मंगलवार, दिसंबर 16, 2014

एक नया ब्लॉग : चलते-चलते

एक नए सफ़र का ब्लॉग है 'चलते-चलते' 
मित्रों, एक नया ब्लॉग शुरू किया है: 'चलते-चलते (http://ghumakkadvadi.blogspot.in/ ) इस ब्लॉग का मकसद उन विषयों पर अलग से लिखना है, जो 'तीसरा रास्ता' के मिजाज के नहीं हैं.

जैसे अपनी यात्राओं की यादें या कभी फिल्मों या किताबों या किसी दोस्त-परिजन या साथियों पर लिखना हो तो 'तीसरा रास्ता' का मिजाज और तेवर आड़े आने लगता था. 

इसलिए यह नया ब्लॉग शुरू किया है. गाहे-बगाहे उसपर अपनी यात्राओं की खोज-खबर, उनके खट्टे-मिट्ठे अनुभव और हाँ, कैमरे और मोबाइल से ली गई तस्वीरें शेयर करूँगा.

आप 'तीसरा रास्ता' के सुधी साथी रहे/रही हैं. 'तीसरा रास्ता' पहले की तरह जारी रहेगा. उसे फुर्सत मिलते ही अपडेट करूँगा. हालाँकि इधर ज्यादा नहीं लिख पाया लेकिन जो कुछ लिखा है, उसे जल्दी ही ब्लॉग पर डालने की कोशिश करूँगा. 

लेकिन नए ब्लॉग 'चलते-चलते' पर भी आपकी मौजूदगी की दरख्वास्त है. पता है: http://ghumakkadvadi.blogspot.in/ 

और हाँ, इस बीच, एबीपी न्यूज की वेबसाईट के लिए भी साप्ताहिक ब्लॉग लिखना शुरू किया है. हर शुक्रवार को आप एबीपी-हिंदी की वेबसाईट पर यह पढ़ सकते हैं. 

अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजियेगा. शुभकामनाओं सहित. 

आपका,
आनंद  

शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

मंगलवार, जून 17, 2014

आर अनुराधा एक मुस्कुराती जिजीविषा का नाम था

अलविदा मित्र!
आर अनुराधा चलीं गईं. कैंसर से १७ साल लड़ीं और लड़ते-लड़ते ही गईं. उनसे एक मई को मिलकर आया था. बीमारी की उस हालत में भी जब शायद उनसे बहुत बैठा नहीं जा रहा था,वे अपने कमरे से चलकर आईं, थोड़ी देर कुर्सी पर बैठीं और हालचाल पूछा. चेहरे पर वही हल्की, स्मित और अनुराधा मुस्कान थी. 

मैं उन्हें उसी मुस्कुराहट से जानता था. कोई २० साल पहले जब उनसे पहली बार मिला था और अब इस आख़िरी मुलाक़ात तक उनकी उस मुस्कान में कोई अंतर नहीं आया था.

हाँ, इस बार चेहरे पर दर्द की लकीरें ज़रूर थीं. लेकिन उनपर डर या हताशा के चिन्ह नहीं थे. कैंसर के आख़िरी स्टेज में होते हुए भी उनके चेहरे पर अपनी कविताओं की नई किताब को लेकर संतोष का एक भाव था. 
 
हालाँकि ख़ुद मैं उनसे बात करते हुए आँखें नहीं मिला पा रहा था, गले में कुछ अटकता हुआ सा महसूस हो रहा था और एक
असहायता को बोध छाता जा रहा था.
 
लेकिन अनुराधा जी की जीजिविषा में कोई कमी नहीं थी. ऐसा लग रहा था कि हम नहीं, वे हमें ढाँढस बँधा रही हैं. उनकी कविताओं की तारीफ़ की जिसपर उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट दौड़ गई. मेरा जैसे दिल डूबा जा रहा था.
 
जानता हूँ कि खुद गहरी पीड़ा में होने के बावजूद उन्होंने दिलीप जी को कहकर मुझे घर पर क्यों बुलाया था. मैं खुद उस दिन हाल की घटनाओं के कारण बहुत परेशान और तनाव में था. अकेला महसूस कर रहा था. अनुराधा स्वस्थ होतीं तो शायद खुद घर आतीं लेकिन अपनी बीमारी के उस हाल में भी दिलीप जी मैसेज करवा के मुझे बुलाया। कहा कुछ नहीं लेकिन मैं उनके व्यवहार में वह ढाँढस महसूस कर सकता था.
 
हालाँकि उनसे मेरी कोई गहरी दोस्ती नहीं थी. अलबत्ता कैंसर से उनकी अनथक लड़ाई, उनके उन अनुभवों की किताब, उनके लेखन-संपादन और सक्रियताओं के कारण अनेकों लोगों की तरह मैं भी उनका चुप्पा फ़ैन बन चुका था. हालाँकि उनसे मुलाक़ात या बातचीत बहुत कम ही हो पाती थी. लेकिन मन ही मन उनके हौसले और सक्रियता और दिलीप जी के धैर्य, दृढ़ता, निष्ठा और समर्पण का कायल था.
 
