रविवार, अप्रैल 19, 2009

पूर्वांचल का राजनीतिक गणित - वोटों के बिखराव के बीच कमजोर पड़ती सपा और हांफती बसपा

आनंद प्रधान

पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की 16 सीटों में से 80 फीसदी से ज्यादा सीटों पर बसपा, सपा ओर भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा हैं। हालांकि कांग्रेस इनमें से सिर्फ 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं लेकिन कई सीटों पर वह मुकाबले को चतुष्कोणोय बना पाने में कामयाब होती दिख रही है।ं कांग्रेस को 2004 में इनमे से दो सीटों - बांसगांव (सु0) और बनारस - पर कामयाबी मिली थी । उस चुनाव में भाजपा की भी बहुत दुर्गाति हुई थी ओर उसे सिर्फ दो सीटें - गोरखपुर और महाराजगंज - मिली थीं लेकिन इस बार वह गैर भाजपा
धर्मनिरपेक्ष वोटों में बिखराव के कारण 16 सीटों में से 13 सीटो पर लड़ाई में हैं । वरूण प्रकरण के बाद भाजपा उग्र हिन्दुत्व के साथ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आजमाई रणनीति पर लौट आई हैं। इन 16 सीटों पर पहलें चरण में 16 अप्रैल को मतदान होना हैं।
लेकिन गंगा ओर राप्ती के इस मैदान में वर्चस्ब की असली लड़ाई बसपा और सपा के बीच है। अभी सपा के पास 16 में से 8 सीटें है जबकि बसपा के पास सिर्फ तीन सीटें हैं। सपा के लिए इन सीटों को बचा पाना सबसे बड़ी चुनौती हैं। जाहिर है कि सपा और उसके नेता मुलायम सिंह यादव की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। उन्होंने इस इलाके में अपनी पूरी ताकत झोंक दी हैं। एक दिन में तीन से चार सभाएं कर रहे हैं। इसकें बावजूद सपा कमजोर पड़ती दिखाई दे रहीं है । इसकी सबसे बड़ी वजह मुस्लिम मतों में बिखराव हैं। भाजपा छोड़कर बाहर आए कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं में मुलायम सिंह और सपा के प्रति पहले जैसा उत्साह नही दिख रहा हैं। उनमें गहरी निराश है और मायावती इसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। इसके लिए बसपा ने 16 में से तीन पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं जबकि सपा ने सिर्फ एक सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारा है।
लेकिन कुछ सीटों को छोड़कर अधिकांश सीटों पर बसपा अभी भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद नहीं बन पायी है। मुस्लिम मतदाताओं में मायावती के भविष्य के राजनीति व्यवहार - भाजपा से हाथ मिलाने को लेकर आशंका बनी हुई है, इसलिए बसपा की तमाम कोशिशों के बावजूद वह पूरी तरह से हाथी पर चढ़ने को तैयार नहीं हैं । इस कारण सपा के कमजोर पड़ने के बावजूद बसपा उतनी मजबूत नहीं दिखाई पड़ रही हैं जितनी अपेक्षा की जा रही थी । इसके अलावा , बसपा के ब्राह्मण - दलित गठबंधन में भी तनाव और दरारें साफ दिखाई दे रही हैं। कुछ सीटो को छोड़कर जहा बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी दिये हैं, अन्य सीटो पर ब्राह्मण मतदाता उसके साथ नही दिख रहे हैं। हालाँकि बसपा का अपना दलित और अति पिछड़ा जनाधार उसके साथ टिका हुआ है लेकिन सवर्ण मतदाताओं का वह हिस्सा उससे छिटकता दिख रहा हैं जो पिछले विधानसभा चुनावों में सपा सरकार खासकर अपराधियों को खुली छूट देने के खिलाफ बसपा के पीछे गोलबंद हो गया था।
लेकिन पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी और धनंजय सिंह जैसे बाहुबलियों के हाथ में बसपा की बागडोर सौंपकर मायावती ने वह राजनीतिक पूंजी गंवा दी है। बसपा के लिए अति पिछड़ी जातियों खासकर राजभर, बिंद आदि की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ-साथ ताकतवर मध्यवर्ती जाति-कुर्मियों की अपना दल जैसी ‘‘वोटकटवा’’ पार्टियां भी राह मुश्किल कर रही है। लेकिन 2009 के आम चुनावों की सबसे बड़ी खबर यह है कि सपा और बसपा दोनो के कमजोर पड़ने के कारण ही पूर्वांचल में एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस खासकर भाजपा की स्थिति में सुधार हेाता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस इसका बहुत फायदा इसलिए नही उठा पा रही है क्योंकि उसका न सिर्फ सांगठनिक ढांचा बहुत कमजोर है बल्कि उसके पास कद्दावर नेताओं की भी इतनी कमी है कि कई सीटों पर वह प्रत्याशी तक नही खोज पायी।
