मंगलवार, अप्रैल 01, 2008

कहीं खुशी, कहीं गम: कॉरपोरेट राह पर सरकारी क्षेत्र...

छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से देश में और बढ़ेगी आर्थिक गैर बराबरी...

 

शुरुआती उत्साह और उम्मीदों के बीच छठे वेतन आयोग की सिफारिशों ने केंद्र सरकार के चालीस लाख से अधिक कर्मचारियों को मायूस ही किया है. इन सिफारिशों से अफसरों के एक छोटे से वर्ग को छोड़ दिया जाए तो कर्मचारियों के बड़े वर्ग को न सिर्फ गहरी निराशा हुई है बल्कि विरोध के सुर भी उठने लगे हैं.

 

40 से 45 फीसदी वेतन वृद्धि की चर्चाओं और सुर्खियों के विपरीत वेतन आयोग की सिफारिशों से कर्मचारियों के बड़े वर्ग को सिर्फ 15 से लेकर 28 फीसदी के बीच ही वेतन वृद्धि का फायदा मिलेगा. खुद वेतन आयोग का यह मानना है कि नए वेतनमानों के तहत केंद्र सरकार के आला अफसरों और सबसे छोटे कर्मचारी के बीच वेतन का अनुपात 1:12 का हो जाएगा.

 

सवाल यह है कि क्या यह अनुपात समतामूलक और न्यायपूर्ण है? यही सवाल सेना के वे जवान भी पूछ रहे हैं जिन्हें वेतन आयोग ने कठिन परिस्थितयों में काम करने के बदले प्रति माह एक हजार रूपए अतिरिक्त वेतन देने का ऐलान किया है. उनका सवाल है कि उन्हें एक हजार और उन्हीं परिस्थितियों में काम करने वाले सेना के अफसरों को प्रति माह छह हजार रूपए देने के पीछे क्या तर्क है? जाहिर है कि इससे फौज में बहुत बेचैनी है और इस कारण सेना प्रमुखों को रक्षा मंत्री से मिलकर इसमें परिवर्तन की मांग करनी पड़ी है.

 

कहने की जरूरत नहीं है कि वेतन आयोग की सिफारिशों में इस तरह की कई और विसंगतियां भी हैं. लेकिन ये विसंगतियां किसी संयोग के कारण नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बहुत सोची समझी योजना है.

 

दरअसल, छठे वेतन आयोग की सिफारिशें सरकारी महकमों के कॉरपोरेटीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली और उसी खांचे में ढली हैं. इसकी शुरूआत पांचवें वेतन आयोग से ही हो गई थी. जैसे एक निजी कॉरपोरेट कंपनी के ढांचे में सीईओ की तनख्वाह बहुत अधिक होती है और उसकी तुलना में निचले स्तर के कर्मचारियों की तनख्वाहें बहुत कम होती हैं. ठीक उसी तरह से सरकारी विभागों में भी कैबिनेट सचिव और सचिवों की तनख्वाहें तो सीईओ की तरह कर दी गई हैं लेकिन निचली श्रेणी के कर्मचारियों की तनख्वाहों में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है.

 

सरकारी महकमों की कॉरपोरेटीकरण की इसी प्रक्रिया को बढ़ाते हुए वेतन आयोग ने न सिर्फ चतुर्थ श्रेणी-ग्रुप डी-के पदों को तृतीय श्रेणी-ग्रुप सी-में समाहित करने के नाम पर पूरी तरह से खत्म कर दिया है बल्कि चतुर्थ श्रेणी में स्थायी कर्मचारियों के बजाय ठेके और अस्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया है. इस तरह वेतन आयोग पिछले दरवाजे से केंद्र सरकार में कर्मचारियों की कमी यानी डाउनसाइजिंग की जगह बनाता हुआ भी दिखता है.

 

यही कारण है कि खुद वेतन आयोग ने कहा है कि उसकी सिफारिशों को लागू करने पर वर्ष 2008-09 में सरकार पर कुल 12,561 करोड़ रूपए का बोझ पड़ेगा. लेकिन वेतन आयोग द्वारा सुझाए गए विभिन्न प्रस्तावों को लागू करने से सरकार को लगभग 4,586 करोड़ रूपए की बचत भी होगी. जाहिर है कि यह बचत कर्मचारियों की संख्या में कटौती आदि के जरिए ही संभव होगी. शायद यही कारण है कि कॉरपोरेट जगत ने भी वेतन आयोग की सिफारिशों का खुलकर स्वागत किया है.

 

कॉरपोरेटीकरण की इसी प्रक्रिया का एक और संकेत कर्मचारियों के प्रदर्शन के आधार पर वार्षिक वेतन बढ़ोत्तरी में फर्क करने के ऐलान में भी देखा जा सकता है. सरकारी विभागों के मौजूदा ढांचे में प्रदर्शन को आधार बनाकर अधिक वेतन वृद्धि का प्रस्ताव वास्तव में कार्यक्षमता बढ़ाने की बजाय चमचागिरी की संस्कृति और परस्पर विद्वेष को बढ़ावा दे सकता है. इसकी वजह यह है कि किसी कर्मचारी के बेहतर प्रदर्शन का कोई वैज्ञानिक और न्यायपूर्ण फॉर्मूला तैयार नहीं किया गया है.

