बुधवार, नवंबर 13, 2013

डौंडिया खेडा की कौतुक कथा

चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक है

भारत को भले ही गांवों का देश कहा जाता हो लेकिन अपने न्यूज चैनलों पर गांव बिरले ही दिखाई देते हैं. ऐसा नहीं है कि गांवों में खबरें नहीं हैं.
गहराते कृषि संकट से लेकर किसानों की आत्महत्याओं तक और गरीबी-भूखमरी से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मामूली बीमारियों से होनेवाली मौतों तक और सामंती जुल्म और मध्ययुगीन खाप पंचायतों की बर्बरता से लेकर विकास योजनाओं की लूट के बीच ग्रामीण समाज खासकर दबे-कुचले वर्गों, युवाओं और महिलाओं की उमड़ती आकांक्षाओं तक गांवों में खबरें ही खबरें हैं. 
लेकिन चैनलों की इन खबरों और उन्हें रिपोर्ट करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. कारण, उन्हें ये खबरें ‘डाउन मार्केट’ लगती हैं. उनका मानना है कि उनके शहरी मध्यवर्गीय दर्शकों की इसमें कोई रूचि नहीं है. नतीजा, चैनलों से गांव गायब हैं. कुछ इस हद तक कि उन्हें देखकर नहीं लगेगा कि भारत में गांव भी हैं जहाँ इस देश के ६० फीसदी से ज्यादा लोग रहते हैं.

चैनलों पर अगर कभी भूले-भटके गांव दिखते भी हैं तो उसकी वजह किसी बड़े नेता का उस गांव का दौरा होता है जिसके पीछे-पीछे चैनल और उनके पत्रकार गांव तक जाते और वैसे ही लौट आते हैं. फोकस नेता पर होता है और गांव पृष्ठभूमि में ही रहता है. राहुल गाँधी की टप्पल यात्रा याद कीजिए.

लेकिन ठहरिये, चैनल खुद अपनी पहले पर भी कभी-कभार गांव जाते हैं. उन्हें गांव की याद तब आती है जब वहां कोई बहुत असामान्य, अजीबोगरीब और कौतुकपूर्ण घटना हो. जैसे कुछ सालों पहले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में एक ज्योतिषी कुंजीलाल ने एलान कर दिया कि वह दो दिन बाद मरनेवाला है.
फिर क्या था? उत्साह और उत्तेजना से भरे सारे चैनल अपनी ओ.बी वैन के साथ वहां पहुँच गए और कई दिनों तक कुंजीलाल को लाइव दिखाया गया. ऐसे ही, चैनलों ने हरियाणा के एक गांव में बोरवेल में गिरकर फंस गए ५ साल के प्रिंस को बचाने के अभियान की ७२ से ९६ घंटों तक लाइव कवरेज की थी.
इसी तरह, कारगिल युद्ध के दौरान लापता घोषित सैनिक के कुछ सालों पहले अचानक मेरठ के अपने गांव पहुँचने, वहां उसकी पूर्व पत्नी की दूसरी शादी और उससे पैदा हुए प्रसंग को चैनलों ने जबरदस्त मेलोड्रामा बनाकर पेश किया. कई दिनों तक उस गांव में चैनलों का मेला लगा रहा.

इसी कड़ी में इस बार उन्नाव के डौंडिया खेडा की लाटरी खुल गई जहाँ एक बाबा शोभन सरकार को सपना आया कि गांव के एक किले के नीचे हजार टन सोना दबा है. कहते हैं कि बाबा और उनके शिष्यों ने एक केन्द्रीय मंत्री को प्रेरित किया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई) वहां खुदाई करने पहुँच गया.