महीनों में कभी कहीं किसी सभा-सेमिनार या कार्यक्रम में मुलाक़ात हो जाती थी. इन बीस सालों में मैं तीन-चार बार उनके घर
गया और एक बार वे दिलीप जी के साथ मेरे यहाँ खाने पर आईं. उस दिन वे एक पेंटिंग भी दे गईं जो मेरे कमरे में हमेशा उनकी याद दिलाती है. कभी-कभार फ़ोन पर भी बात हो जाती थी. 
 
इसके बावजूद वे जब भी मिलीं, उसी अनुराधा मुस्कान के साथ मिलीं. वे एक मिसाल हैं जिनसे जीवन जीने का सलीक़ा सीखा जा सकता है.

वे अपने जीवन के हर मिनट की क़ीमत जानती थीं और उसे भरपूर जी कर गईं. वे पी.एचडी करना चाहती थीं, लेकिन कैंसर ने उन्हें वह मौक़ा नहीं दिया. उसे उन्हें यह मौक़ा देना चाहिए था. 
 
वे चली गईं लेकिन अपने लेखन, कामों, इरादों और जिजीविषा के साथ वे हमारे साथ हैं. वे हम में से हर उस औरत या मर्द में जीवित रहेंगीं जो जीवन को अपनी शर्तों पर और मुस्कुराहट के साथ जीता है और जो कैंसर के पार भी इंद्रधनुष देखता है.

अलविदा मित्र आर अनुराधा! 

शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

बुधवार, जून 04, 2014

सड़कों पर बहता निर्दोषों का लहू

सड़क सुरक्षा पर 'चलता है/क्या फर्क पड़ता है' के रवैए के कारण हर साल लाखों लोगों की जान जा रही है   
 
ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की सड़क हादसे में हुई असामयिक मृत्यु ने सड़क सुरक्षा और हर साल सड़क दुर्घटनाओं में हो रही लाखों निर्दोष लोगों की मौत के मुद्दे को फिर से बहस में ला दिया है.
देश में सड़क सुरक्षा के हाल का अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक केन्द्रीय मंत्री की मृत्यु देश की राजधानी में हुई है जहाँ सड़क सुरक्षा के इंतजाम देश के अन्य हिस्सों की तुलना में कहीं बेहतर हैं.
इसके बावजूद इस साल राजधानी दिल्ली में सड़क हादसों में श्री मुंडे से पहले तक ६६७ लोगों की मौत हो चुकी है. वे ६६८वें व्यक्ति हैं जिन्हें दिल्ली की सड़क पर इस तरह से अपनी जान गंवानी पड़ी. इन ६६८ लोगों में से अधिकांश को हम नहीं जानते हैं.
लेकिन वे सिर्फ संख्या या सड़क दुर्घटना से संबंधित आंकड़े भर नहीं हैं. वे भी हम सभी की तरह जीते-जागते इंसान थे. जीवन से भरपूर वे भी किसी के पिता-भाई-बहन-माँ-बेटा-बेटी और सगे-संबंधी थे. उनके घरों और मुहल्लों में भी उनके जाने के बाद कई दिनों तक चूल्हे नहीं जलते हैं. अनेकों घरों में महीनों-सालों तक सिसकियाँ सुनाई पड़ती हैं. कई घर इन दुर्घटनाओं की मार से कभी नहीं उबर पाते हैं.
इसके बावजूद हम सब जानते हैं कि सड़क दुर्घटना के शिकार हुए मुंडे आखिरी इंसान नहीं हैं. हम-आप सभी यह जानते हैं कि अगर सड़क सुरक्षा और लोगों की सोच में रातों-रात क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया और मौजूदा हालत को बदलने के लिए सख्त कदम नहीं उठाए गए तो मुंडे के बाद भी दिल्ली की सड़कों पर लोग ऐसे ही जान गंवाते रहेंगे. सड़क दुर्घटना में मारे जानेवाले लोगों की संख्या इसी तरह बढ़ती रहेगी.

इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि जब आप यह टिप्पणी पढ़ रहे होंगे, उन १५ मिनटों में देश के किसी कोने में सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति की मौत हो चुकी होगी. सचमुच, देश की सड़कों पर आदमी की जान से सस्ती कोई चीज नहीं है.
लेकिन जब तक हम सड़क दुर्घटनाओं को नियति मानकर स्वीकार करते रहेंगे और ‘चलता है/क्या फर्क पड़ता है’ की मानसिकता से इन्हें देखते रहेंगे, कुछ नहीं बदलनेवाला है.  
यह सचमुच बहुत शर्मनाक और त्रासद है कि देश में हर साल लाखों लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हैं या अपाहिज हो जा रहे हैं लेकिन बड़े-लंबे-चौड़े-चमकते फोर और सिक्स लेन हाईवे के सपनों में डूबे देश में इन मौतों से कोई खलल नहीं पड़ रही है.

देश में जितनी बातें हाईवे और कारों/गाड़ियों के नए माडलों पर होती है, उसकी एक फीसद चर्चा भी सड़क सुरक्षा और लोगों को एक बेहतर, संवेदनशील और जागरूक ड्राइवर बनाने पर नहीं होती है.

