चैनलों की स्मृति प्राइम टाइम तक सीमित हो गई लगती है
नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.
हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्ववाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि विधानसभा के चुनाव में जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी.
न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहाँ से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो.
सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.
('तहलका' के 30 दिसंबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
“यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के
ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं.”
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जार्ज
बर्नार्ड शा
बर्नार्ड शा का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही
सटीक बैठता है. अपने न्यूज चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी
हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल/मिनट/घंटे/प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे
उस घंटे/दिन और प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख
पाते हैं.नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.
हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्ववाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि विधानसभा के चुनाव में जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी.
न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहाँ से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो.
मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक
आप पार्टी की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे या
कुछ उसे पूरी तरह ख़ारिज कर रहे थे या फिर कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे.
लेकिन
नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप
का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई
का इतिहासबोध जवाब देने लगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप ने उम्मीदों से कहीं
ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक
भी है लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत.
असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो
लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोष से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर
कर दिया गया हो. हालाँकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है लेकिन इसके साथ ही चैनलों से
अनुपात बोध भी गधे के सिर से सिंघ की गायब हो गया है. सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.
लेकिन अनुपातबोध बनाए रखने के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें
इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन
बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में
आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि
कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली
है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक सन्दर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की
भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उसपर लहालोट होकर कर रहे हैं.
कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो
प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे
कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति
और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें
इसी तरह हैरान करते रहेंगे.('तहलका' के 30 दिसंबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)