ऐसे में, चैनल कहाँ पीछे रहनेवाले थे? ए.एस.आई के पीछे-पीछे चैनल भी बाबा के सपने सोने पर दांव लगाने पहुँच गए. चैनलों पर डौंडिया खेडा लाइव शुरू हो गया. गांव में मीडिया का पूरा मेला सा लग गया. चैनलों की उत्तेजना और उत्साह देखते ही बनता था.
डौंडिया खेडा जल्दी पीपली लाइव में बदल गया. 24x7 पल-पल की रिपोर्ट दी जाने लगी- ‘कितनी, कैसे और कहाँ खुदाई हुई, किन औजारों का इस्तेमाल किया गया, खुदाई की नई तकनीक क्या है, वहां क्या माहौल है’ से लेकर बाबा शोभन सरकार के रहस्य और सोना मिलेगा या नहीं, कितना सोना मिलेगा, उसपर किसका अधिकार होगा और हजार टन सोने से देश की कितनी समस्याएं हल हो जाएंगी आदि-आदि.
यह और बात है कि यहाँ भी डौंडिया खेडा पृष्ठभूमि में और सोने की खोज की कौतुक कथा फोकस में थी. अफ़सोस, अन्धविश्वास के सोने की चमक से चौंधियाए चैनलों को एक बार फिर डौंडिया खेडा जैसे गांवों का असली दर्द नहीं दिखाई दिया.

असल में, कुंजीलाल, गुडिया, प्रिंस से शोभन सरकार तक चैनलों की गांव यात्रा और कुछ नहीं, कौतुक कथाओं की खोज भर है. चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक बना हुआ है. डौंडिया खेडा इसका ताजा सबूत है. 

('तहलका' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)             

रविवार, नवंबर 10, 2013

लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों का संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है

क्यों महत्वपूर्ण है लक्ष्मणपुर-बाथे का मुद्दा?

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
ध्यान रहे कि पिछले कुछ सालों में बिहार में दलितों के नरसंहार के कम से कम चार मामलों में हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों को पलटते हुए सभी अभियुक्तों को बरी करने का फैसला सुनाया है.
लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में ताजा फैसले से पहले पिछले साल बिहार के भोजपुर जिले के बथानी-टोला गांव में २१ निर्दोष दलित-मुस्लिम महिलाओं, बच्चों और पुरुषों के नरसंहार मामले में भी पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए २३ अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया था.
हालाँकि आरा सेशन कोर्ट ने इस मामले में कुल ६८ आरोपियों में से तीन को फांसी और २० को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
क्या यह एक निश्चित पैटर्न की ओर इशारा नहीं करता है? उदाहरण के लिए, बिहार के मियांपुर, नगरी, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे में अलग-अलग घटनाओं में कुल ११३ निर्दोष गरीब दलित-पिछड़े-मुस्लिम महिलाओं-बच्चों और पुरुषों के नृशंस नरसंहार का आरोप रणवीर सेना पर लगा, तमाम दबावों-धमकियों के बावजूद दर्जनों प्रत्यक्षदर्शियों ने गवाही देने की हिम्मत दिखाई, निचली अदालतों ने इन गवाहियों और सबूतों का संज्ञान लिया और कई आरोपियों को फांसी से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा भी सुनाई.

लेकिन इसके बावजूद इन सभी मामलों में पटना हाई कोर्ट ने गवाहों को अविश्वसनीय मानते हुए और जांच में तकनीकी चूकों का हवाला देते हुए सभी अभियुक्तों को ‘संदेह का लाभ’ देकर बरी कर दिया.        

गोया मियांपुर से लेकर लक्ष्मणपुर-बाथे तक सामूहिक तौर पर मारे गए गरीब दलितों का नरसंहार किसी ने नहीं किया हो और वे खुद ही मर गए हों! इस फैसले से यही अर्थ निकलता है. सवाल यह है कि आखिर इन नरसंहारों में मारे गए ११३ निर्दोष गरीब दलितों की निर्मम हत्याओं के लिए कौन जिम्मेदार है?
हाई कोर्ट का कहना है कि पुलिस और अभियोजन पक्ष ने जांच ठीक से नहीं की, निर्दोषों को इस मामले में फंसाया और असली दोषियों की खोज नहीं की जिसके कारण इन नरसंहारों के दोषी बच निकले. यह और बात है कि इन सभी मामलों में निचली अदालतों ने इसी जांच, गवाहियों और सबूतों को विश्वसनीय मानते हुए आरोपियों को कड़ी सजा सुनाई थी.
सवाल यह भी है कि नरसंहार के इन सभी मामलों में हाई कोर्ट के फैसलों के आलोक में क्या इनकी जांच करनेवाले पुलिस अधिकारियों की लापरवाही, अपराधियों को पकड़ने और ठोस सबूत जुटाने में उनकी नाकामी की जांच होगी? क्या इन पुलिस अफसरों की जवाबदेही तय होगी?

