गुजरात के 'विकास' के लिए पूर्वांचल को सस्ते के बाड़े में बदल दिया गया है
बनारस में गुजरात की
तरह ‘विकास की गंगा’ बहाने के दावे और वायदे किये जा रहे हैं. बनारस के भाजपाईयों
के साथ-साथ नव मोदी समर्थक भी शहर और पूर्वांचल को ‘विकास का स्वर्ग’ बनाने का
सपना नशे की गोली की तरह बेच रहे हैं.
शहर में एक हवा बनाने की कोशिश की जा रही है कि अगर नरेन्द्र मोदी यहाँ से चुनाव जीतते हैं तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे और इसके साथ ही, बनारस और पूर्वांचल का भाग्य बदल जाएगा क्योंकि बनारस वी.आई.पी संसदीय क्षेत्र होगा.
गोया प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होते ही बनारस और पूर्वांचल की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और उन आर्थिक नीतियों में चमत्कारिक बदलाव आ जायेगा जिनके कारण यह क्षेत्र पिछले दो-ढाई सौ सालों से पिछड़ा, गरीब और बदहाल है.
नव मोदी समर्थक भले यह स्वीकार न करें लेकिन इस तथ्य पर वे कैसे पर्दा डाल सकते हैं कि प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने या वी.आई.पी क्षेत्र होने मात्र से किसी क्षेत्र की बुनियादी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है?
यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि इस इलाके के लोग ‘कामचोर’ नहीं है बल्कि बहुत मेहनती हैं. इन मेहनती सस्ते मजदूरों की सप्लाई बनी रहे, इसके लिए जानबूझकर इन इलाकों को पिछड़ा और गरीब बनाए रखा गया. यहाँ न तो भौतिक और न ही मानव (शिक्षा-स्वास्थ्य) इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया गया और न ही निजी पूंजी को प्रोत्साहित किया गया.
स्वाभाविक तौर पर देशी-विदेशी पूंजी देश के पहले से विकसित क्षेत्रों- महाराष्ट्र-गुजरात-तमिलनाडु-दिल्ली आदि में जा रही है और इसके कारण देश के अन्दर इलाकों के बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर बराबरी और तेजी से बढ़ रही है.
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि किसी नेता, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, उसके लिए निजी तौर पर इस दुष्चक्र को तोड़ना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए नीतियों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी है.
इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन एन.डी.ए सरकार गोरखपुर के सार्वजनिक क्षेत्र के खाद कारखाने को बंद कर दिया था.
आखिर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स मोदी का समर्थन इन नीतियों को पलटने के लिए नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी मोदी के नव मोदी समर्थक बनारस के साथ-साथ पूर्वांचल और बिहार को विकास का दिवास्वप्न बेचने में लगे हैं और कई समझदार जागती आँखों से सपने देखने भी लगे हैं.
सभी तस्वीरें: बनारस की फोटो क्रेडिट: आनंद प्रधान
शहर में एक हवा बनाने की कोशिश की जा रही है कि अगर नरेन्द्र मोदी यहाँ से चुनाव जीतते हैं तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे और इसके साथ ही, बनारस और पूर्वांचल का भाग्य बदल जाएगा क्योंकि बनारस वी.आई.पी संसदीय क्षेत्र होगा.
गोया प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होते ही बनारस और पूर्वांचल की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और उन आर्थिक नीतियों में चमत्कारिक बदलाव आ जायेगा जिनके कारण यह क्षेत्र पिछले दो-ढाई सौ सालों से पिछड़ा, गरीब और बदहाल है.
नव मोदी समर्थक भले यह स्वीकार न करें लेकिन इस तथ्य पर वे कैसे पर्दा डाल सकते हैं कि प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने या वी.आई.पी क्षेत्र होने मात्र से किसी क्षेत्र की बुनियादी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है?
अगर ऐसे ही बदलाव
आना होता तो उत्तर प्रदेश की यह स्थिति क्यों होती, जहाँ से आठ प्रधानमंत्री बने?
उन कथित वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों और उनके आसपास के इलाके इतने पिछड़े-गरीब और
बदहाल क्यों होते?
पूर्व प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरु (फूलपुर, इलाहाबाद),
इंदिरा गाँधी-राजीव गाँधी (रायबरेली), चरण सिंह (बागपत) वी.पी. सिंह (फतेहपुर),
चंद्रशेखर (बलिया), अटल बिहारी वाजपेयी (लखनऊ) के चुनाव क्षेत्रों का हाल किसी से
छुपा नहीं है.
