शनिवार, जून 20, 2009

भविष्य के पत्रकारों का सामान्य (अ)ज्ञान

आनंद प्रधान

क्या आपको मालूम है कि बांग्लादेश की सम्मानित प्रधानमंत्री शेख हसीना का अंडरवर्ल्ड से ताल्लुक है। वे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम की छोटी बहन हैं ? या ये कि वे पाकिस्तान की बड़ी नेता हैं और अपने नाम के मुताबिक वाकई हसीन हैं? या फिर यह कि वे विश्व सुंदरी हैं। और यह भी कि वे श्रीलंका की राष्ट्रपति हैं? ..... आपका सर चकरा दनेवाली ये जानकारियां किसी बेहूदा मजाक या चुटकुले का हिस्सा नहीं हैं। ये वे कुछ उत्तर है जो देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा की प्रवेश परीक्षा में शेख हसीना और उन जैसी ही कई और चर्चित हस्तियों के बारे में दो-तीन वाक्यों में लिखने के जवाब में आए।



लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा नमूना भर है। ऐसा जवाब देनवाले प्रवेशार्थियों की संख्या काफी थी जिन्हें महिंदा राजपक्से, रामबरन यादव, अरविंद अडिगा,हैरोल्ड पिंटर आदि के बारे में पता नहीं था। सबसे अधिक अफसोस और चिंता की बात यह थी कि इन छात्रों को जो पत्रकार बनना चाहते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे और दक्षिण एशियाई पत्रकारों के संगठन साफमा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। ऐसे छात्रों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर थी जिन्होने जस्टिस जी एन रे और साफमा के बारे में सही उत्तर दिया। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश छात्रों ने लगता है कि नई दुनिया के संपादक और जाने-माने पत्रकार आलोक मेहता का नाम कभी नहीं सुना था।



नतीजा यह कि प्रवेशार्थियों ने अपने काल्पनिक और सृजनात्मक ष्सामान्य (अ) ज्ञानष् से इन प्रश्नों के ऐसे-ऐसे उत्तर दिए हैं कि उन्हें पढ़कर हंसी से अधिक पीड़ा और चिंता होती है। हैरत होती है कि इन छात्रों ने ग्रेजुएशन की परीक्षा कैसे पास की होगी? यह सचमुच अत्यधिक चिंता की बात है कि पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में बैठनेवाले छात्रों का न सिर्फ सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है बल्कि उनकी भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का हाल तो और भी दयनीय है। वर्तनी, लिंग और वाक्य संरचना संबंधी अशुद्धियों के बारे में तो कहना ही क्या? इन छात्रों की भाषा पर पकड़ इतनी कमजोर है कि वे अपने विचारों को भी सही तरह से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।


यह ठीक है कि इनमें से बहुतेरे छात्रों की भाषा, अभिव्यक्ति क्षमता, तर्कशक्ति और सामान्य ज्ञान का स्तर बाकी की तुलना में बहुत बेहतर और संतोषजनक था। इससे संभव है कि संस्थान को छान और छांटकर जरूरी छात्र मिल जाएं लेकिन बाकी छात्र कहां जाएंगे ? जाहिर है कि बचे हुए छात्रों की बड़ी संख्या दूसरे विश्वविद्यालयों और निजी पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में दाखिला पा जाएगी। उनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र डिग्रियां लेकर पत्रकार बनने के पात्र भी बान जाएंगे। संभव है कि पत्रकारिता पाठ्क्रम में प्रशिक्षण के दौरान उनमें संधार हो लेकिन आज अधिकांष विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में प्रशिक्षण और अध्यापन का जो हाल है, उसे देखकर बहुत उम्मीद नहीं जगती है।



निश्चय ही, समाचार माध्यमों के लिए अच्छी खबर नहीं है। अधिकांश समाचार माध्यमों और मीडिया उद्योग के लिए यह चिंता की बात है। वे पहले से ही प्रतिभाशाली मीडियाकर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कारण समाचार मीडिया उद्योग का न सिर्फ विस्तार और विकास प्रभावित हो रहा है बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसके अनुसार उपयुक्त प्रतिभाओं के न मिलने के कारण समाचारपत्रों और चैनलों के बीच वेतनमानों से लेकर सेवा शर्तों तक में बहुत विसंगतियां पैदा हो गयी हैं।