मुश्किल यह है कि इन नरसंहारों की जांच के लिए तत्कालीन राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित अमीर दास आयोग को जांच रिपोर्ट देने से पहले ही राज्य में ‘सुशासन’ और ‘न्याय के साथ विकास’ के दावे करनेवाली नीतिश कुमार की सरकार ने भंग कर दी.

सवाल यह है कि अमीर दास आयोग को क्यों भंग किया गया? यह भी कि क्या हाई कोर्ट के इन फैसलों के बाद बिहार की नीतिश सरकार को अपने फैसले पर कोई अफसोस और शर्मिंदगी है?

ये सवाल उठाने इसलिए जरूरी हैं कि बिहार में गरीब दलितों-पिछडों-अल्पसंख्यकों के नरसंहार के मामलों में कानून और न्याय का जिस तरह से मजाक उड़ाया जा रहा है, नरसंहारों के अपराधी साफ़ बच निकल रहे हैं, उससे यह सन्देश जा रहा है कि दलित न सिर्फ दूसरे दर्जे के नागरिक हैं बल्कि उनके सामूहिक नरसंहार जैसे गंभीर मामलों में भी अपराधियों को कोई सजा नहीं होती है.
क्या यही कारण नहीं है कि बिहार में ७० के दशक से दलितों के नरसंहार की दो-चार-आठ नहीं बल्कि कुल ८७ से ज्यादा घटनाएं हुई हैं खासकर ९० के दशक में सवर्ण अपराधियों की रणवीर सेना ने कानून के राज को खुलेआम धता बताते हुए दलितों का कत्लेआम किया?
लेकिन दलितों को दूसरे दर्जे का नागरिक बल्कि जानवरों से भी बदतर समझने की यह मध्ययुगीन मानसिकता बिहार तक सीमित नहीं है. कमोबेश पूरे देश में यह मानसिकता अपनी पूरी विद्रूपता के साथ मौजूद है. कारण वही हैं.

दलितों की हत्या-नरसंहार से लेकर दलित उत्पीडन मामलों में दोषियों को बिरले ही सजा होती है. महाराष्ट्र में खैरलांजी नरसंहार हो या आंध्र प्रदेश में करमचेदू नरसंहार जैसी बहुचर्चित घटनाएं इसकी सबूत हैं. आश्चर्य नहीं कि बिहार ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी दलितों के सामूहिक नरसंहार, दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उनपर अमानवीय जुल्म-उत्पीडन ढाने की घटनाएं रोजाना खबरों में आती रहती हैं.

दूर क्यों जाएँ, देश की राजधानी दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर हरियाणा में दलित समुदाय को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, दैनिक अपमान-उत्पीडन और सामूहिक बहिष्कार से लेकर दलित बस्ती जलाने, उनके घरों में लूटपाट करने, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों की हत्याएं आम हैं लेकिन दलितों को पुलिस में एफ.आई.आर लिखाने तक में संघर्ष करना पड़ता है और अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं, वह किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है.
लेकिन हरियाणा में यह आम बात है और सबसे अधिक अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि पुलिस-प्रशासन से लेकर राज्य सरकार और कांग्रेस-भाजपा-लोकदल जैसी प्रमुख पार्टियों तक ने मध्ययुगीन जातिवादी खाप पंचायतों के आगे घुटने टेक रखा है.  
चैनलों के लिए टेस्ट केस था लक्ष्मणपुर-बाथे

लेकिन इस मामले में खाप पंचायतों के आगे केवल राजनीतिक पार्टियां, पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार ने ही घुटने नहीं टेक रखे हैं बल्कि अधिकांश अखबारों/चैनलों ने भी घुटने टेक रखे हैं. हरियाणा में दलित उत्पीडन की घटनाओं की रिपोर्टें दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबारों और न्यूज चैनलों में अपवाद की तरह ही दिखती हैं, उसपर सम्पादकीय पन्नों या प्राईम टाइम चर्चा तो और भी दुर्लभ है.

