शनिवार, अप्रैल 02, 2011

पूंजीवादी विकास माडल की अनिवार्य परिणति है यह पिछड़ापन

उत्तर भारत को सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिया गया है


विकीलिक्स के एक खुलासे से सामने आया गृह मंत्री पी. चिदम्बरम का वह बयान बहुत हैरान नहीं करता है जिसके मुताबिक उन्होंने 2009 में अमेरिकी राजदूत से बातचीत में कहा था कि भारत की आर्थिक वृद्धि को उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों ने रोक रखा है और अगर ये राज्य न होते तो देश की विकास दर कहीं ज्यादा होती.

अब खुद चिदंबरम भले ही इस बयान का खंडन करें लेकिन सच यह है कि नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों के बीच ऐसा सोचने या ऐसी राय रखनेवालों की कमी नहीं है. यह और बात है कि राजनीतिक कारणों से वे खुलकर ऐसा बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

असल में, ९० के दशक में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद से नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों ने जिस तरह से जी.डी.पी की ऊँची वृद्धि दर को अर्थनीति के लिए मोक्ष मान लिया, ऐसी सोच जोर पकड़ने लगी. नतीजा, आर्थिक मैनेजरों में जी.डी.पी की ऊँची वृद्धि दर की राह में किसी भी अड़चन या रुकावट पैदा करनेवाले आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक कारकों के प्रति एक खास तरह का अपमान भाव और चिढ़ दिखाई पड़ने लगी.

उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि ऐसा क्यों है और इसे ठीक कैसे किया जाए? उदाहरण के लिए, पिछड़े राज्यों ही नहीं, कृषि क्षेत्र को भी ऊँची विकास दर हासिल करने की राह में एक बड़ा रोड़ा मान लिया गया क्योंकि पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र की हालत बद से बदतर होती चली गई है.

इसका परिणाम यह हुआ है कि पिछले डेढ़-दो दशकों से कृषि क्षेत्र की औसतन सालाना वृद्धि दर दो फीसदी के आसपास बनी हुई है जिसके कारण कुल जी.डी.पी की वृद्धि दर भी ७-८ प्रतिशत से ऊपर नहीं पहुंच पा रही है. इस आधार पर कृषि क्षेत्र को विकास दर की तेज रफ़्तार पर ब्रेक लगानेवाला मान लिया गया है. सतही तौर पर और सन्दर्भ से काटकर देखें तो यह बात उसी तरह ‘तथ्यपूर्ण’ लगती है जैसे यह राय कि पिछड़े राज्यों के खराब आर्थिक प्रदर्शन के कारण भारत की जी.डी.पी वृद्धि दर में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है.

यह तर्क कुछ वैसा ही ‘तर्क’ है जो गरीबी के लिए गरीबों को जिम्मेदार मानता है. लेकिन सच यह है कि जैसे कृषि क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के लिए वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं जिन्होंने कृषि क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया है, उसी तरह से उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारणों के अलावा मौजूदा आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ऊँची वृद्धि दर के नशे में चूर आर्थिक मैनेजर जानबूझकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं और पिछड़े राज्यों को पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.

लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्य पिछड़े इसलिए हैं कि उन्हें जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है. असल में, यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति है. पूंजीवादी विकास माडल अपने मूल चरित्र में एक असमान और विषम विकास को प्रोत्साहित करता है. पूंजीवादी विकास प्रक्रिया में कुछ क्षेत्रों को जानबूझकर पिछड़ा रखा जाता है ताकि उन इलाकों से सस्ते श्रम की आपूर्ति होती रहे.

यह प्रक्रिया अंग्रेजों के ज़माने में ही शुरू हो गई थी जिन्होंने व्यापार की दृष्टि से तटीय इलाकों में निवेश किया और इसके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया. दूसरे, अंग्रेजों ने उत्तर भारत के राज्यों को १८५७ के विद्रोह और उनके बगावती तेवर की सजा भी दी और इन इलाकों की उपेक्षा की.

अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के बाद भी कमोबेश उपनिवेशवादी हुकूमत की नीतियां ही जारी रहीं. पूंजीवादी विकास के जिस माडल को अपनाया गया, उसमें निजी पूंजी पहले से विकसित उन्हीं इलाकों में गई, जहां पहले से ही अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मौजूद था. उत्तर और पूर्व भारत के राज्य आज़ाद भारत में भी सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि पूंजीवाद में मुनाफा सस्ते श्रम और श्रम के शोषण पर टिका है. नतीजा, देश के अंदर उत्तर भारत और पूर्व भारत के राज्यों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया है जहां से पश्चिमी और दक्षिणी भारत के विकास के लिए जरूरी सस्ते श्रम की आपूर्ति होती है.

यह आपूर्ति जारी रहे, इसके लिए जरूरी है कि देश के कुछ इलाके पिछड़े बने रहें. इस स्थिति को देश के सभी क्षेत्रों के समान विकास के लिए एक प्रतिबद्ध राज्य ही बदल सकता था लेकिन भारतीय राज्य के एजेंडे पर यह सवाल कभी भी प्राथमिकता से नहीं आया. लेकिन १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद तो रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई.

इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका और भी सीमित हो गई और अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी के हाथों में आ गई. यही पूंजी अर्थनीति तय करने लगी और वे ही विकास का एजेंडा निर्धारित करने लगे.

जाहिर तौर पर इस दौर में भी देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों और राज्यों में गई है, जहां उन्हें अन्य इलाकों की तुलना में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मिला है. यही नहीं, इस दौर में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली, वह यह कि देश के विभिन्न राज्यों के बीच देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी को आकर्षित करने की होड़ सी मच गई. इसके लिए राज्य सरकारों ने निजी पूंजी को मनमाने तरीके से अनाप-शनाप रियायतें और छूट देनी शुरू कर दीं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस होड़ में उत्तर और पूर्व भारत के राज्य अनेक कारणों से एक बार फिर पिछड़ गए और देशी-विदेशी निजी पूंजी का संकेन्द्रण कुछ ही राज्यों और उनमें भी कुछ ही इलाकों तक सीमित हो गया है.

निश्चय ही, इसमें इन राज्यों में खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, बदहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बदतर मानवीय विकास जैसे कई कारक भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ये वास्तविक कारण नहीं हैं बल्कि ये राज्य जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, ये उनकी पैदाइश हैं.

आश्चर्य नहीं कि उत्तर भारत के पिछड़े राज्य एक बार फिर अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं. चिदंबरम के बयान से ऐसा लगता है कि भारतीय राज्य ने मान लिया है कि इन राज्यों और इलाकों में न सिर्फ कुछ बदल नहीं सकता है बल्कि बदलने की जरूरत भी नहीं है.

('राष्ट्रीय सहारा' के 'हस्तक्षेप' में २ अप्रैल'११ को प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

sanjeev dubey ने कहा…

बहुत ही सटीक विश्लेषण किया हैं आनंद जी.

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

बढ़िया लेख। उत्तर और पूर्व भारत ने आजादी के आन्दोलन में सबसे ज्यादा योगदान दिया है। इसके बावजूद इनकी स्थिति खराब है। पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे अधिक नुकसान इन्होंने तो उठाया ही है और अंग्रेजों के सबसे पहले पालनकर्ता राज्यों ने जम कर शोषण किया।