रविवार, मई 16, 2010

अपराध रिपोर्टिंग का “अपराध”

समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अपराध की खबरों को काफी जगह मिलती है. हिंदी के अधिकांश समाचार चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं. लेकिन अगर अपराध की वह खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. चैनलों के मौजूदा ढांचे में यह काफी हद तक स्वाभाविक भी है. अपराध की खबरों के प्रति चैनलों के अतिरिक्त आकर्षण को देखते हुए ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं है बशर्ते चैनल उसे रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन करें.


लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से मसालेदार और सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते हैं. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग के आधार पर ऐसी-ऐसी बे-सिरपैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है. क्राईम स्टोरीज खबर कम और ‘स्टोरी’ अधिक लगने लगती हैं. चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगने लगता है.


सचमुच, इस मायने में चैनलों का कोई जवाब नहीं है. सबसे ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने एक सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं और दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की २९ अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखण्ड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर “आनर किलिंग” का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया.


हालांकि उसके बाद पूरे मामले में कोडरमा पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबावों में काम करने के कारण पुलिस जांच ना सिर्फ सुस्त गति से चल रही है बल्कि पूरी जांच को भटकाने/बिगाडने की कोशिश की जा रही है. ऊपर से हत्या के आरोप में जेल में बंद निरुपमा की माँ के परिवाद पर स्थानीय कोर्ट के इस निर्देश के कारण मामला और पेचीदा हो गया है कि पुलिस निरुपमा के दोस्त प्रियभांशु पर रेप, धोखा, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे संगीन आरोपों में मामला दर्ज करके जांच करे.


स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोरशोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एन.डी.टी.वी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. ऐसा नहीं है कि चैनलों के रिपोर्टरों को घटना की जानकारी नहीं थी. निरुपमा देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की छात्रा रही थी. इस संस्थान के छात्र सभी चैनलों और अखबारों में हैं. निरुपमा और प्रियाभांशु के दोस्तों ने बहुतेरे चैनलों/अखबारों को निरुपमा की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के बारे में बताया था लेकिन किसी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली.


असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार जैसे इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आफ इंडिया, एच.टी या हिंदू अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाते हैं, चैनल आमतौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश समाचार चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं, जब कोई बड़ा और टी.आर.पी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की यह भेड़चाल अब किसी से छुपी नहीं राह गई है.



निरुपमा के मामले भी यह भेड़चाल साफ दिखाई दी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एस.एम.एस और प्रियाभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘आनर किलिंग’ के मामले के बतौर ही उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियाभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की आफ द रिकार्ड और सेलेक्टिव ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियाभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना किसी और स्वतन्त्र स्रोत या कई स्रोतों से पुष्टि किए या क्रास चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.


दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.


इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.


यह ठीक है कि क्राईम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है कि रिपोर्टर ने अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख दी है. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रास चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.

शनिवार, मई 01, 2010

मोदी, आई.पी.एल और फीलगुड पत्रकारिता का घना होता अँधेरा


“पत्रकारिता का पहला नियम है: कोई भगवान नहीं होता है. और अगर कोई भगवान की तरह दिखता है तो आमतौर पर उसके पैर कीचड़ में सने होते हैं. कुछ यही हुआ, तेजतर्रार, सरपट बोलनेवाले एक ४६ वर्षीय व्यक्ति के साथ जो आज से तीन साल पहले गुमनामी से निकलकर सामने आया और देश में क्रिकेट का भगवान बन बैठा. यह और कोई नहीं, इंडियन प्रीमियर लीग (आई.पी.एल) के कमिश्नर ललित मोदी हैं जो आज विवादों में घिर गए हैं. ‘इंडिया टुडे’ में ऐसा दुर्लभ ही होता है कि जिस महीने में किसी को उसकी शानदार कामयाबियों के लिए कवर स्टोरी का विषय बनाया जाए और उसी महीने में उसकी मुश्किलों के लिए उसे फिर कवर स्टोरी का विषय बनाया जाए.”

- ‘इंडिया टुडे’ के प्रधान संपादक अरुण पुरी (इंडिया टुडे, ३ मई के संपादकीय का अंश)


अरुण पुरी का यह आत्मस्वीकार न सिर्फ ‘इंडिया टुडे’ मार्का फीलगुड पत्रकारिता और उसकी अन्तर्निहित कमजोरियों पर सटीक टिप्पणी है बल्कि यह आज की मुख्यधारा की समूची पत्रकारिता पर भी उतना ही सटीक बैठता है. सच यही है कि आज ललित मोदी को नंगा करने में जुटा समाचार मीडिया अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब उन्हें आसमान पर चढ़ाने में दिन-रात एक किए हुआ था. मोदी को ‘क्रिकेट का भगवान’ बनाने में अकेले ‘इंडिया टुडे’ ही नहीं, पूरा मीडिया लगा हुआ था. मोदी की शानदार सफलता की कहानियां हर अखबार, चैनल और मीडिया पर ऐसे छाई हुई थी, जैसे वह कोई जादूगर हो. आई.पी.एल की कामयाबियों के ऐसे-ऐसे किस्से गढ़े जा रहे थे जो हमारे मीडिया की कल्पनाशक्ति और सृजनात्मकता के बेहतरीन नमूने थे.


