शनिवार, दिसंबर 14, 2013

दिल्ली से खुलता राष्ट्रीय राजनीति में तीसरा स्पेस

आप के साथ यह वामपंथी और रैडिकल वाम पार्टियों के लिए भी मौका है   

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी दो बड़ी और ताकतवर पार्टियों की मौजूदगी के बावजूद हाल में बनी आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन के कई अर्थ और सन्देश हैं.
लेकिन आप की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण सन्देश यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरी ताकत या वैकल्पिक राजनीति के लिए न सिर्फ जगह मौजूद है बल्कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक माहौल उसके लिए काफी उर्वर है.
लेकिन इस तीसरी ताकत को भारतीय राजनीति में कई बार आजमाए जा चुके गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तीसरे मोर्चे के अर्थ में नहीं देखा जाना चाहिए.
इसके उलट दिल्ली के जनादेश की भावना शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के अलावा सपा-बसपा-जे.डी-यू-तृणमूल-डी.एम.के-ऐ.आई.डी.एम.के-तेलगु देशम जैसी मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी तीसरे मोर्चे जैसे गठबंधनों के खिलाफ भी है. इसे सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ मानना बहुत बड़ी भूल होगी.

सच पूछिए तो दिल्ली में आप की चुनावी सफलता में शासक वर्ग की सभी छोटी-बड़ी पार्टियों और पूरे राजनीतिक वर्ग के भ्रष्टाचार, सत्तालोलुपता, आमलोगों पर महंगाई का बोझ लादने, कुशासन, गुंडागर्दी, मनमानी के खिलाफ आमलोगों के बढ़ते अविश्वास और गुस्से को सुन और पढ़ सकते हैं.

इस मायने में यह सिर्फ दिल्ली के चुनाव का नतीजा नहीं है और न ही इसका राजनीतिक प्रभाव दिल्ली तक सीमित है. इसे दिल्ली या आप तक सीमित परिघटना मानना सबसे बड़ी भूल होगी. आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में आप के प्रदर्शन की गूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है.
दिल्ली के नतीजे के बाद शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के अलावा गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों में बढ़ती घबड़ाहट और खासकर दिल्ली में जोड़तोड़ करके सरकार बनाने से भाजपा की झिझक और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के आप से सीखने और कांग्रेस में बदलाव के बयान से साफ़ है कि इन सभी को यह अहसास है कि आज जो दिल्ली में हुआ, वह कल देश में बाकी जगहों पर भी हो सकता है.
इस अर्थ में दिल्ली का जनादेश शासक वर्ग की सभी पार्टियों और उनकी राजनीति और अर्थनीति के खिलाफ एक वैकल्पिक, साफ-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति और अर्थनीति के हक में आया जनादेश है. यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि आप पार्टी वास्तव में इस वैकल्पिक, साफ़-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति की प्रतिनिधि बन गई है.

सच यह है कि उसकी वैकल्पिक और जनोन्मुखी राजनीति-अर्थनीति का सामने आना बाकी है. उसे आनेवाले महीनों में कई राजनीतिक परीक्षाएं पास करनी हैं और लोगों की उम्मीदों और भरोसे को बनाए रखना है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप पार्टी ने देश भर में इस वैकल्पिक राजनीति और अर्थनीति की संभावनाओं और उम्मीदों को जगा दिया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप की सफलता में आम लोगों की उस बेचैनी को साफ पढ़ा जा सकता है जो मौजूदा राजनीति के सत्तालोलुप-अवसरवादी गठबंधनों और उनके भ्रष्टाचार-लूटपाट से उब गए हैं, जो अपने रोजमर्रा के जीवन में रोजी-रोटी-शिक्षा-स्वास्थ्य-बेहतर अवसर और बिजली-सड़क-पानी-सार्वजनिक परिवहन से लेकर भ्रष्टाचार और अपराधमुक्त सार्वजनिक जीवन चाहते हैं और जो राजनीति में शुचिता और आदर्शों की वापसी की मांग कर रहे हैं.
असल में, दिल्ली के जनादेश ने इसी अर्थ में कांग्रेस-भाजपा और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों से इतर एक ऐसे वास्तविक तीसरे विकल्प की जरूरत को चिन्हित किया है जो न सिर्फ वैचारिक-नीतिगत और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की इन पार्टियों से अलग हो बल्कि उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के आचार-व्यवहार में भी यह फर्क दिखता हो.
यही भारतीय राजनीति का नया तीसरा स्पेस है जो ९० के दशक के जोड़तोड़ और अवसरवादी गठजोड़ों से बने तीसरे मोर्चे से बुनियादी चरित्र में अलग और उसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम से आगे अधिकतम वैकल्पिक कार्यक्रम की मांग कर रहा है.

