बुधवार, अप्रैल 29, 2009
उत्तरप्रदेश में तीसरे चरण का चुनाव : सपा और बसपा के बीच है अवध और बुंदेलखंड की जंग
नई दिल्ली, 29 अप्रैल। उत्तरप्रदेश में गुरूवार को हो रहे तीसरे चरण के मतदान में 15 सीटें दांव पर हैं। मध्य उत्तरप्रदेश में अवध और बुंदेलखंड की इन सीटों पर मुख्य मुकाबला सपा और बसपा के बीच है जबकि आधा दर्जन से अधिक सीटों पर कांग्रेस और भाजपा भी मुख्य मुकाबले में हैं। 2004 के आम चुनावों में इन 15 सीटों में सपा को 6, बसपा को 5 और कांग्रेस और भाजपा को दो-दो सीटें मिली थीं। परिसीमन के बाद 15 सीटों में से छह सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित कर दी गयी हैं।
इस तीसरे चरण में प्रदेश की कई हाई-प्रोफाइल सीटों-लखनऊ, रायबरेली, कानपुर में कांग्रेस और भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। रायबरेली में कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की जीत में किसी को शक नहीं है लेकिन प्रियंका गांधी भीषण गर्मी के बीच गांव-गांव की खाक छान रही हैं ताकि जीत का मार्जिन पिछली बार से कम न हो। अलबत्ता कानपुर में केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री और कांग्रेस प्रत्याशी श्रीप्रकाश जायसवाल एक कठिन चतुष्कोणीय लड़ाई में जरूर फंस गए हैं। उनके सामने अपने गृह किले को बचाने की चुनौती है लेकिन अगर सपा प्रत्याशी सुरेन्द्र मोहन अग्रवाल का चुनाव आखिरी दिन तक नहीं चढ़ा तो जायसवाल एक बार फिर कानपुर का किला फतह करने का चमत्कार दिखा सकते हैं।
लेकिन सबसे दिलचस्प मुकाबला प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हो रहा है। यहां भाजपा नेता लालजी टंडन, बसपा प्रत्याशी अखिलेश दास गुप्ता, सपा उम्मीदवार नफीसा अली और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला है। बसपा प्रत्याशी और यूपीए सरकार में केन्द्रीय मंत्री रहे अखिलेश दास पिछले एक साल से पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि उनके लिए लखनऊ अभी दूर है। सपा की ओर से फिल्म अभिनेता संजय दत्त को मैदान में उतारने के फिल्मी नाटक के पटाक्षेप के बाद नफीसा अली वास्तविक कम और एवजी उम्मीदवार अधिक लगती हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस प्रत्याशी रीता बहुगुणा की भी है। ऐसे में, भाजपा यह सीट बचा ले जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कांगे्रस को उन्नाव में अन्नू टंडन, बाराबंकी में प्रदेश के प्रमुख सचिव और मायावती के करीबी रहे नौकरशाह पी एल पुनिया, सीतापुर में पूर्व गृह राज्यमंत्री रामलाल राही, झांसी में पार्टी विधायक प्रदीप जैन, मोहनलालगंज में मायावती के करीबी और बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष आर के चैधरी से भी काफी उम्मीदे हैं। लेकिन इनमें उन्नाव में पार्टी प्रत्याशी अन्नू टंडन जीत के सबसे करीब हैं। वह रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अंबानी की काफी करीब मानी जाती हैं और उनका चुनाव अभियान बिल्कुल कारपोरेट शैली में चल रहा है। उन्होंने देश की इस सबसे अधिक मतदाताओं वाली सीट पर अपने कार्यकर्ताओं और प्रचारकों का चयन बिल्कुल कंपनी के कर्मचारियों की तरह किया है। उनके मुकाबले बसपा ने लखनऊ के जानेमाने माफिया डॉन अरुण शंकर शुक्ल ‘अन्ना' को उतारा है जिसकी प्रतिक्रिया का फायदा भी टंडन को मिल रहा है।
तीसरे चरण में भाजपा लखनऊ, कानपुर, झांसी के अलावा जालौन, बहराइच, अकबरपुर में लड़ाई में है लेकिन वोटों में वृद्धि के बावजूद वह दो से अधिक सीट जीतने की स्थिति में नहीं दिख रही है। हालांकि इन सीटों पर सपा-बसपा और कांग्रेस के बीच मतों का ज्यादा बिखराव हुआ तो भाजपा मामूली अंतर से और एक-दो सीटें निकाल सकती हैं। अन्यथा भाजपा को इस चरण से अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अवध और बुंदेलखंड का यह इलाका एक समय में भाजपा की राजनीति के लिए बहुत उर्वर साबित हुआ जब राम लहर पर चढ़कर पार्टी ने 15 में से 12 सीटें जीत ली थीं लेकिन उसके बाद से सरयू और बेतवा में बहुत पानी बह चुका है।
अब यह इलाका बसपा और सपा का गढ़ है। अधिकांश सीटों पर उनके बीच ही मुकाबला हो रहा है। पन्द्रह में से कुल 11 सीटों अकबरपुर, सीतापुर, हरदोई (सु.), मिसरिख (सु.), मोहनलालगंज (सु.),जालौन (सु.), झांसी, हमीरपुर, फतेहपुर, बाराबंकी और बहराइच (सु.) पर असली मुकाबला सपा और बसपा के बीच है जिनमें से कुछ सीटों पर कांग्रेस और कुछ पर भाजपा मुकाबले को त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश कर रहे हैं। बसपा के लिए यह चरण सबसे महत्त्वपूर्ण है। उसे न सिर्फ अपनी पांच सीटें बचाने की चुनौती है बल्कि उन्हें अधिक से अधिक बढ़ाने की भी क्योंकि इसके बाद चौथे और पांचवे चरण में सपा और रालोद-भाजपा के इलाके में हाथी के लिए रास्ता आसान नहीं है।
शनिवार, अप्रैल 25, 2009
पूर्वांचल की राजनीति के बदलते रंग : लूटले बा, लुटावत बा, आ लुटे खातिर धावत बा
पूर्वांचल यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति पर अपराधियों-माफियाओं और धनबलियों के बढ़ते दबदबे के खिलाफ विरोध के सुर और बदलाव की सुगबुगाहट को सुनाई देने लगी है। हालांकि मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दलों ने बदलाव की इस सुगबुगाहट को नजरअंदाज करते हुए अपराधियों और धनबलियों को दोनों हाथों से टिकट बांटा है और मतदाताओं के लिए कोई खास विकल्प नहीं छोड़ा है। लेकिन इस सबके खिलाफ लोगों की निराशा और गुस्से का इजहार कई रूपों में हो रहा है। यह पूर्वांचल की उन 16 सीटों पर नए गुल खिला सकता है जहां इस गुरूवार को मतदान होना है।
पूर्वांचल देश के सबसे पिछड़े और गरीब इलाकों में से एक है। लेकिन इस गरीब और पिछड़े इलाके में करोड़पति प्रत्याशियों की भरमार है। यहां की 16 सीटों के लिए कुल 272 प्रत्याशी मैदान में हैं जिनमें 36 करोड़पति हैं। यूपी इलेक्शन वाच और पीवीसीएचआर के मुताबिक भाजपा ने सबसे अधिक आठ करोड़पति प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं सपा और बसपा ने 7-7 करोड़पतियों को टिकट दिया है जबकि कांग्रेस की ओर से 6 करोड़पति जोर-आजमाइश कर रहे हैं। यही नहीं, पिछले चुनावों की तुलना में इसबार इन करोड़पति प्रत्याशियों की संपत्ति में 92 फीसदी यानी सालाना औसतन 18।5 फीसदी की बढोतरी दर्ज की गयी है जो देश की औसत विकास दर के दोगुने से भी ज्यादा है। यह और बात है कि खुद पूर्वी उत्तर प्रदेश की विकास दर मुश्किल से औसतन 3 फीसदी सालाना तक पहुंच पायी हे जो कि राष्ट्रीय विकास दर के आधे से भी कम है।
लेकिन इससे करोड़पति उम्मीदवारों पर कोई फर्क नही पड़ता है। चुनाव में पैसा पानी की तरह बह रहा है। वोट वोट खरीदने के लिए थैलियां खोल दी गयी हैं। वोटों का खुला सौदा हो रहा है। उदाहरण के लिए देवरिया सीट पर बसपा प्रत्याशी गोरख प्रसाद जायसवाल की सबसे बड़ी काबिलियत यह है कि वे न सिर्फ करोड़पति हैं बल्कि दोनों हाथों से पैसा लुटा रहे हैं। उनके लिए यह चुनावी सफलता का आजमाया हुआ फार्मूला है। इसी फार्मूले पर उनके बेटे राम प्रसाद जायसवाल ने बसपा के टिकट पर बरहज (बांसगांव) विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की थी। जायसवाल का हौसला इसलिए भी बढ़ा हुआ है कि देवरिया संसदीय क्षेत्र के रूद्रपुर और गौरी बाजार विधानसभा सीटों पर भी बसपा के करोड़पति उम्मीदवारों सुरेश तिवारी और प्रमोद सिंह ने पैसा बहाकर चुनाव जीत लिया था।