लेकिन अरुण पुरी का यह कहना बिलकुल सही है कि जो भगवान की तरह दिखते या दिखाए जाते हैं, उनके पांव अक्सर कीचड़ में सने पाए जाते हैं. यह और बात है कि आज के समाचार मीडिया की ‘फीलगुड पत्रकारिता’ उसे देखना नहीं चाहती है या देखकर भी अनदेखा करने की कोशिश करती है. पुरी स्वीकार करें या नहीं लेकिन सच यही है कि मोदी जैसे ‘कीचड़ सने पांवों वाले भगवान’ हवा में नहीं पैदा होते हैं बल्कि मीडिया द्वारा बनाये और गढ़े जाते हैं. उससे भी बड़ा सच यह है कि मोदी जैसे भगवान बनाना कारपोरेट मीडिया की जरूरत बन गया है क्योंकि ऐसे भगवानों से कारपोरेट मीडिया के निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं.


असल में, आज मुख्यधारा की पत्रकारिता पर जिस तरह से शाम के अँधेरे की तरह फीलगुड पत्रकारिता छाती जा रही है, उसमें मोदी जैसे धूमकेतुओं और चमकते सितारों के लिए ही जगह है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन सितारों के पीछे के अंधकार को जानबूझकर छुपा कर रखा जाता है. इस फीलगुड पत्रकारिता में यह जानते हुए भी कि हर चमकनेवाली चीज़ सोना नहीं होती, मीडिया उसे सोना साबित करने में लगा रहता है. मोदी भी एक ऐसी ही चमकनेवाली चीज़ थी जिसे कारपोरेट मीडिया ने सोना बना दिया था. लेकिन फीलगुड पत्रकारिता के कोख से जन्मे मोदी कोई अकेले उदाहरण नहीं हैं. हर्षद मेहता, केतन पारीख से लेकर रामलिंगा राजू और मोदी तक ऐसे छोटे-बड़े दर्जनों उदाहरण हैं.


दरअसल, उत्तर उदारीकरण दौर की फीलगुड पत्रकारिता की यही फितरत बन गई है. इस दौर में बड़ी पूंजी के साथ पूरी तरह से नत्थी (एम्बेडेड) हो चुके समाचार मीडिया की खुद की आर्थिक कामयाबी के लिए यह अनिवार्य शर्त बन चुकी है कि वह नई अर्थव्यवस्था और नव उदारवादी अर्थनीतियों की ‘शानदार कामयाबियों’ के झूठे-सच्चे फीलगुड किस्से गढ़े और इन किस्सों को हकीकत का तानाबाना देने के लिए उनके इर्द-गिर्द नायक खड़े करे. इसे ही फीलगुड पत्रकारिता कहते हैं जो नब्बे के दशक से भारतीय पत्रकारिता की मुख्यधारा बन चुकी है. इस पत्रकारिता में सच से ज्यादा सपने बेचे जाते हैं, तथ्य से ज्यादा गल्प परोसा जाता है, संदेह और जांच-पड़ताल से ज्यादा अन्धविश्वास फैलाया जाता है और विफलताओं को छुपाया और आधी-अधूरी कामयाबियों को खूब बढ़ा-चढाकर दिखाया जाता है.


इस फीलगुड पत्रकारिता में सवाल नहीं पूछे जाते हैं. दरअसल, इस पत्रकारिता में सवाल पूछना किसी कुफ्र से कम नहीं है. इसमें सिर्फ कामयाबी की पूजा की जाती है. यह सफलता को ही सबसे बड़ा मूल्य मानती है, चाहे वह जैसे भी हासिल की गई हो. यहां तक कि अगर यह कामयाबी नियमों को तोड़कर और कानूनों की अनदेखी करके भी हासिल की गई हो तो भी फीलगुड पत्रकारिता उसपर कोई उंगली नहीं उठाती है, उलटे वह उन नियमों और कानूनों की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने लगती है क्योंकि उसके लिए सफलता ही सबसे बड़ा नियम और कानून है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि मोदी की कामयाबी हमेशा से संदेहों के घेरे में होने के बावजूद किसी अखबार/चैनल या वेब मीडिया ने कोई असुविधाजनक सवाल नहीं पूछा और न ही यह जानने की कोशिश की कि इस कामयाबी के पीछे कितना कीचड़ है?


