शनिवार, सितंबर 28, 2013

सांप्रदायिकता की समस्या और उसका इलाज


० भगत सिंह 

(आज शहीद भगत सिंह का जन्मदिन है. उनकी स्मृति को सलाम करते हुए साम्प्रदायिकता की समस्या पर उनके विचार पेश हैं.
 
यह लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है। आप भी पढ़िए और सोचिए कि क्या सांप्रदायिकता का इससे ज़्यादा तार्किक और मज़बूत उत्तर और कुछ हो सकता है?)

"भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।

यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।

दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता
का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।

यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।

यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा
मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।

यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।"

सोमवार, सितंबर 23, 2013

अपराधी से घृणा और अपराध का महिमामंडन

आशाराम की पोल खोलने में जुटे चैनलों पर निर्मल बाबा से लेकर स्वामियों-बाबाओं-बापूओं का महिमामंडन क्यों है?

खुद को ‘बापू’ और ‘संत’ कहनेवाले आशाराम अपने एक भक्त की बेटी के साथ यौन दुर्व्यवहार के आरोप में जेल पहुँच गए हैं. ये वही आशाराम हैं जिन्होंने पिछले साल दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर बलात्कार की घटना के बाद महिलाओं को भारतीय संस्कृति के पालन का ‘उपदेश’ देते हुए कहा था कि, ‘अगर वह लड़की बलात्कारियों को भैय्या कहके बुलाती तो उसके साथ बलात्कार नहीं होता.’ हालाँकि आशाराम और उनके आश्रम पर पहले भी ऐसे आरोप लगे हैं लेकिन वे हर बार बच निकले.
इस बार भी गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने सभी पैंतरे आजमाए. उनके खुले-छिपे समर्थकों ने भी ‘बापू’ को बचाने के लिए पत्रकारों को पीटने से लेकर उपद्रव करने तक और इसे हिंदू धर्म पर हमला बताने तक, क्या कुछ नहीं किया लेकिन  आशाराम बच नहीं पाए.

निस्संदेह इसका श्रेय काफी हद तक चैनलों और अखबारों को जाता है. पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार पर दबाव बनाने के लिए कुछ असहमतियों के बावजूद न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की आक्रामक कवरेज की प्रशंसा करनी पड़ेगी.

इस कवरेज का कारण भले ही इस मामले के साथ जुड़ी सनसनी, विवाद और उससे मिलनेवाली टीआरपी रही हो लेकिन यह भी सच है कि अगर चैनलों ने इसे मुद्दा नहीं बनाया होता और आशाराम के पिछले कारनामों की पोल नहीं खोली होती (‘आजतक’ का स्टिंग आपरेशन) तो ‘बापू’ एक बार फिर पुलिस को ठेंगा दिखाते हुए मजे में घूम रहे होते.

लेकिन आशाराम अकेले नहीं हैं. धर्म का कारोबार, लोगों की आस्था से खिलवाड़ करनेवाले और धर्म की आड़ में गैर-कानूनी कामों में लगे उन जैसे बहुतेरे संत, बापू, स्वामी, महाराज, श्री-श्री और मौलवी-खादिम हैं जो धड़ल्ले से लोगों को बेवकूफ बनाने और कानून की आँखों में धूल झोंकने में लगे हुए हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि इनमें से कई न्यूज मीडिया और चैनलों के बनाए और चढाये हुए हैं. इनमें से कई अपने संदिग्ध कारनामों के बावजूद न्यूज चैनलों पर चमक रहे हैं और सुबह-सवेरे उनके उपदेश अहर्निश जारी हैं. जैसे विवादों और आलोचनाओं के बावजूद निर्मल बाबा की ‘कृपा’ कई चैनलों पर बरस रही है.
यही नहीं, चैनलों पर खूब लोकप्रिय एक योगगुरु स्वामी तो योग से इतर सभी विषयों, यहाँ तक कि देश की अर्थनीति-विदेशनीति पर भी बोलते दिख जाएंगे. चैनल उनके ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाने के लिए लाइन लगाए रहते हैं. 

