शनिवार, अप्रैल 11, 2009

युवा और सियासत


आनंद प्रधान
अपना पप्पू अचानक बहुत खास हो गया है। पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों में युवाओं की पूछ यकायक बहुत बढ़ गयी है। सत्ता के दावेदार राजनीतिक दलों और उनके नेताओं में खुद को युवाओं का सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने की होड़ सी शुरू हो गयी है। प्रधानमंत्री बनने के लिए बेताब नेता युवाओं तक पहुंचने के लिए हर तरह के टोटके आजमा रहे हैं। कोई साइबर दुनिया यानी वेबसाइट,गूगल,आर्कुट, फेसबुक और यू-टयूब के रास्ते युवाओं तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है तो किसी को लग रहा है कि उसका युवा होना ही युवाओं को रिझाने के लिए काफी है। राजनीतिक दल युवा नेतृत्व और टिकटों के बंटवारे में युवाओं को प्राथमिकता देने के दावे करते नहीं थक रहे हैं।
राजनीतिक दलों और नेताओं में युवाओं को रिझाने की यह होड़ बेवजह नहीं है। उन्हें आज के भारत में युवाओं की ताकत का अहसास है। उन्हें पता है कि 7, रेसकोर्स पर प्रधानमंत्री निवास की चाभी उन 25 करोड़ युवाओं के हाथ में है जिनकी उम्र 18 से 35 वर्ष के बीच है। ध्यान रहे कि आज देश की आधी से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम उम्र वालों की है। यही नहीं, लगभग दो तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम आयु वालों की है। जाहिर है कि आज का भारत एक युवा भारत है और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे नजरअंदाज करने का जोखिम कोई राजनीतिक दल या नेता नहीं उठा सकता है।
यही कारण है कि इन चुनावों में सभी राजनीतिक दल और उनके नेता इस युवा भारत से जुड़ने के लिए उस मंत्र या जंत्री की खोज में जुटे हैं जिससे युवा वोटरों को रिझाया जा सके। कांग्रेस अपने युवराज राहुल गांधी के युवा होने को भुनाने में जुटी है तो भाजपा अपने 81 वर्षीय नेता लाल कृष्ण आडवाणी को इमेज मेकओवर के जरिए युवा साबित करने में लगी है। हर पार्टी और नेता युवाओं की पसंद को ध्यान में रखकर चुनावी रणनीति बना रहे हैं। चुनाव प्रचार की थीम और विज्ञापनों में युवाओं को खास जगह दी जा रही है। गरज यह कि इन चुनावों में युवा वोटर अपनी निर्णायक संख्या और प्रभाव के कारण ऐसी करेंसी बन गए हैं जिन्हें भुनाकर ही दिल्ली की कुर्सी तक पहुंच जा सकता है।
लेकिन इस करेंसी कों भुनाना इतना आसान नहीं है और न ही वह इतनी आसानी से हाथ आनेवाली है। सच यह है कि युवा मतदाता चुप हैं। उन्होंने अभी अपनी पसंद-नापसंद खुलकर जाहिर नहीं की है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे शांत और निष्क्रिय हैं। हकीकत यह है कि युवा भारत न सिर्फ बहुत बेचैन है बल्कि उसके अंदर एक जबरदस्त उथलपुथल चल रही है। लेकिन उसकी इस बैचैनी और मानस को समझने और उसके दिल तक पहुंचने का मंत्र किसी को पता नहीं है। यही कारण है कि ज्यादातर नेता और पार्टियां टोटके आजमा रही हैं। कोई प्रसून जोशी से सलाह ले रहा है तो कोई रहमान की धुन बजा रहा है और कोई नेट की खाक छान रहा है। इस उम्मीद में कि इनमें से शायद कोई युवा वोटरों से कनेक्ट कर जाए।
लेकिन इन सभी टोटकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे युवा भारत को उपर-उपर से छूने की कोशिश कर रहे हैं। वे न सिर्फ युवाओं की वास्तविक उम्मीदों, आकांक्षाओं, मुद्दों और सवालों को छू नहीं पा रहे हैं बल्कि उससे आंखें चुराने की भी कोशिश कर रहे हैं। वे युवाओं के वोट तो चाहते हैं लेकिन उसके बदले में उन्हें वह सब कुछ देने को तैयार नहीं हैं जिसकी अपेक्षा एक आम युवा कर रहा है। यही नहीं, वे युवा भारत को उस विविधता, उसके अंदर मौजूद विभिन्न स्तरों और उनके अन्तद्र्वंद्वों के साथ समझने की भी कोशिश नहीं कर रहे हैं। सच यह है कि इस युवा भारत में वह मेट्रो युवा भी है, छोटे शहरों और कस्बों का युवा भी है, गांवों का युवा भी है और दूसरी ओर, उच्च मध्यम वर्ग से लेकर गरीब और हाशिए पर पड़ा युवा भी है। उसमें अंग्रेजी बोलनेवाला, सबसे अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में पढ़नेवाले युवाओं से लेकर क्षेत्रीय भाषाएं बोलनेवाला और पढ़ाई बीच में छोड़कर पुलिस, सेना और अद्र्धसैनिक बलों से लेकर संगठित और असंगठित क्षेत्र की निजी कंपनियों में एक अदद नौकरी की खोज में भटक रहा युवा भी है। इन युवाओं के सपनों में फर्क है, लक्ष्यों और महत्वाकांक्षाओं में फर्क है, जीवन जीने के अंदाज और दिशा में फर्क है।