आप पार्टी की इसी तीसरे स्पेस पर दावेदारी है. इसमें वे देश भर से बदलाव और जनांदोलनों की ताकतों को भी जोड़ना चाहते हैं. वे मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से अलग अनेकों छोटी पार्टियों से भी संपर्क कर रहे हैं लेकिन वे चाहते हैं कि ये सभी छोटी पार्टियां और जनसंगठन/जनांदोलन खुद को आप में विलीन कर दें.

लेकिन इसके लिए ये पार्टियां और जनांदोलन/जनसंगठन तैयार नहीं हैं. आप के सामने सबसे बड़ी चुनौती बदलाव की राजनीति और जनांदोलनों की इन पार्टियों, जनसंगठनों और समूहों को साथ ले आना और वैकल्पिक अर्थनीति और कार्यक्रम पेश करना है. 

लेकिन इस तीसरे स्पेस की एक स्वाभाविक दावेदार वामपंथी पार्टियां हैं. लेकिन इसके लिए मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों खासकर माकपा को दिल्ली के जनादेश को समझना और उससे सीखना होगा.
सच यह है कि वाम मोर्चे खासकर माकपा ने वामपंथ को अवसरवादी तीसरे मोर्चे और उसके साख खो चुके दलों और नेताओं जैसे लालू-मुलायम-मायावती-नीतिश-जयललिता-चंद्रबाबू-जगन मोहन जैसों का पिछलग्गू बनाकर उसकी साख खत्म कर दी है.
लेकिन उनके सामने यह मौका है जब वे देश भर में रैडिकल वामपंथ की ताकतों, लोकतांत्रिक शक्तियों और जुझारू जनांदोलनों के साथ मिलकर एक व्यापक वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा बनाने और वामपंथ की स्वतंत्र पताका और वैकल्पिक नीतियों-कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की पहल कर सकते हैं.
यही नहीं, यह ग्रामीण और शहरी गरीबों, खेतिहर मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों, आदिवासियों, निम्न मध्यवर्ग और बेरोजगार नौजवानों के सवालों और मुद्दों को फिर से राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर लाने और रैडिकल बदलाव का कार्यक्रम पेश करने का भी मौका है.

इसकी शुरुआत और अपनी खोई हुई साख को बहाल करने के लिए सबसे पहले वाम मोर्चे खासकर माकपा को बंगाल में नंदीग्राम-सिंगुर-लालगढ़ में आमलोगों के दमन के लिए जनता से माफ़ी मांगनी चाहिए. क्या वाम मोर्चे में इतना नैतिक साहस है?

क्या वह इस या उस मध्यमार्गी दल का पिछलग्गू बनने के लोभ को इसबार भी छोड़ पाएंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि यह वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी के लिए सबसे अनुकूल समय है. आप की सफलता वामपंथ के लिए एक सबक है. वामपंथ को इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.
अगर वामपंथ ने इस बार भी मौका चूका तो उसे इस ‘ऐतिहासिक भूल’ के लिए लंबे समय तक पछताना पड़ेगा. 
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 14 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)                                  

1 टिप्पणी:

अमित/Амит/অমিত/Amit ने कहा…

आपकी बात से सहमत हूँ कि 'आप' की यह जीत सिर्फ कांग्रेस या बीजेपी के खिलाफ नहीं बल्कि वर्तमान अवसरवादी तीसरे मोर्चे के खिलाफ है।
लेकिन हम उस वामपंथ में बदलाव की उम्मीद कैसे करें जो संप्रदायिकता का पैरोकार है लेकिन मुज़फ्फरनगर के लिए सिर्फ बीजेपी को दोषी मानता है। एक तरफ समलेंगिकता पर पश्चिम का हाथ पकड़ता है तो दूसरी तरफ मुलायम का हाथ? जिन्हें राष्ट्रवादिता सांप्रदायिक लगती हैं, अन्ना और अरविंद केजरीवाल द्वारा भारत माता का चित्र उपयोग करना या वंदेमातरम का उदघोष दक्षिणपंथी लगे...ऐसा वाम 'आप' की जीत से क्या सीखेगा?