आनंद प्रधान
अगर अहमदाबाद (गुजरात) के मेट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट एस पी तमांग की जांच रिपोर्ट पर भरोसा करें तो कोई पांच साल पहले गुजरात पुलिस ने शहर के बाहर युवा इशरत जहां सहित जिन चार लोगों को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी बताते हुए पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, वह मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी। लगभग 243 पृष्ठों की रिपोर्ट में मैजिस्ट्रेट ने न सिर्फ गुजरात पुलिस के अधिकांश दावों की पोल पट्टी खोल दी है बल्कि उसके सांप्रदायिक और हत्यारे चरित्र को भी पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। हैरानी की बात नहीं है कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले में गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के उन्हीं अफसरों का नाम सामने आया है। जो पहले ही, इसी तरह के एक और फर्जी मुठभेड़-सोहराबुद्वीन शेख मामले में जेल की हवा खा रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामला उजागर होने के साथ ही गुजरात पुलिस की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल गयी है। उससे अधिक नरेंद्र मोदी सरकार की असलियत खुलकर सामने आ गयी है जो एक बार फिर पूरी बेशर्मी के साथ अपराधी पुलिस अफसरों और कर्मियों के बचाव में उतर आयी है। लेकिन इस पूरे मामले में सवाल समाचार मीडिया की भूमिका पर भी उठ रहे हैं। सवाल यह है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आमतौर पर राष्ट्रीय और गुजराती समाचार मीडिया ने इन फर्जी मुठभेड़ों के बारे में पालतू तोते की तरह वही क्यों दोहराया जो मोदी सरकार और गुजरात पुलिस ने बताया? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि समाचार मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह पुलिस और सरकार का भोंपू बनने के बजाय सच को सामने लाए, सवाल उठाए और कमजोर और पीड़ित लोगों की आवाज उठाए।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि गुजरात और देश के कई और राज्यों में समाचार मीडिया ने अपनी इस भूमिका को न सिर्फ ताक पर रख दिया है बल्कि आतंकवाद से लड़ने के आब्सेशन में राज्य और पुलिस-सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादतियों और गैर कानूनी तौर तरीकों में सहयोगी-सहभागी बन गयी है। स्थिति यह हो गयी है कि पुलिस/सुरक्षा एजेंसियां किसी (खासकर मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों) को ‘आतंकवादी’, ‘उग्रवादी’, ‘नक्सली’ और अलगाववादी’घोषित कर मुठभेड़ में मार डालें तो सवाल उठाना और पुलिसिया दावों की जांच पड़ताल तो दूर की बात है, समाचार मीडिया का बड़ा हिस्सा और नमक-मिर्च लगाकर, सनसनीखेज तरीके से और मारे गए लोगों की चरित्र हत्या में जुट जाता है।
सचमुच, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस समाचार मीडिया से सच को सामने लाने और कमजोर लोगों की आवाज बनने की अपेक्षा की जाती है, वह खुद फर्जी मुठभेड़ में शामिल दिख रहा है। फर्जी मुठभेडो में पुलिस तो एक बार गोली मारकर हत्या करती है लेकिन समाचार मीडिया दिन-रात चीख-चीखकर मुठभेड़ में मारे गये निर्दोष लोगों की सैकड़ों बार चरित्र हत्या करता है। मीडिया यह बुनियादी पत्रकारीय उसूल भूल जाता है कि मुठभेड़ों में मारे गये लोग कथित आतंकवादी हैं यानी कि पुलिस जिन्हें आतंकवादी मानती है, उसे जांच और अदालत में साबित होना अभी बाकी है।
दूसरे, ऐसा लगता है कि मुख्य धारा के अधिकांश समाचार मीडिया ने ‘देशभक्ति’ का ठेका ले लिया है। आतंकवाद का नाम सुनते ही उसकी देशभक्ति जोर मारने लगती है। इस देशभक्ति के जोश मंे वह जांच पड़ताल, सवाल उठाने और संदेह करने के बुनियादी पत्रकारीय उसूलों को तो स्थगित कर ही देता है, साथ ही साथ ऐसे मुठभेड़ों पर सवाल उठाने और संदेह करनेवालों को देशद्रोही साबित करने में जुट जाता है। यही नहीं, मुठभेड़ में शामिल पुलिस अधिकारियों को एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बताकर उनका महिमामंडन भी किया जाता है। क्या यह कहना गलत होगा कि डीजी वंजारा जैसे पुलिस अफसरों को पैदा करने में मीडिया, मोदी सरकार से कम बड़ा दोषी नही है?
यह एक कड़वी सच्चाई है कि पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद और नक्सलवाद आदि से निपटने के नाम पर समाचार मीडिया ने पुलिस और सुरक्षा एजेसियों को फर्जी मुठभेड़ हत्याओं का लाइसेंस सा दे दिया है। कहने की जरूरत नही है कि यह सीधे-सीधे जंगल राज को समर्थन है। सवाल है कि अगर देश में एक सतर्क, संवेदनशील, आलोचक और निर्भय समाचार मीडिया होता तो क्या इशरत जहां और सोहराबुद्दीन जैसो को इस तरह फर्जी मुठभेड़ों में मारने से पहले पुलिस को दस बार सोचना नही पड़ता?
3 टिप्पणियां:
उ.प्र. में 324, महाराष्ट्र में 42 फर्जि मुठभेड़. सब मौन.
नमस्कार सर। आपने राज्य और पुलिस के साथ साथ मीडिया को भी इस फर्जी मुठभेड़ में भागीदार ठहराया है। आखिर कोई तो होना चाहिए जो सबकी ख़बर लेने वाले की भी ख़बर ले। वैसे भी इस तरह की हरकतों से मीडिया खुद की जवाबदेही पर खुद ही सवालिया निशान लगाता जा रहा है।
नमस्कार सर।
इशरत जहां का फर्जी एलकाउंटर इस देश की तमाम जनता को इस अर्थ में दहला रही है कि आखिर जनता के पास विक्लप क्या है ? मीडिया अपने गैरजिम्मेदार व्यवहार को छोड़ नहीं रही है. तमाम राजनीतिक दल और सरकारें अपना भरोसा खो रही हैं और पुलिस और प्रशासन की काली करतूतों की कलई तो आए दिन खुलती रहती है।
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