देवरिया में चर्चा है कि जायसवाल पिछले छह महीनों से न सिर्फ मुर्गा बिरयानी की दावतें दे रहे हैं बल्कि ग्राम प्रधानों को पैसा बांटकर उनके जरिए वोटों की खरीद-फरोख्त कर रहे हैं। इसके बावजूद उनका फार्मूला इसबार चलता नहीं दिख रहा है। लोगों के बीच भोजपुरी में एक मजाक चल रहा है- लूटले बा, लुटावत बा, और लूटे खातिर धावत बा। अधिकांश करोड़पति प्रत्याशियों के बारे में लोगों की राय कुछ ऐसी ही है। मुगलसराय में लाल बहादुर शास्त्री पी जी डिग्री कॉलेज में समाजशास्त्र के अध्यापक डा. दीनबंधु तिवारी कहते हैं ‘धनबलियों और अपराधियों ने चुनाव को मजाक बना दिया है। अफसोस की बात है कि राजनीतिक दल भी उनके बंधक बन गए हैं।'
डा। तिवारी के इलाके चंदौली संसदीय सीट से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी जवाहर लाल जायसवाल पूर्वी उत्तर प्रदेश में शराब के सबसे बड़े ठेकेदार हैं। उनके मुकाबले एक स्थानीय पार्टी-भारतीय समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे करोड़पति तुलसी सिंह राजपूत ने इतना पैसा बहाया है कि इलाके में एक मजाक चल पड़ा है- ‘आसमान में हीरो जमीन पर जीरो।श् लेकिन यह सब उस जिले में हो रहा है जहां ग्रामीण इलाके में 36 प्रतिशत और शहरी इलाके में 74 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। देवरिया जिले की स्थिति तो और खराब है। देवरिया में ग्रामीण इलाके में लगभग 42 प्रतिशत और शहरी इलाके में 59.7 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। एनएसएसओ के 61 वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार कुशीनगर (पडरौना) जिले में ग्रामीण इलाके में 54.8 प्रतिशत और शहरी इलाके में 57 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने को मजबूर हैं।
कुशीनगर नगर वह इलाका है जहां गौतम बुद्व ने निर्वाण प्राप्त किया था। आज यहां लोग भूख से मर रहे हैं। स्थानीय पत्रकार अजय शुक्ला के अनुसार पिछले ढाई सालों में कुशीनगर में भूख से 70 से ज्यादा मौतें हुई हैं। हालांकि स्थानीय प्रशासन इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता है लेकिन भूखमरी के सबसे ज्यादा शिकार वे मुसहर परिवार हुए हैं जो गरीबों में भी गरीब माने जाते हैं। इस कुशीनगर में कांग्रेस की ओर से पडरौना राजपरिवार के कुंवर आरपीएन सिंह और बसपा की ओर से कैबिनेट मंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य उम्मीदवार हैं। जाहिर है कि पैसा पानी की तरह बह रहा है और कुशीनगर को स्वर्ग बनाने के वायदे किए जा रहे हैं। यह और बात है कि कुशीनगर सामाजिक-आर्थिक सूचकांक और संरचनागत विकास के मामले में ‘इंडिया टुडेश् के एक सर्वेक्षण में अभी देश के सबसे बदतरीन 100 संसदीय क्षेत्रों में 26 वें स्थान पर है।
कोढ़ में खाज की तरह कई करोड़पति प्रत्याशियों का अपराध की दुनिया में भी उतना ही नाम है। सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी सफलता के लिए जिस तरह से अपराधियों पर भरोसा जताया है, वह स्तब्ध करनेवाला है। इलेक्शन वाच के मुताबिक पूर्वांचल की 16 सीटों के लिए लड़ रहे 272 प्रत्याशियों में लगभग 47 प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। बसपा की कमान पूरी तरह से अपराधियों और माफियाओं के हाथ में पहुँच गयी है। बसपा ने गोरखपुर अंचल में अपराध की दुनिया के बहुचर्चित चेहरे हरिशंकर तिवारी के दोनों बेटो के अलावा भांजे को भी चुनाव मैदान में उतारा है जबकि बनारस में माफिया डॉन मोख्तार अंसारी और गाजीपुर में उनके भाई अफजाल अंसारी पर दांव लगाया है। अपराधियों को टिकट देने के मामले में बसपा ने जिस तरह से उदारता बरती है, उसके कारण विधानसभा चुनावों के पहले का उसका नारा पलटकर दोहराया जा रहा है- गुंडे चढ़ गए हाथी पर, गोली मारें छाती पर। इससे बसपा का नारा था- चढ़ गुंडन की छाती पर, मोहर लगेगी हाथी पर।
वैसे अपराधियों को टिकट देने के मामले में सपा, भाजपा और कांग्रेस भी पीछे नहीं हैं। लेकिन बसपा ने तो अपराधियों को थोक के भाव टिकट देने में सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। शायद इस दौर की राजनीतिक सच्चाई यही है। बनारस से बसपा प्रत्याशी और माफिया डॉन मोख्तार अंसारी ने जेल से ‘बनारस की अजीम अवाम के नाम' पैगाम देते हुए अपनी ऐंठी मूंछों वाली मुस्कुराती तस्वीर के नीचे एक शेर छपवाया है जो इस सच्चाई को बयान कर देता है- ‘मेरी तस्वीर के नक्क़ास ज़रा गौर से देख, उसमे उस दौर की तारिख़ नज़र आयेगी।' साफ़ है कि अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और प्रशासनिक मशीनरी बिल्कुल पस्त पड़ी है।
अपराधियो के हौसले इसलिए भी बुलंद हैं कि जो जितना बड़ा डॉन है, वह अपनी जाति या धर्म की उतनी बड़ी शान है। समाजवादी जन परिषद के नेता और जाने-माने ब्लॉगर अफलातून देसाई के अनुसार, ‘जातिवादी राजनीति का नया चेहरा ये माफिया डॉन हैं।श् गोरखपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार मनोज सिंह पूर्वांचल में राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण के लिए अर्थनीति के अपराधीकरण को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि, ‘ये अपराधी विकास योजनाओं और बैंक-ब्लॉक के जरिए आनेवाले धन की लूट से पैदा हो रहे हैं।श् यह काफी हद तक सच है। अधिकांश करोड़पति और अपराधी प्रत्याशी सार्वजनिक धन की लूट पर ही पल-बढ़ रहे हैं और राजनीति में उनका प्रवेश इस लूट को राजनीति वैधता दिलाने की एक कोशिश दिखाई देती है।
पूर्वांचल में आम लोगों को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। गोरखपुर से आजमगढ़ आते हुए ड्राइवर राहुल ने गढढों से भरी, उबड़-खाबड़ सड़क की ओर दिखाते हुए बताया कि, ‘ इसका ठेका पंडित हरिशंकर तिवारी के पास है।श् कहने की जरूरत नहीं है कि इस पूरे अंचल में तिवारी के गंगोत्री इंटरप्राइजेज की तूती बोलती है। उनकी इजाजत के बिना कोई दूसरा किसी सरकारी योजना निर्माण का ठेका नहीं ले सकता है। यही हाल बनारस और आसपास के जिलों में मोख्तार अंसारी का और आजमगढ़ में भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव का है।
लेकिन पूर्वांचल में बाहुबल और धनबल की राजनीति अब लगभग अपने अंतिम छोर (डेड एंड) पर पहुंच गयी है। लोग इससे उकता रहे हैं। वे बदलाव चाहते हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 16 मई को मतगणना के बाद अधिकांश बाहुबली और धनबली धूल चाटते नजर आएं।
गुरुवार, अप्रैल 23, 2009
उत्तरप्रदेश में दूसरे चरण का चुनाव : सपा बसपा के बीच तीखे मुकाबले में भाजपा का डब्बा गोल और कांग्रेस को है दुगुने की आस
उत्तरप्रदेश में दूसरे चरण के चुनाव में दांव पर लगी 17 सीटों भाजपा का डब्बा लगभग गोल है। पहले चरण में अपनी स्थिति बेहतर करती दिख रही भाजपा के लिए यह बहुत बड़ा झटका है। सभी 17 सीटों पर लड़ने के बावजूद वह सिर्फ नौ सीटों पर त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय लड़ाई में दिख रही है। इनमें से भी सिर्फ दो या तीन सीटों पर वह मुख्य लड़ाई में है। लेकिन इनमें से किसी भी सीट पर वह जीतती हुई नहीं दिखाई दे रही है। 2004 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को इन 17 सीटों में से एक सीट मिली थी। पर वहां से जीते ब्रिज भूषण शरण सिंह समाजवादी पार्टी में चले गए।
भाजपा की तुलना में इस चरण में कांग्रेस कहीं बेहतर प्रदर्शन करती हुई दिख रही है। पन्द्रह सीटों पर लड़ रही कांग्रेस के उम्मीदवार नौ सीटों पर सीधे या त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय मुकाबले में मजबूती से लड़ रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 17 सीटों में सिर्फ एक सीट-अमेठी में कामयाबी मिली थी। कांग्रेस इसबार अमेठी की परम्परागत सीट को बरकरार रखते हुए डुमरियागजं (जगदंबिका पाल), सुल्तानपुर (डॉ।संजय सिंह), प्रतापगढ़ (राजकुमारी रत्ना सिंह) गोंडा (बेनी प्रसाद वर्मा), फूलपुर (धर्मराज सिंह पटेल) और भदोही (सूर्यमणि तिवारी ) में बेहतर स्थिति में दिखाई दे रही है। कांग्रेस इनमें से दो सीटें जीत सकती है।
