सोमवार, दिसंबर 23, 2013

चैनलों का इतिहासबोध

चैनलों की स्मृति प्राइम टाइम तक सीमित हो गई लगती है 

“यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं.”
-    जार्ज बर्नार्ड शा   
बर्नार्ड शा का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठता है. अपने न्यूज चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल/मिनट/घंटे/प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे उस घंटे/दिन और प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख पाते हैं.

नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.
 
हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्ववाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि विधानसभा के चुनाव में जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी.

न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहाँ से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो.

मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक आप पार्टी की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे या कुछ उसे पूरी तरह ख़ारिज कर रहे थे या फिर कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे.
लेकिन नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई का इतिहासबोध जवाब देने लगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप ने उम्मीदों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक भी है लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत.       
असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोष से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर कर दिया गया हो. हालाँकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है लेकिन इसके साथ ही चैनलों से अनुपात बोध भी गधे के सिर से सिंघ की गायब हो गया है.

सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.

लेकिन अनुपातबोध बनाए रखने के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक सन्दर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उसपर लहालोट होकर कर रहे हैं.
कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें इसी तरह हैरान करते रहेंगे.

('तहलका' के 30 दिसंबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)         

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

क्यों जा रहा है वामपंथ हाशिए पर?

आम आदमी पार्टी से क्या सीख सकता है वामपंथ?

हालिया विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की भारी हार, भाजपा की प्रभावी जीत और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के चमकदार प्रदर्शन ने राष्ट्रीय राजनीति खासकर उत्तर भारत में वामपंथ की सिकुड़ती भूमिका और उसके लगातार हाशिए पर खिसकते जाने की प्रक्रिया को एक बार फिर रेखांकित किया है.

यह सच है कि इन पाँचों राज्यों में छिटपुट इलाकों को छोड़कर मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों और दूसरी रैडिकल वामपंथी शक्तियों की राजनीतिक-सांगठनिक रूप से कोई खास मौजूदगी नहीं थी, इसके बावजूद सभी रंग और विचारों के वामपंथी दलों और संगठनों के लिए बड़ी चिंता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनीति का दक्षिणपंथी झुकाव बढ़ता जा रहा है और वामपंथ हाशिए पर जा रहा है.
यही नहीं, वामपंथी पार्टियों के लिए चिंता की बात यह भी है कि कांग्रेस और भाजपा और यहाँ तक कि पारंपरिक मध्यमार्गी क्षेत्रीय पार्टियों से ऊबे और नाराज मतदाताओं के जरिये बन रहे ‘तीसरे स्पेस’ के एक वैकल्पिक दावेदार और नेता के बतौर आम आदमी पार्टी सामने आ गई है जिसके शानदार प्रदर्शन की धमक दिल्ली से बाहर देश के बड़े हिस्से में सुनाई पड़ रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियां खुद को इस ‘तीसरे स्पेस’ की स्वाभाविक दावेदार मानती रही हैं और अगले आम चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी क्षेत्रीय दलों के ढीले-ढाले तीसरे मोर्चे को खड़ा करने के मनसूबे बाँध रहे थे.

लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत ने इस वामपंथी पार्टियों के तीसरे मोर्चे के माडल की राजनीतिक वैधता पर सवालिया निशान लगा दिया है.
आखिर भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, कुशासन, बदतर कानून-व्यवस्था, बिजली-सड़क-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य की खराब स्थिति से लेकर जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट तक और धनबल-बाहुबल-लालबत्ती की राजनीतिक संस्कृति से लेकर आम जनता के साथ संवाद के मामले में कांग्रेस और भाजपा की सरकारों की तुलना में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय दलों की सरकारों का प्रदर्शन कहाँ से बेहतर है?
उल्टे कई मामलों में वे कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से बदतर ही हैं. आखिर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार किस मामले में कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से बेहतर है?  
यही नहीं, पिछले दो-ढाई दशकों में सिर्फ सत्ता की मलाई में हिस्से के लिए माकपा के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे की पहल पर बननेवाले अवसरवादी तीसरे मोर्चे की हकीकत लोगों को पता चल चुकी है. हैरानी की बात नहीं है कि २००९ के आम चुनावों से ठीक पहले परमाणु समझौते के खिलाफ यू.पी.ए-एक से बाहर निकले वाम मोर्चे ने जैसे-तैसे बसपा से लेकर टी.डी.पी तक को इकठ्ठा करके मोर्चा बनाने की कोशिश की थी जिसे लोगों ने पूरी तरह से नकार दिया था.

इस कथित तीसरे मोर्चे की दयनीय हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज तीसरे मोर्चे की तमाम चर्चाओं के बावजूद कोई भी गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दल चुनावों से पहले एक नीतिगत और कार्यक्रमों पर आधारित गठबंधन के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ता है और वे सभी चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहते हैं.