लब्बोलुआब यह कि इस 25 करोड़ के युवा भारत में भी कई भारत हैं लेकिन पार्टियों, नेताओं के साथ-साथ कई बार मीडिया भी इस हकीकत को अनदेखा करने की कोशिश करता है। आमतौर पर युवा के नाम पर केवल कुछ बड़े शहरों खासकर मेट्रो के युवाओं को ही समूचे युवा भारत के प्रतिनिधि के बतौर पेश करने की कोशिश की जाती है। लेकिन सच यह है कि कुल युवा आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में है। उसके बाद छोटे शहरों और कस्बों के युवाओं का नंबर आता है। मेट्रो के युवाओं की संख्या कुल युवा आबादी के दस फीसदी से भी कम है। गांवों और छोटे शहरों -कस्बों के युवाओं के लिए सबसे बड़ी जद्दोजहद सस्ती, बेहतर और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा और एक सम्मानित नौकरी की तलाश से जुड़ी हुई है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के इस दौर में उनकी यह जद्दोजहद न सिर्फ और कठिन और तकलीफदेह हो गयी है बल्कि उनकी सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता (मोबिलीटी)की गति काफी धीमी पड़ गयी है। मंदी के कारण तो स्थिति और बदतर हो गयी है। यही कारण है कि इस युवा भारत में एक तरह का अलगाव, विचलन, आक्रोश, विद्रोह और उम्मीद एक साथ दिख रहे हैं। देश के एक बड़े हिस्से में चाहे वह माओवादी आंदोलन हो, अल्फा और उस जैसे दूसरे संगठन हो या फिर माफिया गैंग हों, या सड़कों पर कभी क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और धार्मिक शक्लों में फूटता गुस्सा हो या फिर सेना और अद्र्धसैनिक बलों के भर्ती कैंपों में जुटी भीड़ में भगदड़ में कुचलनेवाला हो-इस युवा को समझने और उस तक पहुंचने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है-न युवराज, न लौह पुरूष, न विकास पुरूष और न ही सर्वजन साम्राज्ञी! उल्टे कांग्रेस और भाजपा का ज्यादा जोर उस शहरी मध्यमवर्गीय युवा तक पहुंचने में है जो एक वर्चुअल दुनिया में रहता है और जिसे उदारीकरण और भूमंडलीकरण का सबसे अधिक लाभ मिला है। दूसरी ओर, सपा, बसपा,राजद,जद,(यू),रालोद, शिव सेना,मनसे जैसे क्षेत्रीय दलों को लगता है कि जातियों, धर्मो, समुदायों और क्षेत्रों के दायरे में बंटा युवा उसे छोड़कर कहां जाएगा, उसे वोट देना उसकी मजबूरी है। तीसरी ओर,सीपीएम जैसी मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां हैं जिन्होंने एक जमाने में आदर्शवादी और बदलाव चाहनेवालों युवाओं को आकर्षित किया लेकिन अब उनके अवसरवाद और वैचारिक विचलन के कारण युवा उनसे छिटकते जा रहे हैं। इन सबसे अलग सीपीआइ-एमएल जैसी क्रांतिकारी वामपंथी पार्टियों और मेधा पाटकर, अरूणा राय और संदीप पांडेय जैसे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने युवाओं के एक हिस्से को आकर्षित और सामाजिक बदलाव के आंदोलनों से जोड़ा है।
लेकिन इसके बीच, यह सवाल सचमुच चिंतित करता है कि जिस देश की दो तिहाई आबादी 35 साल से कम उम्र की हो और जो जनसांख्यिकीय तौर पर दुनिया के सबसे युवा देशों में हो, वहां एक ताकतवर युवा आंदोलन नहीं दिख रहा है जिसके एजेंडे पर बदलाव का मुद्दा सबसे उपर हो। इतिहास गवाह है कि दुनिया के जो भी देश जनसांख्यिकीय तौर पर इस स्थिति से गुजरे, वहां युवा बेचैनी ने जबरदस्त बदलाव और उथलपुथल को जन्म दिया है। लेकिन भारतीय युवा अब भी चुप है। क्या यह तूफान के पहले की खामोशी है? 2009 में सत्ता के शिखरों के आकांक्षी इस खामोशी से सतर्क रहें।

1 टिप्पणी:

अनुनाद सिंह ने कहा…

बहुत सही विश्लेषण है ! साधुवाद ।

किन्तु एक बात आप भी नहींलिख पाये। वह यह कि 'युवा' के नाम पर देश को बांटने की और चाल चली जा रही है। आपने सही कहा है कि 'युवा' के नाम पर इस देश में हजार तरह के लोग हैं; उनकी प्राथमिकताएं एवं आवश्यकताएँ भी अलग-अलग और कभी-कभी परस्पर विरोधी हैं। ऐसे मेंेक 'युवा' भोंदू को देश के माथे पर प्रधानमंत्री बनाकर बैठाने के लिये यह बांटू-न्निति का पासा फेंका गया है। सुखद यह है कि यह 'युवा' का हथियार अब फेंकने वाले दल की ओर अग्रसर (बूमरैंग) है।