मदारी फिर से सक्रिय हैं. वे अपनी भाषा से जनतंत्र में जान फूंकने में लगे हैं. वे संसद और संविधान की आड़ लेकर हमले कर रहे हैं. वे लच्छेदार कानूनी भाषा में यह साबित करने में जुटे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं के खिलाफ है और उन्हें चुनौती दे रहा है. वे याद दिलाने और लोगों को डराने में लगे हैं कि जैसे फासीवाद संसद का विरोध करते हुए आया था, वैसी ही कोशिश यह आंदोलन भी कर रहा है. उनकी शिकायत है कि इस आंदोलन की अगुवा कथित सिविल सोसायटी जो मुट्ठी भर ‘शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट’ का प्रतिनिधित्व कर रही है, वह पूरे देश की आवाज़ होने का दावा कैसे कर सकती है?

सवाल यह है कि संविधान और संसद की चिंता किसे सता रही है? गौर से देखिए कि ये कौन लोग और शक्तियां हैं जो संसद और संविधान की आड़ लेकर अपने पापों को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं? इसमें वह सरकार और वे छोटी-बड़ी पार्टियां हैं जो खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई हैं और जिनका अपना खुद का इतिहास संविधान की धज्जियाँ उड़ाने और संसद को अपनी मनमानियों के लिए इस्तेमाल करने का रहा है. इसमें वे नेता और अफसर हैं जो खुद भ्रष्टाचार की गंगा में दिन-रात डुबकियां लगा रहे हैं और ऐसा करते हुए उन्हें संसद और संविधान का मजाक उड़ाने में कोई संकोच नहीं होता है.

इसमें बड़ी पूंजी यानि कारपोरेट जगत के वे प्रतिनिधि हैं जिन्होंने कानून बनाने से लेकर नीति निर्माण तक की प्रक्रियाओं में जबरदस्त रूप से घुसपैठ कर ली है और इस पूरी प्रक्रिया को संस्थाबद्ध करने में कामयाब हो गए हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे कानूनों और नीतियों की पूरी फेहरिश्त है जिनका खाका सबसे पहले सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम और विश्व बैंक-मुद्रा कोष के बंद कमरों में तैयार किया गया और बाद में संसद ने उसपर मुहर लगाने का काम किया. लेकिन ये सभी अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल की मांग पर संसद की सर्वोच्चता और संविधान की पवित्रता की दुहाई देने में लगे हैं.

इनमें एक्सप्रेस ब्रांड वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार बुद्धिजीवी भी हैं जो अकसर आर्थिक सुधारों की धीमी गति के लिए लोकतंत्र और संसदीय प्रक्रियाओं की सुस्ती पर खीजते पाए जाते हैं. जिन्हें भारतीय लोकतंत्र की तुलना में सिंगापुर, ताइवान, मलेशिया और कोरिया का लोकतंत्र ज्यादा आकर्षित करता है. इसमें वे अफसर बुद्धिजीवी भी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन संविधान, संसद, कानून और प्रक्रियाओं को धता बताने के लिए चोर दरवाजे खोजने में लगा दिया. उन्हें भी संविधान और कानूनी प्रक्रियाओं की चिंता सता रही है.

यही नहीं, संसद और संविधान की सर्वोच्चता और निर्वाचित बनाम गैर निर्वाचित की दुहाई भारत मुक्ति मोर्चा के वे मित्र भी दे रहे हैं जो जन लोकपाल के दायरे में निचले दर्जे के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को रखने का इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि ‘निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों में दलित-पिछड़े वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी ज्यादा हैं जिन्हें भ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर परेशान किया जा सकता है.’ ठीक ही है. आखिर भ्रष्टाचार में समता (इक्वालिटी इन करप्शन) का अधिकार का सवाल है?