इसी तरह राष्ट्रीय अखबारों/चैनलों में चाहे खैरलांजी नरसंहार और बलात्कार मामला हो या तमिलनाडु में संगठित तरीके से दलित समुदाय को निशाना बनाने की घटनाएं- वे कभी-कभार ही जगह बना पाती हैं. यही नहीं, इन मामलों की रिपोर्टिंग में अधिकांश न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में वह नैतिक उद्वेलन और क्षोभ नहीं दिखाई देता है जो जेसिका लाल या प्रियदर्शिनी मट्टू या निर्भया या इस जैसे अन्य मामलों में दिखता रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि इक्का-दुक्का अख़बारों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/न्यूज चैनलों ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में हाई कोर्ट के फैसले को अनदेखा किया और उसे प्राइम टाइम चर्चाओं और विशेष रिपोर्ट के लायक नहीं माना.
भले लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया था लेकिन न्यूज मीडिया और न्यूज चैनलों को इसमें कोई शर्म नहीं दिखाई देता है और न ही उन्हें अपनी आत्मा पर कोई बोझ महसूस होता है. इसलिए चैनलों में हाई कोर्ट के फैसले पर कोई सवाल नहीं है या लक्ष्मणपुर-बाथे के पीड़ितों को न्याय नहीं मिलने की कोई बेचैनी नहीं दिखाई देती है.
साफ़ है कि जिस तरह से दलितों के संगठित और सुनियोजित अपमान-उत्पीडन, बलात्कार और नरसंहार के अधिकांश मामलों में पुलिस-प्रशासन, राज्य सरकारें और राजनीतिक दल सवर्ण मध्ययुगीन सामंती गिरोहों, सेनाओं, खापों के हमलों में सक्रिय भागीदार दिखते हैं, उसी तरह न्यूज मीडिया खासकर चैनल भी इन हमलों को अनदेखा करने या उन्हें दबाने के कारण उसमें परोक्ष भागीदार दिखाई देते हैं.

असल में, चैनलों सहित पूरे न्यूज मीडिया में दलितों पर होनेवाले संगठित अत्याचारों और उत्पीडन के मामलों में जिस तरह की बेखबरी और उदासीनता दिखाई देती है, वह कोई संयोग नहीं है. उसमें एक सुनिश्चित पैटर्न साफ़ देखा जा सकता है.

दरअसल, ‘समाचार’ भी एक ‘सामाजिक निर्मिति’ (सोशल कंस्ट्रक्ट) हैं. इस कारण ‘समाचार’ तैयार करने और उसे पेश करनेवाले पत्रकारों, संपादकों और स्तम्भ लेखकों से लेकर न्यूज मीडिया कंपनियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य, वैचारिकी, निजी-संस्थागत हित और व्यापक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक ढांचे में उनकी अवस्थिति की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.
इन सभी का ‘समाचारों’ के संकलन से लेकर प्रस्तुति तक में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ में दलितों पर अत्याचार-उत्पीडन के मुद्दे ही ‘अस्पृश्य’ नहीं हैं बल्कि उसके अंदर दलित समुदाय के पत्रकार, एंकर, संपादक, चर्चाकार और स्तंभ लेखक भी पूरी तरह से अनुपस्थित हैं.
जाहिर है कि इन दोनों तथ्यों के बीच के अंतर्संबंध को अनदेखा करना मुश्किल है. इसी तरह इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि चैनल जिस वर्चस्वशाली सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वर्ग के वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके हित और सबसे दबे-कुचले और सर्वहारा दलित समुदाय के हितों के बीच स्पष्ट टकराव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि दलित उत्पीडन, बलात्कार से लेकर नरसंहार तक की घटनाएं इसी टकराव का नतीजा हैं. यह भी दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस टकराव में न्यूज चैनल कहाँ और किस ओर खड़े हैं. इस मुकाम पर आकर चैनलों के ‘जनतंत्र’ का असली चेहरा साफ़ हो जाता है.

असल में, लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों के ‘जनतंत्र’ का सीमित-संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है. इस मायने में लक्ष्मणपुर-बाथे एक टेस्ट केस था कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ का कितना विस्तार हुआ है लेकिन अफ़सोस यह है कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनल इसमें एक बार फिर फेल हो गए.
 
('कथादेश' के नवंबर'13 अंक में प्रकाशित स्तंभ)

गुरुवार, नवंबर 07, 2013

चैनलों के ‘जनतंत्र’ में दलितों के लिए जगह नहीं है

लक्ष्मणपुर बाथे पर चुप क्यों हैं चैनल? 