सबसे हैरान करनेवाली बात यह है कि खुद माकपा के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे की मुख्य पार्टियां भी चंद संसदीय सीटों के वास्ते एक-दूसरे के खिलाफ अवसरवादी गठबंधन के लिए हाथ-पैर मारती दिखाई दे रही हैं.
उदाहरण के लिए, माकपा आंध्र प्रदेश में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जगन मोहन रेड्डी की वाई.एस.आर कांग्रेस से गठबंधन की जुगत में है तो भाकपा तेलंगाना क्षेत्र में टी.आर.एस को रिझाने की कोशिश कर रही है. इसी तरह बिहार में भाकपा नीतिश कुमार की जे.डी-यू को गले लगाने के लिए बेताब है तो माकपा लालू प्रसाद की आर.जे.डी के इंतज़ार में है.
यही नहीं, उत्तर प्रदेश और उडीसा से लेकर तमिलनाडु तक वाम मोर्चे की दोनों पार्टियां साथियों की तलाश में इस या उस मध्यमार्गी दल की गणेश परिक्रमा करने में जुटी हैं.   
लेकिन वाम मोर्चे की घटते हुए राजनीतिक रसूख का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कोई उन्हें बहुत भाव नहीं दे रहा है और न ही उनके दावों के बावजूद कथित तीसरे मोर्चे का गुब्बारा फूल रहा है.

उल्लेखनीय है कि दो महीने पहले वाम मोर्चे की पहल पर आयोजित धर्मनिरपेक्ष सम्मेलन में आए चंद्रबाबू नायडू भाजपा की ओर कदम बढ़ा चुके हैं जबकि जगन मोहन भाजपा के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहे हैं.

यही नहीं, वाम मोर्चे के कथित तीसरे मोर्चे के प्रस्तावित साथी जैसे नवीन पटनायक से लेकर जयललिता तक कभी भी पलता मारकर भाजपा के पाले में जा सकते हैं जबकि मुलायम और लालू यादव कांग्रेस के खेमे में जा सकते हैं.

हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद अगरतल्ला में माकपा की केन्द्रीय समिति की ताजा बैठक के बाद पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी पार्टियों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाने का संकल्प दोहराया है.
इससे साफ़ है कि माकपा और उसके नेतृत्ववाला वाम मोर्चा हालिया चुनावों और उसके नतीजों खासकर आम आदमी पार्टी की कामयाबी से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है.
वह समझ नहीं पा रही है कि आम आदमी पार्टी की जीत कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ कांग्रेसी संस्कृति में रमी सपा-बसपा-तृणमूल-जे.डी.यू-डी.एम.के-बी.जे.डी-टी.डी.पी.-ए.आई.डी.एम.के जैसी सभी मध्यमार्गी पार्टियों के खिलाफ एक वैकल्पिक राजनीति की जीत है जो नीतियों-कार्यक्रमों से लेकर विचार-राजनीतिक व्यवहार तक में एक वास्तविक विकल्प की मांग कर रही है.   
ऐसा लगता है कि माकपा और वाम मोर्चा इस सन्देश के निहितार्थ को समझ नहीं पा रहे हैं और अभी भी जिस तरह बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को सीने से चिपकाए रहती है, उसी तरह राजनीतिक रूप से पिट चुके तीसरे मोर्चे को गले से लगाये हुए हैं.

यही नहीं, उनका गुप्त कांग्रेस प्रेम भी खत्म होता नहीं दिख रहा है. पिछले राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के समर्थन से यह साफ़ हो गया है कि चुनावों के बाद माकपा एक बार फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ी हो सकती है. इसके कारण उसकी स्थिति न सिर्फ हास्यास्पद होती जा रही है बल्कि वाम मोर्चे की साख गिरी है और वामपंथ की चमक फीकी पड़ी है.   

असल में, माकपा और वाम मोर्चे की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह स्वतंत्र पहलकदमी लेने और देश के सामने एक मुकम्मल वाम विकल्प देने का साहस नहीं कर रही है. पिछले दो-ढाई दशकों से देश के अधिकांश हिस्सों खासकर उत्तर भारत में अपनी कमजोर स्थिति और सांप्रदायिक ताकतों के उभार का हवाला देकर माकपा ने वामपंथ को कभी लालू, कभी मुलायम और कभी कांग्रेस का पिछलग्गू बना दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी उसे भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है. इसके कारण उत्तर भारत में वामपंथी पार्टियों का बचा-खुचा जनाधार भी खिसक चुका है. नतीजा यह कि अब वे पूरी तरह से इन मध्यमार्गी पार्टियों की बैसाखी पर निर्भर हैं.
लेकिन इसका सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान यह हुआ है कि आज भारतीय राजनीति में आमलोगों को वामपंथ और बाकी मध्यमार्गी पार्टियों के बीच कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है.

यह सच है कि वामपंथी पार्टियों के नेताओं और सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में डूबे दलों और नेताओं के साथ खड़े होकर वाम पार्टियां भी दलों के दलदल में कमोबेश वैसी ही नजर आती हैं.

यहाँ तक कि आर्थिक नीतियों के मामले में भी वाम मोर्चे की कथनी-करनी का अंतर सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं ने मिटा दिया.