लेकिन पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध क्षेत्र की इन मिली-जुली सीटों पर जहां अत्यधिक गरीबी, बीमारी, बेकारी और पिछड़ापन है, वहां राजनीति और चुनाव बिना किसी बडे सामाजिक-आर्थिक मुद्दे के हो रही है। यहां लडाई मुद्दों की नही, कुछ बडे़ नेताओं के राजनीतिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए जातिगत समीकरणों के आधार लडी जा रही है। लेकिन इस चुनाव में जातिगत समीकरणों की सीमाएं भी खुलकर सामने आ गई हैं। यही कारण है कि सभी दलों को अपने-अपने जातिगत खांचे से बाहर देखना पड़ रहा है।
बहरहाल, इस इलाके में असली मुकाबला सपा और बसपा के बीच हो रहा है। पिछले चुनावों में सपा को 10 और बसपा को छह सीटें मिली थीं। सपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी मौजूदा सीटों को बचाने की है। दूसरी ओर, बसपा को इस चरण से काफी उम्मीदें हैं। मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी सीटें बढ़ाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग से लेकर बाहुबलियों को टिकट देने तक सभी दांव आजमा लिए हैं। बसपा ने 17 सीटों में से 9 पर ब्राह्मण, 3 पर मुसलमान और दो सीटों पर ठाकुर उम्मीदवार उतारकर ब्राह्मणों, मुसलमानों और ठाकुरों को अपनी सर्वजन राजनीति में खींचने की पूरी कोशिश की है।
सपा ने इसके जबाब में ठाकुर, यादव, अन्य पिछड़ी जातियांे और मुसलमानों का राजनैतिक रसायन बनाने की कोशिश की है। सपा ने अमेठी से अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा किया है। बाकी 16 सीटों में चार पर ठाकुर, तीन पर यादव, तीन पर अन्य पिछड़ी जातियों, दो पर ब्राह्मण और एक-एक सीट पर मुसलमान, सवर्ण (भूमिहार) और वैश्य समुदाय के प्रत्याशी उतारकर अपने मूल सामाजिक आधार को बनाए रखते हुए उसे फैलाने पर जोर दिया है। सपा को इसका फायदा मिल रहा है। वह सभी 16 सीटों पर न सिर्फ मुख्य लड़ाई में है बल्कि 8 से 9 सीटें जीतने की स्थिति में है।
असल में, इस इलाके में सपा को बसपा की रणनीतिक गलतियों का फायदा मिल रहा है। सबसे ताजा मामला है जौनपुर में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की रहस्यमय मौत का जिसके बारे में सोनकर की पत्नी के साथ-साथ इंजपा के नेता उदित राज का आरोप है कि सोनकर की हत्या करके उन्हें पेड़ पर लटकाया गया और इसके पीछे बसपा प्रत्याशी धनंजय सिंह और कुछ पुलिस अधिकारियों का हाथ है। जौनपुर के बसपा प्रत्याशी धनंजय सिंह का आपराधिक इतिहास रहा है। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि वे अपने बाहुबल के भरोसे चुनाव जीतना चाहते हैं। लेकिन सोनकर की मौत ने उनके साथ-साथ बसपा का भी खेल बिगाड़ दिया है।
सोनकर की मौत का सीधा असर आसपास की सीटों-इलाहाबाद, भदोही, फूलपुर,कौशांबी और प्रतापगढ़ पर भी पड़ा है। खटिक समाज इस हत्या की प्रतिक्रिया में वोट डालने जा रहा है। इसका सीधा फायदा सपा को हो रहा है। बसपा ने बाहुबलियों को जिस उदारता से टिकट दिया है, उसकी उसे कीमत चुकानी पड़ रही है। पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान सपा के गुंडाराज़ के खिलाफ बसपा को जिन सवर्णों और पिछड़ी जातियों के वोट प्रतिक्रिया में मिल गए थे, मायावती ने उन्हीं बाहुबलियों को बसपा का झंडा और टिकट थमाकर वह गुडविल गंवा दिया है।
यही नहीं, बसपा ने सर्वजन की राजनीति जिसकी जितनी तैयारी, उसे उतनी हिस्सेदारी के नाम पर जिस तरह से ब्राह्मणों पर अत्यधिक भरोसा किया है और टिकटों के बंटवारे में अति पिछड़ी जातियों की दावेदारी की अनदेखी की है, उसे इसका भी खामियाजा उठाना पड़ सकता है। देर से ही सही, मायावती को इस चूक का अहसास हो रहा है। वे इसकी भरपाई की कोशिश कर रही हैं। दूसरे चरण के मतदान से ठीक पहले मायावती ने इलाहाबाद की रैली में 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के वायदे को दोहराकर नुकसान कुछ कम करने की कोशिश की है लेकिन इस बात के आसार कम हैं कि ये जातियां बसपा के साथ उसी तरह खड़ी रहेंगी, जैसे विधानसभा चुनावों के दौरान थीं।
सपा और बसपा के बीच तीखे मुकाबले में इन अति पिछड़ी जातियों का राजनीतिक महत्त्व बहुत बढ़ गया है। इनमें से कई अति पिछड़ी जातियों-राजभर, बिंद, मल्लाह आदि की अपनी छोटी-छोटी पार्टियां बन गयी हैं जो एक और ताकतवर पिछड़ी जाति-कुर्मियों की पार्टी अपना दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। अपना दल के टिकट पर फूलपुर से उसके नेता सोनेलाल पटेल ओर प्रतापगढ़ से बाहुबली अतीक अहमद के अलावा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के प्रत्याशी अधिकांश सीटों पर बसपा और कुछ सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
इसी तरह, सपा को सबसे अधिक नुकसान मुस्लिम मतों के बिखराव के कारण हो रहा है। सपा अगर मुस्लिम मतों को पिछले चुनाव की तरह अपने साथ बांधे रखने में कामयाब रहती तो वह 17 में से 10 से 12 सीटें आसानी से जीत जाती लेकिन मुलायम सिंह के कल्याण सिंह से हाथ मिला लेने और पूर्वांचल में मुस्लिम समुदाय के बीच अपनी राजनीतिक राह को लेकर मची उथलपुथल के कारण मुस्लिम मतों में बिखराव हो रहा है। इस इलाके की कई सीटों -संत कबीरनगर, बस्ती, अम्बेडकरनगर, फैजाबाद में डा। अयूब की पीस पार्टी और जौनपुर में उलेमा कांउसिल के प्रत्याशी मुस्लिम मतों का बंटवारा कर रहे हैं। कुछ सीटों पर मुस्लिम वोट कांग्रेस को और कुछ सीटों पर बसपा के साथ भी जाएंगे।
इसके बावजूद दूसरे चरण के चुनाव को लेकर सबसे अधिक आशावान सपा ही है । सपा की उम्मीद बसपा विरोधी वोटों के धु्रवीकरण पर टिकी हुई है। सपा पूरी कोशिश कर रही है कि बसपा को छोड़कर जा रहे सवर्ण वोटों का एक हिस्सा उसके साथ आ जाए। इक्का-दुक्का सीटों पर ऐसा रूझान दिख भी रहा है। यह स्थानीय अंतर्विरोधों के कारण हो रहा है। लेकिन बसपा छोड़कर जा रहे सवर्ण वोटों का सबसे अधिक फायदा कांग्रेस को और कुछ फायदा भाजपा को हो रहा है।
लेकिन दूसरे चरण की सबसे खास बात कांग्रेस का अपने दम पर खड़ा हो जाना है। हालांकि यह कांग्रेस पार्टी से अधिक उसके स्थानीय उम्मीदवारों जैसे डुमरियागंज में जगदंबिका पाल, गोंडा में बेनी प्रसाद वर्मा, सुल्तानपुर में डा. संजय सिंह, प्रतापगढ़ में राजकुमारी रत्ना सिंह, फूलपुर में धर्मराज सिंह पटेल और कौशांबी में रामनिहोर राकेश का पुराना नाम, उनका काम और मेहनत है। इस कारण कांग्रेस के वोट तो निश्चय ही बढेंगे लेकिन अमेठी के अलावा सीटें शायद एक या दो ही मिलें। इसकी वजह यह है कि कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बहुत कमजोर और लस्त-पस्त पड़ा है।
मंगलवार, अप्रैल 21, 2009
पूर्वांचल में कांग्रेस : इस इलाके की सड़कों की तरह ऊबड़-खाबड़ और कष्टकर है पुनर्वापसी की राह
आनंद प्रधान
