रविवार, जुलाई 26, 2009

चैनलों की तर्क शक्ति पर सूर्य ग्रहण

आनंद प्रधान

समाचार मीडिया खासकर हिन्दी समाचार चैनलों का पहले भी तर्क और विज्ञान से कोई खास लगाव नहीं था लेकिन अब ऐसा लगता है कि उनसे इसकी अपेक्षा करना भी बेकार है। सूर्यग्रहण जैसी नितांत प्राकृतिक और खगोलीय परिघटना को जिस तरह से कुछ प्रमुख हिन्दी समाचार चैनलों और अखबारों ने अंधविश्वास फैलाने और उसे मज़बूत बनाने का मौका बना दिया, उससे एक बार फिर इस बात की पुष्टि हो गई कि उनके शब्दकोष से विज्ञान और तर्क जैसे शब्द बेदखल हो गए हैं। ऐसा लगा कि जैसे चैनलों की तर्कशक्ति और विवेक पर सूर्यग्रहण लग गया हो। सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे बताए जाने वाले कुछ समाचार चैनलों ने सूर्यग्रहण जैसी निश्चित खगोलीय परिघटना को रहस्यमय घटना बना दिया। उन्होंने सूर्यग्रहण के बहाने तमाम तरह के अनिष्टों का भय दिखाते हुए दर्शकों को डराना शुरू कर दिया। सूर्यग्रहण जैसी खगोलीय परिघटना की व्याख्या के लिए वैज्ञानिकों और खगोलविदों से चर्चा करने के बजाय चैनलों और अखबारों ने ज्योतिषियों को कमान थमाकर जिस तरह से दर्शकों का भयादोहन किया, वह हैरान करनेवाला था।
सूर्यग्रहण के कुछ दिनों पहले से ही कुछ समाचार चैनलों और अखबारों ने इसके काल्पनिक कुप्रभावों को लेकर जिस तरह से उन्मादपूर्ण माहौल बनाने की कोशिश की, वह ना सिर्फ देश में वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नुकसान पहुंचानेवाला था बल्कि वह टेलीविजन चैनलों की कार्यक्रम आचारसंहिता का भी उल्लंघन था। हैरत की बात यह है कि हमारे जनसंचार माध्यम यह सब उस समय कर रहे हैं जब भारत दुनिया में अपने वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संसाधनों के कारण विशेष पहचान बना रहा है और दूसरी ओर, देश वैज्ञानिक प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए विशेष अभियान चला रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि विज्ञान का विकास किसी शून्य में नहीं होता। विज्ञान के विकास के लिए समाज में व्यापक वैज्ञानिक मानसिकता का प्रसार होना ज़रूरी है।
ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जनसंचार माध्यमों खासकर समाचार मीडिया की है। उसमें भी भाषाई मीडिया की ज़िम्मेदारी सबसे अधिक है क्योंकि आमलोगों से सबसे अधिक जुड़ाव उनका ही है। ऐसा नहीं है कि समाचार मीडिया ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में कोई भूमिका नहीं निभायी है या उसकी दिलचस्पी सिर्फ अंधविश्वास फैलाने में रही है। सच तो यह है कि सूर्यग्रहण के मौके पर अंधविश्वास फैलानेवाले देश के सबसे तेज़ चैनल ने कोई एक दशक पहले गणेश को दूध पिलानेवाली घटना का जिस तरह पर्दाफाश किया था, वह इस बात का शानदार उदाहरण था कि ऐसे मौकों पर समाचार मीडिया क्या कुछ कर सकता है। यह सचमुच बहुत अफसोस की बात है कि वही चैनल आज अंधविश्वास फैलाने में सबसे आगे दिखाई पड़ रहा है। सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि चैनलों ने अपनी अतीत की ग़लतियों से कोई सबक न लेने की कसम सी खा ली है। वे हर बार उन्ही ग़लतियों को दोहराते दिखाते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे वे इसे ग़लती मानते ही नही हैं बल्कि उन्हे लगता है कि वे बिल्कुल सही कर रहे हैं।
निश्चय ही, यह केबल नेटवर्क रेग्यूलेशन कानून के तहत कार्यक्रम आचार संहिता का भी उल्लंघन है जिसमें साफतौर पर अंधविश्वास फैलाने पर रोक का प्रावधान है। लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों को इसकी कोई परवाह नहीं रह गई है। यही नहीं, सूर्यग्रहण को लेकर कुछ हिन्दी समाचार चैनलों ने जिस तरह से अंधविश्वास फैलाने और लोगों में डर पैदा करने का काम किया, वह समाचार चैनलों के आत्मनियमन के दावे की भी पोल खोलने के लिए काफी था। इस प्रकरण से एक बार फिर यह बात साफ हो गई कि टीआरपी की अंधी होड़ में समाचार चैनलों के लिए आत्मनियमन सबसे पहला शिकार होता है।
यही नहीं, सूर्यग्रहण प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि समाचार चैनल टीआरपी की जिस भेड़चाल में फंस गए हैं, वह एक ऐसी अंधी सुरंग है जिससे बाहर निकलने का रास्ता दिखाने में आत्मनियमन की व्यवस्था बार बार विफल साबित हो रही है। लेकिन चैनलों का यही रवैया बना रहा तो वो दिन दूर नही जब उनके सार्वजनिक रेग्युलेशन की माँग ना सिर्फ़ और ज़ोर पकड़ने लगेगी बल्कि उसे एक तरह की सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति भी मिल जाएगी। जाहिर है इसके लिए सबसे अधिक समाचार चैनल ही ज़िम्मेदार होंगे. हालाँकि ये अभिव्यक्ति की आज़ादी के व्यापक अधिकार के लिए एक बड़ी ट्रजेडी साबित हो सकती है लेकिन इसे चैनल ही आमंत्रित कर रहे हैं।
इस बार एक अच्छी बात यह हुई कि कुछ गिने-चुने समाचार चैनलों और अखबारों ने इस भेड़चाल में शामिल होने के बजाय सूर्यग्रहण को एक खगोलीय परिघटना के रूप में ही दिखाया और खुद को अंधविश्वासों से दूर रखा। निश्चय ही, ऐसे चैनलों और अखबारों की तारीफ की जानी चाहिए जो भेड़चाल में शामिल होने इनकार कर रहे हैं। इससे यह संभावना बनती है कि अंधविश्वास फैलाने और दर्शकों का भयादोहन के ज़रिए टीआरपी बटोरने के शार्टकट से अलग रास्ता भी है। लेकिन इन चैनलों से ये भी अपेक्षा है कि वे अपने संगठन न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोयियेशन के मंच पर उन चैनलों के खिलाफ आवाज़ ज़रूर उठाएं जिन्होने आत्मनियमन की धज्जियाँ उड़ा दी।