सच पूछिए तो आज वामपंथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी स्वतंत्र पहचान और आमलोगों के बीच अपनी राजनीतिक साख को बहाल करना है. इसके लिए वाम पार्टियों को जड़ों की ओर लौटना होगा.
इसका अर्थ यह है कि उन्हें मध्यमार्गी दलों का पिछलग्गू बनना छोड़ना होगा, आम जनता के बुनियादी हकों के लिए रैडिकल संघर्षों को आगे बढ़ाना होगा और देश के सामने साहस के साथ एक मुकम्मल वाम विकल्प पेश करने की तैयारी करनी होगी. वामपंथ को यह जोखिम उठाना ही होगा क्योंकि बिना राजनीतिक जोखिम उठाए वह खुद को हाशिए पर जाने से नहीं रोक सकता है.
आम आदमी पार्टी की शानदार सफलता वामपंथ के लिए चेतावनी है. लेकिन वाम पार्टियां चाहें तो स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी, उसके लिए जोखिम उठाने और नए राजनीतिक प्रयोग करने के मामले में आम आदमी पार्टी से बहुत कुछ सीख सकती हैं.

सवाल यह है कि क्या वाम पार्टियां सीखने और इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?

('नेशनल दुनिया' के 20 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                                                    

शनिवार, दिसंबर 14, 2013

दिल्ली से खुलता राष्ट्रीय राजनीति में तीसरा स्पेस

आप के साथ यह वामपंथी और रैडिकल वाम पार्टियों के लिए भी मौका है   

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी दो बड़ी और ताकतवर पार्टियों की मौजूदगी के बावजूद हाल में बनी आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन के कई अर्थ और सन्देश हैं.
लेकिन आप की सफलता का सबसे महत्वपूर्ण सन्देश यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरी ताकत या वैकल्पिक राजनीति के लिए न सिर्फ जगह मौजूद है बल्कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक माहौल उसके लिए काफी उर्वर है.
लेकिन इस तीसरी ताकत को भारतीय राजनीति में कई बार आजमाए जा चुके गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तीसरे मोर्चे के अर्थ में नहीं देखा जाना चाहिए.
इसके उलट दिल्ली के जनादेश की भावना शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के अलावा सपा-बसपा-जे.डी-यू-तृणमूल-डी.एम.के-ऐ.आई.डी.एम.के-तेलगु देशम जैसी मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी तीसरे मोर्चे जैसे गठबंधनों के खिलाफ भी है. इसे सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ मानना बहुत बड़ी भूल होगी.

सच पूछिए तो दिल्ली में आप की चुनावी सफलता में शासक वर्ग की सभी छोटी-बड़ी पार्टियों और पूरे राजनीतिक वर्ग के भ्रष्टाचार, सत्तालोलुपता, आमलोगों पर महंगाई का बोझ लादने, कुशासन, गुंडागर्दी, मनमानी के खिलाफ आमलोगों के बढ़ते अविश्वास और गुस्से को सुन और पढ़ सकते हैं.

इस मायने में यह सिर्फ दिल्ली के चुनाव का नतीजा नहीं है और न ही इसका राजनीतिक प्रभाव दिल्ली तक सीमित है. इसे दिल्ली या आप तक सीमित परिघटना मानना सबसे बड़ी भूल होगी. आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में आप के प्रदर्शन की गूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है.
दिल्ली के नतीजे के बाद शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के अलावा गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों में बढ़ती घबड़ाहट और खासकर दिल्ली में जोड़तोड़ करके सरकार बनाने से भाजपा की झिझक और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी के आप से सीखने और कांग्रेस में बदलाव के बयान से साफ़ है कि इन सभी को यह अहसास है कि आज जो दिल्ली में हुआ, वह कल देश में बाकी जगहों पर भी हो सकता है.
इस अर्थ में दिल्ली का जनादेश शासक वर्ग की सभी पार्टियों और उनकी राजनीति और अर्थनीति के खिलाफ एक वैकल्पिक, साफ-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति और अर्थनीति के हक में आया जनादेश है. यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि आप पार्टी वास्तव में इस वैकल्पिक, साफ़-सुथरी और जनोन्मुखी राजनीति की प्रतिनिधि बन गई है.

