बुधवार, जनवरी 23, 2008
अतार्किक उत्साह में मारे गए छोटे निवेशक...
मुंबई शेयर बाजार सहित दुनिया भर के शेयर बाजारों में अमेरिकी मंदी की सुनामी का कहर जारी है. शेयर बाजार के इस विध्वंस में एक बार फिर लाखों छोटे और मंझोले निवेशकों ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई गंवा दी है.
पिछले एक सप्ताह में मुंबई शेयर बाजार की ऐतिहासिक गिरावट में लाखों करोड़ रुपए का निवेश हवा हो गया है. कोई नहीं जानता कि लुढ़कता हुआ बाजार आखिर कहां जाकर रुकेगा ? कल तक यह दावा करने वाले मुंह छुपाते फिर रहे हैं कि भारतीय शेयर बाजार अमेरिकी मंदी और बाजार के असर से स्वायत्त और स्वतंत्र हो चुका है. छोटे और मंझोले निवेशकों को समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें ?
असल में मुंबई शेयर बाजार में यह एक अघोषित सा नियम हो गया है कि शेयर बाजार की हर बड़ी गिरावट और मंदी के सबसे बड़े शिकार छोटे और मंझोले निवेशक बनते हैं. हर गिरावट की लगभग एक ही पटकथा रहती है. इस पटकथा के मुताबिक जब शेयर बाजार चढ़ रहा होता है और उछाल के नए रिकार्ड बना रहा होता है तो बाजार में तेजड़िए, मीडिया और कथित बाजार विशेषज्ञों की मदद से एक ऐसा उल्लासपूर्ण माहौल बनाते हैं जिसमें शेयर बाजार ऊपर जाता ही दिखता है. इस स्थिति को अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन रहे एलन ग्रीनस्पैन ने 'अतार्किक उत्साह' बताया था.
ऐसे ही अतार्किक उत्साह के माहौल में छोटा और मझोला निवेशक खूब पैसा बनाने की लालच में शेयर बाजार में आता है. लेकिन शेयर बाजार पर न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण का नियम भी लागू होता है. यानी जो बाजार ऊपर चढ़ा है, उसे नीचे भी आना है.
यह सही है कि पिछले दो-ढ़ाई साल से लगातार शेयर बाजार को देखकर यह लगने लगा था कि मुंबई शेयर बाजार इस नियम का अपवाद हो गया है. बहुत से छोटे और मझोले निवेशकों को भी यह भ्रम हो गया था. इसी भ्रम और लालच में उन्होंने अपना पैसा बाजार में तब लगाया, जब वह आसमान छू रहा था.
लेकिन अब बाजार मंदड़ियों के कब्जे में है. वह लुढ़क रहा है और छोटे और मझोले निवेशक डर और घबराहट में अधिक नुकसान से बचने के लिए शेयर बेचकर बाजार से निकलने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उन्हें जो नुकसान होना था, वह हो चुका है. लाखों निवेशक अपनी गाढ़ी कमाई गंवा चुके हैं और हजारों लाखों के कर्ज में डूब गए हैं. ऐसे निवेशकों की तादाद भी काफी ज्यादा है जिन्होंने बैंकों और अन्य श्रोतों से कर्ज लेकर बाजार में कमाई की उम्मीद से पैसा लगाया था.
जाहिर है छोटे और मझोले निवेशक अपने लालच और अतार्किक उत्साह की कीमत चुका रहे हैं. उनके पास विकल्प बहुत सीमित है. उनके पास नुकसान सहने की क्षमता न के बराबर है. उनके पास इतने वित्तीय साधन नहीं हैं कि वे गिरते हुए बाजार में हिम्मत बांधकर उसके दोबारा चढ़ने का इंतजार कर सकें.
बहुतेरे बाजार विशेषज्ञ यह सलाह दे रहे हैं कि बाजार में गिरावट के कारण बहुत से शेयरों की कीमत आकर्षक हो गई है. निवेशकों के लिए शेयर खरीददारी का यह सही समय है. लेकिन यह अर्धसत्य है. सच यह है कि इस समय बाजार जब इतना अस्थिर और गिरावट से ग्रस्त है, छोटे और मझोले निवेशकों को बाजार से दूर रहना चाहिए.
इस समय बाजार में हाथ डालने का अर्थ अपना हाथ जलाना है. उन्हें बाजार के स्थिर होने का इंतजार करना चाहिए. कई बार जब तूफान तेज हो, ऊंट की तरह रेत में सिर छुपाकर इंतजार करने की नीति बेहतर साबित हो सकती है.