निश्चय ही, सड़कों पर होनेवाली ज्यादातर दुर्घटनाएं इसलिए होती हैं कि हममें से अधिकांश लोगों को सड़क सुरक्षा के नियमों की कोई परवाह नहीं है, हमें अपनी और उससे ज्यादा दूसरों के जान की कोई चिंता नहीं है और ट्रैफिक पुलिस को नियमों और सड़क सुरक्षा से ज्यादा पैसे बनाने की फ़िक्र होती है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि सड़कों के डिजाइन से लेकर गड्ढों और उनकी दयनीय हालत तक और सड़क सुरक्षा के ढीले-ढाले नियमों से लेकर सड़क दुर्घटना के घायलों को बेहतर और तत्काल चिकित्सा न मुहैया करा पाने तक ढांचागत-सांस्थानिक कारण भी हैं जिनके कारण भारतीय सड़कें खूनी बनी हुई हैं.

नतीजा हम सबके सामने है. सड़कों पर बेगुनाह इंसानों का खून बह रहा है और देश सड़कों पर होनेवाली मौतों में नए रिकार्ड बना रहा है.

साफ़ है कि हम इन दुर्घटनाओं और इसमें होनेवाली जन-धन के नुकसान से चेतने को तैयार नहीं है क्योंकि हम सब इसके शिकार नहीं हुए हैं. इसलिए हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. लेकिन यही हाल रहा तो हमारा भी नंबर कभी न कभी आएगा.            

शुक्रवार, मई 30, 2014

अखिलेश सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है

उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए रास्ता साफ़ कर रही है समाजवादी पार्टी की सरकार
 
उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने लगता है कि हाल के लोकसभा चुनावों में करारी हार से कोई सबक़ नहीं सीखा है. ऐसा लगता है कि सबक़ तो दूर उसने प्रदेश के लोगों को सबक़ सिखाने का फ़ैसला कर लिया है.

प्रदेश से जिस तरह की चिंताजनक और दहला देनेवाली ख़बरें आ रही हैं, उससे लगता है कि अखिलेश यादव की न सिर्फ सरकार पर से पकड़ ख़त्म हो रही है बल्कि उसमें शासन करने की इच्छाशक्ति भी नहीं रह गई है. आश्चर्य नहीं कि वह लगातार ढलान पर फिसलती जा रही है. 

मुहावरे में जिसे कहते हैं कि पानी सिर पर से गुज़रने लगा है, वही उत्तर प्रदेश में हो रहा है. बदायूँ में दो दलित लड़कियों को जिस तरह से बलात्कार के बाद नृशंस तरीक़े से पेड़ पर लटका दिया गया, वह न सिर्फ शर्मनाक और दहलानेवाला है बल्कि ख़ुद मुख्यमंत्री ने जिस असंवेदनशील तरीक़े से एक महिला पत्रकार को जवाब दिया, वह बताता है कि ये घटनाएँ क्यों हो रही हैं?

याद कीजिए, चुनाव प्रचार के दौरान ख़ुद मुलायम सिंह ने बलात्कार क़ानून में बदलाव की यह कहते हुए वकालत की थी कि बच्चों से ग़लतियाँ हो जातीं हैं. 

साफ़ है कि सपा की राजनीति और सोच में वह समस्या है जिससे जातिवादी दबंगों-अपराधियों का हौसला बढ़ता है, पुलिस लाचार हो जाती है और जाति और क्षेत्र देखकर व्यवहार करती है और सरकार आँख बंदकर सोई रहती है.

बदायूँ में दलित लड़कियों के साथ जिस तरह का नृशंस और मध्ययुगीन व्यवहार हुआ है, वह अपवाद नहीं है
और न ही कुछ दबंगों का अपराध या ग़लती है बल्कि दलितों के साथ होनेवाले सामंती ज़ुल्मों के अंतहीन दुखांत का हिस्सा है.

नई बात सिर्फ यह है कि कल तक दलितों पर सामंती ज़ुल्म और बलात्कार की अगुवाई सवर्ण दबंग/गुंडे कर रहे थे, आज सत्ता मिलने के बाद इस क़तार में मध्यवर्ती जातियों के दबंग और लफ़ंगे भी शामिल हो गए हैं. 

मुलायम सिंह के कभी-कभी ग़लती करनेवाले बच्चे यही हैं. अफ़सोस यह है कि यह सरकार ख़ुद को लोहिया, जयप्रकाश और नरेंद्रदेव के समाजवादी राजनीति की वारिस बताती है. अफ़सोस अखिलेश यादव के लिए होता है जिनसे लोगों को बहुत उम्मीदें थीं लेकिन वे उम्मीदें दो साल के अंदर ही धूसरित होती दिख रही हैं. लेकिन इसके लिए कोई और नहीं बल्कि वे ख़ुद, उनका परिवार और पार्टीगण ज़िम्मेदार हैं. 