पूर्वांचल से कांग्रेस की बहुत उम्मीदें हैं। यहां पहले चरण के चुनाव में कुल 16 सीटें दांव पर हैं। 2004 के चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटों-वाराणसी और बांसगांव (सु.) पर कामयाबी मिली थी। इसबार वह अपनी सीटें बढ़ाने की ख्वाब देख रही है। लेकिन कांग्रेस का मौजूदा सांगठनिक ढांचा इतना कमजोर है कि वह सभी 16 सीटों के लिए उम्मीदवार भी नहीं खोज पायी। वह बलिया, गाजीपुर जैसी सीटों पर प्रत्याशी देने में नाकाम रही है और 16 में से केवल 12 सीटों पर लड़ रही है। इनमें से कोई सात सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी चतुष्कोणीय मुकाबले में दमदार तरीके से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन सिवाय कुशीनगर (पडरौना) सीट के कांग्रेस कहीं भी जीत के करीब नहीं दिखाई दे रही है। कुशीनगर से कांग्रेस प्रत्याशी कुंवर आरपीएन सिंह न सिर्फ पडरौना के मौजूदा विधायक हैं बल्कि 2004 में कुछ हजार मतों से चुनाव हार गये थे। वे पडरौना राजपरिवार के वारिस और कांग्रेस के जाने माने नेता सीपी एन सिंह के बेटे हैं। अपनी साफ-सुथरी छवि और पिछले चुनावों में हारकर दूसरे स्थान पर रह जाने से पैदा हुई सहानुभूति के भरोसे वे इसबार बाजी मरने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बसपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष और वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को उनके खिलाफ उतारकर जीत की राह बहुत मुश्किल कर दी है।
कुशीनगर के अलावा कांग्रेस को सलेमपुर में भोला पांडे, बांसगांव (सु.) में महावीर प्रसाद, महाराजगंज में हर्षवर्धन सिंह, घोसी में सुधा राय (कांग्रेसी नेता स्वर्गीय कल्पनाथ राय की पत्नी), वाराणसी में मौजूदा सांसद डा0 राजेश मिश्रा और मिर्जापुर में बसपा के टिकट पर चुने गए मौजूदा सांसद रमेश दुबे से भी उम्मीदें हैं। लेकिन इनमें से अधिकाश सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी कड़े चतुष्कोणीय मुकाबले में फंसे है और मुख्य मुकाबले यानी पहले और दुसरे स्थान पर आने के लिए खूब पसीना बहा रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने भी प्रचार मे अपनी ताकत झोंक दी है।
इसके बावजूद पूर्वांचल में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की राह इतनी आसान नहीं है। कांग्रेस ने अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने के बजाय सारा जोर सवर्ण जातियों को अपनी ओर खींचने में लगा दिया है। कांग्रेस ने जिन 12 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है, उसमें से आठ प्रत्याशी सवर्ण जातियों से-चार राजपूत, तीन ब्राम्हण, एक भूमिहार हैं जबकि दो सुरक्षित सीटों पर अनुसूचित जाति के और दो अन्य सामान्य सीटों पर देवरिया और गोरखपुर में पिछड़ी जाति के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है। साफ है कि कांग्रेस ने पूर्वांचल में अपनी पुनर्वापसी के लिए अगड़ी जातियों पर अधिक भरोसा किया है। लेकिन अगड़ी जातियों में कांग्रेस के प्रति एक सकारात्मक रुझान के बावजूद उसे उनका खुला समर्थन हासिल करने के लिए अधिकांश सीटों पर भाजपा से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हैं।
इसी तरह, इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर अधिकांश सीटों पर कांग्रेस मुस्लिम समुदाय का भी व्यापक और खुला समर्थन हासिल करने में नाकाम दिख रही है। उल्टे बाटला हाउस एनकांउटर के लिए सीधे-सीधे उसे जिम्मेदार ठहराते हुए आजमगढ़ जैसे जिले में मुस्लिम समुदाय में उससे बिल्कुल किनारा कर लिया है। 2004 में बनारस सीट पर कांग्रेस की जीत में मुस्लिम वोटों की सबसे बड़ी भूमिका थी। लेकिन इस बार बसपा ने यहां से बाहुबली माफिया मोख्तार अंसारी को मैदान में उतारकर कांग्रेस का खेल खराब कर दिया है। दूसरी ओर , पिछड़ी जातियां और दलित अभी कांग्रेस से दूरी बनाये हुए हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने भी इस दूरी को पाटने के लिए कोई खास कोशिश नहीं की है। चुनावी जंग में यह उसे राजनीतिक रुप से भारी पड़ रहा है।
इस कारण, कांग्रेस अधिकांश सीटो पर चतुष्कोणीय मुकाबले में होने के बावजूद जीत के लिए जरुरी सामाजिक समीकरण बना पाने में कामयाब होती नहीं दिख रहीं है। कांग्रेस की मुश्किल यह भी है कि अधिकांश जिलों में उसका सांगठनिक ढांचा इतना कमजोर, लचर और जेबी किस्म का है कि वह कड़े मुकाबले में जरुरी ‘बूथ प्रबन्धन’ की व्यवस्था करने में भी अक्षम है। कांग्रेस चुनाव प्रचार में पैसा तो पानी की तरह बहा रहीं है लेकिन सांगठनिक कमजोरी के कारण उसे समर्पित और जुझारु कार्य कर्ता नहीं मिल रहे हैं जो मतदान केन्द्रों पर खड़े होकर वोट डलवा सकें।
इस सबके बावजूद कांग्रेस के लिए राहत और संतोष की बात यह है कि लोगों में उसके खिलाफ कोई खास नाराजगी या गुस्सा नहीं है। मुख्यधारा की अन्य पार्टियों- बसपा, सपा और भाजपा के मुकाबले उसके प्रति एक सकारात्मक रुझान भी दिख रहा है। इस कारण इस बार कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ सकता है। लेकिन पूर्वांचल की इन 16 सीटों पर उसकी पुनर्वापसी का रास्ता अभी भी इस इलाके की अधिकांश सड़को की तरह बहुत ऊबड़-खाबड़ और कष्टकर है।
सोमवार, अप्रैल 20, 2009
पूर्वांचल में मुस्लिम राजनीति-सेक्यूलर पार्टियों से निराश होकर अलग राह की तलाश
पूर्वांचल की मूस्लिम राजनीति और उससे अधिक मुस्लिम समाज में भारी उथलपुथल मची हुई है। आजमगढ़ इस उथलपुथल का केन्द्र बन गया है। यहां का मुसलमान नए राजनीतिक रास्ते की तलाश कर रहा है। उसे इस बात की गहरी पीडा़ है कि उसके दर्द, अकेलेपन, सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के सवालों को न तो कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी समझने की कोशिश कर रही है और न ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी सेक्यूलर होने का दावा करनेवाली क्षेत्रीय पार्टियां उसके जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश कर रही है। कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के प्रति मुस्लिम समाज के गुस्से, निराशा और हताशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह इस चुनाव में सपा, बसपा और कांग्रेस को नकार कर सिर्फ पांच महीने पहले बने मंच-उलेमा कांउसिल और डा0 अयूब की पीस पार्टी आँफ इंडिया के प्रत्याशियों के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है।
उलेमा कांउसिल का गठन दिल्ली के बाटला हाउस एनकांउटर और उसके बाद आजमगढ़ के नौजवान मुस्लिम लड़को के खिलाफ एटीएस और एसटीएफ के धरपकड़ अभियान के विरोध में हुआ है। उलेमा कांउसिल का आरोप है कि आतंकवाद विरोधी अभियान के नाम पर निर्दोष मुसलमान लड़को को निशाना बनाया जा रहा है। आजमगढ़ को ‘आतंकवाद की नर्सरी’ और ‘आतंकगढ़’ के बतौर प्रचारित करके बदनाम किया जा रहा है लेकिन कोई पार्टी उनके खिलाफ जारी इस ‘अन्याय और साजिश’ के विरोध में आवाज नहीं उठा रही हैै। आजमगढ़ से उलेमा कांउसिल के उम्मीदवार डा. जावेद अख्तर कहते हैं कि, ‘यह विश्वास का संकट है। हम सभी तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों के रवैये से निराश हैं। हमें न्याय नहीं मिल रहा है। हम न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं।’ इस संघर्ष के तहत कांउसिल की अगुवाई में जिले भर से भारी तादाद में मुसलमान ट्रेन में भर कर इंसाफ मांगने के लिए पहले दिल्ली और फिर लखनऊ गये थे।
आजमगढ़ में उलेमा कांउसिल और आसपास के जिलों में एक मुस्लिम पार्टी के रुप में खड़ी हो रही पीस पार्टी की लोकप्रियता से सपा, बसपा और कांग्रेस परेशान हैं। उनका आरोप है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी सेक्यूलर मतों में विभाजन कराके भाजपा को जीता रही हैं। लेकिन उलेमा कांउसिल के संस्थापकों में से एक ताहिर मदनी पलटकर जवाब देते हैं कि, ‘भाजपा को हराने का हमने ठेका नहीं ले रखा है। सेक्यूलर पार्टियां अगर भाजपा को सचमुच हराना चाहती हैं तो हमें वोट करें। भाजपा को हराने का जिम्मा सिर्फ मुसलमानों का नहीं हैं।’ मुस्लिम समाज के एक हिस्से में यह भावना उबाल मार रही है। उसे लग रहा है कि कथित सेक्यूलर पार्टियां भाजपा का डर दिखाकर उन्हें सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। वह सिर्फ भाजपा के डर से सेक्यूलर पार्टियां का वोट बैंक बने रहने के लिए तैयार नहीं है।