ऐसे में, समाचार मीडिया उद्योग के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी है कि बेहतर प्रतिभाएं मीडिया प्रोफेशन में आएं। लेकिन इसके लिए समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ देश के प्रमुख मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों को मिलकर कोशिश करनी होगी। समाचार मीडिया उद्योग को मीडियाकर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया को तार्किक, पारदर्शी, व्यवस्थित और आकर्षक बनाना होगा और दूसरी ओर, प्रशिक्षण संस्थानों को बेहतर छात्रों को आकर्षित करने और उन्हें श्रेष्ठ प्रशिक्षण देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने के बारे में तुरंत सोचना होगा। यह एक चुनौती है जिसे अब और टालना समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों के लिए बहुत घातक हो सकता है।

मंगलवार, जून 09, 2009

शिक्षा का या घृणा का कारोबार ?

आनंद प्रधान
आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा हासिल करने गए भारतीय छात्रों को वहां की सरकार द्वारा पूरी सुरक्षा देने का वायदों के बावजूद उनपर नस्ली और आपराधिक जानलेवा हमले रूक नहीं रहे हैं। पिछले कुछ सप्ताहों में एक दर्जन से ज्यादा भारतीय छात्र इन हमलों का निशाना बने हैं। सिर्फ छात्र ही नहीं, जिस तरह से एक भारतीय टैक्सी ड्राइवर पर भी हमला हुआ है, उससे साफ है कि इन नस्ली और आपराधिक हमलों से भारतीय कामगार और प्रोफेशनल्स भी सुरक्षित नहीं हैं। इससे एक गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के सुरक्षित केंद्र के बतौर आस्ट्रेलिया की छवि को गहरा धक्का लगा है।
ऐसा नहीं है कि आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स पर पहली बार इस तरह के हमले हुए हैं। तथ्य यह है कि पिछले तीन सालों में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स को सैकड़ों छोटे-बड़े नस्ली और आपराधिक हमलों का निशाना बनाया गया है। लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे हमलों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। आस्ट्रेलियाई पुलिस के अनुसार इस एक महीने में भारतीय छात्रों पर हमले और मारपीट-गाली गलौज की 500 से ज्यादा रिपोर्ट दर्ज की गयी हैं। इनमें से ज्यादातर घटनाएं मेलबोर्न, सिडनी और एडीलेड में घटी हैं। इन घटनाओं के बाद भारतीय छात्र गहरे सदमे, दहशत और गुस्से में हैं।
साफ है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। आस्ट्रेलियाई सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेने और शुरूआत में ही सख्ती बरतने में देर कर दी है। इससे उन गोरे नस्लवादी हमलावरों और अपराधियों की हिम्मत बहुत बढ़ गयी है। अगर आस्ट्रेलियाई सरकार ने शुरू में ही इन हमलों और अपमानजनक व्यवहार को नोटिस लेकर कार्रवाई की होती तो स्थिति इस हद तक नहीं बिगड़ती। अब आस्टेªलियाई सरकार को अपनी पुलिस और प्रशासन को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि भारतीय या अन्य किसी भी विदेशी छात्र या प्रोफेशनल्स के खिलाफ नस्लवादी हमलों के प्रति ष्जीरो टालरेंसष् का रवैया होना चाहिए। आस्ट्रेलियाई सरकार को ऐसे नस्ली हमलों पर रोक के लिए हेट क्राइम रोकथाम कानून बनाने से भी हिचकिचाना नहीं चाहिए।
असल में, यह इसलिए भी जरूरी है कि इन नस्ली हमलों के बाद भारतीय छात्रों का यह विश्वास टूटा है कि आस्ट्रेलिया ष्गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने का एक सुरक्षित, उदार और आकर्षक केंद्रष् है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आस्ट्रेलिया को ही होगा। आस्ट्रेलिया ने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने आने के लिए आकर्षित करने की खूब कोशिश की है। इसके लिए विज्ञापन और मार्केटिंग अभियान से लेकर एजूकेशन फेयर और रोड शो तक हर तौर-तरीका अपनाया गया है। लेकिन आस्ट्रेलिया ने भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित करने की यह कोशिश किसी उदारता या दयानतदारी या ज्ञान की रोशनी बांटने के उच्च आदर्शों के तहत नहीं की है।
इसके पीछे मकसद साफ तौर पर आस्ट्रेलिया में शिक्षा के कारोबार को आगे बढ़ाने का था। ध्यान रहे कि भारत उच्च शिक्षा के बड़े कारोबारियों के लिए एक बहुत बड़े ग्राहक के रूप में उभरा है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और फैलते हुए मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं जिस तेजी से बढ़ी हैं, उसे पूरा करने में भारतीय उच्च शिक्षा का ढांचा नाकाम साबित हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में भारत से बाहर जाकर उच्च शिक्षा हासिल करनेवाले छात्रों की तादाद तेजी से बढ़ी है। इसका एक सबूत यह है कि अकेले आस्ट्रेलिया में इस समय लगभग 97 हजार भारतीय छात्र उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ रहे हैं जिससे आस्ट्रेलिया को करोड़ों डालर की आमदनी हो रही है।
आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था के लिए यह कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शिक्षा का कारोबार उसका तीसरा सबसे बड़ा निर्यात उद्योग है। इससे आस्ट्रेलिया को पिछले साल 15.5 अरब डालर (लगभग 700 अरब रूपए) की कमाई हुई। यह कमाई आस्ट्रेलिया में पढ़ने आए कुल 4 लाख 30 हजार छात्रों से हुई जिसमें लगभग 22 प्रतिशत यानी 96739 छात्र भारतीय थे। तथ्य यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया, अमेरिका के बाद भारतीय छात्रों की दूसरी सबसे प्रमुख पसंद बन गया है। यही कारण है कि 2007 की तुलना में 2008 में आस्ट्रेलिया जानेवाले भारतीय छात्रों की संख्या में 54 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है।
जाहिर है कि आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था इन छात्रों को गंवाने और इस तरह अपने शिक्षा कारोबार को चैपट होने देने का जोखिम नहीं उठा सकती है। खासकर तब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था भी मंदी की मार से निढाल है। शिक्षा को मंदी से अप्रभावित कारोबार माना जाता है। ऐसे मंे, यह पूरी तरह से आस्ट्रेलिया के खुद के हित में है कि वह भारतीय छात्रों का विश्वास बनाए रखे। यह इसलिए भी जरूरी है कि भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी आपराधिक हमलों से अन्य देशों से आए छात्रों में भी दहशत है और गलत संदेश गया है। उन्हें लग रहा है कि भारतीय छात्रों की तरह कल को उन्हें भी इन हमलों का निशाना बनाया जा सकता है।
यही नहीं, आस्ट्रेलियाई सरकार भारतीय छात्रों को गंवाने का जोखिम और कई कारणों से नहीं उठा सकती है। पहली बात तो यह है कि भारतीय छात्रों ने अपनी प्रतिभा, मेधा और परिश्रम से पूरी दुनिया में एक अलग पहचान बनायी है। किसी भी विश्वविद्यालय या पाठ्यक्रम में भारतीय छात्रों की उपस्थिति से उसका शैक्षणिक स्तर और मान उंचा हो जाता है। इससे उन विश्वविद्यालयों और पाठ्यक्रमों की न सिर्फ प्रतिष्ठा बढ़ती है बल्कि वे इससे अन्य देशी-विदेशी छात्रों को आकर्षित कर पाते हैं। भारतीय छात्रों का एक बड़ा वर्ग आस्ट्रेलिया में अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए पार्ट टाइम काम भी करता है। इससे आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था को सस्ते, कुशल और परिश्रमी कामगार भी मिल रहे हैं जिससे उसकी उत्पादकता और प्रतियोगी क्षमता बढ़ रही है।
यही कारण है कि आस्ट्रेलियाई सरकार देर से ही सही हरकत में आई है और भारतीयों पर नस्लवादी और आपराधिक हमलों से पैदा हुई स्थिति से निपटने और डैमेज कंट्रोल में जुट गयी है। कहने की जरूरत नहीं है कि पहले चिंता जाहिर करनेवाले बयान और आस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त को अपनी चिंता से अवगत कराके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान चुकी मनमोहन सिंह सरकार इससे और निश्चिंत हो गयी है। उसे लग रहा है कि भारतीय छात्रों की सुरक्षा और उनका उचित ध्यान रखना आस्ट्रेलिया की आर्थिक मजबूरी है। लेकिन मुद्दा सिर्फ आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की सुरक्षा का नहीं है बल्कि उससे कहीं बड़ा और बुनियादी है।
असली मुद्दा यह है कि इतनी बड़ी संख्या में हर साल भारतीय छात्र विदेशों का रूख क्यों कर रहे हैं? क्या यह भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था की विफलता नहीं है कि भारतीय छात्र भारतीय शैक्षणिक संस्थानों की तुलना में आस्ट्रेलिया यहां तक कि न्यूजीलैंड और सिंगापुर जैसे देशों को पसंद कर रहे हैं? यह सिर्फ हर साल भारत से अरबों डालर विदेशी मुद्रा विदेशी शैक्षणिक संस्थानों को जाने का ही मसला नहीं है बल्कि प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) का भी सवाल है। यही नहीं, मुद्दा यह भी है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था विस्तार के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने में विफल क्यों हुई है? क्या इसकी वजह यह नहीं है कि 90 के दशक में उच्च शिक्षा को जिस तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया, उससे भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है?
अफसोस और चिंता की बात यह है कि खुद यूपीए सरकार की ओर से इसका समाधान विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश का दरवाजा खोलने के रूप में पेश किया जा रहा है। यह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचने का एक और उदाहरण है बल्कि एक और बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण है।