यहां तक कि अब जब मोदी की कामयाबी की पोल काफी हद तक खुल चुकी है, अँधेरा और कीचड़ दिखने लगा है, इसके बावजूद कारपोरेट मीडिया के बड़े हिस्से में अभी भी मोदी और उससे अधिक आई.पी.एल भक्ति जारी है. कहा जा रहा है कि मोदी को उनका बडबोलापन, मनमानी रवैया, हाई-फाई जीवन शैली और ताकतवर राजनेताओं से टकराव ले डूबा यानी मोदी के कामकाज में कोई खास दिक्कत नहीं थी और आई.पी.एल तो विवादों से परे है ही. जाहिर है कि यह फीलगुड पत्रकारिता का ही नया ‘स्पिन’ है. मोदी की विदाई तय देखकर यह कहा जाने लगा है कि मोदी की कारगुजारियों का दंड आई.पी.एल को नहीं दिया जाना चाहिए. तर्क दिया जा रहा है कि यह एक ग्लोबल ब्रांड है. करोड़ों दर्शकों की पसंद है. इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए और फलने-फूलने का मौका दिया जाना चाहिए.


हैरान होने की जरूरत नहीं है. यह फीलगुड पत्रकारिता का नया अपराधशास्त्र है जिसमें बताया जा रहा है कि अपराधी (मोदी) से घृणा करो और अपराध (आई.पी.एल) से नहीं. गोया आई.पी.एल दूध का धुला हो जिसमें मोदी के कारण कीचड़ आ गया हो. जबकि अब यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गई है कि खुद आई.पी.एल ही एक कीचड़ है. इसमें क्रिकेट तो सिर्फ एक आवरण भर है. दरअसल, आई.पी.एल के आइडिया से लेकर उसकी संरचना तक में एक खेल के बतौर क्रिकेट से ज्यादा बेनामी निवेश, मनी-लांडरिंग, टैक्स चोरी, मैच फिक्सिंग, धोखा, सेक्स और लूट के आपराधिक खेल के लिए जगह है. उसे इसीलिए खड़ा ही किया गया है. आई.पी.एल के इस कीचड़ में फीलगुड पत्रकारिता की मदद से मोदी जैसे ही कमल खिल सकते हैं.


लेकिन मोदी के अपराधों में काफी हद तक बराबर की भागीदार फीलगुड पत्रकारिता एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचकर निकलती दिखाई दे रही है. यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है कि समाचार मीडिया ने मोदी की कथित कामयाबियों पर संदेह क्यों नहीं किया, सवाल क्यों नहीं पूछे और उनकी छानबीन क्यों नहीं की? क्या यह समाचार मीडिया की जिम्मेदार नहीं है? क्या उसने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई? क्या यह उसकी विफलता नहीं है? मोदी और आई.पी.एल प्रकरण में ये सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए. ये सवाल इसलिए जरूरी हैं कि समाचार मीडिया ही मोदी जैसे क्रिकेट के भगवानों, रामलिंगा राजू जैसे आई.टी के भगवानों, हर्षद मेहता जैसे शेयर बाज़ार के भगवानों से लेकर शाइनिंग इंडिया और भारत निर्माण जैसे बड़े पी.आर भगवान खड़े कर रही है.


सच यह है कि लोगों को मोदी नहीं कारपोरेट मीडिया छल रहा है. यह ठीक है कि इनमें से ज्यादातर भगवान अंततः मुंह के बल गिरे और यह सच्चाई भी अधिक दिनों तक छुपी नहीं रह सकी कि सिर्फ उनके पांव ही नहीं पूरा शरीर कीचड़ में धंसा हुआ है. लेकिन इससे कारपोरेट मीडिया की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है और न ही फीलगुड पत्रकारिता के जलवे में कोई कमी आई है. वह नए भगवान खोजने निकल पड़ी है. जल्दी ही ये नए भगवान अखबारों की सुर्ख़ियों, पत्रिकाओं के चिकने पन्नों और चैनलों रंगीन पर्दों पर छाए होंगे.


वह इसलिए कि फीलगुड पत्रकारिता मोदी जैसे भगवानों और उनकी कामयाबी की गल्प कथाओं के बिना नहीं जी सकती है. दूसरी ओर, कारपोरेट मीडिया फीलगुड पत्रकारिता के बिना नहीं जी सकता है. असल में, कारपोरेट मीडिया का कारोबार फीलगुड पत्रकारिता पर ही टिका हुआ है क्योंकि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था फीलगुड के बिना नहीं चल सकती है. फीलगुड से ही यह अर्थव्यवस्था हमेशा एक बूम का माहौल बनाये रखती है जो उसकी कामयाबी के लिए जरूरी है. अगर यह न हो तो इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिए भारत जैसे गरीब देशों में पैर जमाना मुश्किल हो जाए क्योंकि इसमें गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. वह संसाधनों की लूट, सट्टेबाजी और नियम-कानूनों को पैरों तले कुचल कर ही फल-फूल रही है और गैर-बराबरी, वंचना और शोषण का अँधेरा फैला रही है.


जाहिर है कि इस अर्थव्यवस्था को इन सब पर रंगीन पर्दा डालने के लिए फीलगुड पत्रकारिता यानी ‘सब-कुछ अच्छा-अच्छा चल रहा है’ का धुन बजानेवाली पत्रकारिता चाहिए. साफ है कि इस पत्रकारिता के प्राण किसकी नाभि में हैं?

(समाचार फार मीडिया डाट काम, २८ अप्रैल )