मंगलवार, जनवरी 15, 2008
नैनो संस्कृति का आगाज...
टाटा की छोटी ‘पीपुल्स कार’ नैनो ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया के कार बाजार में हलचल पैदा कर दी है. आश्चर्य, ईर्ष्या, खुशी, प्रशंसा और डर के अलग-अलग सुरों में नैनो का स्वागत किया जा रहा है.
हालांकि अभी भी अनेक ऑटोमोबाइल विशेषज्ञों को टाटा की एक लखटकिया कार की कीमत को लेकर विश्वास नहीं हो रहा है. लेकिन खुद रतन टाटा का कहना है कि वे अपने वायदे को पूरा करेंगे. नैनो को बाजार में उतरने में अभी भी आठ से दस महीने और लगेंगे और इस बीच सभी की निगाहें टाटा के इस वायदे पर टिकी होंगी.
सचमुच, यह लाख टके का सवाल है कि क्या टाटा नैनो की कीमत एक लाख रुपए रख सकेंगे? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि नैनो की सबसे बड़ी खूबी और उसका आकर्षण उसकी एक लाख रुपए की कीमत ही है. उसकी कीमत ने ही भारत सहित दुनिया भर के ऑटोमोबाइल बाजार में जबर्दस्त हलचल पैदा की है.
ऑटोमोबाइल बाजार के छोटे-बड़े सभी खिलाड़ियों के लिए एक लाख की कार एक अविश्वसनीय और लगभग असंभव सी घटना है. इसलिए टाटा के इस इंजीनियरिंग चमत्कार का ऑटोमोबाइल उद्योग पर लगभग वैसा ही असर पड़ेगा जैसा मारुति 800 ने अस्सी के दशक में डाला था.
याद रहे कि भारतीय मध्य वर्ग के लिए मारुति एक सपने और जीवनशैली के पर्याय की तरह छा गई थी. मारुति सिर्फ एक कार नहीं थी बल्कि एक खास शहरी संस्कृति का प्रतीक बन गई थी.
लेकिन 21वीं सदी पहले दशक में नैनो के आगमन के साथ ही एक नई शहरी मध्यवर्गीय संस्कृति की नींव पड़ सकती है. नैनो मारुति संस्कृति को और नीचे और व्यापक आधार दे सकती है जो अपनी कार का सपना देखते हैं.
निःसंदेह आने वाले दशक में एक नई नैनो संस्कृति के आगाज की जमीन तैयार कर सकती है. इसकी वजह यह है कि नैनो की सफलता अन्य ऑटोमोबाइल कंपनियों को न सिर्फ अपनी कीमतों को घटाने के लिए बाध्य कर सकती हैं बल्कि छोटी कार के बाजार पर टाटा के कब्जे को चुनौती देने के लिए वे भी इसी कीमत में अपनी कार ले आने की तैयारी कर सकती हैं. बजाज ने अपनी कांसेप्ट कार लाने की घोषणा करके यह संकेत दे दिया है.
असल में नैनो के बाजार में आने पर सबसे अधिक दबाव दो-पहिया वाहन निर्माता कंपनियों पर ही पड़ेगा. छोटी कारों के 90 फीसदी खरीददार दो-पहिया वाहनों के मालिक होंगे. इसलिए दो-पहिया वाहन निर्माता कंपनियों के लिए नैनो की चुनौती से निपटने का एक ही तरीका है कि वे छोटी कार के बाजार में उतरें और अपने दो-पहिया की कीमत कम करें.
यही नहीं, नैनो के जिरए टाटा ने मारुति सुजुकी को भी चुनौती दी है. छोटी और सस्ती कार के बाजार पर मारुति के एकाधिकार को चुनौती देकर टाटा ने एक ऐसी प्रतियोगिता शुरू की है जिसमें सुजुकी सहित अन्य कंपनियों को भी अपनी रणनीति पर गहराई से पुनर्विचार करना होगा.
हालांकि सुजुकी अभी मारुति की कीमतों में कटौती से इंकार कर रही है लेकिन एक बार नैनो के बाजार में आ जाने और सड़कों पर अपनी क्षमता साबित कर देने के बाद सुजुकी के पास कीमतों में कटौती के अलावा कोई और विकल्प नहीं रह जाएगा.
लेकिन छोटी कारों के बाजार में कीमतों में कटौती का असर अन्य सेगमेंट की कारों पर पड़ेगा या नहीं, यह कहना अभी जल्दी होगी. इसके बावजूद यह स्वीकार करने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि नैनो की कामयाबी के बाद कार बाजार पहले की तरह नहीं रह जाएगा.