शनिवार, मई 30, 2009

मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया


आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।

आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।

सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।

जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?

दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।

यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।

कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।

याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

शुक्रवार, मई 22, 2009

कारपोरेट भ्रष्टाचार और बिजनेस पत्रकारिता

आनंद प्रधान
बिजनेस पत्रकारिता फिर सवालों के घेरे में है। शेयर बाजार की नियामक संस्था-सेबी ने मनोरंजन उद्योग की एक जानी-मानी कंपनी पिरामिड साइमिरा के शेयरों की कीमतों में तोड़मरोड़ (मैनिपुलेषन) करने के आरोप में कंपनी के एक एनआर आई प्रोमोटर, सीईओ और बाजार के कई और आपरेटरों के साथ देश के सबसे बड़े मीडिया समूह- बेनेट कोलमैन के गुलाबी बिजनेस दैनिक के एक वरिश्ठ पत्रकार राजेष उन्नीकृश्णन को शेयर बाजार में कारोबार करने से प्रतिबंधित कर दिया है। सेबी ने इन सभी को जालसाजी में शामिल पाया है।
इन जालसाजों ने सेबी के एक फर्जी पत्र के जरिए बाजार में अफवाह फैलाकर हजारों निवेषकों को लाखों रूपए का चूना लगा दिया। इस घोटाले के मुख्य जालसाज और पिरामिड के प्रोमोटर ने पिछले साल 22 दिसम्बर को पत्रकार उन्नीकृश्णन और पी आर मैनेजर राकेश शर्मा की मिलीभगत से सिर्फ कुछ घंटो में 20 लाख रूपए से अधिक कमा लिए थे।
कहने की जरूरत नहीं है कि पिरामिड साइमिरा प्रकरण ने शेयर बाजार से लेकर कारपोरेट जगत में पर्दे के पीछे चल रहे घोटालों, जालसाजियों, अनियमिताओं और भ्रश्टाचार के मामलों में बिजनेस पत्रकारों की प्रत्यक्ष और परोक्ष मिलीभगत, मौन सहमति या उसे जानबूझकर अनदेखा करने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
बिजनेस पत्रकारिता के लिए यह चिंता और शर्म की बात है। शेयर बाजार की जालसाजी के मामले में देश के सबसे बड़े गुलाबी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार का शामिल होना कोई पहली घटना नहीं है। कुछ सालों पहले भी इसी अखबार के एक और पत्रकार को ऐसी ही एक जालसाजी में शामिल पाया गया था। आश्चर्य की बात यह है कि जालसाजी के इन मामलों में छोटे अखबारों और चैनलों के बिजनेस पत्रकार नहीं बल्कि बड़े अखबारों और चर्चित बिजनेस चैनलों के स्टार बिजनेस पत्रकार शामिल पाए गए हैं जो मोटी तनख्वाहें पाते हैं।
यह चिंता की बात इसलिए भी है कि बिजनेस पत्रकारिता के कामकाज और तौर-तरीकों को लेकर काफी समय से सवाल उठ रहे हैं। पिछले साल सत्यम घोटाले के पर्दाफाश के बाद भी यह सवाल उठा था कि बिजनेस पत्रकारों को इतने बड़े घोटाले की भनक क्यों नहीं लगी?
इसमेें कोई दो राय नहीं है कि अगर सत्यम घोटाले में उसके मालिक रामलिंग राजू की जालसाजियों को समय रहते पकड़ने में सेबी, आॅडिटर्स,स्वतंत्र निदेषक, कंपनी लॉ बोर्ड से लेकर तमाम एजेंसियां नाकाम रहीं तो खुद को स्मार्ट बतानेवाली बिजनेस पत्रकारिता भी उसे सूंघने और समय रहते अपने पाठकों और दर्शकों को सचेत करने में विफल रही। सत्यम प्रकरण बिजनेस पत्रकारिता की विफलता का अकेला उदाहरण नहीं है।