हैरानी की बात नहीं है कि आशाराम के खिलाफ अभियान चलानेवाले चैनलों में से कई उनके ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाने में भी एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे. क्या पता वे पत्रकारीय संतुलन का पालन करने की कोशिश कर रहे हों! शायद इसी संतुलन धर्म के तहत वे आज भी पूरी आस्था से अंधविश्वास बढ़ानेवाले कार्यक्रम और रिपोर्टें दिखाते रहते हैं.

चैनलों पर ज्योतिष और दैनिक भाग्य बताने वाले कार्यक्रम भी दिखाए जा रहे हैं और अखबारों में ज्योतिष-भाग्यफल के अलावा विज्ञापनों में काला जादू, भूत भगाने, वशीकरण से लेकर लंबे होने के नुस्खे खुलेआम बेचे जा रहे हैं.
हालाँकि दवा और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून’१९५४ के मुताबिक, ऐसे विज्ञापन गैर-कानूनी हैं लेकिन कुछ चैनलों और खासकर हिंदी और भाषाई अखबारों में क्लासिफाइड विज्ञापनों में उनकी भरमार रहती है. फिर क्या चैनल आशाराम के मामले में नाख़ून कटाकर शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं?
लगता तो ऐसा ही है. असली बापू ने कहा था कि अपराधी नहीं, अपराध से घृणा करो. लेकिन लगता है कि आशाराम के खिलाफ मुहिम चलानेवाला न्यूज मीडिया अपराधी से घृणा और अपराध के महिमामंडन में यकीन करता है. 

('तहलका' के 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)      

शनिवार, सितंबर 21, 2013

उच्च शिक्षा की दुखान्तिका

उच्च शिक्षा में हालात इमरजेंसी के हैं और करोड़ों युवाओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है 

ब्रितानी कंपनी- क्वैक्रेल्ली साइमंड्स (क्यू.एस) की ओर से जारी दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान अपनी जगह नहीं बना पाया है. स्वाभाविक तौर पर इस रिपोर्ट के आने के बाद से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों खासकर विश्वविद्यालयों की दुर्गति और उनके खराब अकादमिक स्तर को लेकर एक बार फिर स्यापा शुरू हो गया है.

मजे की बात यह है कि उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता इस रिपोर्ट पर ऐसी मासूमियत के साथ हैरानी जाहिर कर रहे हैं, जैसे उन्होंने उच्च शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए दिन-रात एक कर दिया हो और उन्हें उम्मीद थी कि भारतीय विश्वविद्यालय इस वैश्विक सूची में जरूर होंगे.
यहाँ तक कि कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति (चांसलर) राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले एक साल में कई उच्च शिक्षा संस्थानों के दीक्षांत और अन्य समारोहों में भारतीय विश्वविद्यालयों के दुनिया के २०० सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में जगह न बना पाने पर चिंता जाहिर की है. खुद प्रधानमंत्री भी इसपर कई बार चिंता जाहिर कर चुके हैं.

लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और ज्यादातर संस्थानों/विश्वविद्यालयों पर कब्ज़ा जमाए बैठी दमघोंटू नौकरशाही, अकादमिक दिशाहीनता और शैक्षिक अन्धकार से वाकिफ लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली रिपोर्ट नहीं है कि दुनिया के बेहतरीन २०० विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय शिक्षा संस्थान नहीं है या दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ८०० उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची में में भारत से केवल ११ शिक्षा संस्थान शामिल हैं.

हालाँकि इस वैश्विक रैंकिंग में कई प्रविधिमूलक समस्याएं हैं, इसके विकसित पश्चिमी देशों की शैक्षिक व्यवस्था और उसके मानदंडों के पक्ष में पूर्वाग्रह भी स्पष्ट हैं और बुनियादी तौर पर असमान और भिन्न परिस्थितियों में विकसित हुए और काम कर रहे शैक्षिक संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग बेमानी है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों में कोई समस्या नहीं है या उसका प्रदर्शन संतोषजनक है.
इसके उलट सच्चाई यह है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान अकादमिक तौर पर जबरदस्त गतिरुद्धता के शिकार हैं, शिक्षण और शोध की दशा और दिशा बद से बदतर होती जा रही है और वे मूलतः दाखिले-परीक्षा और डिग्रियां बाँटने तक सीमित रह गए हैं.
अफसोस की बात यह है कि इनमें से अधिकांश विश्वविद्यालयों/संस्थानों की डिग्रियां भी कागज के
टुकड़ों से ज्यादा कीमत नहीं रखती हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास स्नातक ‘रोजगार के लायक नहीं’ (अनइम्प्लायबल) हैं क्योंकि उनके पास न तो कोई तकनीकी कौशल है, न खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की भाषा दक्षता है और न ही बुनियादी सामान्य ज्ञान है.