ऐसा क्यों है? उत्तर
प्रदेश और खासकर पूर्वांचल और बनारस पिछड़े क्यों हैं? क्यों वहां इतनी गरीबी,
बदहाली, गैर-बराबरी, बीमारी, बेकारी और बेचारी है? क्या यह किसी दैवीय कारण से है
जो ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ की माला जपने और मोदी के दैवीय हस्तक्षेप से ही सुधर
सकता है?
क्या यह सिर्फ मोदी के पहले के नेताओं की काहिली और अरुचि के कारण है
जिसके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और जिसे मोदी का ‘निर्णायक नेतृत्व’
ही बदल सकता है?
सच यह है कि पूर्वांचल
और बनारस का पिछड़ापन न तो दैवीय है, न नेतृत्व की कमी और उनके अंदर दृष्टि की कमी
के कारण है. यह राजनेताओं की काहिली के कारण भी नहीं है. यह इस इलाके के लोगों की ‘कामचोरी’
और ‘राजनीति’ में अत्यधिक दिलचस्पी लेने के कारण भी नहीं है.
इसकी असली वजह वे
पूंजीवादी नीतियां और सामंती ढांचा है जिनके कारण पूर्वांचल को जानबूझकर पिछड़ा-गरीब-लाचार बनाकर रखा गया है. लेकिन बनारस और पूर्वांचल को ‘विकास’ सपने बेच
रहे नव मोदी समर्थक यह सच्चाई कभी नहीं बताएँगे. इसके बावजूद इसे समझना जरूरी है,
अन्यथा बाद में सिर्फ निराशा और हताशा ही हाथ लगेगी.
असल में, पूंजीवादी
आर्थिक ढांचे और अर्थनीति में औद्योगिक ‘विकास’ (बड़ी फैक्टरियां-कारखाने) यानी निजी पूंजी निवेश उन्हीं इलाकों में जाता है जो भौगोलिक-ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों
से पहले से ही विकसित हैं यानी जहाँ बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर है, बाजार है, कच्चा
माल है और सस्ता और प्रशिक्षित श्रम उपलब्ध है.
इसके अलावा जहाँ कीमती खनिज-प्राकृतिक
संसाधन उपलब्ध हैं, वहां भी एक हद पूंजी निवेश हुआ है लेकिन ‘विकास’ कितना और कैसा
हुआ है, यह वहां के लाभार्थी और ज्यादातर भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं.
उदाहरण के लिए,
गुजरात की समृद्धि या औद्योगिक विकास आज या पिछले दस-बारह सालों की नहीं है.
गुजरात की भौगोलिक स्थिति (समुद्र तट और पश्चिम एशिया-यूरोप के साथ व्यापर के लिए
जमीनी रास्ता) ऐतिहासिक रूप से व्यापार के लिए उपयुक्त रही है. अंग्रेजों ने इसे
बढ़ावा दिया. इसके कारण ही, वहां व्यापार को फलने-फूलने मौका मिला, उससे पैदा
अधिशेष उद्योग में निवेश का आधार बना और गुजरात के औद्योगिक विकास की नीव पड़ी.
आश्चर्य नहीं कि
अंग्रेजों के औपनिवेशिक राज में देश के पश्चिमी हिस्से खासकर तटीय इलाकों और शहरों
का औद्योगिक और व्यापारिक विकास हुआ. इसी तरह पूर्वी इलाके में भी कलकत्ता एक बड़े
व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्र के रूप में उभरा.
इस औपनिवेशिक पूंजीवादी आर्थिक
माडल की दूसरी खास बात यह है कि उसने देश के अंदर कई इलाकों को ‘सस्ते श्रम के
बाड़े’ के रूप में बदल दिया जहाँ से कलकत्ता के चटकालों से लेकर सूरत-मुंबई के सूती
मिलों तक को सस्ते श्रम की निर्बाध आपूर्ति होती थी.
एक तरह से पूरी
हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार के अवध, पूर्वांचल से लेकर उत्तर और मध्य
बिहार को सस्ते श्रम के बाड़े की तरह इस्तेमाल किया गया. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी
लगाया जा सकता है कि अंग्रेज इन्हीं इलाकों से गिरमिटिया मजदूरों को मारीशस, फिजी,
सूरीनाम, गुयाना आदि उपनिवेशों में ले गए. यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि इस इलाके के लोग ‘कामचोर’ नहीं है बल्कि बहुत मेहनती हैं. इन मेहनती सस्ते मजदूरों की सप्लाई बनी रहे, इसके लिए जानबूझकर इन इलाकों को पिछड़ा और गरीब बनाए रखा गया. यहाँ न तो भौतिक और न ही मानव (शिक्षा-स्वास्थ्य) इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया गया और न ही निजी पूंजी को प्रोत्साहित किया गया.