इससे पहले भी शेयर बाजार में जितनी बार घोटाले हुए, बिजनेस पत्रकार और मीडिया न सिर्फ सोते हुए पाए गए बल्कि उनमें से अधिकांष घोटालेबाजों को महिमामंडित करने में जुटे हुए देखे गए। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चाहे वह बिग बुल कहे जानेवाला हर्शद मेहता रहा हो या केतन पारीख-बिजनेस मीडिया उनका आखिर-आखिर तक दीवाना बना रहा।
सच तो यह है कि शेयर बाजार में हर बड़े उछाल (बुल रन) में बिजनेस मीडिया की सबसे बड़ी भूमिका रही है। बिजनेस मीडिया के बड़े स्टार पत्रकारों और जानकारों ने हमेशा बिना कोई सवाल उठाए शेयर बाजार की कृत्रिम उछाल को वास्तविक और फंडामेंटल्स के अनुकूल बताने के लिए सच्चे-झूठे तर्क खोजने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी।
सचमुच, यह सोचने का समय आ गया है कि बिजनेस पत्रकारिता के साथ बुनियादी रूप से कहां गड़बड़ी है? इस सवाल का जवाब खोजना इसलिए जरूरी हो गया है कि बिजनेस मीडिया के बारे में यह आम धारणा लगातार मजबूत होती जा रही है कि वह पूरी तरह से कारपोरेट जगत और बाजार का पेड चाकर बन गया है और वह वॉचडाग की भूमिका को छोड़कर पी आर पत्रकारिता का पर्याय बन गया है।
अगर इस धारणा को समाप्त करने के लिए तत्काल गंभीर उपाय और बिजनेस पत्रकारों के लिए आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने के प्रयास नहीं किए गए तो देश में तेजी से फल-फूल रहा बिजनेस मीडिया अपनी साख गंवा देगा। खतरे की घंटी बज चुकी है।