पहली क़िस्त

एक ऐसे दौर में जब कई न्यूज चैनल देश की ‘अंतरात्मा की आवाज़’ होने का दावा कर रहे हैं, स्टूडियो में रोजाना प्राइम टाइम अदालतें लगा रहे हैं, देश की स्वयंभू आवाज़ बनकर जोरशोर से सवाल पूछ रहे हैं, भ्रष्टाचार से लेकर बलात्कार तक के खिलाफ लड़ाई में खुद को सबसे बड़े धर्मयोद्धा घोषित कर चुके हैं, उस समय यह जानते हुए भी कि वे खुद से सवाल पूछा जाना पसंद नहीं करते हैं और अपने को हर सवाल से ऊपर मानते हैं, उनसे भी सवाल पूछने और कटघरे में खड़े करने का समय आ गया है.
सवाल बहुत सीधा सा है. वह यह कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ में समाज के हाशिए पर पड़े दलित समुदाय के लिए कितनी जगह है?
हालाँकि यह सवाल नया नहीं है लेकिन कई कारणों से एक बार फिर मौजूं हो गया है. सबसे ताजा कारण यह है कि वर्ष १९९७ में बिहार के लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में ५८ निर्दोष दलित महिलाओं, बच्चों और पुरुषों के नृशंस नरसंहार के मामले में कोई तेरह साल बाद निचली अदालत से फांसी और आजीवन कारावास की सजा पाए सभी अभियुक्तों को पटना हाई कोर्ट ने हाल ही में संदेह का लाभ देते हुए बरी करने का फैसला सुनाया है.

इस फैसले के बाद से चैनलों की ‘अंतरात्मा की आवाज़’ को जैसे सांप सूंघ गया है. वैसे चैनलों के कोलाहल भरे ‘जनतंत्र’ में सचिन की रिटायमेंट से लेकर एक स्वयंभू स्वामी के सपने के आधार पर उन्नाव के एक गांव में हजार टन सोने की खोज और नरेन्द्र मोदी की रैलियों से लेकर राहुल गाँधी के भाषणों पर उत्तेजना भरी बहसें बदस्तूर जारी हैं लेकिन ५८ दलितों के नरसंहार के मामले में किसी को भी सजा न मिलने और सभी आरोपियों के बरी होने पर एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी को साफ़ सुना जा सकता है.

चैनलों की यह चुप्पी चौंकानेवाली है क्योंकि जेसिका लाल से लेकर प्रियदर्शिनी मट्टू की हत्या के मामलों में अदालतों ने जब अभियुक्तों को बरी कर दिया था, इन्हीं चैनलों ने और सही ही सिर आसमान पर उठा लिया था. इन मामलों में चैनलों ‘अंतरात्मा’ जितनी तेजी से जगी और सक्रिय हुई, उसके कारण ‘देश की अंतरात्मा’ भी हिल उठी. उसके कारण इन मामलों में केस फिर से खुला, दोबारा जांच हुई, सबूत इकठ्ठा किये गए, पुख्ता गवाह पेश किये गए और नतीजा, हाई प्रोफाइल अभियुक्तों को सजा भी हुई.
इसी तरह पिछले साल १६ दिसम्बर को दिल्ली में निर्भया के साथ हुए नृशंस बलात्कार मामले में भी चैनलों और समूचे न्यूज मीडिया की सक्रियता और छात्र-युवाओं-महिलाओं के आंदोलनों के कारण संसद को न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ होनेवाली यौन हिंसा पर रोक लगाने के लिए सख्त कानून बनाने पर मजबूर होना पड़ा बल्कि बलात्कार के दोषियों को विशेष अदालत ने रिकार्ड समय में फांसी की सजा भी सुना दी. 
लेकिन लगता है कि लक्ष्मणपुर-बाथे में १६ साल पहले मारी गईं ५८ दलित महिलाएं-बच्चे और पुरुषों की कराह और आंसू न्यूज चैनलों की ‘अंतरात्मा’ को झकझोरने के लिए काफी नहीं थे. ऐसा लगता है कि इस मामले में चैनलों की ‘अंतरात्मा’ सो गई है या उसे लकवा मार गया है.

संभव है कि कई चैनलों को इस फैसले की ‘खबर’ तक नहीं हो क्योंकि उन चैनलों पर इस फैसले की खबर तक नहीं चली है. यह भी हो सकता है कि हाई कोर्ट का यह फैसला कई चैनलों की ‘समाचार’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठता हो.