अवामी कांउसिल फॉर डेमोक्रेसी एण्ड पीस क महासचिव असद हयात कहते हैं कि, ‘भाजपा से क्या डरना? मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, उससे बुरा और क्या हो सकता है?’ आजमगढ़ के मुस्लिम बहुल कस्बे मुबारकपुर के नसीम अहमद कुछ इसी तर्ज पर कहते हैं कि, ‘रमाकांत (आजमगढ़ से भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव) की जीत से हमें कोई डर नहीं है। जीतता है तो जीत जाय लेकिन इंसाफ के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी।’ हाजी नुरुल कुरैशी काफी तल्खी से कहते हैं, ‘हम तो डूबेंगे, तुम्हें भी ले डूबेगें।’ मुबारकपूर के ही अबू आसिम को सपा से यह शिकायत है कि, ‘ मुलायम ने बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले कल्याण से हाथ मिला लिया है और आजम खान को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका हैं।’ मुस्लिम समुदाय को बहनजी (मायावती) से भी कम शिकायतें नहीं है और कांग्रेस से तो मन टूट हुआ है ही।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी को पूर्वांचल की कुछ मुस्लिम बहुल आबादी वाली सीटों पर अच्छा-खासा समर्थन मिल रहा है। उलेमा कांउसिल का सबसे अधिक जोर आजमगढ़ और लालगंज (सुरक्षित) सीटों पर दिख रहा है जबकि मछलीशहर, जौनपुर और अम्बेडकरनगर में भी उसके प्रत्याशी सेक्यूलर पार्टियों की नींद उड़ाए हुए हैं। पीस पार्टी के प्रत्याशी घोसी, देवरिया, संतकबीर नगर, डुमरियागंज आदि सीटों पर जोर-आलमाइश कर रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी ने कई सीटों पर हिन्दू खासकर सवर्ण, पिछड़े और दलित उम्मीदवार उतारे हैं। जैसे लालगंज (सु.) सीट पर उलेमा कांउसिल के प्रत्याशी चंद्रराम सरोज और मछलीशहर (सु.) से रामदंवर गौतम और संतकबीर नगर से पीस पार्टी के राजेश सिंह मजबूती से चुनाव लड़ रहे है। वे जीत भले न पाएं लेकिन सपा-बसपा का राजनीतिक समीकरण जरुर बिगाड़ रहे है।
आजमगढ़ से उलेमा कांउसिल के प्रत्याशी डा. जावेद अख्तर के कारण बसपा के मौजूदा सांसद अकबर अहमद डम्पी के पसीने छूट रहे हैं। डा. जावेद अख्तर हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं और आजमगढ़ में एक चिकित्सक के बतौर बहुत लोकप्रिय है। उनकी व्यक्तिगत छवि साफ-सुथरी और एक अराजनीतिक व्यक्ति की रही है। लेकिन बाटला हाउस प्रकरण में कोटा (राजस्थान) में पढ़ रहे अपने बेटे असदुल्ला का नाम आने और तब से उसके ‘गुम’ होने के कारण वे काफी विचलित हैं। उनकी तरह ही, उलेमा कांउसिल के संस्थापक ताहिर मदनी के बेटे को भी हैदराबाद जाने के रास्ते में एटीएस ने नागपुर से उठा लिया। हालांकि मदनी का बेटा हो हंगामें के बाद छूट गया लेकिन बाटला हाउस एनकांउटर और बाद में पूरे इलाके में जिस तरह से एटीएस- एसटीएफ ने मुसलमान युवाओं को ‘उठाया’ है, उससे मुस्लिम समुदाय में बहुत बेचैनी, गुस्सा और हताशा है। इसी बेचैनी और गुस्से की उपज है अपनी पार्टी बनाने और इंसाफ की लड़ाई खुद लड़ने की जिद।
लेकिन इसका फायदा भाजपा को हो रहा है। गोरखपुर के मौजूदा सांसद योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भाजपा ने गोरखपुर से लेकर आजमगढ़ मंडल की अधिकांश सीटों पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है। योगी आदित्यनाथ की आजमगढ़ में दिलचस्पी है। वे यह कहते हुए वोट मांग रहे हैं कि भाजपा जीती तो आजमगढ़ का नाम बदलकर आर्यमगढ़ कर दिया जाएगा और उलेमा कांउसिल की ट्रेन दिल्ली या लखनऊ नहीं जा पाएगी। अगर वह फिर भी कोशिश करेगी तो उसे कराची भेजा दिया जाएगा। योगी की ही तर्ज पर कुशीनगर में भाजपा प्रत्याशी विजय दुबे, आजमगढ़ में रमाकांत यादव और घोसी में राम इकबाल सिंह भड़काऊ, अश्लील और आपत्तिकजनक भाषण कर रहे हैं। राम इकबाल के खिलाफ तो भड़काऊ भाषण देने के मामले में स्थानीय प्रशासन ने मुकदमा भी दर्ज कराया है।
इससे मुस्लिम समुदाय में बेचैनी और अधिक बढ़ गयी है। वह दुविधा में पड़ गया है। उसका एक हिस्सा उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी की राजनीति को आत्मघाती मान रहा है। उसे लग रहा है कि इसका राजनीति फायदा भाजपा को हो रहा है। मऊ के सरफराज अहमद पीस पार्टी का समर्थन करते हुए भी कहते हैं कि ‘फैसला 15 अप्रैल की रात को ही होगा कि किसे वोट देना है।’ दूसरी ओर, मुबारकपुर के रियाज अहमद अंसारी साफ तौर पर बसपा के डम्पी की वकालत करते हुए कहते है कि, ‘ये (उलेमा कांउसिल) एक रील का माझा है, कितना चलेगा?’ मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से को यह भी लग रहा है कि उलेमा कांउसिल में ज्यादातर सवर्ण या अगड़े (अशराफ) मुसलमान हैं जबकि पिछड़े (अजलाफ) और दलित (अरजाल) मुसलमान अभी भी सपा या बसपा के साथ हैं।
इन चुनावों में उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी के राजनीतिक भविष्य का फैसला हो जाएगा। उलेमा कांउसिल खुद को राजनीतिक पार्टी नहीं एक सामाजिक- सांस्कृतिक मंच कहती है जिसका गठन ‘सताए हुए लोगों को इंसाफ दिलाने’ के लिए किया गया है। कांउसिल का इरादा है कि चुनावों के बाद एक नई राजनीतिक पार्टी गठित की जाएगी। उसे पंजीकृत कराने के बाद वह अगला विधान सभा चुनाव सभी 402 सीटों पर लड़ेगी। लेकिन इस इरादे की परीक्षा इस चुनाव में हो जाएगी। कांउसिल अगर अपने समर्थकों को मतदान के दिन तक एकजुट रखने में कामयाब हो गयी तो पूर्वांचल और इस तरह उत्तरप्रदेश की मुस्लिम राजनीति में एक बड़े बदलाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
रविवार, अप्रैल 19, 2009
पूर्वांचल का राजनीतिक गणित - वोटों के बिखराव के बीच कमजोर पड़ती सपा और हांफती बसपा
आनंद प्रधान
पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की 16 सीटों में से 80 फीसदी से ज्यादा सीटों पर बसपा, सपा ओर भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा हैं। हालांकि कांग्रेस इनमें से सिर्फ 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं लेकिन कई सीटों पर वह मुकाबले को चतुष्कोणोय बना पाने में कामयाब होती दिख रही है।ं कांग्रेस को 2004 में इनमे से दो सीटों - बांसगांव (सु0) और बनारस - पर कामयाबी मिली थी । उस चुनाव में भाजपा की भी बहुत दुर्गाति हुई थी ओर उसे सिर्फ दो सीटें - गोरखपुर और महाराजगंज - मिली थीं लेकिन इस बार वह गैर भाजपा
धर्मनिरपेक्ष वोटों में बिखराव के कारण 16 सीटों में से 13 सीटो पर लड़ाई में हैं । वरूण प्रकरण के बाद भाजपा उग्र हिन्दुत्व के साथ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आजमाई रणनीति पर लौट आई हैं। इन 16 सीटों पर पहलें चरण में 16 अप्रैल को मतदान होना हैं।
लेकिन गंगा ओर राप्ती के इस मैदान में वर्चस्ब की असली लड़ाई बसपा और सपा के बीच है। अभी सपा के पास 16 में से 8 सीटें है जबकि बसपा के पास सिर्फ तीन सीटें हैं। सपा के लिए इन सीटों को बचा पाना सबसे बड़ी चुनौती हैं। जाहिर है कि सपा और उसके नेता मुलायम सिंह यादव की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। उन्होंने इस इलाके में अपनी पूरी ताकत झोंक दी हैं। एक दिन में तीन से चार सभाएं कर रहे हैं। इसकें बावजूद सपा कमजोर पड़ती दिखाई दे रहीं है । इसकी सबसे बड़ी वजह मुस्लिम मतों में बिखराव हैं। भाजपा छोड़कर बाहर आए कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के कारण मुस्लिम मतदाताओं में मुलायम सिंह और सपा के प्रति पहले जैसा उत्साह नही दिख रहा हैं। उनमें गहरी निराश है और मायावती इसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। इसके लिए बसपा ने 16 में से तीन पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं जबकि सपा ने सिर्फ एक सीट पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारा है।