यही नहीं, अंग्रेजों
ने इन इलाकों खासकर अवध, बुंदेलखंड, पूर्वांचल, पश्चिमी-उत्तरी बिहार को इसलिए भी
पिछड़ा-गरीब बनाए रखा क्योंकि वे इस इलाके से १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम के
कारण भी नाराज़ थे. वे इसे सजा देना चाहते थे और इसलिए इन इलाकों को नज़रंदाज़ किया.
साफ़ है कि पूर्वांचल का पिछड़ापन, गरीबी, बीमारी, बेकारी और लाचारी किसी दैवीय कारण
से नहीं बल्कि औपनिवेशिक राज और पूंजीवादी आर्थिक माडल का तार्किक नतीजा है.
अफ़सोस यह कि आज़ादी
के बाद भी औपनिवेशिक विरासत में मिली पूंजीवादी आर्थिक विकास का माडल मिश्रित
अर्थनीति और समाजवाद के नारों के बीच चलता रहा. इस कारण निजी पूंजी निवेश उन्हीं
‘विकसित’ इलाकों में गया जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी औपनिवेशिक लूट की जरूरतों के
लिए आगे बढ़ाया था.
नतीजा, औपनिवेशिक राज की तरह आज़ादी के बाद भी यह इलाका ‘सस्ते
श्रम का बाड़ा’ बना रहा जहाँ से लाखों की संख्या में सस्ते श्रमिक बंगाल-गुजरात-महाराष्ट्र
आदि के विकसित औद्योगिक इलाकों और बाद में पंजाब-हरियाणा के कृषि फार्मों की ओर
पलायन करते रहे.
यह पूंजीवादी आर्थिक
विकास के माडल की अनिवार्य परिणति है जहाँ देश के अन्दर एक बड़े इलाके को
पिछड़ा-गरीब-लाचार रखकर कुछ सीमित इलाकों को औद्योगिक केंद्र के रूप में आगे बढ़ाया
जाता है. हैरानी की बात नहीं है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास माडल के नतीजे में
पिछड़ेपन, विषमता, गरीबी और बीमारी-बेकारी के विशाल समुद्र में औद्योगिक समृद्धि के
टापू दिखाई पड़ते हैं.
इसी का नतीजा है कि ‘विकसित’ गुजरात और महाराष्ट्र में भी
पिछड़े-गरीब इलाके हैं. इस इलाकाई और क्षेत्रीय पिछड़ेपन की सिवाय इसके और कोई
व्याख्या नहीं हो सकती है कि यह पूंजीवादी आर्थिक माडल का परिणाम है.
आश्चर्य नहीं कि सस्ते
श्रम का बाड़ा बना दिए गए पूर्वांचल की अर्थव्यस्था मनीआर्डर से चलती रही है. कोढ़
में खाज की तरह १९९१ के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद तो स्थिति और बदतर हुई
है क्योंकि अर्थव्यवस्था में सरकार/सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका लगभग खत्म हो गई
है और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी ड्राइविंग सीट पर है. स्वाभाविक तौर पर देशी-विदेशी पूंजी देश के पहले से विकसित क्षेत्रों- महाराष्ट्र-गुजरात-तमिलनाडु-दिल्ली आदि में जा रही है और इसके कारण देश के अन्दर इलाकों के बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर बराबरी और तेजी से बढ़ रही है.
यही नहीं, १९९१ से
पहले सार्वजनिक क्षेत्र के कारण इक्का-दुक्का कारखाने-फैक्टरियां पिछड़े इलाकों और
प्रधानमंत्रियों या वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों में लग भी जाती थीं लेकिन उत्तर
उदारीकरण दौर में वह भी खत्म हो गया.
सवाल यह है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल के तहत नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोर समर्थक मोदी के पास ऐसी कौन सी छड़ी है कि वे पूर्वांचल में चमत्कार कर देंगे और वहां रातों-रात देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए दौड़ लगाने लगेगी?
क्या वे बनारस और
पूर्वांचल के आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल को पलट देंगे?
या, उनके प्रभाव के कारण इस इलाके के विकास के लिए पूंजीवादी आर्थिक विकास के तर्क
बेमानी हो जायेंगे? आखिर मोदी कैसे इस इलाके को सस्ते श्रम के बाड़े से औद्योगिक
विकास के केंद्र में बदल देंगे? सवाल यह है कि इस पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल के तहत नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोर समर्थक मोदी के पास ऐसी कौन सी छड़ी है कि वे पूर्वांचल में चमत्कार कर देंगे और वहां रातों-रात देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए दौड़ लगाने लगेगी?
