आनंद प्रधान मतदाताओं ने एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर चुनावी भविष्यवक्ताओं और यहां तक कि राजनीतिक दलों को भी चैका दिया है। किसी ने भी ऐसे परिणाम की उम्मीद नही की थी। ऐसे संकेत थे कि कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आएगा लेकिन वह अकेले सत्ता के इतने करीब पहंुच जाएगा, इसका एहसास किसी को नही था। खुद कांग्रेस को यह उम्मीद नहीं थी कि उसे 200 के आस-पास और यूपीए को 260 सीटों के करीब सीटें आ जाएंगी। इसीलिए चुनावों के दौरान और मतगणना से पहले सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ और सौदेबाजी की चर्चाएं खूब जोर-शोर से चलती रहीं।
लेकिन ऐसा लगता है कि मतदाताओं को यह सब पसंद नही आया। उसने साफ तौर पर जोड़तोड़ और सौदेबाजी की राजनीति को नकार दिया है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि यह छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों और सत्ता के भूखे नेताओं के अवसरवाद और निजी स्वार्थो की ‘सिनीकलश् राजनीति के खिलाफ जनादेश है। यह भाजपा की साम्प्रदायिक और बड़बोली राजनीति की भी हार है। इसके साथ ही यह माकपा की तथाकथित तीसरे मोर्चे की उस राजनीति के खिलाफ भी जनादेश है जिसने कांगे्रस और भाजपा का विकल्प देने के नाम पर एक ऐसा अवसरवादी और सत्तालोलुप गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश की जिसका एक मात्र मकसद सत्ता की मलाई मे अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए मोलतोल की ताकत जुटाना था।
ऐसा कहने के पीछे कांग्रेस की जीत को कम करके आंकने की कोशिश नही है। निश्चय ही, इस जीत का श्रेय कांग्रेस को मिलना चाहिए। इसमे भी कोई ‘ाक नही है कि यह यूपीए से अधिक कांग्रेस की जीत है और कांग्रेस नेतृत्व को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए। उसने अवसरवादी गठबंधनों और जोड़तोड़ की राजनीति के खिलाफ बह रही हवा के रूख को समय रहते भांप लिया। यही कारण है कि चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया। उसने यह ऐलान कर दिया कि इन चुनावों में वह राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए जैसे किसी गठबंधन के तहत किसी दल या दलों के साथ कोई गठबंधन करने के बजाय राज्य स्तर पर गठबंधन करेगी। इस फैसले के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने यूपीए गठबंधन के कई घटक दलों की नाराजगी के बावजूद उत्तरप्रदेश और बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।
कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला है। उत्तरप्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति को तगड़ा झटका लगा है। खासकर उत्तरप्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह की कीमत पर कांग्रेस को न सिर्फ अपना पैर जमाने की जगह मिल गयी है बल्कि वह एक बड़ी ताकत के रूप मे उभर कर सामने आ गयी है। यही नही, उसने महाराष्ट्र जैसे राज्य में गठबंधन के बावजूद ‘ारद पवार जैसे महत्वाकांक्षी राजनेता को काबू मे रखने मे कामयाबी हासिल की है।
यह किसी से छिपा नही है कि एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस कभी भी गठबंधन की राजनीति के साथ सहज महसूस नही करती है। हालांकि 2004 में उसे मजबूरी में यूपीए गठबंधन के तहत राज चलाना पड़ा लेकिन उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और गठबंधन के दबावों के बीच एक घोषित-अघोषित संघर्ष लगातार जारी रहा। यह सच है कि गठबंधन राजनीति के प्रति भाजपा जितनी लचीली और समावेशी है, उतनी कांग्रेस नही हो सकती है। इसकी वजह यह है कि देश के उन सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलो का उभार हुआ है, वहां उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से है या किसी न किसी रूप में कांग्रेस के राजनीतिक हित जुड़े हुए है।
ऐसे में, कांग्रेस के लिए गठबंधन खासकर उन क्षेत्रीय दलों के साथ हमेशा से असहज रहा है जो कांग्रेस की कीमत पर उभर कर सामने आए हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत के राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दो राज्यों-उत्तरप्रदेश और बिहार में कभी मायावती और कभी मुलायम और लालू के साथ हेलमेल करने के बावजूद कांग्रेस अपने पुनरोदय के लिए हमेशा बेचैन रही है। राष्ट्रीय राजनीति मे अपनी कंेद्रीयता बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करे। मुलायम सिंह, लालूप्रसाद, रामविलास पासवान और मायावती की संकीर्ण निजी स्वार्थो की सिनीकल राजनीति ने कांग्रेस को यह मौका दे भी दिया है।