लेकिन कुछ सीटों को छोड़कर अधिकांश सीटों पर बसपा अभी भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद नहीं बन पायी है। मुस्लिम मतदाताओं में मायावती के भविष्य के राजनीति व्यवहार - भाजपा से हाथ मिलाने को लेकर आशंका बनी हुई है, इसलिए बसपा की तमाम कोशिशों के बावजूद वह पूरी तरह से हाथी पर चढ़ने को तैयार नहीं हैं । इस कारण सपा के कमजोर पड़ने के बावजूद बसपा उतनी मजबूत नहीं दिखाई पड़ रही हैं जितनी अपेक्षा की जा रही थी । इसके अलावा , बसपा के ब्राह्मण - दलित गठबंधन में भी तनाव और दरारें साफ दिखाई दे रही हैं। कुछ सीटो को छोड़कर जहा बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी दिये हैं, अन्य सीटो पर ब्राह्मण मतदाता उसके साथ नही दिख रहे हैं। हालाँकि बसपा का अपना दलित और अति पिछड़ा जनाधार उसके साथ टिका हुआ है लेकिन सवर्ण मतदाताओं का वह हिस्सा उससे छिटकता दिख रहा हैं जो पिछले विधानसभा चुनावों में सपा सरकार खासकर अपराधियों को खुली छूट देने के खिलाफ बसपा के पीछे गोलबंद हो गया था।
लेकिन पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी और धनंजय सिंह जैसे बाहुबलियों के हाथ में बसपा की बागडोर सौंपकर मायावती ने वह राजनीतिक पूंजी गंवा दी है। बसपा के लिए अति पिछड़ी जातियों खासकर राजभर, बिंद आदि की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ-साथ ताकतवर मध्यवर्ती जाति-कुर्मियों की अपना दल जैसी ‘‘वोटकटवा’’ पार्टियां भी राह मुश्किल कर रही है। लेकिन 2009 के आम चुनावों की सबसे बड़ी खबर यह है कि सपा और बसपा दोनो के कमजोर पड़ने के कारण ही पूर्वांचल में एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस खासकर भाजपा की स्थिति में सुधार हेाता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस इसका बहुत फायदा इसलिए नही उठा पा रही है क्योंकि उसका न सिर्फ सांगठनिक ढांचा बहुत कमजोर है बल्कि उसके पास कद्दावर नेताओं की भी इतनी कमी है कि कई सीटों पर वह प्रत्याशी तक नही खोज पायी।
पूर्वाचल की राजनीति में दूसरा सबसे बड़ा परिवर्तन मुस्लिम मतदाताओं के अंदर मची उथल पुथल और इसके कारण उनके मतों में आ रहा बिखराव है। मुस्लिम मतदाताओं को बाटला हाउस एनकांउटर, आजमगढ़ को ‘‘आतंकवाद की नर्सरी’’ के बतौर प्रचारित करने और नौजवान मुस्लिम लड़को को एसटीएफ द्वारा उठाने के अलावा सपा का कल्याण सिंह से हाथ मिलाने और बसपा के अनिश्चित राजनीतिक व्यवहार जैसे मुद्दे मथ रहे है। इस सबसे मुस्लिम मतदाताओं में मुख्यधारा की तीनो पार्टियों-सपा, बसपा और कांग्रेस के खिलाफ निराशा, गुस्से और हताशा को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि मुस्लिम समुदाय खासकर उसके अगड़े (अशराफ) वर्गो और युवाओं में अपनी अलग राह चुनने और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को सबक सिखाने की भावना उबाल मार रही है। यह भावना आजमगढ़ और लालगंज (सु0) सीटों पर उलेमा कांउसिल और घोसी, देवरिया आदि पर डा0 अयूब की पीस पार्टी के जरिए प्रकट हो रही है।
इसमें कोई दो राय नही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव का सबसे अधिक नुकसान सपा और कुछ नुकसान बसपा को जबकि सबसे अधिक फायदा भाजपा को हो रहा है। इससे अचानक भाजपा की बांछें खिल गयी है। हालांकि उसकी जीत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा पिछड़ी जातियों का उससे दूर बने रहना है। इस कमी की भरपाई वह अधिक से अधिक सीटों पर साम्प्रदायिक
ध्रु्रुवीकरण करके पूरा करने की कोशिश कर रही है। गोरखपुर से आजमगढ़ होते हुए बनारस तक भाजपा की पूरी मशीनरी इस ध्रुवीकरण को तेज करने में जुटी हुई है। योगी आदित्यनाथ से लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को मैदान में उतार दिया गया है।
लेकिन भाजपा के आक्रामक प्रचार और उसके चढ़ाव के कारण मुस्लिम मतदाताओं में भी प्रतिक्रिया हो रही है। इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि कई सीटों पर जहां साम्प्रदायिक ध्रुवीरकण के कारण भाजपा जीतने की स्थिति में आती दिखाई दे रही है, वहां अंतिम क्षणों में मुस्लिम मतदाता एक बाद फिर ‘टैक्टिकल’ यानि भाजपा केा हरा सकने वाली पार्टी और प्रत्याशी को वोट देता दिखाई दे सकता है। हालंाकि मतदान से कोई एक सप्ताह पहले अभी की खबर यही है कि मुस्लिम मतों में बिखराव दिखाई दे रहा है। यह कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए खतरे की घंंटी हैं, खासकर उन पार्टियों के लिए जिन्हांेने मुस्लिम मतदाताओ को अपनी राजनीतिक जागीर समझ लिया था। उनके लिए यह चुनाव बहुत बड़ा झटका साबित होने जा रहां हैं।
यही नही , पूर्वाचल में गोंरखपुर से लेकर बनारस तक जिस तरह से बिना मुददों के चुनाव होने के कारण मतों का बिखराव हो रहा हैं, उसमें अधिकांश सीटों पर जातिगत समीकरण सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गए है। इस बिखराव के बीच जो पार्टी और उसका प्रत्याशी कुल मतों का 28 से 30 फीसदी जुगाड़ कर लेगा, वह मैदान मार ले जाएगा । इस राजनीतिक गणित के कारण ही मुख्यतः सपा और बसपा और कुछ हद तक भाजपा अपने मूल जनाधार के साथ 28 से 30 फीसदी के जादुई आंकडे़ को छूने की कोशिश कर रही हंै। जाहिर है कि इस राजनीतिक गणित में बसपा को थोड़ी सी बढ़त दिख रही है और सपा कुछ पिछड़ती प्रतीत हो रही है। इसमे भाजपा अपनी पिछली स्थिति में कुछ सुधार कर सकती है जबकि कांग्रेस वोट बढ़ने के बावजूद अपनी सीटें बढ़ाने की स्थिति में नहीं दिख रही है।
शनिवार, अप्रैल 18, 2009
आधी से अधिक गरीब आबादी के बीच हिन्दुत्व के नए भिंडरावाले का उदय
पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक गोरखपुर की पहचान मौजूदा सांसद योगी आदित्यनाथ और उनकी हिन्दू युवा वाहिनी के क्रियाकलापों के कारण ‘हिन्दुत्व की प्रयोगशाला’ के रूप में होने लगी है। योगी और उनकी वाहिनी गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों को गुजरात की तर्ज पर हिन्दुत्व का गढ़ बनाने में जुटे हैं। उनके उग्र, आक्रामक और हिंसक तौर तरीकों के कारण गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में मुस्लिम समुदाय न सिर्फ एक स्थायी भय और आतंक के बीच जीने को मजबूर है बल्कि उसका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अलगाव और अकेलापन भी बढ़ रहा है।
इस शहर और आसपास के इलाकों में योगी आदित्यनाथ ने खुद को ‘हिंदूओं के रक्षक’ के बतौर स्थापित करने की कोशिश मे मामूली विवादों को भी तिल का ताड़ बनाने और काल्पनिक विवाद खड़ा करके मुसलमानों पर संगठित हमले करने, उनका सामाजिक-आर्थिक बायकाॅट करने और सार्वजनिक अपमान करने की राजनीति को आगे बढ़ाया है। पिछले डेढ़ दशकों में इस उग्र और हिंसक योगी मार्का हिन्दुत्व की राजनीति के कारण शहर में कई बार दंगे भड़क गए या सांप्रदायिक तनाव। झड़पें हुईं और ग्रामीण इलाकों में गरीब मुस्लिम परिवारों के घर जलाने और हत्या की घटनाएं हुई हैं।