सोमवार, मई 18, 2009

इस जनादेश के सबक

आनंद प्रधान
मतदाताओं ने एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर चुनावी भविष्यवक्ताओं और यहां तक कि राजनीतिक दलों को भी चैका दिया है। किसी ने भी ऐसे परिणाम की उम्मीद नही की थी। ऐसे संकेत थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आएगा लेकिन वह अकेले सत्ता के इतने करीब पहंुच जाएगा, इसका एहसास किसी को नही था। खुद कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं थी कि उसे 200 के आस-पास और यूपीए को 260 सीटों के करीब सीटें आ जाएंगी। इसीलिए चुनावों के दौरान और मतगणना से पहले सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ और सौदेबाजी की चर्चाएं खूब जोर-शोर से चलती रहीं।
लेकिन ऐसा लगता है कि मतदाताओं को यह सब पसंद नही आया। उसने साफ तौर पर जोड़तोड़ और सौदेबाजी की राजनीति को नकार दिया है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि यह छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों और सत्ता के भूखे नेताओं के अवसरवाद और निजी स्वार्थो की ‘सिनीकलश् राजनीति के खिलाफ जनादेश है। यह भाजपा की साम्प्रदायिक और बड़बोली राजनीति की भी हार है। इसके साथ ही यह माकपा की तथाकथित तीसरे मोर्चे की उस राजनीति के खिलाफ भी जनादेश है जिसने कांगे्रस और भाजपा का विकल्प देने के नाम पर एक ऐसा अवसरवादी और सत्तालोलुप गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश की जिसका एक मात्र मकसद सत्ता की मलाई मे अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए मोलतोल की ताकत जुटाना था।
ऐसा कहने के पीछे कांग्रेस की जीत को कम करके आंकने की कोशिश नही है। निश्चय ही, इस जीत का श्रेय कांग्रेस को मिलना चाहिए। इसमे भी कोई ‘ाक नही है कि यह यूपीए से अधिक कांग्रेस की जीत है और कांग्रेस नेतृत्व को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए। उसने अवसरवादी गठबंधनों और जोड़तोड़ की राजनीति के खिलाफ बह रही हवा के रूख को समय रहते भांप लिया। यही कारण है कि चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया। उसने यह ऐलान कर दिया कि इन चुनावों में वह राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए जैसे किसी गठबंधन के तहत किसी दल या दलों के साथ कोई गठबंधन करने के बजाय राज्य स्तर पर गठबंधन करेगी। इस फैसले के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने यूपीए गठबंधन के कई घटक दलों की नाराजगी के बावजूद उत्तरप्रदेश और बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।
कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला है। उत्तरप्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति को तगड़ा झटका लगा है। खासकर उत्तरप्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह की कीमत पर कांग्रेस को न सिर्फ अपना पैर जमाने की जगह मिल गयी है बल्कि वह एक बड़ी ताकत के रूप मे उभर कर सामने आ गयी है। यही नही, उसने महाराष्ट्र जैसे राज्य में गठबंधन के बावजूद ‘ारद पवार जैसे महत्वाकांक्षी राजनेता को काबू मे रखने मे कामयाबी हासिल की है।
यह किसी से छिपा नही है कि एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस कभी भी गठबंधन की राजनीति के साथ सहज महसूस नही करती है। हालांकि 2004 में उसे मजबूरी में यूपीए गठबंधन के तहत राज चलाना पड़ा लेकिन उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और गठबंधन के दबावों के बीच एक घोषित-अघोषित संघर्ष लगातार जारी रहा। यह सच है कि गठबंधन राजनीति के प्रति भाजपा जितनी लचीली और समावेशी है, उतनी कांग्रेस नही हो सकती है। इसकी वजह यह है कि देश के उन सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलो का उभार हुआ है, वहां उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है या किसी न किसी रूप में कांग्रेस के राजनीतिक हित जुड़े हुए है।
ऐसे में, कांग्रेस के लिए गठबंधन खासकर उन क्षेत्रीय दलों के साथ हमेशा से असहज रहा है जो कांग्रेस की कीमत पर उभर कर सामने आए हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत के राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दो राज्यों-उत्तरप्रदेश और बिहार में कभी मायावती और कभी मुलायम और लालू के साथ हेलमेल करने के बावजूद कांग्रेस अपने पुनरोदय के लिए हमेशा बेचैन रही है। राष्ट्रीय राजनीति मे अपनी कंेद्रीयता बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करे। मुलायम सिंह, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान और मायावती की संकीर्ण निजी स्वार्थो की सिनीकल राजनीति ने कांग्रेस को यह मौका दे भी दिया है।
कई राजनीतिक विश्लेषकों की यह राय काफी हद तक ठीक प्रतीत होती है कि यह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की छुद्र व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और ब्लैकमेल की राजनीति के खिलाफ एक स्थिर सरकार के पक्ष में जनादेश है। यही कारण है कि हारने के बावजूद भाजपा खुश है कि यह राष्ट्रीय दलों के पक्ष मे जनादेश है। निश्चय ही, यह जनादेश क्षेत्रीय दलों खासकर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों के लिए चेतावनी की घंटी है। उनकी नग्न अवसरवादी, सत्तालोलुप, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति ने लोगों को सबसे अधिक निराश किया है। अपने राजनीतिक पतन के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।
लेकिन क्षेत्रीय दलों और उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे के इस राजनीतिक पतन और कांग्रेस के उभार के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी कि भारतीय राजनीति द्विदलीय होने की ओर बढ़ रही है और तीसरी राजनीति के लिए जगह खत्म हो रही है। सच यह है कि कांग्रेस का मुकाबला करने में भाजपा की नाकामयाबी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तीसरी जगह की मांग मौजूद है। यही नही, इससे पहले कई भाजपा ‘ाासित राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में कांग्रेस की विफलता से भी यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक वास्तविक गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प के लिए जगह मौजूद है।