कहने की ज़रूरत नहीं है कि अखिलेश यादव सरकार की नाकामियां और ग़लतियाँ राज्य में भाजपा की पुनर्वापसी के लिए ज़मीन और रास्ता तैयार कर रही हैं.

एक सेक्युलर सरकार सांप्रदायिक ताक़तों के लिए कैसे जगह बनाती है, इसका एक और उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखा जा सकता है.

अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कोई सरकार सिर्फ चुनाव में हार से बौखलाकर प्रदेश की जनता को सबक़ सिखाने और घंटों बिजली कटौती का फ़ैसला करती? 

लेकिन कोई क्या करे जब सरकार अपने पैर पर इसलिए कुल्हाड़ी मारने पर उतारू हो कि इससे उन लोगों को भी दर्द होगा जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया.

अफसोस दूसरे के दुख में मज़ा लेने की यह राजनीति अखिलेश यादव और सपा को बहुत दूर तक नहीं ले जा पाएगी. वह सिर्फ सैफ़ई और मैनपुरी तक सीमित रह जाएगी, जैसाकि इन चुनावों में हुआ.

अखिलेश सरकार के रंग-ढंग जल्दी नहीं बदले तो उसके लिए कार्यकाल पूरा करना भी मुश्किल हो जाएगा। उनका समय तेजी से खत्म हो रहा है लेकिन सपा नेतृत्व इस मुगालते में है कि अभी उसके तीन साल बचे हुए हैं।

उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि जिस राजनीतिक ढलान पर वे तेजी से फिसल रहे हैं, वहां से उन्हें रसातल में पहुँचने में
देर नहीं लगेगी। वैसे अभी भी मौका है लेकिन सरकार के तौर-तरीकों से लगता नहीं है कि वह इसका इस्तेमाल कर पाएगी।

उसने लगता है कि उत्तर प्रदेश तश्तरी में रखकर भाजपा को देने का फैसला कर लिया है. प्रदेश में भारी जीत से उत्साहित भाजपा अखिलेश सरकार की छोटी-बड़ी गलतियों को मुद्दा बनाकर सड़क पर उतर रही है. वह सरकार को चैन से नहीं रहने देगी। केंद्र की सरकार भी सपा सरकार को घेरने और उसे परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ेगी।

दूसरी ओर, नौकरशाही भी हवा का रुख भांपकर हाथ खड़े करने लगेगी और उससे काम करना मुश्किल होता जाएगा। वह सरकार को मुश्किल में डालने के लिए ख़बरें भी लीक करेगी। ऐसी हालत में अखिलेश सरकार एक 'लैम-डक' सरकार बन जाने की आशंका दिन पर दिन बढ़ती जा रही है.     

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

क्या १८८ साल की भरी-पूरी उम्र में कई उतार-चढाव देख चुकी हिंदी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने बहुत पहले ८०-९० के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है. बहुतेरे और भी संपादक और विश्लेषक इससे सहमत हैं.
उनका तर्क है कि आज की हिंदी पत्रकारिता हिंदी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार के साथ पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है. उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है. वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है, पत्रकारों के विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है.
हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है क्योंकि वहां हिंदी न्यूज चैनलों का ही बोलबाला है. हिंदी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिंदी अखबारों के संपादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं. उनकी लाखों-करोड़ों में सैलरी है.

इसके अलावा हिंदी न्यूज चैनलों के आने से पत्रकारों के वेतन बेहतर हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि दीन-हीन और खासकर आज़ादी के बाद सत्ता की चाटुकारिता करनेवाली हिंदी पत्रकारिता के तेवर और धार में भी तेजी आई है. आज वह ज्यादा बेलाग और सत्ता को आईना दिखानेवाली पत्रकारिता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है. इनमें से कई दावे और तथ्य १९७७ से पहले की हिंदी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं.
दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिंदी मीडिया उद्योग के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिंदी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों. क्या हिंदी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिंदी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिंदी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?
हिंदी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई ७५ साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी.

सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें आत्मा नहीं है? 

अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है.’ सवाल यह है कि क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल अखबारों और न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है?
क्या आज की हिंदी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? कितने हिंदी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से रिपोर्टिंग कर रहे हैं? उसमें देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है?
मुख्यधारा की यह हिंदी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है?

क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का एलान करते हुए यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिंदी अखबारों और चैनलों की संपादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिंदी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं?

यही नहीं, हिंदी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का ‘स्वर्णयुग’ सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके मुठी भर पत्रकारों तक सीमित है. कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे-मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई सुधार नहीं आया है. वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ बिना नियुक्त पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के वे काम करने को मजबूर हैं.
उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. उनकी बदहाल हालत देखकर आप कह नहीं सकते हैं कि हिंदी अखबारों और चैनलों में बड़ी कारपोरेट पूंजी आई है, वे शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं, उनके मुनाफे में हर साल वृद्धि हो रही है और वे ‘स्वर्णयुग’ में पहुँच गए हैं.
उदाहरण के लिए हिंदी के बड़े अखबारों की मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी को ही लीजिए. उनका तर्क है कि इस वेतन आयोग के मुताबिक तनख्वाहें दी गईं तो अखबार चलाना मुश्किल हो जाएगा. अखबार बंद हो जाएंगे. सवाल यह है कि अखबार या चैनल स्ट्रिंगरों की छोडिये, अपने अधिकांश पूर्णकालिक पत्रकारों को भी बेहतर और सम्मानजनक वेतन देने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं?