यहाँ विस्तार से यह उल्लेख करके समय नहीं बर्बाद करना चाहता कि पिछले ६३ वर्षों में विभिन्न रंगों-झंडों की सरकारों और पार्टियों ने संविधान के साथ क्या किया है और संसद कहाँ से कहाँ पहुँच गई है? भारतीय संविधान, संसदीय प्रक्रियाओं और कानून के किसी भी विद्यार्थी से पूछ लीजिए, वह बता देगा कि पिछले छह दशकों में संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी, उल्लंघन और अवमानना की गई है?

यह भी कि संसद में क्या, कब, कैसे और क्यों होता है? इसके साथ यह भी कि हमारी संसद के माननीय सदस्यों की उपलब्धियां क्या है? आप खुद इलेक्शन वाच की यह साईट देख लीजिए जिसमें सदस्यों के खुद के दिए ब्यौरे शामिल हैं: http://www.nationalelectionwatch.org/  

यहाँ यह भी न भूलें कि संसद के बनाए कानूनों के साथ क्या होता है? वह गरीबों पर कितनी सख्ती से लागू होता है और अमीरों और ताकतवर लोगों के लिए कितना मुलायम बन जाता है? कैसे उन कानूनों में इतना छिद्र छोड़ा जाता है कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के लिए जगह बनी रहे? हैरानी की बात नहीं है कि भ्रष्टाचार मौजूदा व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन गया है? इस हद तक कि कई बुद्धिजीवी इसे व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी लुब्रिकेंट बताते हैं.

उनके मुताबिक, भ्रष्टाचार को एक हद तक स्वीकार कर लेना चाहिए बशर्ते व्यवस्था चलती रहे. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भ्रष्टाचार को स्वीकार्य बनाने के लिए भांति-भांति के तर्क दिए जाते थे कि भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है, भ्रष्टाचार को खत्म करना संभव नहीं है, यह लोगों की मनोवृत्ति में शामिल है, भ्रष्टाचार नैतिक पतन के कारण बढ़ रहा है आदि-आदि.

संसद और संविधान : हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन....

इससे पहले की आगे और बात की जाए, संसद और संविधान के नए आशिकों के लिए धूमिल की कुछ और पंक्तियाँ :

“...लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुंह में लगाम है...”

आश्चर्य नहीं कि इन दिनों संविधान और संसद का स्वाद वे मित्र बता रहे हैं जिनके मुंह में लगाम नहीं है. अलबत्ता उनका दावा यह है कि गरीब और हाशिए की जनता संविधान और संसद से मिले अधिकारों का खूब लुत्फ़ उठा रही है. लेकिन संविधान और संसद के बारे में देश के करोड़ों गरीबों, बेकारों, बीमारों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का क्या ख्याल है, उसके लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है. कश्मीर घाटी से लेकर मणिपुर तक देश का एक अच्छा खासा हिस्सा आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर कानून (अफ्स्पा) से लेकर अन्य कई काले कानूनों के साये में जी और लड़ रहा है.

बहुत से मित्रों की यह सौ फीसदी जायज शिकायत है कि अन्ना हजारे पर इतनी चर्चा हो रही है लेकिन पिछले दस साल से अफस्पा के खिलाफ लड़ रही इरोम शर्मिला के अनशन की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है? धीरज रखिये, हमारी महान संसद इस पर विचार कर रही है. फिर खुद सरकार कहती है कि देश के नौ राज्यों में कोई ८३ जिले नक्सल उग्रवाद से प्रभावित हैं जो संविधान और संसद को उलटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन नक्सली किसी दूसरे ग्रह से नहीं हैं और उनकी कतारों में वही गरीब दलित और आदिवासी हैं जो संविधान प्रदत्त अपने बुनियादी हकों के इंतज़ार में बैठे-बैठे थक गए.

निश्चित ही, संविधान और संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे मित्र देश के अलग-अलग इलाकों में जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट में इनका दोष नहीं मानते होंगे? आखिर संविधान में ऐसा कहाँ लिखा है? आखिर हमारी संसद ने अंग्रेजों के भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके देश विकास का रास्ता साफ किया है!