ऐसे तीसरे विकल्प के लिए जगह इसलिए भी मौजूद है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के बीच नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर बहुत फर्क नही रह गया है। दोनों दलों की आर्थिक वैचारिकी और नीतियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की खुली समर्थक हैं। विदेश नीति के मामले में भी दोनों में कोई खास फर्क नही है। दोनों अमेरिकी खेमे का हिस्सा बनने के लिए एक दूसरे से बढ़कर प्रयास करते रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी दोनों पार्टियां लगभग एक ही तरह से सोचती हैं। यही नहीं, उन दोनों के बीच साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो फर्क दिखाई भी पड़ता है, वह दिखाने का फर्क अधिक है। सच यह है कि भाजपा कट्टर हिन्दुत्व और कांग्रेस नरम हिन्दुत्व की राजनीति करती रही है।
यही कारण है कि कांग्रेस, भाजपा का और भाजपा, कांग्रेस का वास्तविक विकल्प नहीं है। हालांकि ‘ाासक वर्ग की हरसंभव कोशिश यह है कि राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय राजनीति को इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच सीमित कर दिया जाए। लेकिन जमीनी हालात इसके ठीक विपरीत हैं। मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियों के कारण लगातार हाशिए पर ढकेले जा रहे गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों-आदिवासियों, अल्पसंख्यकांे और निम्न मध्यवर्गीय तबकों में गहरी बेचैनी है। पिछले पांच वर्षो में सेज से लेकर बड़े उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण और खनन के पट्टों के खिलाफ देश भर में जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी आ गयी है। निश्चय ही, इस बेचैनी का विकल्प देने में कांग्रेस और भाजपा अपनी राजनीति के कारण अक्षम है।
लेकिन इस बेचैनी और सड़को की लड़ाई को एक मुकम्मल राजनीतिक विकल्प देने में तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां खासकर माकपा और वाम मोर्चा पूरी तरह से नाकाम रहे है। उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता यह है कि आर्थिक नीतियों के मामले में वे भी उन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार बन गये हैं जिसके खिलाफ लड़ने का नाटक करते रहते हैं। तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल में माकपा को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को हिंसक तरीके से लागू करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। इसी तरह, लोगों ने चंद्रबाबूु नायडु को इन आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से लागू करने के लिए अब तक माफ नहीं किया है। मुलायम सिंह को भी अमर सिंह-अनिल अंबानी के निर्देशन में कारपोरेट समाजवाद की कीमत अबतक चुकानी पड़ रही हैं।
इसलिए जो विश्लेषक कांग्रेस की जीत और वामपंथी पार्टियों की करारी हार को इस रूप में पारिभाषित कर रहे है कि यह नवउदारवादी आर्थिक को बेरोकटोक आगे बढ़ाने का जनादेश है, वह इस जनादेश की न सिर्फ गलत व्याख्या कर रहे है बल्कि उसे अपनी संकीर्ण हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस की नई सरकार ने अगर इस जनादेश को आम आदमी के हितों की कीमत पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का जनादेश समझकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसे यह याद रखना चाहिए कि पार्टी को आर्थिक सुधारों के पैरोकारों के विरोध के बावजूद नरेगा जैसी योजनाओं और किसानों की कर्जमाफी का राजनीतिक लाभ मिला है। यहीं नहीं, उसने अपने चुनाव घोषणापत्र में तीन रूपए किलो चावल और गेहूं देने का वायदा किया है।
इसके बावजूद यह कांग्रेस को पूरा जनादेश नही है. उसे लोकसभा की एक तिहाई से कुछ ही अधिक सीटें और तीस फीसदी से कम वोट मिले हैं। एक तरह से मतदाताओं ने कांग्रेस को एक नियंत्रित जनादेश दिया है कि वह मौजूदा वैश्विक मंदी, पड़ोसी देशों की राजनीतिक अस्थिरता और घरेलू राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी राजनीतिक आर्थिक एजेंडे पर संभल संभल कर चले। कांग्रेस ने अगर इस नियंत्रित जनादेश को मनमानी करने का लाइसेंस समझ लिया तो वह ना सिर्फ अपने साथ धोखा करेगी बल्कि जनादेश का भी अपमान होगा। कांग्रेस में ऐसी मनमानी करने की प्रवृत्ति रही है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को इस लोभ से बचना चाहिए। हालांकि उसे ऐसा करने के लिए उकसाने वाले देसी विदेशी ताकतें सक्रिय हो गई हैं। लेकिन उसे संयम बरतना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि यूपीए सरकार पर अंकुश रखने के लिए 2004 की तरह इस बार वाम मोर्चा नहीं होगा।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक और खुद कांग्रेस पार्टी के अंदर बहुत लोग वाम मोर्चे के शिंकजे से मुक्ति पाने पर खुशियां मना रहे हैं। निश्चय ही, वाम मोर्चा को पहले यूपीए सरकार का समर्थन करने और उसके बाद हताशा में एक सिद्धांतहीन, अवसरवादी और साख खोए नेताओं का तीसरा मोर्चा बनाने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कांग्रेस को गरीबों और कमज़ोर वर्गों को राहत देने के एजेंडे और जबावदेही से मुक्ति मिल गई हो। अच्छी बात यह हुई है कि मतदाताओं ने वामपंथी दलों को विपक्ष में बैठक में बैठने का जनादेश दिया है। उन्हें ना सिर्फ इसका सम्मान करना चाहिए बल्कि इसके सबक को भी ईमानदारी से समझना चाहिए। इसका सबक यह है कि शासक वर्गों की साख खो चुकी पार्टियों के साथ खड़े होने से उन पार्टियों की तो साख और चमक लौट आती है लेकिन वाम राजनीति अपनी धार, साख और चमक खो देती है।