न सिर्फ कारों की मांग में भारी वृद्धि होगी बल्कि एक ऑटोमोबाइल क्रांति की शुरुआत हो जाएगी. 2006 में मारुति उद्योग-एनसीएईआर के एक बाजार अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया था कि देश में कुल 6 करोड़ दो-पहिया वाहन परिवारों में से लगभग 55 लाख परिवार 2007 तक कार खरीदने की योजना बना रहे थे. निश्चय ही 2008 के आते-आते ऐसे परिवारों की तादाद और बढ़ गई होगी जो छोटी और सस्ती कार खरीदने को बेताब होंगे.
लेकिन इस ऑटोमोबाइल क्रांति और नैनो संस्कृति की शुरुआत के साथ कई गंभीर सवाल भी जुड़े हुए हैं.
नैनो के नशे में डूबे मध्यवर्ग, मीडिया और बाजार को उन नतीजों के बारे में भी जरूर सोचना चाहिए जो इस ‘जनता कार’ के कारण आम जनता को भुगतने पड़ेंगे.
दरअसल, नैनो अपने साथ ऐसी कई चुनौतियां लेकर आ रही है जिन्हें अनदेखा करने का नतीजा आने वाली पीढ़ियों पर भारी पड़ सकता है. नैनो के साथ सबसे बड़ी चुनौती शहरी परिवहन व्यवस्था की अराजकता, सार्वजनिक परिवहन की दुर्व्यवस्था और शहरी पर्यावरण में घुलते जहर की समस्याओं से निपटने की है.
स्वयं रतन टाटा ने छोटी कारों की बढ़ती संख्या के दबाव के संदर्भ में नैनो को पर्यावरण अनुकूल बताया है. लेकिन सच यह है कि अगर नैनो दो-पहिया वाहनों की तरह बिकने लगी तो बड़े महानगरों के साथ-साथ देश के अधिकांश शहरों में सड़कों के वाहनों के चलने की जगह नहीं रह जाएगी.
अधिकांश शहरों में बिना नैनो के ही जाम और गाड़ियों की पार्किंग की समस्या नियंत्रण से बाहर हो गई है. कल्पना कीजिए कि अगले दस वर्षों में दिल्ली की सड़कों पर दस लाख नैनो कार उतर जाए तो क्या होगा? ट्रैफिक को संभालना न सिर्फ असंभव हो जाएगा बल्कि दिल्ली की सड़कों पर यात्रा एक दुःस्वप्न की तरह हो जाएगी.
इसी तरह शहरी पर्यावरण के लिए भी यह ऑटोमोबाइल क्रांति दुर्घटना साबित हो सकती है. दिल्ली समेत देश के अधिकांश शहरों में हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है. कलकत्ता स्थित चितरंजन राष्ट्रीय कैंसर शोध संस्थान के अनुसार दिल्ली में वायु प्रदूषण के कारण 24 फीसदी नागरिकों में क्रोमोसोम स्तर पर नुकसान और 60 प्रतिशत को फेफड़े संबंधी बीमारियां हो गई हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि शहरी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की सबसे बड़ी दोषी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री है. अगर शहरों में कार की संख्या ऐसे ही बढ़ती रही तो शहर जीवन के नहीं मृत्यु के केंद्र बन जाएंगे.
असल में नैनो की धूम के साथ एक बड़ी त्रासदी यह भी है कि नैनो की कामयाबी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की नाकामी और उसकी दुर्व्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है. नैनो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की कब्र पर उग रही है.
अफसोस और चिंता की बात यह है कि नैनो की सफलता के साथ सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त करने का सवाल हमेशा के लिए हाशिए पर चला जाएगा. यह न तो शहरों के भविष्य के लिए अच्छी खबर है और न ही उन करोड़ों आम लोगों के लिए, जिन्हें आज भी 20 रुपए से कम की आय पर गुजारा करना पड़ता है.
‘पीपुल्स कार’ की सच्चाई यह है कि 50 रुपए प्रतिदिन की किस्त चुकाकर नैनो कार खरीदने का सामर्थ्य इस देश के 77 फीसदी लोगों के पास नहीं है. लेकिन विडंबना देखिए कि ‘पीपुल्स कार’ की असली कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ेगी.
मंगलवार, जनवरी 08, 2008
महंगी रोटी का युग...