मित्रों को निश्चय ही, इससे भी कोई शिकायत नहीं होगी कि देश में ८ फीसदी की विकास दर के बावजूद ७८ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर करने को मजबूर हैं? आखिर संविधान में सबको बराबरी का अधिकार और दलितों और पिछड़ों के लिए विशेष अवसर की व्यवस्था की है. लेकिन अगर अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ रही है तो इसमें संविधान का क्या कसूर है?

सुना नहीं, अपने एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि दिल्ली से गांव के विकास के लिए चले हर एक रूपये में सिर्फ १५ पैसे ही नीचे जमीन पर पहुँचते हैं! बाकी बीच में ही लूट लिए जाते हैं लेकिन गरीबों के इस पैसे की लूट के खिलाफ बोलना संविधान और संसद का अपमान है, उनकी सर्वोच्चता को चुनौती है, गैर निर्वाचितों की तानाशाही है और फासीवाद को बढ़ावा है. यह किसकी आत्मा बोल रही है भाई? एक बार फिर धूमिल याद आ रहे हैं:

“...वे सब के सब तिजोरियों के

दुभाषिये हैं।

वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।

अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक

हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।

यानी कि-

कानून की भाषा बोलता हुआ

अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।...”

इस संयुक्त परिवार की ओर से जनता को यह भी सलाह दी जा रही है कि कोई शिकायत है तो पांच साल इंतज़ार कीजिये, चुनाव में वोट देकर अपनी पसंद की सरकार चुन लीजिए या खुद निर्वाचित हो जाइये. फिर पांच साल इंतज़ार करिए. फिर चुनाव का इंतज़ार कीजिये. नहीं-नहीं, जनतंत्र में यह शिकायत का कोई मतलब नहीं है कि ऐसा करते-करते १५ चुनाव बीत गए. यह मत पूछिए कि क्या मिला? एक बार फिर धूमिल की याद आ रही है:

“सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है

मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में

मैंने देखा हर तरफ

रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं

गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये

गुट से गुट टकरा रहे हैं

वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं

एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं

हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं

श्रीमान्‌ किन्तु हैं

मिस्टर परन्तु हैं

कुछ रोगी हैं

कुछ भोगी हैं

कुछ हिंजड़े हैं

कुछ रोगी हैं

तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं

आँखों के अन्धे हैं

घर के कंगाल हैं

गूँगे हैं

बहरे हैं

उथले हैं,गहरे हैं।

गिरते हुये लोग हैं

अकड़ते हुये लोग हैं

भागते हुये लोग हैं

पकड़ते हुये लोग हैं

गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं

एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे

इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में

असंख्य रोग हैं

और उनका एकमात्र इलाज-

चुनाव है।”

लेकिन मित्रों, जनता बावली हुई जा रही है. वह इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है. वह कहीं अफ्स्पा और दूसरे काले कानूनों को हटाने, कहीं जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट रोकने, कहीं भूमि सुधार-न्यूनतम मजदूरी-सामाजिक सम्मान, कहीं रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य के अधिकार और कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है. उसे संविधान और संसद की आड़ लेकर समझाना मुश्किल है. आखिर संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘हम भारत के लोग’ का जिक्र है, वह जनता संसद और संविधान की जन्नत के हकीकत को समझ गई है.

चलते-चलते यह याद दिलाना जरूरी है कि इस देश में अगर जनतंत्र जीवित है और उसके साथ-साथ संविधान और संसद की कुछ मर्यादा बची हुई है  तो इसलिए कि लोगों ने उसे बचाए रखने के लिए बहुत कुर्बानियां दी हैं. सच पूछिए तो इस देश में जनांदोलनों ने जनतंत्र की आत्मा को जिन्दा रखा है अन्यथा संसद और संविधान की आड़ लेकर जनतंत्र की हत्या करने की न जाने कितनी बार कोशिशें की गईं हैं. यही नहीं, गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को जो कुछ मिला है, वह किसी संविधान और संसद की नहीं बल्कि उनकी लड़ाइयों का नतीजा है. उन्हें समझाने वाले चाहे जो समझाएं लेकिन उन्हें पता है कि बिना लड़े यहाँ कुछ नहीं मिलता.