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि किसी नेता, चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, उसके लिए निजी तौर पर इस दुष्चक्र को तोड़ना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए नीतियों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी है.
उदाहरण के लिए,
उत्तर प्रदेश की दो वी.आई.पी संसदीय क्षेत्रों- रायबरेली और अमेठी का हाल देखिये.
क्या यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी अपने संसदीय
क्षेत्रों में विकास नहीं चाहते हैं?
सच यह है कि उन दोनों ने कोशिशें कीं कि निजी पूंजी निवेश बढे लेकिन इक्का-दुक्का फैक्टरियों के अलावा कोई बड़ा उल्लेखनीय निवेश नहीं हुआ. यही नहीं, वे फैक्टरियां भी जल्दी ही बीमार हो गईं. क्यों? इसलिए कि बड़ा निजी देशी-विदेशी निवेश विकसित क्षेत्रों की ओर गया, यहाँ कोई बाजार नहीं था, विकसित इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं था.
नतीजा, सोनिया गाँधी
और राहुल गाँधी को सार्वजानिक क्षेत्र की कंपनियों और सरकार की मदद से कारखाने-फैक्टरियां
लगवाने की कोशिश करनी पड़ीं. रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री हो या मालविका स्टील को
सेल के जरिये पुनर्जीवित करने का मसला हो, यह सार्वजनिक क्षेत्र या सरकार के
सक्रिय पहल के कारण संभव हो पाया. लेकिन इससे ज्यादा और कुछ नहीं हो पाया. सच यह है कि उन दोनों ने कोशिशें कीं कि निजी पूंजी निवेश बढे लेकिन इक्का-दुक्का फैक्टरियों के अलावा कोई बड़ा उल्लेखनीय निवेश नहीं हुआ. यही नहीं, वे फैक्टरियां भी जल्दी ही बीमार हो गईं. क्यों? इसलिए कि बड़ा निजी देशी-विदेशी निवेश विकसित क्षेत्रों की ओर गया, यहाँ कोई बाजार नहीं था, विकसित इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं था.
नितीश कुमार को देख
लीजिये. क्या नहीं किया उन्होंने निजी निवेश को लुभाने के लिए लेकिन निवेश सम्मेलनों
और कथित गवर्नेंस-विकासोन्मुखी नीतियों के बावजूद वहां कोई बड़ा निजी निवेश नहीं
आया. फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा करेंगे कि निजी निवेशक
गुजरात-महाराष्ट्र-तमिलनाडु-दिल्ली को छोड़कर पूर्वांचल और बनारस की ओर दौड़ने
लगेंगे?
दोहराने की जरूरत
नहीं है कि बनारस और पूर्वांचल के औद्योगिक विकास के लिए पूंजीवादी विकास के
आर्थिक माडल को किनारे और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से तौबा करना पड़ेगा? क्या
मोदी इसके लिए तैयार हैं? क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की भी अधिकांश कंपनियों का
पूर्ण या अर्द्ध निजीकरण हो चुका है और बाकी बची-खुची कंपनियों का निजीकरण मोदी के
एजेंडे पर है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन एन.डी.ए सरकार गोरखपुर के सार्वजनिक क्षेत्र के खाद कारखाने को बंद कर दिया था.
यह किसी से छुपा
नहीं है कि मोदी उसी पूंजीवादी आर्थिक विकास के माडल और नव उदारवादी आर्थिक
नीतियों के पैरोकार हैं जिनके कारण बनारस और पूर्वांचल का यह हाल है और दिन पर दिन
और बदतर होता जा रहा है. इन नीतियों के साथ बनारस और खासकर पूर्वांचल के भाग्य को
बदलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.
इसके रहते बनारस और
पूर्वांचल-बिहार सस्ते श्रम का बाड़ा बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. मोदी के पास कोई
जादू की छड़ी नहीं है और न ही इतना राजनीतिक साहस कि वे इन नीतियों को पलट दें.
आखिर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स मोदी का समर्थन इन नीतियों को पलटने के लिए नहीं कर रहे हैं. लेकिन फिर भी मोदी के नव मोदी समर्थक बनारस के साथ-साथ पूर्वांचल और बिहार को विकास का दिवास्वप्न बेचने में लगे हैं और कई समझदार जागती आँखों से सपने देखने भी लगे हैं.
सभी तस्वीरें: बनारस की फोटो क्रेडिट: आनंद प्रधान