शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

सच का नहीं, गढ़े हुए सच का सामना

आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि भारतीय टेलीविजन में स्वस्थ्य कल्पना और सृजनात्मकता का बिल्कुल अंत हो गया है। मनोरंजन टेलीविजन पिटे-पिटाए धारावाहिकों और कल्पनाहीन रीयलिटी टीवी के फार्मूलों के बीच फंस सा गया है। यही नही, अधिक से अधिक दर्शक खींचने के लिए रीयलिटी टीवी सभी हदें तोड़ता जा रहा है। ‘स्टार प्लस‘ का ‘सच का सामना‘ कार्यक्रम इस बात का एक और उदाहरण है कि रीयलिटी टीवी गिरने के मामले में कहां तक पहुंच सकता है। हाल ही में शुरू हुआ यह कार्यक्रम अमेरिकी टेलीविजन चैनलों के एक कार्यक्रम की नकल है। इस कार्यक्रम के शुरूआती ऐपीसोड से साफ है कि इसका मकसद आम से लेकर खास लोगों के जीवन के अंदर खासकर उन गोपनीय रहस्यों में ताकझांक करना है जो आमतौर पर सबसे छिपे रहते हैं। इसमें ज्यादा जोर व्यक्ति के निजी पारिवारिक जीवन, महिला-पुरूष संबंधों, उसके यौन संबंधों और नाते-रिश्तों से जुड़े पहलुओं को उजागर करने पर होता है।
जाहिर है कि यह कार्यक्रम दर्शकों को एक खास तरह का परपीड़क और रतिसुख (वॉयरिज्म) आनंद लेने के लिए उकसाता है। यह काफी हद तक उसी प्रवृत्ति का विस्तार है जिसमें लोग अपने पड़ोसी या सहकर्मी के निजी जीवन में ताक-झांक करने की कोशिश करते हैंै। यह कार्यक्रम इस अनुचित प्रवृत्ति को न सिर्फ प्रोत्साहित करता है बल्कि उसे एक खास तरह की वैधता भी देता है। इसमें दर्शक उस कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे व्यक्ति और उसके परिवार के अन्दरूनी जीवन में न सिर्फ ताक-झांक करता है बल्कि उस व्यक्ति की पीड़ा, शर्म, बेचैनी और घबराहट को देख-सुनकर आनंदित होता है।
साफ तौर पर यह दर्शकों की आदिम भावनाओं को भुनाने की कोशिश है। इस प्रक्रिया में दर्शकों को परपीड़क रतिसुख का अभ्यस्त बनाया जा रहा है। इसके निहितार्थ बहुत गहरे हैं। पहली बात तो यह है कि यह कार्यक्रम किसी व्यक्ति की व्यक्तिवादिता को खत्म कर देता है। किसी व्यक्ति की व्यक्तिवादिता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने निजी व्यक्तिगत जीवन को किस हद तक नियंत्रित करता है या उसका अपने जीवन पर किस हद तक अधिकार है। इसी आधार पर निजता के अधिकार का सिद्धांत खड़ा है। यह सिद्धांत इस बात को कानूनी मान्यता देता है कि किसी के निजी और व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप का अधिकार किसी दूसरे व्यक्ति को नही है।
निजता का यह अधिकार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की गारंटी करता है। लेकिन ‘सच का सामना‘ कार्यक्रम परोक्ष रूप से व्यक्ति के निजता के अधिकार का न सिर्फ उल्लंघन करता है बल्कि सीधे-सीधे उसकी व्यक्तिवादिता को चुनौती देता है। यह ठीक है कि इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले आम और खास व्यक्ति खुद अपनी इच्छा से शामिल होते हैं। लेकिन यह गांधी जी के सच के साथ प्रयोग जैसी निजी ईमानदारी का नतीजा नही होता है। न ही इसका मकसद गांधी जी की तरह अपनी गलतियों से सीखना होता है। इसके उलट पूरा सच यह है कि उन्हें अपनी जिंदगी के सच्चे-झूठे रहस्यांे को सार्वजनिक करने के बदले ईनाम में अच्छी-खासी रकम का लोभ दिया जाता है।
साफ है कि यह कार्यक्रम किसी भी तरह से ‘सच का सामना‘ करना नही है। क्या किसी व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा सच उसके यौन संबंधों या टुच्चे निजी स्वार्थो तक सीमित होता है? जाहिर है कि नहीं। किसी के निजी जीवन के बड़े सच सार्वजनिक जीवन से न जुड़े हों तो वे हमारे आपके लिए क्यों महत्वपूर्ण होने चाहिए? यही कारण है कि वास्तव में, यह सच से भागने या उससे मुंह चुराने का कार्यक्रम है। इसमें सच सामने नही आ रहा है। इसमें सच को गढ़ा जा रहा है। यहां एक बनाया हुआ सच है जिसे पूरे नाटकीय मेलोड्रामा के साथ पेश किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में दर्शकों को परपीड़क रतिसुख का आदती बनाया जा रहा है। यह एक गहरी चिंता की बात है।

8 टिप्‍पणियां:

Omprakash Das ने कहा…

कई बार लगता है कि परपीड़क रतिसुख का काॅंन्सेप्ट बिलकुल सही है। क्योंकि 21 सच का सामना करने वाले का इंतज़ार दिलचस्प बनाए रखना ज़रुरी है। लेकिन, ये भी कम सच नहीं कि कई बार हम कई ऐसे सच को जानबूझकर नकारते रहते हैं जो समाज का एक हिस्सा बना हुआ है। नतीजा, कुंठाओं में पलता पलता ये छुपा हुआ सच सड़ता रहता है। इस सच को बाहर तो आना ही पड़ता है आज नहीं तो कल लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि किसी कार्यक्रम को नकारने की जगह उन छुपे निजी या सार्वजनिक सच को संभालने के बुनियादी सवाल को लेकर भी चर्चा हो।
ओमप्रकाश, शिष्य आनंद सर

Omprakash Das ने कहा…

कई बार लगता है कि परपीड़क रतिसुख का काॅंन्सेप्ट बिलकुल सही है। क्योंकि 21 सच का सामना करने वाले का इंतज़ार दिलचस्प बनाए रखना ज़रुरी है। लेकिन, ये भी कम सच नहीं कि कई बार हम कई ऐसे सच को जानबूझकर नकारते रहते हैं जो समाज का एक हिस्सा बना हुआ है। नतीजा, कुंठाओं में पलता पलता ये छुपा हुआ सच सड़ता रहता है। इस सच को बाहर तो आना ही पड़ता है आज नहीं तो कल लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि किसी कार्यक्रम को नकारने की जगह उन छुपे निजी या सार्वजनिक सच को संभालने के बुनियादी सवाल को लेकर भी चर्चा हो।
ओमप्रकाश, शिष्य आनंद सर

Omprakash Das ने कहा…

कई बार लगता है कि परपीड़क रतिसुख का काॅंन्सेप्ट बिलकुल सही है। क्योंकि 21 सच का सामना करने वाले का इंतज़ार दिलचस्प बनाए रखना ज़रुरी है। लेकिन, ये भी कम सच नहीं कि कई बार हम कई ऐसे सच को जानबूझकर नकारते रहते हैं जो समाज का एक हिस्सा बना हुआ है। नतीजा, कुंठाओं में पलता पलता ये छुपा हुआ सच सड़ता रहता है। इस सच को बाहर तो आना ही पड़ता है आज नहीं तो कल लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि किसी कार्यक्रम को नकारने की जगह उन छुपे निजी या सार्वजनिक सच को संभालने के बुनियादी सवाल को लेकर भी चर्चा हो।
ओमप्रकाश, शिष्य आनंद सर

chakrapani ने कहा…

प्रणाम सर , आपने बिलकुल सही कहा है कि टेलीविजन चैनल के गिरने की कोई हद नहीं है .दरअसल ;चैनलों के बीच इस बात की होर लगी है कि कौन कितना गिर सकता है .सच का सामना इसी का नमूना है
चक्रपाणि ,लुधियाना

chakrapani ने कहा…

प्रणाम सर , आपने बिलकुल सही कहा है कि टेलीविजन चैनल के गिरने की कोई हद नहीं है .दरअसल ;चैनलों के बीच इस बात की होर लगी है कि कौन कितना गिर सकता है .सच का सामना इसी का नमूना है
चक्रपाणि ,लुधियाना

chakrapani ने कहा…

प्रणाम सर , आपने बिलकुल सही कहा है कि टेलीविजन चैनल के गिरने की कोई हद नहीं है .दरअसल ;चैनलों के बीच इस बात की होर लगी है कि कौन कितना गिर सकता है .सच का सामना इसी का नमूना है
चक्रपाणि ,लुधियाना

Sachin ने कहा…

geeta ka saar hain sir jo ho raha hain acche ke liye ho raha aur jo hoga woh bhi acche ke liye hoga ho sakta hain ki bhavisya mein ek naye media ka uday ho, jiski pahchan duudhli na pade.

vikas vashisth ने कहा…

नमस्कार सर..बिल्कुल सही कहा आपने आज बाज़ार हमें परपीड़क रतिसुख में ही लिप्त देखना चाहता है और हाशिये का मुनाफा कमाना चाहता है। यह भी सही है कि ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी भी हम खुद ही करते हैं। मगर अब हमें सोचना होगा कि हम कहां जा रहे हैं...क्योंकि बाज़ार की नैतिकता तो मुनाफा ही है। हमें पुनर्विचार करना होगा कि हमारी नैतिकता क्या है।