योगी आदित्यनाथ के आक्रामक हिन्दुत्व और इस इलाके को ‘गुजरात’ बनाने की इस अहर्निश मुहिम के कारण शहर खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में एक अघोषित सा तनाव और भय फैला रहता है। राज्य और प्रशासनिक मशीनरी ने योगी के इस अभियान के आगे न सिर्फ घुटने टेक दिए हैं बल्कि एक तरह की मौन और कई बार खुली सहमति दे रखी है। अवामी कांउसिल फॉर डेमोक्रेसी एंड पीस के महासचिव असद हयात के अनुसार यहां स्थानीय प्रशासन बिल्कुल विफल और योगीमय है। उनके जैसे और कई लोगों को लगता है कि योगी को प्रशासन ही भिंडरावाले बना रहा है।
स्थानीय प्रशासन के एकतरफा और पक्षपाती रवैये का हाल यह है कि जनवरी’ 2007 के दंगों की एकपक्षीय एफआईआर के बरक्स दूसरी एफआईआर लिखवाने के लिए असद हयात जैसों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ा तब जाकर कोर्ट के निर्देश पर एफआईआर लिखी गयी। इस सबसे इस इलाके के मुस्लिम समुदाय में हताशा बढ़ती जा रही है। लेकिन योगी आदित्यनाथ के तौर तरीकों पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। असल में, गोरखपुर की सामाजिक-आर्थिक संरचना ऐसी है जिसमें योगी आदित्यनाथ की हिन्दुत्व की राजनीति बिना साम्प्रदायिक विभाजन और धु्रवीकरण के नहीं चल सकती है।
यही कारण है कि योगी इस चुनाव में भी साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने में जुटे हुए हैं। वे अपने उत्तेजक भाषणों के लिए जाने जाते हैं। इस कारण चुनाव आयोग के निर्देश पर चुनावी सभाओं में उनके भाषणों की रिकार्डिंग हो रही है। इससे उनकी जुबान थोड़ी नरम हुई है लेकिन थीम नहीं बदली है। जैसे, अपनी सभाओं में वे कह रहे हैं कि अगर वे जीते और भाजपा की सरकार बनी तो उलेमा कांउसिल की ट्रेन अगली बार दिल्ली और लखनऊ नहीं जा पाएगी। अगर वह जाने की कोशिश करेगी तो उसे दिल्ली नहीं, कराची भेजा जाएगा।
योगी आदित्यनाथ की गरम जुबान की भरपाई उनके मंचों पर मौजूद भाजपा खासकर हिंदू युवा वाहिनी के नेता अपने भड़काऊ और अश्लील भाषणों और नारों से कर दे रहे हैं। इन भाषणों और नारों का मुकाबला भाजपा के नए हिंदू ध्वजाधारी नेता वरूण गांधी भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन इन सबसे आंखें मूंदे हुए है। दूसरी ओर, योगी आदित्यनाथ इस बार पूर्वांचल के इस इलाके में भाजपा के स्टार प्रचारक हैं। भाजपा ने उन्हें हेलीकाप्टर दे रखा है जिससे वे आसपास के जिलों में सांप्रदायिक धु्रवीकरण तेज करने और भाजपा के राजनीतिक ग्राफ को उठाने के लिए तूफानी दौरे और प्रचार कर रहे हैं।
इन सबके बीच योगी का राजनीतिक कद जिस तरह से बढ़ा है, उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी सभाओं होनेवाले भाषणों में लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री और योगी को अगला गृहमंत्री बनाने के लिए वोट मांगा जा रहा है। पूर्वांचल में भाजपा के अंदर योगी का लगभग एकछत्र राज कायम हो गया है। उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में इस इलाके में भाजपा के प्रभावशाली नेताओं को राजनीतिक रूप से या तो हाशिए पर ढकेल दिया है या अपनी शरण में आने के लिए मजबूर कर दिया है। योगी के समर्थकों का प्रिय नारा है- ‘गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना होगा।’
लेकिन योगी के इस उभार और पूर्वांचल को गुजरात बनाने की शुरूआत गोरखपुर से करने के अभियान के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि गोरखपुर, गुजरात नहीं है। गोरखपुर और पूर्वांचल की गरीबी और पिछड़ेपन के सवाल बने हुए हैं। हालांकि गोरखपुर पूर्वांचल का एक प्रमुख व्यापारिक और सेवा क्षेत्र आधारित अर्थव्यवस्था का केंद्र है लेकिन एनएसएसओ के 61वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 56.5 प्रतिशत और शहर में 54.8 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। ‘इंडिया टुडे’ के लिए इंडिकस एनालिटिक्स के एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक गोरखपुर सामाजिक आर्थिक सूचकांक और आधारभूत ढांचे के मामले में देश के सौ सबसे बदतरीन संसदीय क्षेत्रों की सूची में 72वें स्थान पर है। पानी में आर्सेनिक और इंसेफेलाइटिस का कहर एक स्थायी त्रासदी है।
गोरखपुर का यह हाल हिन्दुत्व की राजनीति के लिए एक बड़ा सवाल बन गया है। योगी इसे ‘हिन्दुत्व और विकास’ के नारे से हल करना चाहते हैं। गोरखपुर के जवाब के लिए 16 मई का इंतजार करना होगा।
शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009
‘मंदिर’ और ‘हाते’ की लड़ाई में भारी पड़ता योगी का ‘हिन्दुत्व और विकास’
यहां लड़ाई ‘मंदिर’ और ‘हाते’ के बीच हो रही है। इस राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व की लड़ाई में मुद्दे गौण हो गए हैं और व्यक्ति, उसकी जाति और धर्म, बाहुबल और धनबल ज्यादा निर्णायक हो गए हैं। मंदिर के प्रतिनिधि और मौजूदा भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ गोरखनाथ मंदिर के मौजूदा महंथ अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी हैं। 37 वर्षीय आदित्यनाथ चौथी बार मैदान में हैं। वे 1998 से लगातार जीत रहे हैं। उनसे पहले महंथ अवैद्यनाथ 1989 से 1996 के बीच लगातार तीन बार चुनाव जीते। इस तरह, भाजपा प्रत्याशी के बतौर पहले अवैद्यनाथ और अब योगी आदित्यनाथ 1989 से 2004 के बीच लगातार छह बार चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं।
यही कारण है कि गोरखपुर को पूर्वांचल में भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सीट माना जा रहा है। लेकिन गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में भाजपा का मतलब योगी आदित्यनाथ हैं। लगातार जीत के कारण योगी की अपराजेयता का एक मिथ सा बन गया है। इस अपराजेयता का गणित काफी हद तक योगी के नारे ‘हिन्दुत्व और विकास’ के रसायन पर टिका हुआ है। योगी का ‘हिन्दुत्व और विकास’ अपनी कुछ स्थानीय विशेषताओं के साथ लगभग पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल की कार्बन कॉपी है। योगी खुद को नरेंद्र मोदी के तर्ज पर ही ढाल रहे हैं। उनके समर्थक गोरखपुर समेत पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने का सपना देख और दिखा रहे हैं।
हालांकि भाजपा और आदित्यनाथ के बीच ‘प्यार और नफरत’ का संबंध रहा हैं। लेकिन इस बार भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने गोरखपुर, बस्ती और आजमगढ़ मंडल की कमान योगी आदित्यनाथ को सौंप दी है। पिछले विधान सभा चुनावों में अपने समर्थकों को टिकट दिलाने के लिए योगी न सिर्फ नाराज होकर बगावत पर उतर आए थे बल्कि भाजपा नेतृत्व को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। अब भाजपा पूरी तरह से योगी के करिश्मे के भरोसे है। योगी का करिश्मा मूलतः उनके उग्र, आक्रामक और कई बार अश्लील और सभी हदें लांघ जाने वाले मुस्लिम विरोधी प्रचार और खुद को हिंदुओं के सबसे बड़े रक्षक की भावनात्मक अपील पर टिका है। लेकिन इस अपील के साथ योगी ने अपनी छवि क्षेत्र के विकास-सड़क, बिजली, पानी, पुल, स्कूल/ कॉलेज, अस्पताल आदि के लिए लड़ने वाले संसद की भी बनाई है।
इस चुनाव में भी योगी की रणनीति की मुख्य थीम मुस्लिम विरोधी प्रचार है लेकिन साथ ही उन्होंने संसदीय क्षेत्र में कराए गए विकास कार्यों का ब्यौरा देने वाली 28 पृष्ठों की एक पुस्तिका भी छपवाई है। शहर में बंट रहे पर्चों में भी पहले पृष्ठ पर इस्लामिक आतंकवाद की चुनौती के सामने खड़े योगी का महिमामंडन है तो दूसरे पृष्ठ पर पिछले पांच वर्षों में हुए विकास कार्यों की उपलब्धियों का बखान है। इन उपलब्धियों में योगी ने केन्द्र और राज्य सरकार के जरिए हुए कामों को भी अपने खाते में डालने में संकोच नहीं किया है। लेकिन जैसे-जैसे मतदान की तारीख 16 अप्रैल नजदीक आ रही है, योगी और उनके समर्थकों की भाषा और नारे तीखे, भड़काऊ और अश्लील होते जा रहे हैं। उनकी पूरी कोशिश है कि गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में चुनाव पूरी तरह हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के आधार पर लड़ा जाए।