क्या यह एक बड़ा कारण नहीं है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में बेहतरीन युवा प्रतिभाएं आने के लिए तैयार नहीं हैं? आप मानें या न मानें लेकिन यह सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता के कथित ‘स्वर्णयुग’ के बावजूद हिंदी क्षेत्र के कालेजों/विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली और टापर छात्र-छात्राएं इसमें आने के लिए तैयार नहीं हैं या उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है.

दूसरी ओर, हिंदी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह भी दिन पर दिन संकुचित और सीमित होती जा रही है. आश्चर्य नहीं कि आज हिंदी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है.
हैरानी की बात नहीं है कि हिंदी पत्रकारिता के इस ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प में घटे हैं.
यही नहीं, हिंदी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है. वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है. उसे उस विशाल हिंदी समाज की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो गरीब हैं, हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं. लेकिन मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है.

क्या यही हिंदी पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ है?

(समाचार4मीडिया वेबसाइट पर प्रकाशित यह टिप्पणी यहाँ भी पढ़ सकते हैं: http://www.samachar4media.com/Is-this-the-golden-era-of-hindi-journalism )

रविवार, मई 25, 2014

अखिलेश यादव के पास अब ज़्यादा समय नहीं बचा है

परिवार, बाहुबलियों और भ्रष्ट अफसरों-मंत्रियों-नेताओं से पीछा छुड़ाए बिना सरकार का इकबाल लौटना मुश्किल है

हालिया लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में उम्मीदों के विपरीत समाजवादी पार्टी के बहुत ख़राब प्रदर्शन के बाद अखिलेश यादव की सरकार के पास दो ही विकल्प बचे हैं: राज्य में बेहतर प्रशासन और क़ानून-व्यवस्था की बहाली और समावेशी विकास ख़ासकर सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर युद्धस्तर पर अभियान छेड़ने की पहल करना और राजनीतिक पहलकदमी की कमान संभाल लेना या फिर एक लचर और दिशाहीन सरकार चलाते हुए धीरे-धीरे इतिहास के गर्त की ओर बढ़ने को अभिशप्त हो जाना.

यह अखिलेश भी जानते हैं कि उनके पास समय बहुत कम है और राजनीतिक रूप से वे कमज़ोर विकेट पर हैं जहाँ से सिर्फ ढलान ही है. चुनावों में हार के बाद उनकी सरकार की चमक फीकी पड़ गई है और स्थिति को तुरंत नहीं संभाला तो सरकार का राजनीतिक इक़बाल भी ख़त्म हो जाएगा.

भाजपा के पक्ष में जिस तरह का ध्रुवीकरण हुआ है और वह सपा के सामाजिक आधार में घुसने में कामयाब हो गई है, उसमें वह अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखेगी. ख़ुद सपा में आंतरिक सत्ता संघर्ष तेज़ होने और नेताओं में सुरक्षित राजनीतिक ठिकाने की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति तेज़ होने की आशंका बढ़ रही है.

अखिलेश के पास इस गंभीर और अनप्रिसिडेंटेड संकट से निपटने के लिए मामूली उपायों और फ़ैसलों से काम नहीं चलनेवाला है. उन्हें सपा की मौजूदा बीमारियों से निपटने के लिए उपाय और फ़ैसले भी उतने ही अनप्रिसिडेंटेड करने पड़ेंगे. उन्हें सरकार से लेकर पार्टी तक की गंभीर बीमारी को दूर करने के लिए दवा के बजाय आपरेशन करने का साहस दिखाना होगा. इस मामले में उन्हें अपनी सरकार या परिवार या क़रीबियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने और उसे जोखिम में डालने से हिचकना नहीं चाहिए. 

कहने की ज़रूरत नहीं है कि सपा के पुनर्नवीनीकरण और सरकार को ऊर्जावान बनाने के लिए अखिलेश यादव को सबसे पहले अपने परिवार से ही शुरू करना होगा. सपा सिर्फ मुलायम परिवार की पार्टी है, इस धारणा को तोड़ने के लिए सबसे पहले परिवार की पार्टी और सरकार में भूमिका ख़त्म करनी होगी.
 

इसके लिए ज़रूरी है कि वे सबसे पहले शिवपाल यादव को मंत्रिमंडल से बाहर करें, ख़ुद प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष का पद छोड़ें और परिवार के बाक़ी सदस्यों की भूमिका सीमित करें. दूसरी ओर, मंत्रिमंडल से राजा भैया समेत तमाम दागियों और आज़म खान जैसे विवादास्पद मंत्रियों को बाहर करें. मंत्रिमंडल छोटा करें और नए-युवा लोगों को मौक़ा दें. 