कई राजनीतिक विश्लेषकों की यह राय काफी हद तक ठीक प्रतीत होती है कि यह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की छुद्र व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और ब्लैकमेल की राजनीति के खिलाफ एक स्थिर सरकार के पक्ष में जनादेश है। यही कारण है कि हारने के बावजूद भाजपा खुश है कि यह राष्ट्रीय दलों के पक्ष मे जनादेश है। निश्चय ही, यह जनादेश क्षेत्रीय दलों खासकर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों के लिए चेतावनी की घंटी है। उनकी नग्न अवसरवादी, सत्तालोलुप, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति ने लोगों को सबसे अधिक निराश किया है। अपने राजनीतिक पतन के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं।
लेकिन क्षेत्रीय दलों और उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे के इस राजनीतिक पतन और कांग्रेस के उभार के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी कि भारतीय राजनीति द्विदलीय होने की ओर बढ़ रही है और तीसरी राजनीति के लिए जगह खत्म हो रही है। सच यह है कि कांग्रेस का मुकाबला करने में भाजपा की नाकामयाबी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तीसरी जगह की मांग मौजूद है। यही नही, इससे पहले कई भाजपा ‘ाासित राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में कांग्रेस की विफलता से भी यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय राजनीति में एक वास्तविक गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प के लिए जगह मौजूद है।
ऐसे तीसरे विकल्प के लिए जगह इसलिए भी मौजूद है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के बीच नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर बहुत फर्क नही रह गया है। दोनों दलों की आर्थिक वैचारिकी और नीतियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। दोनों नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की खुली समर्थक हैं। विदेश नीति के मामले में भी दोनों में कोई खास फर्क नही है। दोनों अमेरिकी खेमे का हिस्सा बनने के लिए एक दूसरे से बढ़कर प्रयास करते रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी दोनों पार्टियां लगभग एक ही तरह से सोचती हैं। यही नहीं, उन दोनों के बीच साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जो फर्क दिखाई भी पड़ता है, वह दिखाने का फर्क अधिक है। सच यह है कि भाजपा कट्टर हिन्दुत्व और कांग्रेस नरम हिन्दुत्व की राजनीति करती रही है।
यही कारण है कि कांग्रेस, भाजपा का और भाजपा, कांग्रेस का वास्तविक विकल्प नहीं है। हालांकि ‘ाासक वर्ग की हरसंभव कोशिश यह है कि राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय राजनीति को इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच सीमित कर दिया जाए। लेकिन जमीनी हालात इसके ठीक विपरीत हैं। मौजूदा आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक नीतियों के कारण लगातार हाशिए पर ढकेले जा रहे गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों-आदिवासियों, अल्पसंख्यकांे और निम्न मध्यवर्गीय तबकों में गहरी बेचैनी है। पिछले पांच वर्षो में सेज से लेकर बड़े उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण और खनन के पट्टों के खिलाफ देश भर में जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी आ गयी है। निश्चय ही, इस बेचैनी का विकल्प देने में कांग्रेस और भाजपा अपनी राजनीति के कारण अक्षम है।
लेकिन इस बेचैनी और सड़को की लड़ाई को एक मुकम्मल राजनीतिक विकल्प देने में तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियां खासकर माकपा और वाम मोर्चा पूरी तरह से नाकाम रहे है। उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता यह है कि आर्थिक नीतियों के मामले में वे भी उन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार बन गये हैं जिसके खिलाफ लड़ने का नाटक करते रहते हैं। तथ्य यह है कि पश्चिम बंगाल में माकपा को नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को हिंसक तरीके से लागू करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। इसी तरह, लोगों ने चंद्रबाबूु नायडु को इन आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से लागू करने के लिए अब तक माफ नहीं किया है। मुलायम सिंह को भी अमर सिंह-अनिल अंबानी के निर्देशन में कारपोरेट समाजवाद की कीमत अबतक चुकानी पड़ रही हैं।