उम्मीद करनी चाहिए कि माकपा वाम मोर्चे की दुर्गति से सबक लेकर चंद्रबाबू नायडू से लेकर नवीन पटनायक और नीतिश कुमार तक को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांटने और मायावती से लेकर जयललिता को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताने की अवसरवादी राजनीति करने की बजाय देशभर में सभी वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों को साथ लेकर एक वास्तविक विपक्ष खड़ा करने की पहल करेगी। यह विपक्ष सिर्प संसद तक नहीं बल्कि संसद से बाहर जनता के बीच और सड़कों पर दिखना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भाजपा भी विपक्ष में चैन से नहीं बैठने वाली है। आशंका है कि वह विपक्ष की जगह का इस्तेमाल करके अपनी नफरत और विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिस करे। वामपंथी-लोकतांत्रिक शक्तियों को विपक्ष से भी भाजप को बेदखल करने के लिए रोज़ी रोटी के सवालों को जनसंघर्षों का मुद्दा बनाना पड़ेगा।

लेकिन इसके लिए माकपा और वाम मोर्चे को ईमानदारी से पहल करनी होगी। खासकर माकपा को ना सिर्फ निर्मम आत्मविश्लेषण करना होगा बल्कि देश भर की वाम –लोकतांत्रिक शक्तियों का विश्वास हासिल करने के लिए अपनी गलतियों को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाना चाहिए। इसकी शुरुआत नंदीग्राम , सिंगूर और लालगढ़ के लिए सार्वजनिक माफी मांग करके हो सकती है। क्या माकपा इस ईमानदार पहल के लिए तैयार है ?