सच यह है कि उसकी वैकल्पिक और जनोन्मुखी राजनीति-अर्थनीति का सामने आना बाकी है. उसे आनेवाले महीनों में कई राजनीतिक परीक्षाएं पास करनी हैं और लोगों की उम्मीदों और भरोसे को बनाए रखना है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप पार्टी ने देश भर में इस वैकल्पिक राजनीति और अर्थनीति की संभावनाओं और उम्मीदों को जगा दिया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप की सफलता में आम लोगों की उस बेचैनी को साफ पढ़ा जा सकता है जो मौजूदा राजनीति के सत्तालोलुप-अवसरवादी गठबंधनों और उनके भ्रष्टाचार-लूटपाट से उब गए हैं, जो अपने रोजमर्रा के जीवन में रोजी-रोटी-शिक्षा-स्वास्थ्य-बेहतर अवसर और बिजली-सड़क-पानी-सार्वजनिक परिवहन से लेकर भ्रष्टाचार और अपराधमुक्त सार्वजनिक जीवन चाहते हैं और जो राजनीति में शुचिता और आदर्शों की वापसी की मांग कर रहे हैं.
असल में, दिल्ली के जनादेश ने इसी अर्थ में कांग्रेस-भाजपा और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों से इतर एक ऐसे वास्तविक तीसरे विकल्प की जरूरत को चिन्हित किया है जो न सिर्फ वैचारिक-नीतिगत और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की इन पार्टियों से अलग हो बल्कि उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के आचार-व्यवहार में भी यह फर्क दिखता हो.
यही भारतीय राजनीति का नया तीसरा स्पेस है जो ९० के दशक के जोड़तोड़ और अवसरवादी गठजोड़ों से बने तीसरे मोर्चे से बुनियादी चरित्र में अलग और उसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम से आगे अधिकतम वैकल्पिक कार्यक्रम की मांग कर रहा है.

आप पार्टी की इसी तीसरे स्पेस पर दावेदारी है. इसमें वे देश भर से बदलाव और जनांदोलनों की ताकतों को भी जोड़ना चाहते हैं. वे मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से अलग अनेकों छोटी पार्टियों से भी संपर्क कर रहे हैं लेकिन वे चाहते हैं कि ये सभी छोटी पार्टियां और जनसंगठन/जनांदोलन खुद को आप में विलीन कर दें.

लेकिन इसके लिए ये पार्टियां और जनांदोलन/जनसंगठन तैयार नहीं हैं. आप के सामने सबसे बड़ी चुनौती बदलाव की राजनीति और जनांदोलनों की इन पार्टियों, जनसंगठनों और समूहों को साथ ले आना और वैकल्पिक अर्थनीति और कार्यक्रम पेश करना है. 

लेकिन इस तीसरे स्पेस की एक स्वाभाविक दावेदार वामपंथी पार्टियां हैं. लेकिन इसके लिए मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों खासकर माकपा को दिल्ली के जनादेश को समझना और उससे सीखना होगा.
सच यह है कि वाम मोर्चे खासकर माकपा ने वामपंथ को अवसरवादी तीसरे मोर्चे और उसके साख खो चुके दलों और नेताओं जैसे लालू-मुलायम-मायावती-नीतिश-जयललिता-चंद्रबाबू-जगन मोहन जैसों का पिछलग्गू बनाकर उसकी साख खत्म कर दी है.
लेकिन उनके सामने यह मौका है जब वे देश भर में रैडिकल वामपंथ की ताकतों, लोकतांत्रिक शक्तियों और जुझारू जनांदोलनों के साथ मिलकर एक व्यापक वाम-लोकतांत्रिक मोर्चा बनाने और वामपंथ की स्वतंत्र पताका और वैकल्पिक नीतियों-कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की पहल कर सकते हैं.
यही नहीं, यह ग्रामीण और शहरी गरीबों, खेतिहर मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों, आदिवासियों, निम्न मध्यवर्ग और बेरोजगार नौजवानों के सवालों और मुद्दों को फिर से राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर लाने और रैडिकल बदलाव का कार्यक्रम पेश करने का भी मौका है.

इसकी शुरुआत और अपनी खोई हुई साख को बहाल करने के लिए सबसे पहले वाम मोर्चे खासकर माकपा को बंगाल में नंदीग्राम-सिंगुर-लालगढ़ में आमलोगों के दमन के लिए जनता से माफ़ी मांगनी चाहिए. क्या वाम मोर्चे में इतना नैतिक साहस है?

क्या वह इस या उस मध्यमार्गी दल का पिछलग्गू बनने के लोभ को इसबार भी छोड़ पाएंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि यह वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी के लिए सबसे अनुकूल समय है. आप की सफलता वामपंथ के लिए एक सबक है. वामपंथ को इस मौके को चूकना नहीं चाहिए.
अगर वामपंथ ने इस बार भी मौका चूका तो उसे इस ‘ऐतिहासिक भूल’ के लिए लंबे समय तक पछताना पड़ेगा. 
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 14 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)                                  

गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

तेजपाल से आगे

कार्पोरेट न्यूज मीडिया के अंदर का मवाद बाहर आने दीजिए 
 
इस बार यह स्तंभ बहुत तकलीफ और मुश्किल से लिख रहा हूँ. कारण, ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल खुद अपनी ही एक महिला सहकर्मी पत्रकार के साथ यौन हिंसा और बलात्कार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं और न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में हैं.
खुद ‘तहलका’ के सम्पादकीय नेतृत्व और प्रबंधन पर इस मामले को दबाने, रफा-दफा करने और तथ्यों के साथ तोड-मरोड करने के अलावा अपनी पीड़ित पत्रकार के साथ खड़े होने के बजाय तरुण तेजपाल का बचाव करने के आरोप लग रहे हैं.
यही नहीं, तेजपाल अपने बयान बदल रहे हैं, पीड़ित पत्रकार को झूठा ठहराने और उसके चरित्र पर ऊँगली उठाने में लग गए हैं. वे ‘तहलका’ की तेजतर्रार पत्रकारिता की आड़ लेकर खुद को षड्यंत्र का शिकार साबित करने की भी कोशिश कर रहे हैं.  
इस बीच, ‘तहलका’ के कुछ पत्रकारों ने भी इस्तीफा दे दिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि पीड़ित पत्रकार की शिकायत न सिर्फ बहुत गंभीर है बल्कि गोवा पुलिस के मामला दर्ज कर लेने के बाद तेजपाल को कानून का सामना करना ही पड़ेगा. वे इससे बच नहीं सकते हैं और न ही ‘तहलका’ सहित किसी को भी उन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए. कानून को बिना किसी दबाव के काम करने देना चाहिए.

इसके लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया इस मामले की नियमित, तथ्यपूर्ण और संवेदनशील रिपोर्टिंग करे. यही नहीं, यह मामला समूचे न्यूज मीडिया के लिए भी एक टेस्ट केस है क्योंकि जो न्यूज मीडिया (‘तहलका’ समेत) यौन हिंसा खासकर ताकतवर और रसूखदार लोगों की ओर से किये गए यौन हिंसा के मामलों को जोरशोर से उठाता रहा है, उसे तेजपाल के मामले में भी उसी सक्रियता और साफगोई से रिपोर्टिंग करनी चाहिए.

निश्चय ही, इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए, यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच न पाए. लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार के चटखारे भरे विवरण और चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के लोभ से बचा जाए.
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय का ही हो रहा है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीडन और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में सब कुछ ठीक-ठाक है और एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल हैं. हालाँकि सच यह नहीं है और न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में ऐसे कई तेजपाल हैं.

सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडितों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है? क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी आडिट की?

सच यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र, सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीडन जांच और कार्रवाई समिति नहीं है या सिर्फ कागजों पर है.
क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहाँ यौन उत्पीडन के मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इसपर सबकी नजर रहनी चाहिए.
दूसरे, तेजपाल के बहाने खुद ‘तहलका’ पर भी हमले शुरू हो गए हैं. उसकी फंडिंग से लेकर राजनीतिक संपर्कों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या तेजपाल के अपराध की सजा ‘तहलका’ और उसमें काम करनेवाले कई जुझारू और निर्भीक पत्रकारों को दी जा सकती है?

यह भी कि क्या वे सभी अखबारों और चैनलों की फंडिंग और राजनीतिक संपर्कों की ऐसी ही
छानबीन करेंगे? निश्चय ही, ऐसी छानबीन का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह चुनिंदा नहीं होनी चाहिए.

एक मायने में यह मौका भी है जब कारपोरेट न्यूज मीडिया के अंदर बढ़ती हुई सडन सामने आ रही है. उसका घाव फूट पड़ा है. जरूरत उसे और दबाकर उसके अंदर के मवाद को बाहर निकालने की है. इसके बिना उसके स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
('तहलका' के 15 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)        

बुधवार, नवंबर 13, 2013

डौंडिया खेडा की कौतुक कथा

चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक है

भारत को भले ही गांवों का देश कहा जाता हो लेकिन अपने न्यूज चैनलों पर गांव बिरले ही दिखाई देते हैं. ऐसा नहीं है कि गांवों में खबरें नहीं हैं.
गहराते कृषि संकट से लेकर किसानों की आत्महत्याओं तक और गरीबी-भूखमरी से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मामूली बीमारियों से होनेवाली मौतों तक और सामंती जुल्म और मध्ययुगीन खाप पंचायतों की बर्बरता से लेकर विकास योजनाओं की लूट के बीच ग्रामीण समाज खासकर दबे-कुचले वर्गों, युवाओं और महिलाओं की उमड़ती आकांक्षाओं तक गांवों में खबरें ही खबरें हैं. 
लेकिन चैनलों की इन खबरों और उन्हें रिपोर्ट करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. कारण, उन्हें ये खबरें ‘डाउन मार्केट’ लगती हैं. उनका मानना है कि उनके शहरी मध्यवर्गीय दर्शकों की इसमें कोई रूचि नहीं है. नतीजा, चैनलों से गांव गायब हैं. कुछ इस हद तक कि उन्हें देखकर नहीं लगेगा कि भारत में गांव भी हैं जहाँ इस देश के ६० फीसदी से ज्यादा लोग रहते हैं.

चैनलों पर अगर कभी भूले-भटके गांव दिखते भी हैं तो उसकी वजह किसी बड़े नेता का उस गांव का दौरा होता है जिसके पीछे-पीछे चैनल और उनके पत्रकार गांव तक जाते और वैसे ही लौट आते हैं. फोकस नेता पर होता है और गांव पृष्ठभूमि में ही रहता है. राहुल गाँधी की टप्पल यात्रा याद कीजिए.