पूर्वाचल की राजनीति में दूसरा सबसे बड़ा परिवर्तन मुस्लिम मतदाताओं के अंदर मची उथल पुथल और इसके कारण उनके मतों में आ रहा बिखराव है। मुस्लिम मतदाताओं को बाटला हाउस एनकांउटर, आजमगढ़ को ‘‘आतंकवाद की नर्सरी’’ के बतौर प्रचारित करने और नौजवान मुस्लिम लड़को को एसटीएफ द्वारा उठाने के अलावा सपा का कल्याण सिंह से हाथ मिलाने और बसपा के अनिश्चित राजनीतिक व्यवहार जैसे मुद्दे मथ रहे है। इस सबसे मुस्लिम मतदाताओं में मुख्यधारा की तीनो पार्टियों-सपा, बसपा और कांग्रेस के खिलाफ निराशा, गुस्से और हताशा को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि मुस्लिम समुदाय खासकर उसके अगड़े (अशराफ) वर्गो और युवाओं में अपनी अलग राह चुनने और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को सबक सिखाने की भावना उबाल मार रही है। यह भावना आजमगढ़ और लालगंज (सु0) सीटों पर उलेमा कांउसिल और घोसी, देवरिया आदि पर डा0 अयूब की पीस पार्टी के जरिए प्रकट हो रही है।
इसमें कोई दो राय नही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव का सबसे अधिक नुकसान सपा और कुछ नुकसान बसपा को जबकि सबसे अधिक फायदा भाजपा को हो रहा है। इससे अचानक भाजपा की बांछें खिल गयी है। हालांकि उसकी जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा पिछड़ी जातियों का उससे दूर बने रहना है। इस कमी की भरपाई वह अधिक से अधिक सीटों पर साम्प्रदायिक
ध्रु्रुवीकरण करके पूरा करने की कोशिश कर रही है। गोरखपुर से आजमगढ़ होते हुए बनारस तक भाजपा की पूरी मशीनरी इस ध्रुवीकरण को तेज करने में जुटी हुई है। योगी आदित्यनाथ से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को मैदान में उतार दिया गया है।
लेकिन भाजपा के आक्रामक प्रचार और उसके चढ़ाव के कारण मुस्लिम मतदाताओं में भी प्रतिक्रिया हो रही है। इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि कई सीटों पर जहां साम्प्रदायिक ध्रुवीरकण के कारण भाजपा जीतने की स्थिति में आती दिखाई दे रही है, वहां अंतिम क्षणों में मुस्लिम मतदाता एक बाद फिर ‘टैक्टिकल’ यानि भाजपा केा हरा सकने वाली पार्टी और प्रत्याशी को वोट देता दिखाई दे सकता है। हालंाकि मतदान से कोई एक सप्ताह पहले अभी की खबर यही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव दिखाई दे रहा है। यह कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए खतरे की घंंटी हैं, खासकर उन पार्टियों के लिए जिन्हांेने मुस्लिम मतदाताओ को अपनी राजनीतिक जागीर समझ लिया था। उनके लिए यह चुनाव बहुत बड़ा झटका साबित होने जा रहां हैं।
यही नही , पूर्वाचल में गोंरखपुर से लेकर बनारस तक जिस तरह से बिना मुददों के चुनाव होने के कारण मतों का बिखराव हो रहा हैं, उसमें अधिकांश सीटों पर जातिगत समीकरण सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गए है। इस बिखराव के बीच जो पार्टी और उसका प्रत्याशी कुल मतों का 28 से 30 फीसदी जुगाड़ कर लेगा, वह मैदान मार ले जाएगा । इस राजनीतिक गणित के कारण ही मुख्यतः सपा और बसपा और कुछ हद तक भाजपा अपने मूल जनाधार के साथ 28 से 30 फीसदी के जादुई आंकडे़ को छूने की कोशिश कर रही हंै। जाहिर है कि इस राजनीतिक गणित में बसपा को थोड़ी सी बढ़त दिख रही है और सपा कुछ पिछड़ती प्रतीत हो रही है। इसमे भाजपा अपनी पिछली स्थिति में कुछ सुधार कर सकती है जबकि कांग्रेस वोट बढ़ने के बावजूद अपनी सीटें बढ़ाने की स्थिति में नहीं दिख रही है।

1 टिप्पणी:

Sundip Kumar Singh ने कहा…

सही कहा आपने इस बार पूर्वांचल का राजनीतिक गणित काफी बदल गया है और अगर कोई किसी संप्रदाय को अपना जागीर समझ रहा है तो ये उसकी गलती ही है. सबसे अच्छी बात है कि इन राजनितिक दलों के हाथों में बंधक बने रहना छोड़कर कुछ नए और प्रगतिशील सोच वाले लोग चुनावी लडाई में उतरे हैं. ये लोकतंत्र को मजबूत करने वाला कदम माना जाना चाहिए.