इससे इतर, यह उन वैज्ञानिक एजेंसियों की विफलता का भी प्रमाण है जिनपर वैज्ञानिक मानसिकता के विकास का जिम्मा है और जो हर साल करोड़ों रुपया विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्च करती हैं। सूर्य ग्रहण के मौके पर वे भी गायब दिखीं जबकि ये एक शानदार अवसर था जब वे लोगों में वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचार-प्रसार के लिए इस मौके का इस्तेमाल कर सकती थी। उन्हें भी अपनी रणनीति पर ज़रूर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में उनकी भी बड़ी भूमिका है। लेकिन हर ऐसे मौके पर वे मौका चूकने के लिए अभिशप्त सी हो गई हैं।

2 टिप्‍पणियां:

dpkraj ने कहा…

निश्चय ही, यह केबल नेटवर्क रेग्यूलेशन कानून के तहत कार्यक्रम आचार संहिता का भी उल्लंघन है जिसमें साफतौर पर अंधविश्वास फैलाने पर रोक का प्रावधान है। लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों को इसकी कोई परवाह नहीं रह गई है।
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आपके द्वारा दी गयी उपरोक्त जानकारी महत्वपूर्ण एवं विचारणीय है।
दीपक भारतदीप

Vinay ने कहा…

बहुत अच्छा लेख!
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1. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
2. चाँद, बादल और शाम