हैरानी की बात नहीं है कि कुछ चुनिंदा अभिजात्य विश्वविद्यालयों और कालेजों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा संस्थान आज शिक्षित बेरोजगार पैदा करने की फैक्ट्री में बदल गए हैं क्योंकि वहां पठन-पाठन के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है.

यह स्थिति एक बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी में बदलती जा रही है. एक ओर उद्योग और सेवा क्षेत्र में प्रतिभाओं की कमी का रोना रोया जा रहा है और दूसरी ओर, उच्च शिक्षा संस्थानों से डिग्री लेकर निकले करोड़ों युवा हैं जो एक गरिमापूर्ण रोजगार के लिए भटक रहे हैं. इसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था, उसकी प्रतियोगी क्षमता और उसमें नवोन्मेष (इन्नोवेशन) पर पड़ रहा है.
त्रासदी यह है कि भारत की आबादी में दो-तिहाई युवाओं की मौजूदगी के कारण देश को जिस ‘जनसांख्यकीय लाभांश’ का फायदा उठाते हुए तेजी से तरक्की करना चाहिए था, वह उच्च शिक्षा की मौजूदा दुर्गति के कारण देश के लिए ‘जनसांख्यकीय दु:स्वपन’ में बदलता जा रहा है.
सच पूछिए तो यह उन युवाओं के साथ भी अन्याय है जिन्हें उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों की दुर्दशा की असली कीमत चुकानी पड़ रही है. यह तब है जब देश में विश्वविद्यालय/कालेज जाने की उम्रवाले युवाओं में से सिर्फ १८.१ फीसदी कालेज/विश्वविद्यालय का मुंह देख पाते हैं. इसके उलट विकसित देशों में यह ५० फीसदी से ऊपर है जबकि भारत जैसे कई विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में उच्च शिक्षा में कुल पंजीकरण अनुपात (जी.ई.आर) ३० फीसदी से ऊपर है.

योजना आयोग ने १२वीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) में उच्च शिक्षा में जी.ई.आर को २५.१ फीसदी पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. अगर यह लक्ष्य हासिल भी हो गया तो भी २०१७ में ७५ फीसदी युवा कालेज/महाविद्यालय से बाहर रहेंगे और भारत उच्च शिक्षा में प्रवेश के मामले में अपने समकक्ष देशों से पीछे रहेगा.

लेकिन उच्च शिक्षा तक पहुँच से भी बड़ी समस्या उसकी गुणवत्ता का है जिसकी ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का बिलकुल ध्यान नहीं है. असल में, उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति सिर्फ चिंता की बात नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय इमरजेंसी की स्थिति है. यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई है. पिछले दशकों में नीति नियंताओं ने उच्च शिक्षा की जिस तरह से अनदेखी की, उसके साथ खिलवाड़ किया और उच्च शिक्षा संस्थानों को धीमी मौत मरने के लिए छोड़ दिया, उसका नतीजा सबके सामने है.
यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह उच्च शिक्षा में प्रवेश और गुणवत्ता की चुनौती से निपटने के लिए पिछले डेढ़ दशकों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया है, उसके कारण स्थिति बद से बदतर हुई है.
यही नहीं, उच्च शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण का नतीजा न सिर्फ उच्च शिक्षा के महंगे होने और गरीबों की पहुँच से बाहर होने के रूप में सामने आया है बल्कि उसकी गुणवत्ता के साथ भी समझौता किया जा रहा है. उच्च शिक्षा के निजीकरण के नाम जिस तरह पर से दुकानें खुली हैं और लूट सी मची हुई है, वह अब किसी से छुपा नहीं है.

