सफलता और समृद्धि की होड़ के बीच असफल और अकेले पड़ते जाने की त्रासदी
इन नीतियों के साथ देश में जिस तरह से आर्थिक समृद्धि और अधिक से अधिक भौतिक सुख-सुविधाओं को बटोरने की होड़ को आर्थिक प्रगति और सफलता का पर्याय बना दिया गया, उसके बाद मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, चाहतों और इच्छाओं को जैसे बेलगाम पर लग गए.
नतीजा, सबसे आगे निकलने की एक ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई कि उसमें पारिवारिक रिश्तों और सामाजिक संबंधों की बलि चढ़ते देर नहीं लगी. देखते ही देखते सफल लोगों का एक ऐसा शहरी समाज बनने लगा जिसमें संबंधों और रिश्तों की बुनियाद मानवीय मैत्री, परस्पर सहयोग, एक-दूसरे का आदर जैसे सार्वभौम मानवीय मूल्यों के बजाय लेन-देन, डर-भय, शक्ति और निजी जरूरत बनती जा रही है.
लोग एक ऐसी मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें रिश्तों, संबंधों और उनसे जुड़ी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है. उल्टे भावनाओं को सफलता की राह में रोड़ा और मजाक की चीज़ मान लिया गया है.
इन परिवारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे अपनी ही सफलताओं में इस कदर खोये हुए हैं या रोज के जीवन संघर्षों में ऐसे फंसे हुए हैं कि उनके पास यह जानने-देखने की फुर्सत नहीं है कि उनके पड़ोसी का क्या हाल है? कहने का मतलब यह कि लोग अपनी ही सफलताओं के बंदी हो चुके हैं.
जाहिर है कि यह सफलता की होड़ की सामाजिक-पारिवारिक कीमत है जिसे बदलते हुए दौर की जरूरत बताकर जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती है. लेकिन मुश्किल यह है कि इस नई व्यवस्था में जितने सफल लोग हैं, उनकी तुलना में असफल लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है.
लेकिन इस नव उदारवादी व्यवस्था में असफल लोगों की कोई कीमत नहीं है. उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है - न परिवार, न नाते-रिश्तेदार, न पड़ोसी, न समाज और न ही राज्य. उन्हें अपने ही हाल पर छोड़ दिया गया है. यह एक नए तरह समाज है जिसमें सिर्फ ‘सर्वश्रेष्ठ को जीने’ का हक है. जो दौड़ में छूट गया, गिर गया या शामिल नहीं हुआ, उसे परिवार-समाज पर बोझ समझा जाने लगता है.
सबसे दुखद यह है कि इस पूरी प्रक्रिया की चरम परिणति असफल लोगों के निरंतर अलगाव और अकेलेपन के रूप में आ रही है जिसमें उनके सामने आत्महत्या के रूप में अपनी असफलता की कीमत चुकाने या फिर नोयडा की दो बहनों की तरह घुट-घुटकर मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जा रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में देश में आत्महत्याओं की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. एक ओर नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त और असहाय से हो गए किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी ओर, सफलता की होड़ में पीछे छूट गए और किनारे कर दिए गए मध्यमवर्गीय लोग जान दे रहे हैं.
सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? वजह साफ है. नव उदारवादी नीतियों ने सफलता और समृद्धि की होड़ तो तेज कर दी लेकिन असफल और पीछे छूटे लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा का ऐसा कोई विश्वसनीय ढाँचा नहीं खड़ा किया है जो नोयडा की बहल बहनों के अकेलेपन औए अलगाव को दूर कर सके.
साफ है कि इन नीतियों के कारण आर्थिक पूंजी चाहे जितनी पैदा हो रही हो लेकिन सामाजिक पूंजी लगातार रीतती जा रही है. सामाजिक पूंजी के इस क्षरण की कीमत किसी न किसी रूप में हम सभी चुका रहे हैं. आखिर सफल लोगों का व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन भी कितना खाली और रीता होता जा रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है. आर्थिक समृद्धि के बावजूद मध्यमवर्गीय परिवारों में जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियों खासकर मानसिक बीमारियों की बढ़ती जकड़ इसका एक और सबूत है.
नोयडा के एक समृद्ध और खाते-पीते परिवारों वाली कालोनी में अपने फ़्लैट में पिछले छह महीने से बंद दो बहनों की कारुणिक कथा को अपवाद मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. सच पूछिए तो इस घटना ने शहरी मध्यवर्गीय समाज की बढ़ती समृद्धि के बीच टूटते-बिखरते रिश्तों, बढ़ते सामाजिक अलगाव और सघन होते अकेलेपन की त्रासदी से पर्दा उठा दिया है.
इस कहानी से यह भी पता चलता है कि आगे बढ़ने की होड़ और सफलताओं की गुलाबी कहानियों के बीच मध्यवर्गीय समाज के अंदर अकेलेपन और अलगाव के अँधेरे कोने किस कदर फैलते जा रहे हैं. यह कहानी उन असफल लोगों की भी दुखान्तिका है जो किन्हीं कारणों से पीछे छूट गए और अकेले पड़ते चले गए.
लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है. यह अनायास भी नहीं है. वास्तव में, इस कहानी का प्लाट नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इर्द-गिर्द बुना गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन नीतियों ने भारतीय राजनीति, अर्थनीति के साथ-साथ समाज खासकर मध्यवर्गीय समाज को भी बहुत गहराई के साथ प्रभावित किया है.
इन नीतियों के साथ देश में जिस तरह से आर्थिक समृद्धि और अधिक से अधिक भौतिक सुख-सुविधाओं को बटोरने की होड़ को आर्थिक प्रगति और सफलता का पर्याय बना दिया गया, उसके बाद मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, चाहतों और इच्छाओं को जैसे बेलगाम पर लग गए.
लोग एक ऐसी मशीन बनते जा रहे हैं जिसमें रिश्तों, संबंधों और उनसे जुड़ी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है. उल्टे भावनाओं को सफलता की राह में रोड़ा और मजाक की चीज़ मान लिया गया है.
यही नहीं, सफलता के लिए एक-दूसरे का पैर खींचने से लेकर दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ शुरू हो गई है कि किसी को किसी की परवाह नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि हर कीमत पर सफलता हासिल करने की होड़ में लगे व्यक्ति के लिए समाज और परिवार की भूमिका लगातार महत्वहीन होती जा रही है या परिवार का दायरा निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है. परिवार का मतलब अधिक से अधिक पति-पत्नी-बच्चे रह गए हैं.
इन परिवारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वे अपनी ही सफलताओं में इस कदर खोये हुए हैं या रोज के जीवन संघर्षों में ऐसे फंसे हुए हैं कि उनके पास यह जानने-देखने की फुर्सत नहीं है कि उनके पड़ोसी का क्या हाल है? कहने का मतलब यह कि लोग अपनी ही सफलताओं के बंदी हो चुके हैं.
लेकिन इस नव उदारवादी व्यवस्था में असफल लोगों की कोई कीमत नहीं है. उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है - न परिवार, न नाते-रिश्तेदार, न पड़ोसी, न समाज और न ही राज्य. उन्हें अपने ही हाल पर छोड़ दिया गया है. यह एक नए तरह समाज है जिसमें सिर्फ ‘सर्वश्रेष्ठ को जीने’ का हक है. जो दौड़ में छूट गया, गिर गया या शामिल नहीं हुआ, उसे परिवार-समाज पर बोझ समझा जाने लगता है.
सबसे दुखद यह है कि इस पूरी प्रक्रिया की चरम परिणति असफल लोगों के निरंतर अलगाव और अकेलेपन के रूप में आ रही है जिसमें उनके सामने आत्महत्या के रूप में अपनी असफलता की कीमत चुकाने या फिर नोयडा की दो बहनों की तरह घुट-घुटकर मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जा रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में देश में आत्महत्याओं की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. एक ओर नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त और असहाय से हो गए किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी ओर, सफलता की होड़ में पीछे छूट गए और किनारे कर दिए गए मध्यमवर्गीय लोग जान दे रहे हैं.
इस मायने में, नोयडा की बहल बहनों की कहानी को उन त्रासद कहानियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है जिसमें हर ओर से निराश-हताश पूरा का पूरा परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली है. पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, मुंबई से लेकर छोटे-छोटे शहरों में भी ऐसी मध्यवर्गीय पारिवारिक सामूहिक आत्महत्या की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि हुई है.
जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की सबसे ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक आत्महत्याओं वाले शहर की कुख्याति बंगलूर के हिस्से आई है जो नव उदारवादी अर्थनीति की सफलता का भी सबसे चमकदार उदाहरण बनकर उभरा है. बंगलूर में वर्ष २००९ में हर दिन कोई छह लोगों ने आत्महत्या की यानी हर चार घंटे पर एक आत्महत्या! इसी तरह, चेन्नई में हर छह घंटे में और दिल्ली में हर सात घंटे में एक व्यक्ति ने आत्महत्या की.
साफ है कि इन नीतियों के कारण आर्थिक पूंजी चाहे जितनी पैदा हो रही हो लेकिन सामाजिक पूंजी लगातार रीतती जा रही है. सामाजिक पूंजी के इस क्षरण की कीमत किसी न किसी रूप में हम सभी चुका रहे हैं. आखिर सफल लोगों का व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन भी कितना खाली और रीता होता जा रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है. आर्थिक समृद्धि के बावजूद मध्यमवर्गीय परिवारों में जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियों खासकर मानसिक बीमारियों की बढ़ती जकड़ इसका एक और सबूत है.
खतरे की घंटी बज चुकी है. क्या लोग और समाज सुन रहे हैं?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २३ अप्रैल को प्रकाशित)