इसके साथ तुरंत क़ानून-व्यवस्था के मामले में ज़ीरो टालरेंस के आधार पर पुलिस अधिकारियों को निष्पक्ष होकर और पूरी सख़्ती के साथ क़ानून-व्यवस्था पर नियंत्रण क़ायम करने का ज़िम्मा दें और सुनिश्चित करें कि कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं हो. पार्टी से अपराधियों और असामाजिक तत्वों की तुरंत छुट्टी होनी चाहिए क्योंकि सपा की सरकार को जितना नुकसान पार्टी से जुड़े असामाजिक तत्वों और अपराधियों ने पहुँचाया है, उतना नुकसान किसी और चीज से नहीं हुआ है. ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और यह स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि सरकार ऐसे तत्वों और उनकी हरकतों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी।



दूसरी ओर, समयबद्ध आधार पर सड़क-बिजली-पानी-स्कूल-अस्पताल को दुरुस्त करने के लिए अभियान शुरू करें. इसके लिए मंत्रियों से लेकर ज़िला अधिकारियों को चार-चार महीने का निश्चित टास्क दिया जाए जिसकी मुख्यमंत्री ख़ुद और उनका कार्यालय सख़्त निगरानी करे. मुख्यमंत्री को ख़ुद बिजली और सड़क का ज़िम्मा लेना चाहिए. इसमें ख़ासकर शहरों के इंफ़्रास्ट्रक्चर का पुनर्नवीनीकरण प्राथमिकता पर होना चाहिए. 
 
 
यह आसान नहीं है. अखिलेश की राह में सबसे ज़्यादा रोड़े ख़ुद उनके पिता और परिवार के लोग या उनके नज़दीक़ी अटका रहे हैं. उनसे निपटने के लिए ज़बरदस्त साहस और इच्छाशक्ति की ज़रूरत है.
 
याद रहे जिस तरह से कभी चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर एनटीआर के लक्ष्मी पार्वती प्रेम और उसमें पार्टी को डूबते देखने के बजाय बग़ावत का रास्ता चुना था, वैसे ही अखिलेश को अपने पिता, चाचाओं, भाइयों और संबंधियों के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा उठाने से हिचकिचाना नहीं चाहिए. अगर वे संकोच करेंगे तो उन्हें अपने परिवार के साथ राजनीतिक हाराकिरी के लिए तैयार हो जाना चाहिए. 

लेकिन अगर मौजूदा संकट से निपटने के नामपर अखिलेश को हटाकर मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री बनने और अखिलेश को उप-मुख्यमंत्री बनाने  करते हैं तो इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं होगा। उत्तर प्रदेश की जनता का सन्देश बिलकुल साफ़ है. उसने 2012 में सपा को बहुमत की सरकार देते हुए उम्मीद की थी कि वह एक साफ़-सुथरी, ईमानदार, कानून-व्यवस्था और राज्य के समावेशी विकास पर जोर देनेवाली सरकार होगी. खासकर युवा अखिलेश से ज्यादा उम्मीद थी क्योंकि वे डी पी यादव जैसे बाहुबली को नकार कर और विकास की बातें करके सत्ता में आये थे.

लेकिन अगर पारिवारिक तख्तापलट के जरिये मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश की जाती है तो यह जनादेश की भावना के खिलाफ होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि मुलायम सिंह समेत शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव और दूसरी ओर, आज़म खान तक राज्य में सभी सुपर चीफ मिनिस्टर हैं और इन सभी की मनमानियों और खब्तों ने ही राज्य में सपा की लुटिया डुबाई है और भाजपा को मौका दिया है.      

शनिवार, मई 24, 2014

अब प्रधानमंत्री मोदी को इस साल पाकिस्तान जाने का एलान करना चाहिए

मोदी-शरीफ के लिए यह ऐतिहासिक मौका है जब वे संबंधों को बेहतर बनाने की नींव रख सकते हैं 

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने भारत के प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण में आने का न्यौता स्वीकार कर लिया है. अगर शरीफ को निमंत्रण प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी की साहसिक कूटनीतिक पहल है तो मानना होगा कि शरीफ ने उसे स्वीकार करके कहीं ज्यादा साहस का परिचय दिया है.
यह उन सभी कथित ‘पाकिस्तान विशेषज्ञों’ और ‘सुरक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों’ को भी करारा जवाब है जो यह दावा कर रहे थे कि शरीफ के लिए भारत आने का फैसला करना मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार यानी शरीफ की नहीं चलती है और वहां सेना और आई.एस.आई की अनुमति के बिना वे एक कदम भी नहीं उठा सकते हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि ये वही हित समूह और विशेषज्ञ हैं जो भारत और पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य और बेहतर नहीं होने देते हैं. ऐसे तत्व दोनों देशों के विदेश-रक्षा प्रतिष्ठानों और सरकार के अंदर भी है. उनके हित दोनों के देशों के टकराव में हैं और उसी में उनकी विशेषज्ञता फलती-फूलती है. एक बार फिर से टी.वी चैनलों पर दिखने लगे हैं.