लेकिन ठहरिये, चैनल खुद अपनी पहले पर भी कभी-कभार गांव जाते हैं. उन्हें गांव की याद तब आती है जब वहां कोई बहुत असामान्य, अजीबोगरीब और कौतुकपूर्ण घटना हो. जैसे कुछ सालों पहले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में एक ज्योतिषी कुंजीलाल ने एलान कर दिया कि वह दो दिन बाद मरनेवाला है.
फिर क्या था? उत्साह और उत्तेजना से भरे सारे चैनल अपनी ओ.बी वैन के साथ वहां पहुँच गए और कई दिनों तक कुंजीलाल को लाइव दिखाया गया. ऐसे ही, चैनलों ने हरियाणा के एक गांव में बोरवेल में गिरकर फंस गए ५ साल के प्रिंस को बचाने के अभियान की ७२ से ९६ घंटों तक लाइव कवरेज की थी.
इसी तरह, कारगिल युद्ध के दौरान लापता घोषित सैनिक के कुछ सालों पहले अचानक मेरठ के अपने गांव पहुँचने, वहां उसकी पूर्व पत्नी की दूसरी शादी और उससे पैदा हुए प्रसंग को चैनलों ने जबरदस्त मेलोड्रामा बनाकर पेश किया. कई दिनों तक उस गांव में चैनलों का मेला लगा रहा.

इसी कड़ी में इस बार उन्नाव के डौंडिया खेडा की लाटरी खुल गई जहाँ एक बाबा शोभन सरकार को सपना आया कि गांव के एक किले के नीचे हजार टन सोना दबा है. कहते हैं कि बाबा और उनके शिष्यों ने एक केन्द्रीय मंत्री को प्रेरित किया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई) वहां खुदाई करने पहुँच गया.

ऐसे में, चैनल कहाँ पीछे रहनेवाले थे? ए.एस.आई के पीछे-पीछे चैनल भी बाबा के सपने सोने पर दांव लगाने पहुँच गए. चैनलों पर डौंडिया खेडा लाइव शुरू हो गया. गांव में मीडिया का पूरा मेला सा लग गया. चैनलों की उत्तेजना और उत्साह देखते ही बनता था.
डौंडिया खेडा जल्दी पीपली लाइव में बदल गया. 24x7 पल-पल की रिपोर्ट दी जाने लगी- ‘कितनी, कैसे और कहाँ खुदाई हुई, किन औजारों का इस्तेमाल किया गया, खुदाई की नई तकनीक क्या है, वहां क्या माहौल है’ से लेकर बाबा शोभन सरकार के रहस्य और सोना मिलेगा या नहीं, कितना सोना मिलेगा, उसपर किसका अधिकार होगा और हजार टन सोने से देश की कितनी समस्याएं हल हो जाएंगी आदि-आदि.
यह और बात है कि यहाँ भी डौंडिया खेडा पृष्ठभूमि में और सोने की खोज की कौतुक कथा फोकस में थी. अफ़सोस, अन्धविश्वास के सोने की चमक से चौंधियाए चैनलों को एक बार फिर डौंडिया खेडा जैसे गांवों का असली दर्द नहीं दिखाई दिया.

असल में, कुंजीलाल, गुडिया, प्रिंस से शोभन सरकार तक चैनलों की गांव यात्रा और कुछ नहीं, कौतुक कथाओं की खोज भर है. चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक बना हुआ है. डौंडिया खेडा इसका ताजा सबूत है. 

('तहलका' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)             

रविवार, नवंबर 10, 2013

लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों का संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है

क्यों महत्वपूर्ण है लक्ष्मणपुर-बाथे का मुद्दा?

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
ध्यान रहे कि पिछले कुछ सालों में बिहार में दलितों के नरसंहार के कम से कम चार मामलों में हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों को पलटते हुए सभी अभियुक्तों को बरी करने का फैसला सुनाया है.
लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में ताजा फैसले से पहले पिछले साल बिहार के भोजपुर जिले के बथानी-टोला गांव में २१ निर्दोष दलित-मुस्लिम महिलाओं, बच्चों और पुरुषों के नरसंहार मामले में भी पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए २३ अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया था.
हालाँकि आरा सेशन कोर्ट ने इस मामले में कुल ६८ आरोपियों में से तीन को फांसी और २० को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
क्या यह एक निश्चित पैटर्न की ओर इशारा नहीं करता है? उदाहरण के लिए, बिहार के मियांपुर, नगरी, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे में अलग-अलग घटनाओं में कुल ११३ निर्दोष गरीब दलित-पिछड़े-मुस्लिम महिलाओं-बच्चों और पुरुषों के नृशंस नरसंहार का आरोप रणवीर सेना पर लगा, तमाम दबावों-धमकियों के बावजूद दर्जनों प्रत्यक्षदर्शियों ने गवाही देने की हिम्मत दिखाई, निचली अदालतों ने इन गवाहियों और सबूतों का संज्ञान लिया और कई आरोपियों को फांसी से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा भी सुनाई.

लेकिन इसके बावजूद इन सभी मामलों में पटना हाई कोर्ट ने गवाहों को अविश्वसनीय मानते हुए और जांच में तकनीकी चूकों का हवाला देते हुए सभी अभियुक्तों को ‘संदेह का लाभ’ देकर बरी कर दिया.        

गोया मियांपुर से लेकर लक्ष्मणपुर-बाथे तक सामूहिक तौर पर मारे गए गरीब दलितों का नरसंहार किसी ने नहीं किया हो और वे खुद ही मर गए हों! इस फैसले से यही अर्थ निकलता है. सवाल यह है कि आखिर इन नरसंहारों में मारे गए ११३ निर्दोष गरीब दलितों की निर्मम हत्याओं के लिए कौन जिम्मेदार है?
हाई कोर्ट का कहना है कि पुलिस और अभियोजन पक्ष ने जांच ठीक से नहीं की, निर्दोषों को इस मामले में फंसाया और असली दोषियों की खोज नहीं की जिसके कारण इन नरसंहारों के दोषी बच निकले. यह और बात है कि इन सभी मामलों में निचली अदालतों ने इसी जांच, गवाहियों और सबूतों को विश्वसनीय मानते हुए आरोपियों को कड़ी सजा सुनाई थी.
सवाल यह भी है कि नरसंहार के इन सभी मामलों में हाई कोर्ट के फैसलों के आलोक में क्या इनकी जांच करनेवाले पुलिस अधिकारियों की लापरवाही, अपराधियों को पकड़ने और ठोस सबूत जुटाने में उनकी नाकामी की जांच होगी? क्या इन पुलिस अफसरों की जवाबदेही तय होगी?

मुश्किल यह है कि इन नरसंहारों की जांच के लिए तत्कालीन राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित अमीर दास आयोग को जांच रिपोर्ट देने से पहले ही राज्य में ‘सुशासन’ और ‘न्याय के साथ विकास’ के दावे करनेवाली नीतिश कुमार की सरकार ने भंग कर दी.

सवाल यह है कि अमीर दास आयोग को क्यों भंग किया गया? यह भी कि क्या हाई कोर्ट के इन फैसलों के बाद बिहार की नीतिश सरकार को अपने फैसले पर कोई अफसोस और शर्मिंदगी है?

ये सवाल उठाने इसलिए जरूरी हैं कि बिहार में गरीब दलितों-पिछडों-अल्पसंख्यकों के नरसंहार के मामलों में कानून और न्याय का जिस तरह से मजाक उड़ाया जा रहा है, नरसंहारों के अपराधी साफ़ बच निकल रहे हैं, उससे यह सन्देश जा रहा है कि दलित न सिर्फ दूसरे दर्जे के नागरिक हैं बल्कि उनके सामूहिक नरसंहार जैसे गंभीर मामलों में भी अपराधियों को कोई सजा नहीं होती है.
क्या यही कारण नहीं है कि बिहार में ७० के दशक से दलितों के नरसंहार की दो-चार-आठ नहीं बल्कि कुल ८७ से ज्यादा घटनाएं हुई हैं खासकर ९० के दशक में सवर्ण अपराधियों की रणवीर सेना ने कानून के राज को खुलेआम धता बताते हुए दलितों का कत्लेआम किया?
लेकिन दलितों को दूसरे दर्जे का नागरिक बल्कि जानवरों से भी बदतर समझने की यह मध्ययुगीन मानसिकता बिहार तक सीमित नहीं है. कमोबेश पूरे देश में यह मानसिकता अपनी पूरी विद्रूपता के साथ मौजूद है. कारण वही हैं.

दलितों की हत्या-नरसंहार से लेकर दलित उत्पीडन मामलों में दोषियों को बिरले ही सजा होती है. महाराष्ट्र में खैरलांजी नरसंहार हो या आंध्र प्रदेश में करमचेदू नरसंहार जैसी बहुचर्चित घटनाएं इसकी सबूत हैं. आश्चर्य नहीं कि बिहार ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी दलितों के सामूहिक नरसंहार, दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उनपर अमानवीय जुल्म-उत्पीडन ढाने की घटनाएं रोजाना खबरों में आती रहती हैं.

दूर क्यों जाएँ, देश की राजधानी दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर हरियाणा में दलित समुदाय को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, दैनिक अपमान-उत्पीडन और सामूहिक बहिष्कार से लेकर दलित बस्ती जलाने, उनके घरों में लूटपाट करने, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों की हत्याएं आम हैं लेकिन दलितों को पुलिस में एफ.आई.आर लिखाने तक में संघर्ष करना पड़ता है और अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं, वह किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है.
लेकिन हरियाणा में यह आम बात है और सबसे अधिक अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि पुलिस-प्रशासन से लेकर राज्य सरकार और कांग्रेस-भाजपा-लोकदल जैसी प्रमुख पार्टियों तक ने मध्ययुगीन जातिवादी खाप पंचायतों के आगे घुटने टेक रखा है.  
चैनलों के लिए टेस्ट केस था लक्ष्मणपुर-बाथे

लेकिन इस मामले में खाप पंचायतों के आगे केवल राजनीतिक पार्टियां, पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार ने ही घुटने नहीं टेक रखे हैं बल्कि अधिकांश अखबारों/चैनलों ने भी घुटने टेक रखे हैं. हरियाणा में दलित उत्पीडन की घटनाओं की रिपोर्टें दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबारों और न्यूज चैनलों में अपवाद की तरह ही दिखती हैं, उसपर सम्पादकीय पन्नों या प्राईम टाइम चर्चा तो और भी दुर्लभ है.

इसी तरह राष्ट्रीय अखबारों/चैनलों में चाहे खैरलांजी नरसंहार और बलात्कार मामला हो या तमिलनाडु में संगठित तरीके से दलित समुदाय को निशाना बनाने की घटनाएं- वे कभी-कभार ही जगह बना पाती हैं. यही नहीं, इन मामलों की रिपोर्टिंग में अधिकांश न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में वह नैतिक उद्वेलन और क्षोभ नहीं दिखाई देता है जो जेसिका लाल या प्रियदर्शिनी मट्टू या निर्भया या इस जैसे अन्य मामलों में दिखता रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि इक्का-दुक्का अख़बारों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/न्यूज चैनलों ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में हाई कोर्ट के फैसले को अनदेखा किया और उसे प्राइम टाइम चर्चाओं और विशेष रिपोर्ट के लायक नहीं माना.
भले लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया था लेकिन न्यूज मीडिया और न्यूज चैनलों को इसमें कोई शर्म नहीं दिखाई देता है और न ही उन्हें अपनी आत्मा पर कोई बोझ महसूस होता है. इसलिए चैनलों में हाई कोर्ट के फैसले पर कोई सवाल नहीं है या लक्ष्मणपुर-बाथे के पीड़ितों को न्याय नहीं मिलने की कोई बेचैनी नहीं दिखाई देती है.
साफ़ है कि जिस तरह से दलितों के संगठित और सुनियोजित अपमान-उत्पीडन, बलात्कार और नरसंहार के अधिकांश मामलों में पुलिस-प्रशासन, राज्य सरकारें और राजनीतिक दल सवर्ण मध्ययुगीन सामंती गिरोहों, सेनाओं, खापों के हमलों में सक्रिय भागीदार दिखते हैं, उसी तरह न्यूज मीडिया खासकर चैनल भी इन हमलों को अनदेखा करने या उन्हें दबाने के कारण उसमें परोक्ष भागीदार दिखाई देते हैं.

असल में, चैनलों सहित पूरे न्यूज मीडिया में दलितों पर होनेवाले संगठित अत्याचारों और उत्पीडन के मामलों में जिस तरह की बेखबरी और उदासीनता दिखाई देती है, वह कोई संयोग नहीं है. उसमें एक सुनिश्चित पैटर्न साफ़ देखा जा सकता है.

दरअसल, ‘समाचार’ भी एक ‘सामाजिक निर्मिति’ (सोशल कंस्ट्रक्ट) हैं. इस कारण ‘समाचार’ तैयार करने और उसे पेश करनेवाले पत्रकारों, संपादकों और स्तम्भ लेखकों से लेकर न्यूज मीडिया कंपनियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य, वैचारिकी, निजी-संस्थागत हित और व्यापक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक ढांचे में उनकी अवस्थिति की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.
इन सभी का ‘समाचारों’ के संकलन से लेकर प्रस्तुति तक में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ में दलितों पर अत्याचार-उत्पीडन के मुद्दे ही ‘अस्पृश्य’ नहीं हैं बल्कि उसके अंदर दलित समुदाय के पत्रकार, एंकर, संपादक, चर्चाकार और स्तंभ लेखक भी पूरी तरह से अनुपस्थित हैं.
जाहिर है कि इन दोनों तथ्यों के बीच के अंतर्संबंध को अनदेखा करना मुश्किल है. इसी तरह इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि चैनल जिस वर्चस्वशाली सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वर्ग के वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके हित और सबसे दबे-कुचले और सर्वहारा दलित समुदाय के हितों के बीच स्पष्ट टकराव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि दलित उत्पीडन, बलात्कार से लेकर नरसंहार तक की घटनाएं इसी टकराव का नतीजा हैं. यह भी दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस टकराव में न्यूज चैनल कहाँ और किस ओर खड़े हैं. इस मुकाम पर आकर चैनलों के ‘जनतंत्र’ का असली चेहरा साफ़ हो जाता है.

असल में, लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों के ‘जनतंत्र’ का सीमित-संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है. इस मायने में लक्ष्मणपुर-बाथे एक टेस्ट केस था कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ का कितना विस्तार हुआ है लेकिन अफ़सोस यह है कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनल इसमें एक बार फिर फेल हो गए.
 
('कथादेश' के नवंबर'13 अंक में प्रकाशित स्तंभ)