इसमें तो कोई दो-राय नहीं है कि किसी न्यूज चैनल के स्टार एंकर/संपादक को यह इतनी बड़ी खबर या मुद्दा नहीं लगा कि वे इस फैसले को प्राइम टाइम चर्चा के लायक समझते और देश की अंतरात्मा से सवाल पूछते.  

चैनलों पर प्राइम टाइम बहस के मुद्दे
ऐसा नहीं है कि इस दौरान कोई इतनी बड़ी ‘खबर’ आ गई कि यह खबर पीछे छूट गई या उसे प्राइम टाइम चर्चा के लायक नहीं माना गया. लक्ष्मणपुर-बाथे मामले में पटना हाई कोर्ट का फैसला ९ अक्टूबर को आया और अगले एक सप्ताह तक चैनलों पर बाथे के मुद्दे को छोड़कर अनेकों मुद्दों पर चर्चा और गरमागरम बहस हुई.

यही नहीं, इसी दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने देश में दलितों की बदहाल स्थिति का उल्लेख करते हुए स्वीकार किया कि उनकी स्थिति बेहतर करने के लिए उन्हें वृहस्पति की गति से आगे बढ़ना पड़ेगा. कुछ चैनलों में इस मुद्दे पर चर्चा हुई लेकिन लक्ष्मणपुर-बाथे को उल्लेख के लायक भी नहीं माना गया.

इस दौरान (९-१५ अक्टूबर) अगर कुछ प्रमुख चैनलों पर हुई प्राइम टाइम बहसों के विषयों पर गौर करें तो यह साफ़ हो जाता है कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ में दलितों के लिए हाशिए की जगह भी नहीं है.
एन.डी.टी.वी-इंडिया के प्राइम टाइम में ९ अक्टूबर से १५ अक्टूबर के बीच हुई बहसों के मुद्दे

९ अक्टूबर- क्या राहुल राज की तैयारी में है कांग्रेस (एंकर: सिक्ता देव)
११ अक्टूबर- राजा भैया क्यों है जरूरी (एंकर: सिक्ता देव)
१२-१३ अक्टूबर- शनिवार और रविवार को प्राइम टाइम चर्चा नहीं होती है

१४ अक्टूबर- अगला चुनाव: कांग्रेस बनाम आर.एस.एस (एंकर: रवीश कुमार)
१५ अक्टूबर- मुस्लिमों को मोदी का डर दिखा रही है कांग्रेस? (एंकर: रवीश कुमार)

 ‘आई.बी.एन-७’ पर आशुतोष के कार्यक्रम ‘एजेंडा’ (रात ८ से ९ बजे) में ९ अक्टूबर से १५ अक्टूबर तक निम्नलिखत विषयों पर चर्चा हुई:

९ अक्टूबर- क्या सत्ता संभालने के लिए तैयार हो गए हैं राहुल गाँधी?
१० अक्टूबर- क्या सचिन ने सही वक्त पर सन्यास का एलान किया है?

११ से १३ अक्टूबर: शुक्रवार से रविवार तक ‘एजेंडा’ कार्यक्रम नहीं आता है

१४ अक्टूबर- भगदड़ को प्रशासन क्यों नहीं रोक पाता? (मध्यप्रदेश के दतिया जिले में रतनगढ़ मंदिर में हुई दुर्घटना पर)
१५ अक्टूबर- प्रियंका की एंट्री पर क्यों हिचकती है कांग्रेस?

‘आज तक’ पर पुण्य प्रसून वाजपेयी के कार्यक्रम ‘१० तक’ (रात १० से १०.३० बजे तक; सोमवार से शनिवार) में इन विषयों पर चर्चा हुई:

१० अक्टूबर- चुनावी शंखनाद और गाँधी मैदान को लेकर क्यों घबराए नीतिश
११ अक्टूबर- चुनावी वायदे पूरी नहीं कर पाई यू.पी सरकार और राहुल ने दिखाया ३६० का सपना

१२ अक्टूबर- तेरे बिन सचिन
१४ अक्टूबर- बदलते रहे पी.एम लेकिन आज भी खड़े हैं अजेय अमिताभ और सचिन