 

यह ठीक है कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन में 15 से लेकर 40 फीसदी तक की वृद्धि निजी कॉरपोरेट क्षेत्र की तुलना में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं दिखती है लेकिन इन दोनों की तुलना असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ श्रमिकों से की जानी चाहिए जो इस देश की कुल श्रमशक्ति का लगभग 90 फीसदी हैं.

 

खुद यूपीए सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की स्थिति का जायजा लेने के लिए गठित नीतिश सेनगुप्ता कमेटी की रिर्पोट के मुताबिक लगभग 31.6 करोड़ मजदूरों को 20 रूपए प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजर बसर करना पड़ रहा है.

 

जाहिर है कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद केंद्र सरकार के सबसे निचले स्तर के कर्मचारी की मासिक तनख्वाह और असंगठित क्षेत्र के एक श्रमिक की मासिक आय के बीच का अंतर दस गुने से भी अधिक बढ़ जाएगा.

 

यही नहीं, इस समय देश में प्रति व्यक्ति सालाना आय लगभग 29,382 रुपए है जिसका अर्थ यह हुआ कि प्रति व्यक्ति औसत मासिक आय लगभग ढाई हजार रूपए है. स्पष्ट है कि सबसे निचले स्तर के एक सरकारी कर्मचारी को भी एक आम भारतीय की मासिक आय से ढाई गुना अधिक तनख्वाह मिलेगी.

 

यह विसंगति और गैर बराबरी तब और अधिक चुभने लगती है जब हम देखते हैं कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद एक आम भारतीय की सालाना औसत आय और सरकार के सबसे उंचे ओहदे पर बैठे नौकरशाह की सालाना तनख्वाह के बीच का अंतर बढ़कर 1:32 का हो जाएगा. और अगर इसकी तुलना असंगठित क्षेत्र के उन 31 करोड़ श्रमिकों की मासिक मजदूरी से की जाए तो यह अनुपात सभी रिकार्ड तोड़ता हुआ 1:1800 तक पहुंच जाता है.

 

ये सब कहने का उद्देश्य केंद्र सरकार के कर्मचारियों और अधिकारियों की खुशी में खलल डालना नहीं है लेकिन यह सोचना भी बहुत जरूरी है कि आखिर हम कैसा समाज बना रहे हैं? उदारीकरण और निजीकरण के पिछले पंद्रह वर्षों में निजी और सरकारी क्षेत्रों में तनख्वाहों में भारी वृद्धि हुई है. कुछ मामलों में यह वृद्धि तर्क से परे दिखती है. यहां तक कि पिछले वर्ष खुद प्रधानमंत्री को एक बड़े औद्योगिक संगठन के सम्मेलन में तनख्वाहों और गैर जरूरी उपभोग (कनसीपीकुअस कंजम्पशन) पर रोक लगाने का आग्रह करना पड़ा था.

 

इसके बावजूद तनख्वाहों में अनाप-शनाप वृद्धियों का दौर जारी है. इस कारण देश में आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है. पिछले महीने मुद्रा कोष (आईएमएफ) की एक रिपोर्ट में भी यह स्वीकार किया गया है कि उदारीकरण के इन वर्षों में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है.

 

दरअसल, इन दो दशकों में एक ताकतवर मध्यम वर्ग का उदय और विस्तार हुआ है. चिंता और अफसोस की बात यह है कि नवउदारवादी अर्थनीतियों के कारण हो रहे तेज विकास का सारा लाभ यही वर्ग उठा रहा है. कुछ दिनों पहले पेश हुए बजट में वित्तमंत्री पी चिंदबरम ने आयकर दाताओं को करों में छूट के जरिए 4,000 से लेकर 44,000 रुपए तक का उपहार दिया. और अब वेतन आयोग ने भी सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहों में 15 से लेकर 30 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी के जरिए दूसरा उपहार दिया है.

 

इन सबके बीच उस आम आदमी को भुला दिया गया है जिसकी चुनावों के समय सबसे अधिक दुहाई दी जाती है. चुनावी उपहारों और खैरातों की इस बरसात के बीच यह सवाल उठता है कि आखिर उसे क्या मिला है?

 

निश्चय ही, वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए यूपीए सरकार को गांधी जी की उस जंत्री को याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि "कोई भी फैसला करने से पहले सबसे कमजोर और गरीब भारतीय के चेहरे को याद करें और सोचें कि इस फैसले से उसे क्या मिलने जा रहा है?" वेतन आयोग की सिफारिशों ने देश को यह सोचने का अवसर दिया है. इसे हरगिज नहीं गंवाना चाहिए.

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