यह सही है कि ऐसे हित समूह और विशेषज्ञ दोनों देशों में हैं जिनकी पूरी विशेषज्ञता दोनों देशों के बीच अविश्वास को और बढ़ाने और टकराव को बनाए रखने में दिखाई पड़ती है. वे अतीतजीवी हैं और दोनों देशों को उसी का बंधक बनाकर रखना चाहते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे तत्वों में सबसे आगे दोनों देशों की वे धार्मिक-राजनीतिक कट्टरपंथी ताकतें भी हैं जिनकी राजनीतिक दूकान एक-दूसरे देश के विरोध और भावनाएं भड़काकर ही चलती हैं. वे यह जमीन आसानी से नहीं छोड़ने को तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे उनकी राजनीति के खत्म होने के खतरे हैं.
ऐसे तत्व खुद प्रधानमंत्री नियुक्त मोदी और पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की अपनी पार्टियों और गठबंधन के साथियों में भी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी की पाक प्रधानमंत्री को शपथ ग्रहण में बुलाने के ‘मास्टरस्ट्रोक’ का सबसे कड़ा विरोध शिव सेना जैसी उग्र अंधराष्ट्रवादी पार्टियां कर रही हैं.
यही नहीं, खुद संघ परिवार और भाजपा इस फैसले का उत्साह से स्वागत नहीं कर पा रहे हैं और इसके महत्व को कम करने के लिए इसे सिर्फ ‘शिष्टाचार’ आमंत्रण और मुलाकात बता रहे हैं. हालाँकि यह सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात नहीं है और भारत-पाकिस्तान के बीच के जटिल कूटनीतिक रिश्तों को देखते हुए सिर्फ ‘शिष्टाचार’ मुलाकात के कोई मायने भी नहीं हैं.

यह भी कि अगर यह सिर्फ एक शिष्टाचार मुलाकात है तो इसमें साहसिक पहल क्या है? उम्मीद यही करनी चाहिए कि मोदी सरकार भारत-पाकिस्तान संबंधों को सामान्य और बेहतर बनाने के लिए इस मौके को सिर्फ शिष्टाचार मुलाकात तक सीमित नहीं रहने देगी और उससे आगे बढ़ेगी.

यह ठीक है कि खुद चुनावों से पहले तक भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बतौर नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ यू.पी.ए सरकार की पाकिस्तान के प्रति नरम रवैये की कड़ी आलोचना की और उसके प्रति सख्त रुख अपनाने की वकालत की. इसके अलावा भाजपा के अनेक नेताओं का पाकिस्तान विरोध जगजाहिर है.
लेकिन इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री नियुक्त नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान से संबंध बेहतर बनने के लिए पहल कर रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए. उनसे यह अपेक्षा है कि वे नवाज़ शरीफ के भारत आने के फैसले को बेकार नहीं जाने देंगे और इस मौके को दोनों देशों के संबंधों को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल करेंगे.
इस दिशा में सबसे बेहतर कदम यह हो सकता है कि शरीफ से द्विपक्षीय मुलाकात और चर्चा के बाद प्रधानमंत्री शरीफ के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी इस साल पाकिस्तान जाने का एलान करें.

इससे दोनों देशों के बीच विभिन्न मुद्दों पर रुकी बातचीत को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी और संबंधों में एक स्थिरता और गतिशीलता आएगी. अनिश्चितता खत्म होगी. इससे उन कट्टरपंथी तत्वों और आतंकवादियों को जवाब मिलेगा जो दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य होने से रोकने के लिए हर तिकडम करते हैं. 

अगर यह साफ़ और पहले से तय होगा कि मोदी पाकिस्तान जाएंगे तो इससे उन निहित तत्वों को जोखिम लेने और आतंकवादी हमलों या सैन्य हरकतों के जरिये बातचीत और कूटनीतिक प्रयासों को पटरी से उतारने का मौका नहीं मिलेगा. वैसे भी दो पडोसी देशों के बीच उनके राष्ट्राध्यक्षों को आने-जाने में इतना संकोच और सोच-विचार करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. कई बार आने-जाने से भी रास्ते खुलते जाते हैं.             

सोमवार, मई 19, 2014

हा-हा! वामपंथ दुर्दशा देखि न जाई

क्या सरकारी वामपंथ हाशिए से अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है?

लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे यानी सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई की ऐतिहासिक हार हुई है. वाम मोर्चे का यह प्रदर्शन पिछले तीन दशकों में अब तक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. सीटों और कुल वोटों दोनों के मामलों में आई गिरावट खतरे की घंटी है. सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई दोनों की राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता खतरे में पड़ गई है. पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम और भाजपा के वोटों में सिर्फ कुछ फीसदी वोटों का ही फर्क रह गया है.
इस हार से पहले से ही हाशिए पर पहुँच चुके सरकारी वामपंथ के लिए राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने का खतरा पैदा हो गया है. लेकिन लगता नहीं है कि वाम मोर्चे के नेतृत्व खासकर सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी और उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है.

उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का व्यवहार हैरान करनेवाला है.