१५ अक्टूबर- कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की पुकार, फूलपुर से चुनाव लडें प्रियंका 

इसी तरह ‘टाइम्स नाउ’ में हमेशा गरजनेवाले और देश की ओर से नियुक्त आम आदमी के वकील अर्नब गोस्वामी ने अनेकों मुद्दों पर बात की लेकिन लक्ष्मणपुर बाथे को उन्होंने ‘देश की अंतरात्मा’ के अनुकूल नहीं पाया. ९ अक्टूबर से १५ अक्टूबर के बीच उनके दैनिक ‘न्यूजआवर’ (१.३० घंटे से २ घंटे के कार्यक्रम) में अनेकों मुद्दे उठाये गए:    

९ अक्टूबर- राहुल बनाम मोदी, माया बनाम मुलायम
१० अक्टूबर- सचिन के रिटायरमेंट

११ अक्टूबर- राजा भैया को मंत्रिमंडल में शामिल किये जाने पर और चक्रवात पेलिन पर विशेष चर्चा
१२-१३ अक्टूबर को अवकाश   

१४ अक्टूबर- अमित शाह के बहाने मोदी पर निशाना और दूसरी चर्चा अयोध्या के बहाने राजनीति और बाबा रामदेव पर विशेष चर्चा 
१५ अक्टूबर- मौलाना महमूद मदनी के बयान पर चर्चा और साइबरस्पेस पर वर्चस्व को लेकर चर्चा

कमोबेश सभी चैनलों का यही हाल था, जहाँ संकीर्ण राजनीतिक मुद्दों से लेकर हर तरह के सतही मुद्दों पर गर्मागर्म चर्चा और बहस हुई लेकिन लक्ष्मणपुर-बाथे का मुद्दा चैनलों के लिए ‘अस्पृश्य’ बना रहा.
लेकिन जैसे पटना हाई कोर्ट का दलितों के नरसंहार के मामलों में आरोपियों को बरी करने का ताजा फैसला, पहला फैसला नहीं है, वैसे ही न्यूज चैनलों की ‘अंतरात्मा’ भी पहली बार सोती हुई नहीं दिखी है.
जारी .... 

शनिवार, नवंबर 02, 2013

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को आमलोगों की हक-हुकूक की लड़ाई से जोड़ना होगा

९० के दशक की छात्र राजनीति के सबक: साम्प्रदायिकता का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति ही सकती है 

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है. चुनावी आंच पर एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता की खिचड़ी पकाने की तैयारी होने लगी है. पिछले चार-साढ़े चार साल से जो बढ़ती साम्प्रदायिकता को अनदेखा करते रहे या उससे कभी खुले-कभी छिपे प्रेम की पींगें बढ़ाते रहे या भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगते रहे या फिर केन्द्र या प्रदेश में राज करते हुए जनता से किये गए वायदों को भुलाकर सत्ता की मलाई का लुत्फ़ उठाते रहे, उन सभी को साम्प्रदायिकता की चिंता सताने लगी है.
खुद को सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ शुरू हो गई है और एक बार फिर से साम्प्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और लड़ाई की दुहाई दी जाने लगी है.
ऐसा लगता है जैसे हर चुनाव से पहले होनेवाला कोई पांच साला कर्मकांड शुरू हो गया है. हमेशा की तरह एक बार फिर इस कर्मकांड की मुख्य पंडित- वामपंथी पार्टियां हैं जो केन्द्र की अगली सरकार में अपनी जगह पक्की करने और सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए बेचैन यजमानों को चुनावी युद्ध में उतरने से पहले धर्मनिरपेक्षता का मन्त्र पढ़ाने में जुट गई हैं. वे एक बार फिर यजमानों को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांट रही हैं, भले ही यजमान चार महीने पहले तक सांप्रदायिक खेमे का बड़ा सिपहसालार था.