उसपर तुर्रा यह कि अब यू.पी.ए सरकार उच्च शिक्षा की इस महा-दुर्गति का हल विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने का न्यौता देने में खोज रही है. सवाल यह है कि दुनिया के किस देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से सुधरी है? यह भी कि हार्वर्ड या एमआईटी या स्टैनफोर्ड या आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज ने दुनिया के किन देशों में अपनी शाखाएं खोली हैं और क्या वह शाखा भी विश्वस्तरीय रैंकिंग में है?

असल में, उच्च शिक्षा व्यवस्था के नीति नियंता उसकी बुनियादी और संरचनात्मक समस्याओं और मर्ज से मुंह मोड़कर केवल लक्षणों का इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके कारण मर्ज बढ़ता और गंभीर होता जा रहा है.
सच यह है कि उच्च शिक्षा को स्कूल और माध्यमिक शिक्षा से काटकर नहीं देखा जा सकता है. आखिर छात्र वहीँ से कालेज/विश्वविद्यालय पहुँचते हैं. लेकिन शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद स्कूली और माध्यमिक शिक्षा खासकर सरकारी स्कूलों की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं है. लेकिन स्कूली शिक्षा की यह दुर्दशा मूलतः दोहरी शिक्षा व्यवस्था का नतीजा है जिसके तहत एक ओर अभिजात्य निजी पब्लिक स्कूल हैं और दूसरी ओर अभावग्रस्त सरकारी स्कूल हैं.
चूँकि इस देश के शासक वर्गों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं जाते, इसलिए उन्हें उनके हाल पर
छोड़ दिया गया है. इसी तरह तमाम वायदों और दावों के बावजूद देश में शिक्षा का कुल बजट जी.डी.पी के ३-४ फीसदी तक पहुँच पाया है और इसमें भी उच्च शिक्षा के लिए कुल बजट जी.डी.पी के एक फीसदी से भी कम है जबकि ६० के दशक में कोठारी आयोग ने शिक्षा के लिए जी.डी.पी का न्यूनतम ६ फीसदी बजट मुहैया कराने की सिफारिश की थी.

सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय/संस्थानों की सूची में भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान अपनी जगह कैसे बना पाएंगे, अगर उन्हें उनके समक्ष वैश्विक संस्थानों की तरह संसाधन, आज़ादी और स्वायतत्ता नहीं दी जायेगी?

ध्यान रहे कि वैश्विक रैंकिंग में पहुँचने के लिए जो भारांक हैं, उनके मुताबिक किसी शैक्षिक संस्थान की अकादमिक प्रतिष्ठा (४० फीसदी), रोजगार प्रदाताओं के बीच साख (१० फीसदी), छात्र-अध्यापक अनुपात (२० फीसदी), प्रति संकाय सदस्य शोध/साइटेशन (२० फीसदी), अंतर्राष्ट्रीय छात्र (५ फीसदी) और अंतर्राष्ट्रीय संकाय सदस्य (५ फीसदी) के आधार पर उसकी रैंकिंग तय होती है.
लेकिन अधिकांश भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्र-अध्यापक अनुपात अंतर्राष्ट्रीय मानकों से काफी बदतर स्थिति में है. हालत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के तीस फीसदी से अधिक पद खाली हैं. यहाँ तक कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और आई.आई.टी जैसे संस्थानों में ३० से ४० फीसदी पद खाली हैं.
इसी तरह ज्यादातर विश्वविद्यालयों/संस्थानों की प्राथमिकता मौलिक शोध नहीं बल्कि अध्यापन (टीचिंग) है. यह भी शैक्षिक नीतियों का नतीजा है क्योंकि सरकार ने अध्यापन और शोध को एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह देखने के बजाय अधिकांश कालेजों/विश्वविद्यालयों को अध्यापन संस्थान और उनके समानांतर मौलिक शोध के लिए अभिजात्य संस्थानों को खड़ा किया जहाँ अध्यापन नहीं होता है.

अध्यापन और शोध को कृत्रिम तरीके से एक-दूसरे से काट देने का नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान न खुदा ही मिला और न विसाल-ए-सनम की तर्ज पर न अध्यापन में बेहतर कर पा रहे हैं और न ही शोध में कोई कमाल दिखा पा रहे हैं. जाहिर है कि मौजूदा स्थिति में अधिकांश शिक्षा संस्थान अंतर्राष्ट्रीय छात्र या अध्यापक आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं. 

नतीजा सबके सामने हैं. मानिए या नहीं लेकिन उच्च शिक्षा या कहिए कि पूरी शिक्षा जिस दुष्चक्र में फंस गई है, वह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है. इसे अनदेखा करने का मतलब देश के भविष्य के साथ धोखा करना है. इसकी कीमत युवा पीढ़ी के साथ देश को भी चुकानी पड़ेगी. 

(इस लेख का संक्षिप्त और सम्पादित अंश 'राजस्थान पत्रिका' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 17 सितम्बर'13 के अंक में प्रकाशित)                                            

मंगलवार, सितंबर 03, 2013

लुढ़कता रुपया संकेत हैं अर्थव्यवस्था के गहराते संकट का

आवारा विदेशी पूंजी पर अति निर्भरता की रणनीति अर्थव्यवस्था को बड़े संकट की ओर ढकेल रही है 

डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में तेज गिरावट का दौर जारी है. अकेले अगस्त के तीसरे सप्ताह में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ५.५ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई और वह लुढककर रिकार्ड ६४.६५ रूपये तक पहुँच गई. मुद्रा बाजार में घबराहट और अनिश्चितता का आलम यह है कि रूपया हर दिन गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है.
 
यह गिरावट पिछले ढाई-तीन महीनों से जारी है. इस कारण २२ मई के बाद से डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में रिकार्ड १६.५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
हालाँकि इस बीच ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे अधिकांश विकासशील देशों की मुद्राओं में भी भारी से लेकर मध्यम स्तर की गिरावट दर्ज की गई है लेकिन विश्लेषकों के मुताबिक इन सबमें ब्राजील के रियाल के बाद भारतीय रूपये का प्रदर्शन सबसे कमजोर रहा है.
उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इस माहौल में रुपया किस हद और कहाँ तक गिरेगा, इसे लेकर अनिश्चितता और घबराहट का माहौल बना हुआ है. ड्यूश बैंक का कहना है कि रुपया अगले कुछ महीनों में डालर के मुकाबले गिरकर ७० रूपये तक पहुँच सकता है.

लेकिन दूसरी ओर बार्कलेज बैंक का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष के आखिर तक डालर के मुकाबले रूपया मजबूत होकर ६०-६१ रूपये के करीब रहेगा. डालर के मुकाबले रूपये की कीमत के ६५ रूपये से भी नीचे आ जाने के बाद खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि रूपये की कम कीमत लगाई जा रही है.

चिदंबरम ने रूपये को संभालने के लिए बाजार और विदेशी निवेशकों को भरोसा भी दिलाया है कि वे न सिर्फ चालू खाते और राजकोषीय घाटे को निर्धारित सीमा से बाहर नहीं जाने देंगे बल्कि विदेशी निवेश को लुभाने के लिए और कदम उठाएंगे.

लेकिन मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितता और निराशा के माहौल में इससे रूपये की सेहत कितनी सुधरेगी, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. हाल के महीनों में वित्त मंत्री से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर तक रूपये को चढ़ाने के लिए ऐसे दावे और वायदे कई बार कर चुके हैं लेकिन उनके दावों-वायदों का प्रभाव दो-तीन दिनों से ज्यादा नहीं रहता है.
इसकी वजह यह है कि रूपये का गिरना असली संकट नहीं है बल्कि यह सिर्फ संकट का लक्षण भर
है. असल में, यह अर्थव्यवस्था का संकट है जो रूपये की कमजोरी से लेकर शेयर बाजार में गिरावट तक में दिख रहा है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि रूपये की तेज गिरावट खुद भी एक संकट का रूप लेती जा रही है और पहले से डावांडोल भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट की ओर ढकेल रही है.
आखिर डालर के मुकाबले रूपये की तेज गिरावट की वजह क्या है? ज्यादातर विश्लेषकों का कहना है कि रूपये की कमजोरी की कई वजहें हैं लेकिन सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. रूपये में गिरावट की मुख्य वजह लगातार बढ़ते चालू खाते के घाटे और विदेशी निवेशकों के पलायन को माना जा रहा है. चालू खाते का घाटा व्यापार शेष (माल और सेवाओं के आयात को घटाकर निर्यात), निवल घटक आय (जैसे लाभांश और ब्याज) और निवल अंतरण भुगतान (जैसे विदेशी सहायता) का कुलयोग है जो मोटे तौर पर यह दिखाता है कि देश अपनी आय से कितना ज्यादा उपभोग कर रहा है.

यह चादर से बाहर पैर फ़ैलाने की तरह है. पिछले साल चालू खाते का घाटा ८८ अरब डालर तक पहुँच गया था जोकि जी.डी.पी का ४.८ फीसदी था. सरकार का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष में चालू खाते का घाटा बजट में अनुमानित ७० अरब डालर से कम रहेगा लेकिन कमजोर निर्यात के मद्देनजर बाजार और विदेशी निवेशकों को इस दावे पर भरोसा नहीं है.   

तथ्य यह है कि ऊँचे चालू खाते के घाटे के मामले में भारत इस समय दुनिया के चुनिंदा देशों में है और उससे अधिक चालू खाते का घाटा सिर्फ अमेरिका का है. आमतौर पर जी.डी.पी के २ फीसदी से कम चालू खाते के घाटे को सुरक्षित माना जाता है लेकिन भारत का चालू खाते का घाटा पिछले कई वर्षों से लगातार इस सुरक्षित सीमा से ऊपर रहा है.
चालू खाते के बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और बढ़ता घरेलू खपत, सोने और महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं का बढ़ता आयात है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए देश का अमीर और उच्च मध्यम वर्ग जिम्मेदार है जो चादर से बाहर पैर फैलाकर उपभोग कर रहा है. चाहे वह बड़ी कारों-एस.यू.वी में फूँकने वाला डीजल हो या सुरक्षित निवेश के लिए सोने का आयात या फिर महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की ललक हो- देश के अमीर और उच्च मध्य वर्ग की भूख बढ़ती ही जा रही है.
लेकिन इस कारण बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा यानी डालर चाहिए. इसके लिए विदेशी कर्ज या विदेशी निवेश या दोनों चाहिए और वह विदेशी निवेशकों को लुभाकर और उन्हें अधिक से अधिक छूट देकर ही संभव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो दशकों में जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया गया है, उनके केन्द्र में किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने की रणनीति रही है.

इसके लिए विदेशी निवेशकों को उनकी शर्तें मानकर मुंहमांगी छूट-रियायतें दी गईं हैं. लेकिन इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थाई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की तुलना में अस्थाई विदेशी निवेश खासकर संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.आई.आई) के जरिये शेयर और वित्तीय बाजार में आया है.

लेकिन यह आवारा पूंजी है जब उसे मुंहमांगा मुनाफा मिल रहा होता है, वह तेजी से और बड़ी मात्रा में आती है लेकिन जैसे ही मुनाफा कम होता है या किसी और देश की अर्थव्यवस्था में ज्यादा मुनाफे की सूरत दिखाई देती है, उसे देश छोड़कर निकलने में देर नहीं लगती है.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही हो रहा है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लड़खड़ा रही है. औद्योगिक उत्पादन निराशाजनक है. निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है. इस कारण कंपनियों के मुनाफे पर दबाव बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, आयात में कोई खास कमी नहीं होने के कारण चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है. जाहिर है कि इससे विदेशी निवेशकों में बहुत बेचैनी है और वे सुरक्षित विकल्प खोज में देश से निकल रहे हैं. 
इस बीच, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच वहां के केन्द्रीय बैंक ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लाये गए ‘उत्प्रेरक पैकेज’ (स्टिमुलस पैकेज) और उसके तहत ‘इजी मनी’ की नीति को वापस लेने का एलान किया है जिसके कारण विदेशी निवेशक वापस अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर रूख कर रहे हैं. इससे डालर की मांग बढ़ गई है और रूपये की कीमत में तेज गिरावट दर्ज की जा रही है.

इसका फायदा सट्टेबाज भी उठा रहे हैं. रूपये की कीमत में तेज उतार-चढाव में देशी-विदेशी सट्टेबाजों
की भी बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्थिति आज पैदा हुई है. पिछले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी.

यह स्थिति आज भारतीय अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख संरचनागत समस्या है जो सीधे तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का नतीजा है. इसने आय के असमान बंटवारे और गैर जरूरी उपभोग को बढ़ावा दिया है जिसका नतीजा चालू खाते के घाटे के रूप में सामने है.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र गति और अमेरिकी ‘इजी मनी’ के कारण डालर के तीव्र प्रवाह के बीच बढ़ते चालू खाते के घाटे की समस्या को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने लगातार नजरंदाज़ किया.
उल्टे उनके अति आत्मविश्वास का हाल यह था कि वे पूंजीगत खाते की परिवर्तनीयता (रूपये की पूर्ण परिवर्तनीयता) यानी पूंजी के प्रवाह पर से सारे नियंत्रण हटा लेने की बातें करने लगे थे. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक और सरकार ने पूंजी के प्रवाह को उदार बनानेवाले फैसले भी किये. लेकिन वे भूल गए कि १९९७-९८ में दक्षिण-पूर्वी एशियाई टाइगरों के साथ क्या हुआ था?
यही नहीं, मौजूदा संकट के संकेत पिछले दो साल से दिखने लगे थे. चालू खाते के बढ़ते घाटे, वैश्विक आर्थिक संकट और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के कारण रूपये पर दबाव बढ़ता जा रहा था. हैरानी की बात नहीं है कि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत अगस्त’२०११ में लगभग ४५ रूपये थी, वह गिरकर अगस्त’१२ में ५५ रूपये तक पहुँच गई और अब अगस्त’१३ में और गिरकर ६५ रूपये पर पहुँच गई है.

इस कारण यू.पी.ए सरकार पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने और इसके लिए विदेशी पूंजी को और रियायतें देने का दवाब बढ़ता ही जा रहा था. इसी दबाव में पिछले साल वित्त मंत्री का पद दोबारा संभालने वाले पी. चिदंबरम ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई से लेकर बैंक-बीमा और पेंशन क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और आवारा पूंजी यानी एफ.आई.आई को कई रियायतों का एलान किया.

यही नहीं, उन्होंने इस साल बजट पेश करते हर साफ़ तौर पर एलान किया कि तात्कालिक तौर पर चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वित्त मंत्री ने पिछले एक साल से विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है. विदेशी पूंजी को रियायतें देने के अलावा वे दुनिया भर में घूम-घूमकर निवेशकों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालाँकि इस कोशिश में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी पर और निर्भर बना रहे हैं. लेकिन मौजूदा उपभोग की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी पर बढ़ती यह निर्भरता अर्थव्यवस्था को एक बड़े और गहरे संकट की ओर ढकेल रही है.
उदाहरण के लिए, भारत पर विदेशी कर्ज पिछले दो सालों में २७ फीसदी बढ़ गया है. भारत पर जो विदेशी कर्ज मार्च’११ में ३०६ अरब डालर (जी.डी.पी का १७.५ प्रतिशत) था, वह इस साल मार्च में बढ़कर ३९० अरब डालर (जी.डी.पी का २१.२ प्रतिशत) हो गया है.

यही नहीं, सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें अल्पावधि के विदेशी कर्ज का अनुपात भी तेजी से बढ़ा है. रिपोर्टों के मुताबिक, कुल विदेशी कर्ज में अल्पावधि का कर्ज कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात में मार्च’११ के ४२ फीसदी से बढ़कर मार्च’१३ में ५९ फीसदी तक पहुँच गया है.

यह कर्ज ऐसे ही नहीं बढ़ा है, जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी तो अति आत्मविश्वास में सरकार ने देशी कारपोरेट समूहों को अल्पावधि के विदेशी कर्ज लेने की छूट दी.
 
हालाँकि आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे कई देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन जिस तरह से विदेशी पूंजी खासकर अल्पावधि का कर्ज बढ़ता जा रहा है, वह संकटग्रस्त देशों की दिशा में बढ़ने का संकेत है.

इससे न तो रूपये का संकट खत्म होनेवाला है और न ही अर्थव्यवस्था का संकट टलनेवाला है. विदेशी पूंजी को रियायतें और छूट देकर संकट टालने की रणनीति तात्कालिक तौर पर संकट से भले निजात दिला दे लेकिन वह अगले संकट की नींव तैयार करके जाती है.

आखिर अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याओं को दूर किये बिना विदेशी पूंजी के कोरामिन से अर्थव्यवस्था को कब तक दौडाया जा सकता है?

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 5 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)