सी.पी.आई-एम नेताओं का कहना है कि चुनावों में त्रिपुरा और केरल में पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक है जबकि पश्चिम बंगाल में खराब प्रदर्शन के लिए तृणमूल सरकार की गुंडागर्दी, आतंकराज और बूथ कब्ज़ा जिम्मेदार है.
माकपा महासचिव प्रकाश करात का तर्क है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे वामपंथी पार्टियों की वास्तविक ताकत को प्रदर्शित नहीं करते हैं. यह सही है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल ने सरकारी मशीनरी और गुंडों की मदद से आतंकराज कायम कर दिया है जिसकी मार वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर पड़ रही है.
लेकिन क्या सिर्फ इस कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथ का प्रदर्शन इतना खराब और लगातार ढलान की ओर है? जाहिर है कि सी.पी.आई-एम का राष्ट्रीय और स्थानीय नेतृत्व सच्चाई से आँख चुरा रहा है.

क्या यह सच नहीं है कि तृणमूल के गुंडों में तीन चौथाई वही हैं जो कल तक सी.पी.आई-एम के साथ खड़े थे? हैरानी की बात नहीं है कि नंदीग्राम के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले तत्कालीन माकपा सांसद लक्षमन सेठ आज पाला बदलकर तृणमूल की ओर खड़े हैं.

यह कड़वा सच है कि पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम ने जिस हिंसा-आतंक की राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उसका बेहिचक इस्तेमाल किया है, वह पलटकर उसे निशाना बना रही है.
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सी.पी.आई-एम पश्चिम बंगाल में न सिर्फ तृणमूल सरकार की खामियों और विफलताओं को उठाने में नाकाम रही है बल्कि राजनीतिक रूप से उसकी लोकलुभावन राजनीति का जवाब खोजने में कामयाब नहीं हुई है. उसके पास न तो राज्य की राजनीति में कोई नया आइडिया और मुद्दा है और न ही राष्ट्रीय राजनीति में वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा राजनीति के लिए कोई चमकदार आइडिया पेश कर पा रही है.  
इसका नतीजा केरल में भी दिख रहा है. देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद केरल में सी.पी.आई-एम उसकी धुरी नहीं बन पाई तो उसका कारण क्या है? लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के बदतर प्रदर्शन और केरल में फीके प्रदर्शन को एक मिनट के लिए भूल भी जाएँ तो देश के अन्य राज्यों में वामपंथी पार्टियों की दुर्गति के लिए कौन जिम्मेदार है?

खासकर हिंदी प्रदेशों में सरकारी वामपंथ की ऐसी दुर्गति का क्या जवाब है? हालाँकि हिंदी प्रदेशों में वामपंथ की दुर्गति कोई नई बात नहीं है लेकिन इन चुनावों में वह लगभग अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ चला है.

इसकी वजह यह है कि हिंदी प्रदेशों और पंजाब सहित महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में आम आदमी पार्टी सरकारी वामपंथ के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर आई है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी वामपंथ ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा वैकल्पिक राजनीति को जिस तरह से सपा-राजद-जे.डी-यू-जे.डी-एस,बी.जे.डी,द्रुमुक-अन्ना द्रुमुक-वाई.एस.आर.पी जैसी उन मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी गठबंधन की बंधक और जातियों के गठजोड़ तक सीमित कर दिया है जो खुद भ्रष्टाचार और कारपोरेट-परस्त नीतियों के आरोपों से घिरी हैं.
इस कारण आज वाम मोर्चे ने अपनी स्वतंत्र पहचान खो दी है और उसे भी सपा-बसपा-आर.जे.डी जैसी तमाम मध्यमार्गी, अवसरवादी, सत्तालोलुप और कारपोरेट-परस्त पार्टियों की भीड़ में शामिल पार्टियों में मान लिया गया है जो धर्मनिरपेक्षता के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाती हैं.

कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के साथ यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निकटता और उनके दुमछल्ले की छवि सरकारी वामपंथ के लिए भारी पड़ी है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन अवसरवादी और सत्तालोलुप मध्यमार्गी पार्टियों के संग-साथ के लिए वामपंथ ने अपने रैडिकल मुद्दों को छोड़ने के साथ और विचारों को भी लचीला बना दिया है.   

हैरानी की बात नहीं है कि इन चुनावों में मुद्दों, विचारों और व्यक्तियों की लड़ाई और बहसों में वामपंथ कहीं नहीं था. ऐसा लग रहा था जैसे लड़ाई शुरू होने से पहले ही वामपंथ ने हथियार डाल दिए हों. वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग और वैचारिक रूप से दुविधा में दिख रहा था. पूरे चुनाव के कथानक में वाम राजनीति की कहीं कोई चर्चा नहीं थी. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारी वामपंथ और उसका वैचारिक-राजनीतिक दिवालियापन जिम्मेदार था.
यही नहीं, धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरह से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सरकारी वामपंथ कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है.

कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है.

आशंका यह है कि इससे सीखने के बजाय भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद सरकारी वामपंथ एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है.
यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं.   
यह सरकारी वामपंथ के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं.

लेकिन क्या सरकारी वामपंथ इसके लिए तैयार है?