क्या सरकारी वामपंथ हाशिए से अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है?
लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे यानी सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई की
ऐतिहासिक हार हुई है. वाम मोर्चे का यह प्रदर्शन पिछले तीन दशकों में अब तक का
सबसे बदतर प्रदर्शन है. सीटों और कुल वोटों दोनों के मामलों में आई गिरावट खतरे की
घंटी है. सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई दोनों की राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता खतरे में
पड़ गई है. पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम और भाजपा के वोटों में सिर्फ कुछ फीसदी
वोटों का ही फर्क रह गया है.
इस हार से पहले से ही हाशिए पर पहुँच चुके सरकारी वामपंथ के लिए
राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने का खतरा पैदा
हो गया है. लेकिन लगता नहीं है कि वाम मोर्चे के नेतृत्व खासकर सी.पी.आई-एम के
नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी और उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और
उत्साह है.
उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के
बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम
नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का व्यवहार
हैरान करनेवाला है.
सी.पी.आई-एम नेताओं का कहना है कि चुनावों में त्रिपुरा और केरल में
पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक है जबकि पश्चिम बंगाल में खराब प्रदर्शन के लिए
तृणमूल सरकार की गुंडागर्दी, आतंकराज और बूथ कब्ज़ा जिम्मेदार है.
माकपा महासचिव
प्रकाश करात का तर्क है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे वामपंथी पार्टियों की वास्तविक
ताकत को प्रदर्शित नहीं करते हैं. यह सही है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल ने सरकारी
मशीनरी और गुंडों की मदद से आतंकराज कायम कर दिया है जिसकी मार वामपंथी नेताओं और
कार्यकर्ताओं पर पड़ रही है.
लेकिन क्या सिर्फ इस कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथ का प्रदर्शन इतना
खराब और लगातार ढलान की ओर है? जाहिर है कि सी.पी.आई-एम का राष्ट्रीय और स्थानीय
नेतृत्व सच्चाई से आँख चुरा रहा है.
क्या यह सच नहीं है कि तृणमूल के गुंडों में
तीन चौथाई वही हैं जो कल तक सी.पी.आई-एम के साथ खड़े थे? हैरानी की बात नहीं है कि
नंदीग्राम के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले तत्कालीन माकपा सांसद लक्षमन सेठ आज
पाला बदलकर तृणमूल की ओर खड़े हैं.
यह कड़वा सच है कि पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम ने जिस हिंसा-आतंक की
राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उसका बेहिचक
इस्तेमाल किया है, वह पलटकर उसे निशाना बना रही है.
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात
यह है कि सी.पी.आई-एम पश्चिम बंगाल में न सिर्फ तृणमूल सरकार की खामियों और
विफलताओं को उठाने में नाकाम रही है बल्कि राजनीतिक रूप से उसकी लोकलुभावन राजनीति
का जवाब खोजने में कामयाब नहीं हुई है. उसके पास न तो राज्य की राजनीति में कोई
नया आइडिया और मुद्दा है और न ही राष्ट्रीय राजनीति में वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा
राजनीति के लिए कोई चमकदार आइडिया पेश कर पा रही है.
इसका नतीजा केरल में भी दिख रहा है. देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर
के बावजूद केरल में सी.पी.आई-एम उसकी धुरी नहीं बन पाई तो उसका कारण क्या है? लेकिन
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के बदतर प्रदर्शन और केरल में फीके प्रदर्शन को एक
मिनट के लिए भूल भी जाएँ तो देश के अन्य राज्यों में वामपंथी पार्टियों की दुर्गति
के लिए कौन जिम्मेदार है?
खासकर हिंदी प्रदेशों में सरकारी वामपंथ की ऐसी दुर्गति
का क्या जवाब है? हालाँकि हिंदी प्रदेशों में वामपंथ की दुर्गति कोई नई बात नहीं
है लेकिन इन चुनावों में वह लगभग अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ चला है.
इसकी वजह यह है कि हिंदी प्रदेशों और पंजाब सहित महाराष्ट्र आदि कई
राज्यों में आम आदमी पार्टी सरकारी वामपंथ के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर आई है. इसकी
सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी वामपंथ ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा वैकल्पिक राजनीति
को जिस तरह से सपा-राजद-जे.डी-यू-जे.डी-एस,बी.जे.डी,द्रुमुक-अन्ना
द्रुमुक-वाई.एस.आर.पी जैसी उन मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी गठबंधन की बंधक और
जातियों के गठजोड़ तक सीमित कर दिया है जो खुद भ्रष्टाचार और कारपोरेट-परस्त
नीतियों के आरोपों से घिरी हैं.
इस कारण आज वाम मोर्चे ने अपनी स्वतंत्र पहचान खो दी है और उसे भी
सपा-बसपा-आर.जे.डी जैसी तमाम मध्यमार्गी, अवसरवादी, सत्तालोलुप और कारपोरेट-परस्त
पार्टियों की भीड़ में शामिल पार्टियों में मान लिया गया है जो धर्मनिरपेक्षता के
नामपर कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाती हैं.
कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों
के साथ यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निकटता और उनके दुमछल्ले की छवि सरकारी वामपंथ
के लिए भारी पड़ी है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन अवसरवादी और सत्तालोलुप
मध्यमार्गी पार्टियों के संग-साथ के लिए वामपंथ ने अपने रैडिकल मुद्दों को छोड़ने
के साथ और विचारों को भी लचीला बना दिया है.
हैरानी की बात नहीं है कि इन चुनावों में मुद्दों, विचारों और
व्यक्तियों की लड़ाई और बहसों में वामपंथ कहीं नहीं था. ऐसा लग रहा था जैसे लड़ाई
शुरू होने से पहले ही वामपंथ ने हथियार डाल दिए हों. वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग
और वैचारिक रूप से दुविधा में दिख रहा था. पूरे चुनाव के कथानक में वाम राजनीति की
कहीं कोई चर्चा नहीं थी. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारी वामपंथ और उसका
वैचारिक-राजनीतिक दिवालियापन जिम्मेदार था.
यही नहीं, धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस
सिनिकल तरह से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए
इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सरकारी वामपंथ कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज
धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है.
कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के
विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन
की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की
सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है.
आशंका यह है कि इससे सीखने के बजाय भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद सरकारी
वामपंथ एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी
पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है.
यह आत्महत्या के अलावा और
कुछ नहीं होगा. चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और
सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और
वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं.
यह सरकारी वामपंथ के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं
संभले तो हाशिए पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने
से कोई बचा नहीं सकता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के
पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ
की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.
इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की
ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति
को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम
लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान
और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने
हैं.
लेकिन क्या सरकारी वामपंथ इसके लिए तैयार है?