मुद्रास्फीति से अधिक खतरनाक है कृषिस्फीति
शनिवार, जनवरी 05, 2008
लोकलुभावन राजनीति के दबाव में अर्थव्यवस्था
वर्ष 2008 अर्थव्यवस्था के लिए नई चुनौतियां लेकर आ रहा है। अब यह आशंका सच साबित होती दिखाई पड़ रही है कि इस साल अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति न सिर्फ धीमी रहेगी बल्कि वह मंदी का भी शिकार भी हो सकती है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी का जुकाम होने का अर्थ यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी छींकती नजर आएगी। इस कारण अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि इस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था की गति भी धीमी रहेगी।
हालांकि यूपीए सरकार का दावा है कि अर्थव्यवस्था की गति 9 फीसदी से अधिक रहेगी लेकिन अधिकांश स्वतंत्र विश्लेषकों का मानना है कि इस साल अर्थव्यवस्था 7 से लेकर 8 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ने का अर्थ यह है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष में सरकार 9 फीसदी की विकास दर हासिल नहीं कर पाएगी। लेकिन उससे बड़ी चुनौती यह है कि कृषि की विकास दर में अपेक्षित वृद्वि होगी कि नहीं।
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से कृषि की विकास दर औसतन 2 फीसदी के आसपास चल रही है। जबकि 9 फीसदी की कुल विकास दर के लिए कृषि की विकास दर का 4 फीसदी तक पहुंचना बहुत जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि कृषि क्षेत्र जिस संकट से गुजर रहा है उससे बाहर निकलने के लिए कृषि क्षेत्र की विकास दर को 2 फीसदी की "हिन्दू विकास दर" के दुष्चक्र को तोड़ना होगा।
ऐसी खबरें आ रही हैं कि मनमोहन सिंह सरकार कृषि क्षेत्र के लिए खासकर किसानों के कर्जों को माफ करने के लिए एक बड़े पैकेज की तैयारी कर रही है। इससे स्पष्ट है कि इस साल अर्थव्यवस्था पर राजनीति की छाया रहेगी। हालांकि आर्थिक उदारीकरण के दौर में मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम जैसे आर्थिक सुधारों के रचनाकार राजनीति और अर्थव्यवस्था को अलग-अलग रखने पर जोर देते रहे हैं लेकिन विडंबना देखिए कि इन दोनों महानुभावों के नेतृत्व में इस साल चुनाव वर्ष में अर्थव्यवस्था पूरी तरह से राजनीति से निर्देशित रहेगी।
इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। इस बात के पक्के आसार हैं कि अगला बजट पूरी तरह से चुनावों को समर्पित होगा। इसके तहत सरकार मध्यवर्ग को खुश करने के लिए टैक्स में कटौती की तैयारी कर रही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि चालू वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष करों की वसूली में 42 फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। अनुमान है कि चालू साल में प्रत्यक्ष करों से 2.67 लाख करोड़ की वसूली के लक्ष्य की तुलना में लगभग 3 लाख करोड़ रूपए सरकारी खजाने में आ सकते हैं।
जाहिर है कि इससे सरकार का हौसला बढ़ा हुआ है। वह मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आयकर और कॉरपोरेट करों में कटौती के साथ-साथ कर छूटों का दायरा भी बढ़ाने का मन बना चुकी है। इस लोकलुभावन कदम से मध्य और अमीर वर्गों को फायदा जरूर होगा लेकिन एक ऐसे वर्ष में जब अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ती दिख रही हो और सरकार अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर आधारभूत ढांचा और सामाजिक ढांचा क्षेत्र में नए निवेश करने के लिए संसाधनों का रोना रो रही हो, उस समय टैक्स में कटौती का फैसला न सिर्फ सरकारी खजाने पर भारी पड़ सकता है बल्कि नए निवेश को भी प्रभावित कर सकता है।
यूपीए सरकार यह भूल रही है कि उसने 11वीं पंचवर्षीय योजना में आधारभूत ढांचे और सामाजिक ढांचे को मजबूत बनाने के लिए भारी सार्वजनिक निवेश का वायदा किया है। लेकिन तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए अगर उसने टैक्स दरों में कटौती और छूट देने का फैसला किया तो उसका असर निश्चित रूप से सार्वजनिक निवेश पर पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि चिदंबरम वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून के तहत वित्तीय और राजस्व घाटे को एक निश्चित सीमा में रखने के प्रावधान से बंधे हुए हैं।
इसलिए टैक्स दरों में कटौती और छूट के कारण सरकार की आय में गिरावट आती है तो वित्तीय और राजस्व घाटे को काबू में रखने के दबाव के कारण वित्तमंत्री विकास के लिए जरूरी सार्वजनिक निवेश को नहीं बढ़ा पाएंगे। सवाल यह है कि क्या वर्तमान के लिए भविष्य को दांव पर लगाया जा सकता है...?