यही नहीं, वामपंथी पार्टियां भी अच्छी तरह से जानती हैं कि अगले चुनावों से पहले कोई गैर कांग्रेस-गैर भाजपा धर्मनिरपेक्ष तीसरा मोर्चा नहीं बनने जा रहा है, सबने चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं और इनमें से कई चुनावों के बाद फिर भाजपा के साथ गलबहियां करते हुए दिख जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि ठीक चुनावों से पहले साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने और चुनावों के बाद नतीजों के मुताबिक कभी धर्मनिरपेक्षता के झंडे के नीचे सत्ता की मलाई काटने और कभी उस झंडे को लपेट कर कुर्सी के नीचे रख देने और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सत्ता सुख भोगने की अवसरवादी राजनीति की कलई खुल चुकी है.
सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा वास्तव में बढ़ता जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लगातार कमजोर होती जा रही है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी अलमबरदारों ने इस लड़ाई को चुनावी रणनीति और गणित तक सीमित करके निहायत अविश्वसनीय और मजाक का विषय बना दिया है.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई आमजन के बुनियादी सवालों- रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, बिजली-सड़क-पानी, सुरक्षा, अमन-चैन आदि और हक-हुकूक से कटकर नहीं हो सकती है.

मुझे याद है कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों में जब देश खासकर उत्तर भारत साम्प्रदायिकता के बुखार में तप रहा था, भगवा ब्रिगेड के नेतृत्व में एक अत्यंत जहरीले साम्प्रदयिक अभियान के बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, देश के कई हिस्सों में भड़के दंगों में हजारों लोग मारे गए थे और सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें परवान चढती दिख रही थीं, उस समय हमने पूरे उत्तर प्रदेश के परिसरों में छात्रों-युवाओं के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) की अगुवाई में साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी.

मुझे वे दिन आज भी याद है जब हमने साम्प्रदायिकता के खिलाफ छात्रों-नौजवानों को गोलबंद करने के लिए परिसरों में नारा दिया था- ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए/ जीने का अधिकार चाहिए.’
नतीजा यह हुआ कि १९९२-९३ में इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमाऊं, लखनऊ, गोरखपुर आदि कई विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनावों में आइसा ने भगवा हिंदुत्व की चैम्पियन ए.बी.वी.पी, नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा रही कांग्रेस के छात्र संगठन- एन.एस.यू.आई और सामाजिक न्याय के नामपर जातिवादी गोलबंदी करने में जुटी छात्र जनता और छात्र सभा जैसे संगठनों को हारने में कामयाबी हासिल की. उसी दौर में दशकों बाद बी.एच.यू में छात्रसंघ में मैं भी एक वामपंथी छात्र कार्यकर्ता के बतौर छात्रसंघ चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बना था.
लेकिन मुझे इसका कोई मुगालता नहीं है कि वह मेरी या आइसा की जीत थी बल्कि वह सांप्रदायिक फासीवाद और नव उदारवादी अर्थनीति की राजनीति का पूर्ण नकार और सामाजिक न्याय की सीमित-संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक नकार था. यह एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी के पक्ष में आम छात्रों का जनादेश था.

इस जीत ने साफ़ कर दिया था कि साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी से ही किया जा सकता है. इस जीत का सबक यह था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई आमलोगों के रोजी-रोटी और हक-हुकूक से जुड़े बिना कामयाब नहीं हो सकती है.

असल में, आमलोगों के दुःख-दर्दों से जुड़े बिना और उनके दैनिक जीवन के संघर्षों और हक-हुकूक की लड़ाई से जुड़े बिना साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की गोलबंदी एक अवसरवादी सत्तालोलुप राजनीति का पर्याय बन जाती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सांप्रदायिक राजनीति की चैम्पियन के बतौर भाजपा के उभार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मध्यमार्गी और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्होंने अपनी सुविधा और अवसर के मुताबिक कभी भाजपा के साथ सत्ता की मलाई काटी और कभी उसका विरोध करके सत्ता सुख भोगा.
यही नहीं, इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी जनविरोधी अर्थनीति और राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन, परिवारवाद और तमाम गडबडियों पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है.
चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की यह अवसरवादी राजनीति सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता को ही पहुंचा रही है. इससे आमलोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति ‘सिनिकल’ होते जा रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए के राज में बढ़े भ्रष्टाचार, आसमान छूती महंगाई और रोजगार के घटते अवसरों के खिलाफ लोगों के गुस्से को दिशा देने में प्रगतिशील-लोकतांत्रिक राजनीति की नाकामी का सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक राजनीति उठा रही है. यह देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समता के बुनियादी मूल्यों के लिए खतरे की घंटी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के २ नवम्बर के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित)