आनंद प्रधान
आज जब अमेरिकी शहर पीट्सबर्ग में समूह 20 (जी-20) के विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ बैठेंगे तो निश्चय ही उनके चेहरों पर वह बेचैनी और घबराहट नही होगी जो पिछले साल वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की मार के बीच नवम्बर में वाशिंगटन में आयोजित जी-20 देशों की पहली विशेष बैठक के दौरान दिख रहा था। पिछले एक साल के दौरान वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से निपटने के लिए जी-20 देशों की यह तीसरी शिखर बैठक है। इस बीच, पिछले कुछ महीनों में वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रारंभिक संकेत दिखाई पड़ने लगे हैं। हालांकि सुधार की गति और व्यापकता को लेकर विशेषज्ञों में मतभेद बने हुए हैं लेकिन इतना सभी स्वीकार कर रहे हैं कि वैश्विक वित्तीय संकट का सबसे बदतर समय निकल चुका है।
इस कारण स्वाभाविक है कि जी-20 देशों के राष्ट्राध्यक्ष न सिर्फ संकट काबू में आ जाने की वजह से राहत महसूस कर रहे हैं बल्कि उनमें से कई निश्चिंत भी दिख रहे हैं। हालांकि इस शिखर बैठक में जलवायु परिवर्तन समेत और कई मुद्दों पर चर्चा होनी है, इसके बावजूद इसमें सबसे बड़ा सवाल यही बना हुआ है कि वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से बाहर निकल रही वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और उनमें आ रहे शुरुआती सुधार की गति को संभालने के लिए और क्या किया जाए? सवाल यह भी है कि वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी से निपटने के लिए जी-20 के पिछले शिखर सम्मेलनों में जो फैसले किए गये थे, उन्हें कितनी ईमानदारी से लागू किया जा रहा है?
असल में, ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गये हैं क्योंकि वैश्विक खासकर अमेरिकी और यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सुधार के प्रारंभिक लक्षणों के दिखाई देने के बाद से विकसित देशों में एक तरह की निश्चिन्तता आती दिखाई दे रही है। उन्हें यह लग रहा है कि जब स्थितियां सुधरने लगी हैं तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर अतिरिक्त चिंता करने की अब कोई खास जरूरत नही रह गयी है। इस कारण अमेरिका और यूरोपीय संघ समेत जी-20 के कई विकसित देश उन वायदों और फैसलों को पूरा करने से पीछे हटते दिखाई दे रहे हैं जो उन्होंने वित्तीय संकट से निपटने के दौरान किए थे।
उदाहरण के लिए, विकसित देशों ने वित्तीय संकट से निपटने के लिए हुए जी-20 के शिखर सम्मेलनों में वायदा किया था कि एक नया अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा तैयार किया जाएगा। इसके तहत न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था की सख्त निगरानी और नियमन के उपाय किये जाने का फैसला किया गया था बल्कि यह भी वायदा किया गया था कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को और लोकतांत्रिक और व्यापक आधार वाला बनाने के लिए उसमें विकासशील देशों को और अधिक हिस्सा और अधिकार दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि ये दोनों संस्थाएं इस हद तक अलोकतांत्रिक और विकसित देशों की कठपुतली बनी हुई हैं कि उनमें विकासशील देशों का न सिर्फ मताधिकार बहुत सीमित है बल्कि विश्व बैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमेरिकी नागरिक और आईएमएफ का अध्यक्ष यूरोपीय होता है।
यही कारण है कि विकासशील देशों की ओर से बहुत लंबे समय से यह मांग चली आ रही है कि विश्व बैंक खासकर आईएमएफ में विकासशील देशों की भागीदारी बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ के मतभार को मौजूदा 40 फीसदी से घटाकर कम किया जाए क्योंकि यूरोपीय संघ का आज दुनिया की अर्थव्यवस्था मे हिस्सा सिर्फ 25 फीसदी रह गया है। जी-20 के लंदन शिखर सम्मेलन में यह तय हुआ था कि विश्व बैंक और आइएमएफ में भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की हिस्सेदारी मौजूदा दो और तीन फीसदी से बढाई जाय। लेकिन अब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था पटरी पर आती हुई दिखाई दे रही है तो विकसित देश अपने वायदे से पीछे हटते हुए दिखाई दे रहे हैं।
यही नहीं, विकसित देश नई अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था और उसकी सख्त निगरानी और नियमन के फैसलो को लागू करने को लेकर बहुत उत्सुक नही दिखाई दे रहे है। कुल मिलाकर विकसित देशों का रूख संकट गुजर जाने के बाद निश्चिन्तता और पहले की तरह जारी कारबार का हो गया है। इसके कारण वे मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गये हैं या उन्हें अनदेखा किया जा रहा है जिनके कारण पिछले साल वित्तीय संकट पैदा हुआ था। अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था खासकर बडी वित्तीय कम्पनियों और संस्थाओं की गतिविधियों और कारबार पर निगरानी और नियमन में कोई खास दिलचस्पी नही रह गयी है। इसका सबूत यह है कि अमेरिका समेत अन्य विकसित देशों में एकबार फिर से बडी वित्तीय पूंजी और उसके पैरोकार किसी भी तरह के नियंत्रण और नियमन का विरोध करने लगे है।
विकसित देशों में निश्चिन्तता का आलम यह है कि जी-20 के इस शिखर सम्मेलन में अमेरिका यह प्रस्ताव कर रहा है कि घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के लिए जो बडे उत्प्रेरक (स्टिमुलस) पैकेज घोषित किये गये थे, उन्हें धीरे-धीरे या तो कम किया जाए या पूरी तरह से वापस लिया जाए। हालांकि यूरोपीय संघ के कई देश इस प्रस्ताव से सहमत नही है लेकिन इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार और उसे सहारा देने को लेकर अब एक राय नही रह गयी है। यही नहीं, विकसित देश खासकर अमेरिका और यूरोपीय संघ वायदे के बावजूद ऐसे संरक्षणवादी फैसले कर रहे हैं जिनका एकमात्र मकसद घरेलू बाजार में विकासशील देशों के उत्पादों को आने से रोकना है। यह और बात है कि जी-20 के पिछले शिखर सम्मेलनों में संरक्षणवाद के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठी थी।
कहने की जरूरत नही है कि इस तरह का रवैया एकबार फिर से संकट को न्यौता देने जैसा है। इसकी वजह यह है कि संकट पूरी तरह से गया नही है और न ही दुनिया मंदी से पूरी तरह से बाहर आयी है। इस समय सुधरती वैश्विक अर्थव्यवस्था को न सिर्फ संभालने और सहारा देने की जरूरत है बल्कि ऐसे पक्के उपाय करने की भी जरूरत है ताकि भविष्य में ऐसा वित्तीय संकट दोबारा न आए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि एकबार फिर से उन्हीं गलतियों को दोहराने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है जिनके कारण मौजूदा संकट आया।
ऐसे में, भारत जैसे देशों की भूमिका बढ़ जाती है जो इस बार तो वित्तीय संकट के चपेट में उस हद तक नहीं आए लेकिन इसबात की कोई गारंटी नहीं की अगली बार भी भाग्य इसी तरह साथ दे। इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर विकसित देशों पर उन फैसलों और वायदों को पूरा करने का दबाव बनाना चाहिए जो पिछले शिखर सम्मेलनों मे किए गये थे। इसके बिना यह शिखर सम्मेलन भी सिर्फ गपशप का मंच बनकर रह जाएगा।
मंगलवार, सितंबर 29, 2009
सोमवार, सितंबर 14, 2009
फर्जी मुठभेड़ और समाचार मीडिया
आनंद प्रधान
अगर अहमदाबाद (गुजरात) के मेट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट एस पी तमांग की जांच रिपोर्ट पर भरोसा करें तो कोई पांच साल पहले गुजरात पुलिस ने शहर के बाहर युवा इशरत जहां सहित जिन चार लोगों को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी बताते हुए पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, वह मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी। लगभग 243 पृष्ठों की रिपोर्ट में मैजिस्ट्रेट ने न सिर्फ गुजरात पुलिस के अधिकांश दावों की पोल पट्टी खोल दी है बल्कि उसके सांप्रदायिक और हत्यारे चरित्र को भी पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। हैरानी की बात नहीं है कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले में गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के उन्हीं अफसरों का नाम सामने आया है। जो पहले ही, इसी तरह के एक और फर्जी मुठभेड़-सोहराबुद्वीन शेख मामले में जेल की हवा खा रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामला उजागर होने के साथ ही गुजरात पुलिस की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल गयी है। उससे अधिक नरेंद्र मोदी सरकार की असलियत खुलकर सामने आ गयी है जो एक बार फिर पूरी बेशर्मी के साथ अपराधी पुलिस अफसरों और कर्मियों के बचाव में उतर आयी है। लेकिन इस पूरे मामले में सवाल समाचार मीडिया की भूमिका पर भी उठ रहे हैं। सवाल यह है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आमतौर पर राष्ट्रीय और गुजराती समाचार मीडिया ने इन फर्जी मुठभेड़ों के बारे में पालतू तोते की तरह वही क्यों दोहराया जो मोदी सरकार और गुजरात पुलिस ने बताया? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि समाचार मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह पुलिस और सरकार का भोंपू बनने के बजाय सच को सामने लाए, सवाल उठाए और कमजोर और पीड़ित लोगों की आवाज उठाए।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि गुजरात और देश के कई और राज्यों में समाचार मीडिया ने अपनी इस भूमिका को न सिर्फ ताक पर रख दिया है बल्कि आतंकवाद से लड़ने के आब्सेशन में राज्य और पुलिस-सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादतियों और गैर कानूनी तौर तरीकों में सहयोगी-सहभागी बन गयी है। स्थिति यह हो गयी है कि पुलिस/सुरक्षा एजेंसियां किसी (खासकर मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों) को ‘आतंकवादी’, ‘उग्रवादी’, ‘नक्सली’ और अलगाववादी’घोषित कर मुठभेड़ में मार डालें तो सवाल उठाना और पुलिसिया दावों की जांच पड़ताल तो दूर की बात है, समाचार मीडिया का बड़ा हिस्सा और नमक-मिर्च लगाकर, सनसनीखेज तरीके से और मारे गए लोगों की चरित्र हत्या में जुट जाता है।
सचमुच, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस समाचार मीडिया से सच को सामने लाने और कमजोर लोगों की आवाज बनने की अपेक्षा की जाती है, वह खुद फर्जी मुठभेड़ में शामिल दिख रहा है। फर्जी मुठभेडो में पुलिस तो एक बार गोली मारकर हत्या करती है लेकिन समाचार मीडिया दिन-रात चीख-चीखकर मुठभेड़ में मारे गये निर्दोष लोगों की सैकड़ों बार चरित्र हत्या करता है। मीडिया यह बुनियादी पत्रकारीय उसूल भूल जाता है कि मुठभेड़ों में मारे गये लोग कथित आतंकवादी हैं यानी कि पुलिस जिन्हें आतंकवादी मानती है, उसे जांच और अदालत में साबित होना अभी बाकी है।
दूसरे, ऐसा लगता है कि मुख्य धारा के अधिकांश समाचार मीडिया ने ‘देशभक्ति’ का ठेका ले लिया है। आतंकवाद का नाम सुनते ही उसकी देशभक्ति जोर मारने लगती है। इस देशभक्ति के जोश मंे वह जांच पड़ताल, सवाल उठाने और संदेह करने के बुनियादी पत्रकारीय उसूलों को तो स्थगित कर ही देता है, साथ ही साथ ऐसे मुठभेड़ों पर सवाल उठाने और संदेह करनेवालों को देशद्रोही साबित करने में जुट जाता है। यही नहीं, मुठभेड़ में शामिल पुलिस अधिकारियों को एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बताकर उनका महिमामंडन भी किया जाता है। क्या यह कहना गलत होगा कि डीजी वंजारा जैसे पुलिस अफसरों को पैदा करने में मीडिया, मोदी सरकार से कम बड़ा दोषी नही है?
यह एक कड़वी सच्चाई है कि पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद और नक्सलवाद आदि से निपटने के नाम पर समाचार मीडिया ने पुलिस और सुरक्षा एजेसियों को फर्जी मुठभेड़ हत्याओं का लाइसेंस सा दे दिया है। कहने की जरूरत नही है कि यह सीधे-सीधे जंगल राज को समर्थन है। सवाल है कि अगर देश में एक सतर्क, संवेदनशील, आलोचक और निर्भय समाचार मीडिया होता तो क्या इशरत जहां और सोहराबुद्दीन जैसो को इस तरह फर्जी मुठभेड़ों में मारने से पहले पुलिस को दस बार सोचना नही पड़ता?
अगर अहमदाबाद (गुजरात) के मेट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट एस पी तमांग की जांच रिपोर्ट पर भरोसा करें तो कोई पांच साल पहले गुजरात पुलिस ने शहर के बाहर युवा इशरत जहां सहित जिन चार लोगों को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी बताते हुए पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, वह मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी। लगभग 243 पृष्ठों की रिपोर्ट में मैजिस्ट्रेट ने न सिर्फ गुजरात पुलिस के अधिकांश दावों की पोल पट्टी खोल दी है बल्कि उसके सांप्रदायिक और हत्यारे चरित्र को भी पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। हैरानी की बात नहीं है कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले में गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के उन्हीं अफसरों का नाम सामने आया है। जो पहले ही, इसी तरह के एक और फर्जी मुठभेड़-सोहराबुद्वीन शेख मामले में जेल की हवा खा रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामला उजागर होने के साथ ही गुजरात पुलिस की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल गयी है। उससे अधिक नरेंद्र मोदी सरकार की असलियत खुलकर सामने आ गयी है जो एक बार फिर पूरी बेशर्मी के साथ अपराधी पुलिस अफसरों और कर्मियों के बचाव में उतर आयी है। लेकिन इस पूरे मामले में सवाल समाचार मीडिया की भूमिका पर भी उठ रहे हैं। सवाल यह है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर आमतौर पर राष्ट्रीय और गुजराती समाचार मीडिया ने इन फर्जी मुठभेड़ों के बारे में पालतू तोते की तरह वही क्यों दोहराया जो मोदी सरकार और गुजरात पुलिस ने बताया? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि समाचार मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह पुलिस और सरकार का भोंपू बनने के बजाय सच को सामने लाए, सवाल उठाए और कमजोर और पीड़ित लोगों की आवाज उठाए।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि गुजरात और देश के कई और राज्यों में समाचार मीडिया ने अपनी इस भूमिका को न सिर्फ ताक पर रख दिया है बल्कि आतंकवाद से लड़ने के आब्सेशन में राज्य और पुलिस-सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादतियों और गैर कानूनी तौर तरीकों में सहयोगी-सहभागी बन गयी है। स्थिति यह हो गयी है कि पुलिस/सुरक्षा एजेंसियां किसी (खासकर मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों) को ‘आतंकवादी’, ‘उग्रवादी’, ‘नक्सली’ और अलगाववादी’घोषित कर मुठभेड़ में मार डालें तो सवाल उठाना और पुलिसिया दावों की जांच पड़ताल तो दूर की बात है, समाचार मीडिया का बड़ा हिस्सा और नमक-मिर्च लगाकर, सनसनीखेज तरीके से और मारे गए लोगों की चरित्र हत्या में जुट जाता है।
सचमुच, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि जिस समाचार मीडिया से सच को सामने लाने और कमजोर लोगों की आवाज बनने की अपेक्षा की जाती है, वह खुद फर्जी मुठभेड़ में शामिल दिख रहा है। फर्जी मुठभेडो में पुलिस तो एक बार गोली मारकर हत्या करती है लेकिन समाचार मीडिया दिन-रात चीख-चीखकर मुठभेड़ में मारे गये निर्दोष लोगों की सैकड़ों बार चरित्र हत्या करता है। मीडिया यह बुनियादी पत्रकारीय उसूल भूल जाता है कि मुठभेड़ों में मारे गये लोग कथित आतंकवादी हैं यानी कि पुलिस जिन्हें आतंकवादी मानती है, उसे जांच और अदालत में साबित होना अभी बाकी है।
दूसरे, ऐसा लगता है कि मुख्य धारा के अधिकांश समाचार मीडिया ने ‘देशभक्ति’ का ठेका ले लिया है। आतंकवाद का नाम सुनते ही उसकी देशभक्ति जोर मारने लगती है। इस देशभक्ति के जोश मंे वह जांच पड़ताल, सवाल उठाने और संदेह करने के बुनियादी पत्रकारीय उसूलों को तो स्थगित कर ही देता है, साथ ही साथ ऐसे मुठभेड़ों पर सवाल उठाने और संदेह करनेवालों को देशद्रोही साबित करने में जुट जाता है। यही नहीं, मुठभेड़ में शामिल पुलिस अधिकारियों को एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बताकर उनका महिमामंडन भी किया जाता है। क्या यह कहना गलत होगा कि डीजी वंजारा जैसे पुलिस अफसरों को पैदा करने में मीडिया, मोदी सरकार से कम बड़ा दोषी नही है?
यह एक कड़वी सच्चाई है कि पिछले कुछ वर्षो में आतंकवाद और नक्सलवाद आदि से निपटने के नाम पर समाचार मीडिया ने पुलिस और सुरक्षा एजेसियों को फर्जी मुठभेड़ हत्याओं का लाइसेंस सा दे दिया है। कहने की जरूरत नही है कि यह सीधे-सीधे जंगल राज को समर्थन है। सवाल है कि अगर देश में एक सतर्क, संवेदनशील, आलोचक और निर्भय समाचार मीडिया होता तो क्या इशरत जहां और सोहराबुद्दीन जैसो को इस तरह फर्जी मुठभेड़ों में मारने से पहले पुलिस को दस बार सोचना नही पड़ता?
शुक्रवार, सितंबर 11, 2009
महंगाई के मुद्दे पर पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है सरकार ?
आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि महंगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गयी है। अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से त्रस्त लोगों के लिए महंगाई के मोर्चे पर एक और बुरी खबर है। पहले से ही लगातार बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का चैन छीन रही चीनी अब और कड़वी हो सकती है। खबरों के मुताबिक खुद सरकार यह संकेत दे रही है कि इस साल सूखे और पिछले साल गन्ने के कम उत्पादन के कारण चीनी की लगभग 50 लाख टन कमी होने की आशंका पैदा हो गयी है।
यही कारण है कि अगले सप्ताहों में त्यौहारों के दौरान चीनी की बढ़ी हुई मांग के मद्देनजर उसकी कीमतों में और उछाल की आशंकाएं बढ़ गयी हैं। साफ है कि मिष्ठान प्रिय भारतीय परिवारों के लिए कड़वी होती चीनी आनेवाले त्यौहारों का मजा किरकिरा कर सकती है। लेकिन लोगों को राहत देने के लिए जरूरी उपाय करने के बजाय यूपीए सरकार निश्चिंत दिख रही है। सरकार का यह रवैया हैरान करनेवाला है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सरकार यह भूल गयी है कि चीनी राजनीतिक रूप से कितनी ‘ज्वलनशील’ वस्तु है और अतीत में उसकी किल्लत और बढ़ी हुई कीमतों के कारण कितनी सरकारों को उसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है?
यूपीए सरकार को इसलिए भी चिंतित और सतर्क हो जाना चाहिए कि इन दिनों सिर्फ चीनी की कीमतें ही नहीं चढ़ रही हैं बल्कि उसके साथ-साथ आम आदमी खासकर गांवों में रहनेवाले गरीब-गुरबों के लिए मिठास के एकमात्र स्रोत गुड़ की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। ध्यान रहे कि खुदरा बाजार में चीनी की कीमत लगभग 40 रूपए प्रति किलो तक पहंुच गयी है जबकि गुड़ भी 32 रूपए किलो के आसपास बिक रहा है। इसलिए यूपीए सरकार और खासकर आम आदमी की दुहाई देनेवाली कांगे्रस अगर इस मुगालते में है कि चीनी की आसमान छूती कीमतों से केवल शहरी उपभोक्ता परेशान हैं तो वह बहुत बड़े भ्रम में है। चीनी के साथ-साथ गुड़ की सरपट दौड़ती कीमतों के कारण ग्रामीण उपभोक्ता भी उतने ही परेशान हैं।
इसके बावजूद अगर सरकार निश्चिंत दिख रही है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला, वह सचमुच में इस भ्रम में हो कि न तो महंगाई कोई मुद्दा है और न ही चीनी और गुड़ की बढ़ती कीमतों से लोगों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर पिछले तीन महीनों से शून्य से भी नीचे ऋणात्मक बनी हुई है, इसलिए चिंता करने की कोई खास बात नहीं है। यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक लगभग हर दिन याद दिलाते रहते हैं कि सूखे और बढ़ती महंगाई से निपटने के लिए सरकार के पास न सिर्फ पर्याप्त अनाज भंडार है बल्कि जरूरत पड़ने पर आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भंडार भी भरा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा से लड़ने के नाम पर सरकार ‘डान क्विकजोट’ की तरह हवाई तलवार भांजती हुई नजर आ रही है।
जाहिर है कि ऐसा करते हुए वह मजाक का पात्र बन गयी है। लेकिन उससे अधिक वह महंगाई के आगे दयनीयता की हद तक पराजित दिख रही है। सच यही है कि यूपीए सरकार ने महंगाई की सुरसा के सामने घुटने टेक दिए हैं। दरअसल, महंगाई को लेकर सरकार की निश्चिंतता की दूसरी वजह भी यही है। उसने मान लिया है कि महंगाई को काबू में करना उसके वश की बात नहीं है। यही कारण है कि उसके कई मंत्री और अधिकारी न सिर्फ महंगाई को लेकर सरकार की विवशताओं की दुहाई दे रहे हैं बल्कि लोगों को इस महंगाई के साथ जीने की आदत डालने की सलाह दे रहे हैं।
लेकिन सबसे हास्यास्पद महंगाई का बचाव करना यानी उसे स्वाभाविक और उसके लिए बहुत हद तक प्राकृतिक कारणों (जैसे सूखे या दालों और गन्ने के कम उत्पादन आदि) को जिम्मेदार ठहराना जारी है। जबकि तथ्य इसके ठीक उलट हैं। सूखे की स्थिति पिछले कुछ सप्ताहों में पैदा हुई है जबकि महंगाई पिछले एक साल से अधिक समय से लगातार आसमान पर चढ़ी जा रही है। सच यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले साल अगस्त में ही दोहरे अंक में पहंुच गया था और तब से लगातार उसी के आसपास बना हुआ है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही अब भी ऋणात्मक बनी हुई हो लेकिन खेतिहर मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक इस साल जुलाई में 12.9 प्रतिशत की रेकार्ड उंचाई पर पहंुच गया है।
हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित आंकड़ों की आड़ लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रही है लेकिन सच यह है कि थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े न सिर्फ भ्रामक और चैथाई सच का बयान हैं बल्कि उनसे बड़ा मजाक कोई नहीं है। ये आंकड़े महंगाई के मारे लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने की तरह हैं। तथ्य यह है कि थोक मूल्य सूचकांक आसमान छूती महंगाई के बावजूद ऋणात्मक इसलिए है क्योंकि वह पिछले वर्ष की रेकार्डतोड़ महंगाई के आंकड़ों की तुलना में है। दूसरे, थोक मूल्य सूचकांक में खाद्यान्नों और दूसरी जरूरी वस्तुओं का भारांक बहुत कम है जिसके कारण अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद सूचकांक की सेहत पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है।
यही कारण है कि इन वस्तुओं की कीमतों के आसमान छूने के बावजूद मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक बनी हुई है। इस तथ्य के बावजूद सच्चाई यह भी है कि थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं के खंड में केवल खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 13.3 प्रतिशत की रेकार्डतोड़ उंचाई पर पहुंची हुई है। इसी तरह, थोक मूल्य सूचकांक में शामिल सभी खाद्यान्नों, खाद्य वस्तुओं और उत्पादों (कुल भारांक 26.9 प्रतिशत) की मुद्रास्फीति दर 11.6 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
इसके बावजूद यूपीए सरकार की निश्चिंतता और महंगाई की चुनौती से निपटने के बजाय उसके सामने घुटने टेक देनेवाला रवैया न सिर्फ चिंतित करनेवाला है बल्कि आम आदमी की धैर्य की परीक्षा ले रहा है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकार के इस रवैये का फायदा अनाजों, खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों के बड़े व्यापारी, बिचैलिए, सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं। उनकी तो जैसे चांदी हो गयी है। लेकिन उनपर लगाम लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सिरे से गायब है।
आखिर यूपीए सरकार किस बात का इंतजार कर रही है? क्या वह पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है? क्या वह अनाज के भरे भंडारों का मुंह तब खोलेगी जब लोग भूख से मरने लगेंगे? क्या वह अनाजों और जरूरी खाद्यान्नों का आयात तब करेगी जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें आसमान छूने लगेंगी?
ऐसा लगता है कि महंगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गयी है। अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों से त्रस्त लोगों के लिए महंगाई के मोर्चे पर एक और बुरी खबर है। पहले से ही लगातार बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का चैन छीन रही चीनी अब और कड़वी हो सकती है। खबरों के मुताबिक खुद सरकार यह संकेत दे रही है कि इस साल सूखे और पिछले साल गन्ने के कम उत्पादन के कारण चीनी की लगभग 50 लाख टन कमी होने की आशंका पैदा हो गयी है।
यही कारण है कि अगले सप्ताहों में त्यौहारों के दौरान चीनी की बढ़ी हुई मांग के मद्देनजर उसकी कीमतों में और उछाल की आशंकाएं बढ़ गयी हैं। साफ है कि मिष्ठान प्रिय भारतीय परिवारों के लिए कड़वी होती चीनी आनेवाले त्यौहारों का मजा किरकिरा कर सकती है। लेकिन लोगों को राहत देने के लिए जरूरी उपाय करने के बजाय यूपीए सरकार निश्चिंत दिख रही है। सरकार का यह रवैया हैरान करनेवाला है। ऐसा लगता है कि मनमोहन सरकार यह भूल गयी है कि चीनी राजनीतिक रूप से कितनी ‘ज्वलनशील’ वस्तु है और अतीत में उसकी किल्लत और बढ़ी हुई कीमतों के कारण कितनी सरकारों को उसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है?
यूपीए सरकार को इसलिए भी चिंतित और सतर्क हो जाना चाहिए कि इन दिनों सिर्फ चीनी की कीमतें ही नहीं चढ़ रही हैं बल्कि उसके साथ-साथ आम आदमी खासकर गांवों में रहनेवाले गरीब-गुरबों के लिए मिठास के एकमात्र स्रोत गुड़ की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। ध्यान रहे कि खुदरा बाजार में चीनी की कीमत लगभग 40 रूपए प्रति किलो तक पहंुच गयी है जबकि गुड़ भी 32 रूपए किलो के आसपास बिक रहा है। इसलिए यूपीए सरकार और खासकर आम आदमी की दुहाई देनेवाली कांगे्रस अगर इस मुगालते में है कि चीनी की आसमान छूती कीमतों से केवल शहरी उपभोक्ता परेशान हैं तो वह बहुत बड़े भ्रम में है। चीनी के साथ-साथ गुड़ की सरपट दौड़ती कीमतों के कारण ग्रामीण उपभोक्ता भी उतने ही परेशान हैं।
इसके बावजूद अगर सरकार निश्चिंत दिख रही है तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला, वह सचमुच में इस भ्रम में हो कि न तो महंगाई कोई मुद्दा है और न ही चीनी और गुड़ की बढ़ती कीमतों से लोगों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की दर पिछले तीन महीनों से शून्य से भी नीचे ऋणात्मक बनी हुई है, इसलिए चिंता करने की कोई खास बात नहीं है। यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक लगभग हर दिन याद दिलाते रहते हैं कि सूखे और बढ़ती महंगाई से निपटने के लिए सरकार के पास न सिर्फ पर्याप्त अनाज भंडार है बल्कि जरूरत पड़ने पर आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भंडार भी भरा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि महंगाई की बेकाबू सुरसा से लड़ने के नाम पर सरकार ‘डान क्विकजोट’ की तरह हवाई तलवार भांजती हुई नजर आ रही है।
जाहिर है कि ऐसा करते हुए वह मजाक का पात्र बन गयी है। लेकिन उससे अधिक वह महंगाई के आगे दयनीयता की हद तक पराजित दिख रही है। सच यही है कि यूपीए सरकार ने महंगाई की सुरसा के सामने घुटने टेक दिए हैं। दरअसल, महंगाई को लेकर सरकार की निश्चिंतता की दूसरी वजह भी यही है। उसने मान लिया है कि महंगाई को काबू में करना उसके वश की बात नहीं है। यही कारण है कि उसके कई मंत्री और अधिकारी न सिर्फ महंगाई को लेकर सरकार की विवशताओं की दुहाई दे रहे हैं बल्कि लोगों को इस महंगाई के साथ जीने की आदत डालने की सलाह दे रहे हैं।
लेकिन सबसे हास्यास्पद महंगाई का बचाव करना यानी उसे स्वाभाविक और उसके लिए बहुत हद तक प्राकृतिक कारणों (जैसे सूखे या दालों और गन्ने के कम उत्पादन आदि) को जिम्मेदार ठहराना जारी है। जबकि तथ्य इसके ठीक उलट हैं। सूखे की स्थिति पिछले कुछ सप्ताहों में पैदा हुई है जबकि महंगाई पिछले एक साल से अधिक समय से लगातार आसमान पर चढ़ी जा रही है। सच यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले साल अगस्त में ही दोहरे अंक में पहंुच गया था और तब से लगातार उसी के आसपास बना हुआ है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर भले ही अब भी ऋणात्मक बनी हुई हो लेकिन खेतिहर मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक इस साल जुलाई में 12.9 प्रतिशत की रेकार्ड उंचाई पर पहंुच गया है।
हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित आंकड़ों की आड़ लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रही है लेकिन सच यह है कि थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े न सिर्फ भ्रामक और चैथाई सच का बयान हैं बल्कि उनसे बड़ा मजाक कोई नहीं है। ये आंकड़े महंगाई के मारे लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने की तरह हैं। तथ्य यह है कि थोक मूल्य सूचकांक आसमान छूती महंगाई के बावजूद ऋणात्मक इसलिए है क्योंकि वह पिछले वर्ष की रेकार्डतोड़ महंगाई के आंकड़ों की तुलना में है। दूसरे, थोक मूल्य सूचकांक में खाद्यान्नों और दूसरी जरूरी वस्तुओं का भारांक बहुत कम है जिसके कारण अनाजों और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद सूचकांक की सेहत पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है।
यही कारण है कि इन वस्तुओं की कीमतों के आसमान छूने के बावजूद मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक बनी हुई है। इस तथ्य के बावजूद सच्चाई यह भी है कि थोक मूल्य सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं के खंड में केवल खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर 13.3 प्रतिशत की रेकार्डतोड़ उंचाई पर पहुंची हुई है। इसी तरह, थोक मूल्य सूचकांक में शामिल सभी खाद्यान्नों, खाद्य वस्तुओं और उत्पादों (कुल भारांक 26.9 प्रतिशत) की मुद्रास्फीति दर 11.6 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
इसके बावजूद यूपीए सरकार की निश्चिंतता और महंगाई की चुनौती से निपटने के बजाय उसके सामने घुटने टेक देनेवाला रवैया न सिर्फ चिंतित करनेवाला है बल्कि आम आदमी की धैर्य की परीक्षा ले रहा है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकार के इस रवैये का फायदा अनाजों, खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों के बड़े व्यापारी, बिचैलिए, सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं। उनकी तो जैसे चांदी हो गयी है। लेकिन उनपर लगाम लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सिरे से गायब है।
आखिर यूपीए सरकार किस बात का इंतजार कर रही है? क्या वह पानी सिर से गुजरने का इंतजार कर रही है? क्या वह अनाज के भरे भंडारों का मुंह तब खोलेगी जब लोग भूख से मरने लगेंगे? क्या वह अनाजों और जरूरी खाद्यान्नों का आयात तब करेगी जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें आसमान छूने लगेंगी?
मंगलवार, सितंबर 08, 2009
छात्र राजनीतिः संघर्ष का अधिकार बचाने की लड़ाई
आनंद प्रधान
खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करने वाले देश में इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि लोकतंत्र का मंत्रजाप करते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं और मंचों को निशाना बनाया जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंग- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका न सिर्फ इस मुहिम में शामिल हों बल्कि उसकी अगुवाई कर रहे हों। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस तरह से छात्रसंघों और छात्र राजनीति को खत्म करने और उन्हें अवांछनीय घोषित करने की संगठित मुहिम चलायी जा रही है, वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों के बिल्कुल विपरीत है। आखिर छात्रसंघों और छात्र राजनीति का कुसूर क्या है? क्या छात्रसंघों और छात्र राजनीति में अपराधियों, लफंगों, जातिवादी, सांप्रदायिक, क्षेत्रवादी और ठेकेदारों का बढ़ता दबदबा उन्हें खत्म करने देने का र्प्याप्त कारण माने जा सकते हैं?
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अगर छात्रसंघों और छात्र राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को उन्हें खत्म करने का र्प्याप्त तर्क मान लिया गया तो हमें विधायिका-संसद और विधानसभाओं के साथ-साथ लोकतांत्रिक राजनीति को भी भंग और प्रतिबंधित करना पड़ेगा। छात्रसंघों के खिलाफ सबसे बड़ा और शायद एकमात्र तर्क यह है कि वे अपराधियों और लंपट तत्वों के मंच बन गए हैं और परिसर के शैक्षणिक माहौल को बिगाड़ने के साथ-साथ कानून-व्यवस्था के लिए भी गंभीर समस्या बन गए है।
इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है। छात्र राजनीति में गिरावट और दिशाहीनता के कारण अपराधी, लंपट, ठेकेदार, जातिवादी, अवसरवादी और माफिया तत्वों की न सिर्फ घुसपैठ बढ़ी है बल्कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों-कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के जेबी छात्रसंगठनों के जरिए परिसरों के अंदर और छात्रसंघों में उनका दबदबा काफी बढ़ गया है। परिसरों की छात्र राजनीति में बाहुबलियों और धनकुबेरों के इस बढ़ते दबदबे के कारण आम छात्र न सिर्फ राजनीति और छात्रसंघों से दूर हो गए हैं बल्कि वे छात्र राजनीति और छात्रसंघों के मौजूदा स्वरूप से घृणा भी करने लगे हैं। यही नहीं, छात्र राजनीति और छात्रसंघों के अपराधीकरण के खिलाफ आम शहरियों में भी एक तरह गुस्सा और विरोध मौजूद है।
जाहिर है कि शासक वर्ग छात्र समुदाय और आम शहरियों की इसी छात्रसंघ विरोधी भावना को भुनाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इस आधार पर यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि उनका मकसद परिसरों की सफाई और उनमें शैक्षणिक माहौल बहाल करना है। दरअसल, दिल्ली समेत उत्तरप्रदेश या देश के अन्य राज्यों में जहां विश्वविद्यालय परिसर शैक्षणिक अराजकता के पर्याय बन गए हैं, उसके लिए छात्रसंघों को दोषी ठहराना सच्चाई पर पर्दा डालने और असली अपराधियों को बचाने की कोशिश भर है। सच यह है कि लंपट, अपराधी और अराजक छात्रसंघ और छात्र राजनीति मौजूदा शैक्षणिक अराजकता के कारण नहीं, परिणाम हैं। इस शैक्षणिक अराजकता के लिए केन्द्र और प्रदेश की सरकारों के साथ-साथ विश्वविद्यालय प्रशासन मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
अगर ऐसा नहीं है तो उत्तर प्रदेश और बिहार के विश्वविद्यालयों में भ्रष्ट, लंपट, नाकारा और शैक्षणिक रूप से बौने कुलपतियों की नियुक्ति के लिए कौन जिम्मेदार है? आखिर क्यों पिछले एक दशक से भी कम समय में उत्तरप्रदेश और बिहार के राज्यपाल को कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनियमितता और अन्य गंभीर आरोपों के कारण सामूहिक कार्रवाई करनी पड़ी है? क्या इसके लिए भी छात्रसंघ और छात्र राजनीति जिम्मेदार है? तथ्य यह है कि उत्तरप्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों में पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर वह सब कुछ हो रहा है जो शैक्षणिक गरिमा और माहौल के अनुकूल नहीं है। उस सबके लिए सिर्फ छात्रसंघों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
सच यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसर शिक्षा के कब्रगाह बन गए हैं। भ्रष्ट और नाकारा कुलपतियों और विभाग प्रमुखों ने पिछले तीन दशकों में परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और राजनीतिक दबाव के आधार पर निहायत नाकारा और शैक्षणिक तौर पर जीरो रहे लोगों को संकाय में भर्ती किया। इससे न सिर्फ परिसरों का शैक्षणिक स्तर गिरा बल्कि अक्षम अध्यापकों ने अपनी कमी छुपाने के लिए जातिवादी, क्षेत्रीय, अपराधी और अवसरवादी गुटबंदी शुरू कर दी। परिसरों में ऐसे अधिकारी-अध्यापक गुटों ने छात्रों में भी ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देना और आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। कालांतर में कुलपतियों और विश्वविद्यालयों के अन्य अफसरों ने भी अपने भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर पर्दा डालने के लिए ऐसे गुटों और गिरोहों का सहारा और संरक्षण लेना-देना शुरू कर दिया।
जाहिर है कि इससे परिसरों का शैक्षणिक माहौल बिगड़ने लगा। रही-सही कसर ९० के दशक में केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूरी कर दी। नयी शिक्षा नीति और आर्थिक सुधारों के दबाव में केन्द्र और राज्य सरकारों ने उच्च शिक्षा से सब्सिडी खत्म करने के नाम पर विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के बजट में भारी कटौती शुरू कर दी और विश्वविद्यालयों को अपने संसाधन खुद जुटाने के लिए कह दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि परिसरों में लाइब्रेरी में नयी किताबें और जर्नल आने बंद हो गए, प्रयोगशाला में उपकरणों और रसायनों का टोटा पड़ गया और उनका आधारभूत ढांचा चरमराने लगा। इस स्थिति से निपटने की हड़बड़ी में विश्वविद्यालयों ने बिना किसी तैयारी और आधारभूत ढांचे के स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों के नाम पर डिग्रियां बेचने और मान्यता देने का धंधा शुरू कर दिया।
इसके साथ ही अधिकांश विश्वविद्यालयों का ध्यान शैक्षिक गुणवत्ता, शोध, अध्यापन के बजाय अधिक से अधिक धन कमाने पर केन्द्रित हो गया। इस बहती गंगा में कुलपतियों से लेकर राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में बैठे अफसरों और मंत्रियों तक सभी हाथ धो रहे हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस आक्टोपसी रैकेट में राज्यपाल और मुख्यमंत्री से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन के आला अधिकारी तक सभी शामिल रहे हैं। विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक माहौल बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदारी इसी प्रभावशाली शैक्षिक माफिया की है जिसने उत्तरप्रदेश-बिहार से लेकर मध्यप्रदेश-राजस्थान तक परिसरों को अपने कब्जे में ले रखा है।
तथ्य यह है कि इस शैक्षिक माफिया ने ही छात्रसंघों और छात्र राजनीति को भी भ्रष्ट बनाया है। यह एक सुनियोजित योजना के तहत किया गया है। असल में, परिसरों में एक ईमानदार, संघर्षशील और बौद्धिक रूप से प्रगतिशील छात्रसंघ और छात्र राजनीति की मौजूदगी शैक्षिक माफिया को हमेशा से खटकती रही है क्योंकि वह उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होता रहा है। इसलिए लड़ाकू और ईमानदार छात्र राजनीति को खत्म करने के लिए शैक्षिक माफिया ने परिसरों में जानबूझकर लंपट, अपराधी, जातिवादी और क्षेत्रवादी तत्वों को संरक्षण और प्रोत्साहन देना शुरू किया। दूसरी ओर, उन्होंने छात्रसंघों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को 'घूस खिलाना, भ्रष्ट बनाना, फिर बदनाम करना और आखिर में दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकने` की रणनीति पर काम करना शुरू किया। इसका सीधा उद्देश्य अपने भ्रष्टाचार पर पर्दा डालना था।
शैक्षिक माफिया को अपने इस अभियान में छात्रऱ्युवा राजनीति के अपराधीकरण की उस प्रक्रिया से बहुत मदद मिली जो ७० के दशक में युवा हृदय सम्राट संजय गांधी की अगुवाई में शुरू हुई थी। संजय गांधी और उनकी चौकड़ी के नेतृत्व में युवा कांग्रेस और बाद में एनएसयूआई के अपराधीकरण ने जल्दी ही एक संक्रामक रोग की तरह समाजवादी और कथित राष्ट्रवादी धारा के छात्र संगठनों को भी अपने चपेट में ले लिया। जनता पार्टी सरकार के पतन, संपूर्ण क्रांति के आकस्मिक गर्भपात और लालू-नीतिश से लेकर असम आंदोलन से निकले छात्र नेताओं के उसी दलदल में फंसते जाने के साथ ही छात्र राजनीति से आदर्शवाद और बदलाव की इच्छा भी अकाल मृत्यु की शिकार हो गयी। जाहिर है कि शैक्षिक माफिया और अपराधी-जातिवादी-लंपट छात्र गिरोहों ने इस स्थिति का सबसे अधिक फायदा उठाया। उन्होंने छात्र राजनीति और छात्रसंघों को अपराधीकरण और जातिवादी गिरोहबंदी का पर्याय बना दिया।
इससे एनएसयूआई से लेकर 'ज्ञान-शील-एकता` की दुहाई देनेवाली विद्यार्थी परिषद और समाजवादी छात्र सभा जैसा कोई छात्र संगठन नहीं बचा। अपवाद सिर्फ वे वामपंथी और क्रांतिकारी जनवादी छात्र संगठन रहे जिन्होंने ८० के दशक के मध्य में उत्तरप्रदेश, बिहार और दिल्ली के परिसरों में इस अपराधीकरण और शैक्षिक अराजकता को चुनौती देने की कोशिश की। लेकिन आश्चर्य की बात है कि परिसरो में छात्र राजनीति के अपराधीकरण का रोना-रोनेवाले विश्वविद्यालय और राज्य प्रशासन ने छात्र राजनीति की इस धारा को कुचलने और खत्म करने की सबसे ज्यादा कोशिश की है। इसकी वजह बिल्कुल साफ है। ये छात्र संगठन शैक्षिक माफिया की कारगुजारियों को लगातार चुनौती देते रहे हैं।
इसलिए जो लोग यह सोचते और आशा बांधे हुए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित लिंगदोह समिति की सिफारिशों से परिसरों में शैक्षिक पुनर्जागरण हो जाएगा, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं। अगर ऐसा होना होता तो बिहार के सभी विश्वविद्यालय आज शैक्षणिक प्रगति की शानदार मिसाल होते क्योंकि इन विश्वविद्यालयों में पिछले २२ वर्षों से छात्रसंघ के चुनाव नहीं हुए हैं। लेकिन तथ्य इसके उल्टे हैं। बिहार के सभी विश्वविद्यालय शिक्षा की कब्रगाह बने हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि विश्वविद्यालयों के ढांचे में आमूलचूल बदलाव और उससे भ्रष्ट तत्वों की सफाई के बिना परिसरों की मौजूदा स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा क्योंकि मायावती मर्ज के बजाय लक्षण का इलाज कर रही हैं। अब तो खैर उन्होंने लक्षण का भी नहीं बल्कि सीधे मरीज को ही मार देने का उपाय कर दिया है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करने वाले देश में इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि लोकतंत्र का मंत्रजाप करते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं और मंचों को निशाना बनाया जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंग- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका न सिर्फ इस मुहिम में शामिल हों बल्कि उसकी अगुवाई कर रहे हों। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस तरह से छात्रसंघों और छात्र राजनीति को खत्म करने और उन्हें अवांछनीय घोषित करने की संगठित मुहिम चलायी जा रही है, वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मूल्यों के बिल्कुल विपरीत है। आखिर छात्रसंघों और छात्र राजनीति का कुसूर क्या है? क्या छात्रसंघों और छात्र राजनीति में अपराधियों, लफंगों, जातिवादी, सांप्रदायिक, क्षेत्रवादी और ठेकेदारों का बढ़ता दबदबा उन्हें खत्म करने देने का र्प्याप्त कारण माने जा सकते हैं?
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अगर छात्रसंघों और छात्र राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को उन्हें खत्म करने का र्प्याप्त तर्क मान लिया गया तो हमें विधायिका-संसद और विधानसभाओं के साथ-साथ लोकतांत्रिक राजनीति को भी भंग और प्रतिबंधित करना पड़ेगा। छात्रसंघों के खिलाफ सबसे बड़ा और शायद एकमात्र तर्क यह है कि वे अपराधियों और लंपट तत्वों के मंच बन गए हैं और परिसर के शैक्षणिक माहौल को बिगाड़ने के साथ-साथ कानून-व्यवस्था के लिए भी गंभीर समस्या बन गए है।
इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है। छात्र राजनीति में गिरावट और दिशाहीनता के कारण अपराधी, लंपट, ठेकेदार, जातिवादी, अवसरवादी और माफिया तत्वों की न सिर्फ घुसपैठ बढ़ी है बल्कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों-कांग्रेस, भाजपा, सपा आदि के जेबी छात्रसंगठनों के जरिए परिसरों के अंदर और छात्रसंघों में उनका दबदबा काफी बढ़ गया है। परिसरों की छात्र राजनीति में बाहुबलियों और धनकुबेरों के इस बढ़ते दबदबे के कारण आम छात्र न सिर्फ राजनीति और छात्रसंघों से दूर हो गए हैं बल्कि वे छात्र राजनीति और छात्रसंघों के मौजूदा स्वरूप से घृणा भी करने लगे हैं। यही नहीं, छात्र राजनीति और छात्रसंघों के अपराधीकरण के खिलाफ आम शहरियों में भी एक तरह गुस्सा और विरोध मौजूद है।
जाहिर है कि शासक वर्ग छात्र समुदाय और आम शहरियों की इसी छात्रसंघ विरोधी भावना को भुनाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इस आधार पर यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि उनका मकसद परिसरों की सफाई और उनमें शैक्षणिक माहौल बहाल करना है। दरअसल, दिल्ली समेत उत्तरप्रदेश या देश के अन्य राज्यों में जहां विश्वविद्यालय परिसर शैक्षणिक अराजकता के पर्याय बन गए हैं, उसके लिए छात्रसंघों को दोषी ठहराना सच्चाई पर पर्दा डालने और असली अपराधियों को बचाने की कोशिश भर है। सच यह है कि लंपट, अपराधी और अराजक छात्रसंघ और छात्र राजनीति मौजूदा शैक्षणिक अराजकता के कारण नहीं, परिणाम हैं। इस शैक्षणिक अराजकता के लिए केन्द्र और प्रदेश की सरकारों के साथ-साथ विश्वविद्यालय प्रशासन मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
अगर ऐसा नहीं है तो उत्तर प्रदेश और बिहार के विश्वविद्यालयों में भ्रष्ट, लंपट, नाकारा और शैक्षणिक रूप से बौने कुलपतियों की नियुक्ति के लिए कौन जिम्मेदार है? आखिर क्यों पिछले एक दशक से भी कम समय में उत्तरप्रदेश और बिहार के राज्यपाल को कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनियमितता और अन्य गंभीर आरोपों के कारण सामूहिक कार्रवाई करनी पड़ी है? क्या इसके लिए भी छात्रसंघ और छात्र राजनीति जिम्मेदार है? तथ्य यह है कि उत्तरप्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों में पढ़ाई-लिखाई को छोड़कर वह सब कुछ हो रहा है जो शैक्षणिक गरिमा और माहौल के अनुकूल नहीं है। उस सबके लिए सिर्फ छात्रसंघों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
सच यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश सहित उत्तर और मध्य भारत के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसर शिक्षा के कब्रगाह बन गए हैं। भ्रष्ट और नाकारा कुलपतियों और विभाग प्रमुखों ने पिछले तीन दशकों में परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और राजनीतिक दबाव के आधार पर निहायत नाकारा और शैक्षणिक तौर पर जीरो रहे लोगों को संकाय में भर्ती किया। इससे न सिर्फ परिसरों का शैक्षणिक स्तर गिरा बल्कि अक्षम अध्यापकों ने अपनी कमी छुपाने के लिए जातिवादी, क्षेत्रीय, अपराधी और अवसरवादी गुटबंदी शुरू कर दी। परिसरों में ऐसे अधिकारी-अध्यापक गुटों ने छात्रों में भी ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देना और आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। कालांतर में कुलपतियों और विश्वविद्यालयों के अन्य अफसरों ने भी अपने भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर पर्दा डालने के लिए ऐसे गुटों और गिरोहों का सहारा और संरक्षण लेना-देना शुरू कर दिया।
जाहिर है कि इससे परिसरों का शैक्षणिक माहौल बिगड़ने लगा। रही-सही कसर ९० के दशक में केन्द्र और राज्य सरकारों ने पूरी कर दी। नयी शिक्षा नीति और आर्थिक सुधारों के दबाव में केन्द्र और राज्य सरकारों ने उच्च शिक्षा से सब्सिडी खत्म करने के नाम पर विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के बजट में भारी कटौती शुरू कर दी और विश्वविद्यालयों को अपने संसाधन खुद जुटाने के लिए कह दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि परिसरों में लाइब्रेरी में नयी किताबें और जर्नल आने बंद हो गए, प्रयोगशाला में उपकरणों और रसायनों का टोटा पड़ गया और उनका आधारभूत ढांचा चरमराने लगा। इस स्थिति से निपटने की हड़बड़ी में विश्वविद्यालयों ने बिना किसी तैयारी और आधारभूत ढांचे के स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों के नाम पर डिग्रियां बेचने और मान्यता देने का धंधा शुरू कर दिया।
इसके साथ ही अधिकांश विश्वविद्यालयों का ध्यान शैक्षिक गुणवत्ता, शोध, अध्यापन के बजाय अधिक से अधिक धन कमाने पर केन्द्रित हो गया। इस बहती गंगा में कुलपतियों से लेकर राज्य सरकार के शिक्षा विभाग में बैठे अफसरों और मंत्रियों तक सभी हाथ धो रहे हैं। दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस आक्टोपसी रैकेट में राज्यपाल और मुख्यमंत्री से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन के आला अधिकारी तक सभी शामिल रहे हैं। विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक माहौल बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदारी इसी प्रभावशाली शैक्षिक माफिया की है जिसने उत्तरप्रदेश-बिहार से लेकर मध्यप्रदेश-राजस्थान तक परिसरों को अपने कब्जे में ले रखा है।
तथ्य यह है कि इस शैक्षिक माफिया ने ही छात्रसंघों और छात्र राजनीति को भी भ्रष्ट बनाया है। यह एक सुनियोजित योजना के तहत किया गया है। असल में, परिसरों में एक ईमानदार, संघर्षशील और बौद्धिक रूप से प्रगतिशील छात्रसंघ और छात्र राजनीति की मौजूदगी शैक्षिक माफिया को हमेशा से खटकती रही है क्योंकि वह उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होता रहा है। इसलिए लड़ाकू और ईमानदार छात्र राजनीति को खत्म करने के लिए शैक्षिक माफिया ने परिसरों में जानबूझकर लंपट, अपराधी, जातिवादी और क्षेत्रवादी तत्वों को संरक्षण और प्रोत्साहन देना शुरू किया। दूसरी ओर, उन्होंने छात्रसंघों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को 'घूस खिलाना, भ्रष्ट बनाना, फिर बदनाम करना और आखिर में दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकने` की रणनीति पर काम करना शुरू किया। इसका सीधा उद्देश्य अपने भ्रष्टाचार पर पर्दा डालना था।
शैक्षिक माफिया को अपने इस अभियान में छात्रऱ्युवा राजनीति के अपराधीकरण की उस प्रक्रिया से बहुत मदद मिली जो ७० के दशक में युवा हृदय सम्राट संजय गांधी की अगुवाई में शुरू हुई थी। संजय गांधी और उनकी चौकड़ी के नेतृत्व में युवा कांग्रेस और बाद में एनएसयूआई के अपराधीकरण ने जल्दी ही एक संक्रामक रोग की तरह समाजवादी और कथित राष्ट्रवादी धारा के छात्र संगठनों को भी अपने चपेट में ले लिया। जनता पार्टी सरकार के पतन, संपूर्ण क्रांति के आकस्मिक गर्भपात और लालू-नीतिश से लेकर असम आंदोलन से निकले छात्र नेताओं के उसी दलदल में फंसते जाने के साथ ही छात्र राजनीति से आदर्शवाद और बदलाव की इच्छा भी अकाल मृत्यु की शिकार हो गयी। जाहिर है कि शैक्षिक माफिया और अपराधी-जातिवादी-लंपट छात्र गिरोहों ने इस स्थिति का सबसे अधिक फायदा उठाया। उन्होंने छात्र राजनीति और छात्रसंघों को अपराधीकरण और जातिवादी गिरोहबंदी का पर्याय बना दिया।
इससे एनएसयूआई से लेकर 'ज्ञान-शील-एकता` की दुहाई देनेवाली विद्यार्थी परिषद और समाजवादी छात्र सभा जैसा कोई छात्र संगठन नहीं बचा। अपवाद सिर्फ वे वामपंथी और क्रांतिकारी जनवादी छात्र संगठन रहे जिन्होंने ८० के दशक के मध्य में उत्तरप्रदेश, बिहार और दिल्ली के परिसरों में इस अपराधीकरण और शैक्षिक अराजकता को चुनौती देने की कोशिश की। लेकिन आश्चर्य की बात है कि परिसरो में छात्र राजनीति के अपराधीकरण का रोना-रोनेवाले विश्वविद्यालय और राज्य प्रशासन ने छात्र राजनीति की इस धारा को कुचलने और खत्म करने की सबसे ज्यादा कोशिश की है। इसकी वजह बिल्कुल साफ है। ये छात्र संगठन शैक्षिक माफिया की कारगुजारियों को लगातार चुनौती देते रहे हैं।
इसलिए जो लोग यह सोचते और आशा बांधे हुए हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित लिंगदोह समिति की सिफारिशों से परिसरों में शैक्षिक पुनर्जागरण हो जाएगा, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं। अगर ऐसा होना होता तो बिहार के सभी विश्वविद्यालय आज शैक्षणिक प्रगति की शानदार मिसाल होते क्योंकि इन विश्वविद्यालयों में पिछले २२ वर्षों से छात्रसंघ के चुनाव नहीं हुए हैं। लेकिन तथ्य इसके उल्टे हैं। बिहार के सभी विश्वविद्यालय शिक्षा की कब्रगाह बने हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि विश्वविद्यालयों के ढांचे में आमूलचूल बदलाव और उससे भ्रष्ट तत्वों की सफाई के बिना परिसरों की मौजूदा स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा क्योंकि मायावती मर्ज के बजाय लक्षण का इलाज कर रही हैं। अब तो खैर उन्होंने लक्षण का भी नहीं बल्कि सीधे मरीज को ही मार देने का उपाय कर दिया है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
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