इसलिए जो विश्लेषक कांग्रेस की जीत और वामपंथी पार्टियों की करारी हार को इस रूप में पारिभाषित कर रहे है कि यह नवउदारवादी आर्थिक को बेरोकटोक आगे बढ़ाने का जनादेश है, वह इस जनादेश की न सिर्फ गलत व्याख्या कर रहे है बल्कि उसे अपनी संकीर्ण हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस की नई सरकार ने अगर इस जनादेश को आम आदमी के हितों की कीमत पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का जनादेश समझकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। उसे यह याद रखना चाहिए कि पार्टी को आर्थिक सुधारों के पैरोकारों के विरोध के बावजूद नरेगा जैसी योजनाओं और किसानों की कर्जमाफी का राजनीतिक लाभ मिला है। यहीं नहीं, उसने अपने चुनाव घोषणापत्र में तीन रूपए किलो चावल और गेहूं देने का वायदा किया है।
इसके बावजूद यह कांग्रेस को पूरा जनादेश नही है. उसे लोकसभा की एक तिहाई से कुछ ही अधिक सीटें और तीस फीसदी से कम वोट मिले हैं। एक तरह से मतदाताओं ने कांग्रेस को एक नियंत्रित जनादेश दिया है कि वह मौजूदा वैश्विक मंदी, पड़ोसी देशों की राजनीतिक अस्थिरता और घरेलू राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक समावेशी राजनीतिक आर्थिक एजेंडे पर संभल संभल कर चले। कांग्रेस ने अगर इस नियंत्रित जनादेश को मनमानी करने का लाइसेंस समझ लिया तो वह ना सिर्फ अपने साथ धोखा करेगी बल्कि जनादेश का भी अपमान होगा। कांग्रेस में ऐसी मनमानी करने की प्रवृत्ति रही है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को इस लोभ से बचना चाहिए। हालांकि उसे ऐसा करने के लिए उकसाने वाले देसी विदेशी ताकतें सक्रिय हो गई हैं। लेकिन उसे संयम बरतना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि यूपीए सरकार पर अंकुश रखने के लिए 2004 की तरह इस बार वाम मोर्चा नहीं होगा।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक और खुद कांग्रेस पार्टी के अंदर बहुत लोग वाम मोर्चे के शिंकजे से मुक्ति पाने पर खुशियां मना रहे हैं। निश्चय ही, वाम मोर्चा को पहले यूपीए सरकार का समर्थन करने और उसके बाद हताशा में एक सिद्धांतहीन, अवसरवादी और साख खोए नेताओं का तीसरा मोर्चा बनाने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कांग्रेस को गरीबों और कमज़ोर वर्गों को राहत देने के एजेंडे और जबावदेही से मुक्ति मिल गई हो। अच्छी बात यह हुई है कि मतदाताओं ने वामपंथी दलों को विपक्ष में बैठक में बैठने का जनादेश दिया है। उन्हें ना सिर्फ इसका सम्मान करना चाहिए बल्कि इसके सबक को भी ईमानदारी से समझना चाहिए। इसका सबक यह है कि शासक वर्गों की साख खो चुकी पार्टियों के साथ खड़े होने से उन पार्टियों की तो साख और चमक लौट आती है लेकिन वाम राजनीति अपनी धार, साख और चमक खो देती है।
उम्मीद करनी चाहिए कि माकपा वाम मोर्चे की दुर्गति से सबक लेकर चंद्रबाबू नायडू से लेकर नवीन पटनायक और नीतिश कुमार तक को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांटने और मायावती से लेकर जयललिता को कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताने की अवसरवादी राजनीति करने की बजाय देशभर में सभी वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों को साथ लेकर एक वास्तविक विपक्ष खड़ा करने की पहल करेगी। यह विपक्ष सिर्प संसद तक नहीं बल्कि संसद से बाहर जनता के बीच और सड़कों पर दिखना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भाजपा भी विपक्ष में चैन से नहीं बैठने वाली है। आशंका है कि वह विपक्ष की जगह का इस्तेमाल करके अपनी नफरत और विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिस करे। वामपंथी-लोकतांत्रिक शक्तियों को विपक्ष से भी भाजप को बेदखल करने के लिए रोज़ी रोटी के सवालों को जनसंघर्षों का मुद्दा बनाना पड़ेगा।
लेकिन इसके लिए माकपा और वाम मोर्चे को ईमानदारी से पहल करनी होगी। खासकर माकपा को ना सिर्फ निर्मम आत्मविश्लेषण करना होगा बल्कि देश भर की वाम –लोकतांत्रिक शक्तियों का विश्वास हासिल करने के लिए अपनी गलतियों को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाना चाहिए। इसकी शुरुआत नंदीग्राम , सिंगूर और लालगढ़ के लिए सार्वजनिक माफी मांग करके हो सकती है। क्या माकपा इस ईमानदार पहल के लिए तैयार है ?