असल में, इस बार योगी आदित्यनाथ के करिश्मे को पूर्वांचल के बहुचर्चित बाहुबली और माफिया डाॅन के बतौर जाने जानेवाले हरिशंकर तिवारी के बेटे और बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी से चुनौती मिल रही हैं। वे ‘हाते’ के उत्तराधिकारी हैं। गोरखपुर के जटाशंकर मुहल्ले में हरिशंकर तिवारी के विशाल किलेनुमा आवास को ‘हाता’ के नाम से जाना जाता है। यह गोरखपुर का एक ताकतवर सत्ता केन्द्र है। हालांकि मैदान में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी और जाने माने भोजपुरी गायक-कलाकार मनोज तिवारी भी हैं। उनकी सभाओं में भीड़ भी खूब जुट रही है लेकिन इसमें उन्हें देखने वालों की संख्या ज्यादा है, वोट देने वालों की कम। वे लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन बाहरी उम्मीदवार और मैदान में देर से प्रवेश जैसे कारक उनके खिलाफ जा रहे हैं। इसके बावजूद सच यह है कि वे ‘मंदिर’ और ‘हाते’ दोनों को नुकसान करेंगे।
लेकिन गोरखपुर में असली मुकाबला योगी आदित्यनाथ और बसपा प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी के बीच ही है। गोरखपुर और उसके आसपास की सीटों पर मायावती ने हरिशंकर तिवारी को बसपा के हाथी का महावत बना दिया है। यह बसपा की सर्वजन राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग का नया चेहरा है। बसपा ने विनय शंकर के अलावा हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे भीष्म शंकर तिवारी उर्फ कुशल तिवारी को संत कबीर नगर और भांजे गणेश शंकर पांडेय को महराजगंज से टिकट दिया है। इसी तरह, बसपा ने गाजीपुर से बड़े भाई अफजाल अंसारी और वाराणसी से छोटे भाई और माफिया डाॅन मुख्तार अंसारी को टिकट दिया है। इस तरह, पूर्वी उत्तर प्रदेश की 16 सीटों में से 5 सीटें दो बाहुबली परिवारों को सौंपकर मायावती ने ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित समीकरण पर दांव खेला है।
गोरखपुर में बसपा का झण्डा उठाए हरिशंकर तिवारी की उम्मीदें इसी समीकरण पर टिकी हैं। तिवारी के लिए यह चुनाव ‘हाते’ के राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व को बचाए रखने की लड़ाई है। इस लड़ाई में हार का अर्थ उनके साम्राज्य का बिखराव होगा। इस इलाके में हरिशंकर तिवारी का आपराधिक से लेकर राजनीतिक-आर्थिक साम्राज्य भी काफी हद उनकी ‘अपराजेयता’ से ही बना है। लेकिन पिछले विधान सभा चुनावों में सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे तिवारी को चिल्लूपार में बसपा प्रत्याशी राजेश त्रिपाठी ने हराकर इस अपराजेयता को जबरदस्त झटका दिया। तिवारी ने उसके बाद बसपा का झण्डा थाम लिया। यह उनका इतिहास है। वे हमेशा सत्ता के साथ रहते हैं। कांग्रेस, उसके बाद भाजपा, फिर सपा होते हुए अब बसपा के साथ हैं।
लेकिन हरिशंकर तिवारी अपनी सारी राजनीतिक कलाबाजियों के बावजूद यह जानते हैं कि अगर उन्होंने अपेक्षित नतीजा नहीं दिया तो मायावती उन्हें माफ नहीं करेंगी। यह उनके करोड़ों के ठेका कारोबार के लिए भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिए तिवारी ने गोरखपुर में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है। लेकिन योगी पर पार पाना उनके लिए आसान नहीं दिख रहा है। इसकी एक बड़ी वजह तो खुद उनका दागदार इतिहास है। शहर के बहुतेरे लोगों को योगी के विकल्प के बतौर विनय शंकर तिवारी को पचा पाना मुश्किल हो रहा है।
शनिवार, अप्रैल 11, 2009
युवा और सियासत
आनंद प्रधान
अपना पप्पू अचानक बहुत खास हो गया है। पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों में युवाओं की पूछ यकायक बहुत बढ़ गयी है। सत्ता के दावेदार राजनीतिक दलों और उनके नेताओं में खुद को युवाओं का सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने की होड़ सी शुरू हो गयी है। प्रधानमंत्री बनने के लिए बेताब नेता युवाओं तक पहुंचने के लिए हर तरह के टोटके आजमा रहे हैं। कोई साइबर दुनिया यानी वेबसाइट,गूगल,आर्कुट, फेसबुक और यू-टयूब के रास्ते युवाओं तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है तो किसी को लग रहा है कि उसका युवा होना ही युवाओं को रिझाने के लिए काफी है। राजनीतिक दल युवा नेतृत्व और टिकटों के बंटवारे में युवाओं को प्राथमिकता देने के दावे करते नहीं थक रहे हैं।
राजनीतिक दलों और नेताओं में युवाओं को रिझाने की यह होड़ बेवजह नहीं है। उन्हें आज के भारत में युवाओं की ताकत का अहसास है। उन्हें पता है कि 7, रेसकोर्स पर प्रधानमंत्री निवास की चाभी उन 25 करोड़ युवाओं के हाथ में है जिनकी उम्र 18 से 35 वर्ष के बीच है। ध्यान रहे कि आज देश की आधी से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम उम्र वालों की है। यही नहीं, लगभग दो तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम आयु वालों की है। जाहिर है कि आज का भारत एक युवा भारत है और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे नजरअंदाज करने का जोखिम कोई राजनीतिक दल या नेता नहीं उठा सकता है।
यही कारण है कि इन चुनावों में सभी राजनीतिक दल और उनके नेता इस युवा भारत से जुड़ने के लिए उस मंत्र या जंत्री की खोज में जुटे हैं जिससे युवा वोटरों को रिझाया जा सके। कांग्रेस अपने युवराज राहुल गांधी के युवा होने को भुनाने में जुटी है तो भाजपा अपने 81 वर्षीय नेता लाल कृष्ण आडवाणी को इमेज मेकओवर के जरिए युवा साबित करने में लगी है। हर पार्टी और नेता युवाओं की पसंद को ध्यान में रखकर चुनावी रणनीति बना रहे हैं। चुनाव प्रचार की थीम और विज्ञापनों में युवाओं को खास जगह दी जा रही है। गरज यह कि इन चुनावों में युवा वोटर अपनी निर्णायक संख्या और प्रभाव के कारण ऐसी करेंसी बन गए हैं जिन्हें भुनाकर ही दिल्ली की कुर्सी तक पहुंच जा सकता है।
लेकिन इस करेंसी कों भुनाना इतना आसान नहीं है और न ही वह इतनी आसानी से हाथ आनेवाली है। सच यह है कि युवा मतदाता चुप हैं। उन्होंने अभी अपनी पसंद-नापसंद खुलकर जाहिर नहीं की है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे शांत और निष्क्रिय हैं। हकीकत यह है कि युवा भारत न सिर्फ बहुत बेचैन है बल्कि उसके अंदर एक जबरदस्त उथलपुथल चल रही है। लेकिन उसकी इस बैचैनी और मानस को समझने और उसके दिल तक पहुंचने का मंत्र किसी को पता नहीं है। यही कारण है कि ज्यादातर नेता और पार्टियां टोटके आजमा रही हैं। कोई प्रसून जोशी से सलाह ले रहा है तो कोई रहमान की धुन बजा रहा है और कोई नेट की खाक छान रहा है। इस उम्मीद में कि इनमें से शायद कोई युवा वोटरों से कनेक्ट कर जाए।
लेकिन इन सभी टोटकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे युवा भारत को उपर-उपर से छूने की कोशिश कर रहे हैं। वे न सिर्फ युवाओं की वास्तविक उम्मीदों, आकांक्षाओं, मुद्दों और सवालों को छू नहीं पा रहे हैं बल्कि उससे आंखें चुराने की भी कोशिश कर रहे हैं। वे युवाओं के वोट तो चाहते हैं लेकिन उसके बदले में उन्हें वह सब कुछ देने को तैयार नहीं हैं जिसकी अपेक्षा एक आम युवा कर रहा है। यही नहीं, वे युवा भारत को उस विविधता, उसके अंदर मौजूद विभिन्न स्तरों और उनके अन्तद्र्वंद्वों के साथ समझने की भी कोशिश नहीं कर रहे हैं। सच यह है कि इस युवा भारत में वह मेट्रो युवा भी है, छोटे शहरों और कस्बों का युवा भी है, गांवों का युवा भी है और दूसरी ओर, उच्च मध्यम वर्ग से लेकर गरीब और हाशिए पर पड़ा युवा भी है। उसमें अंग्रेजी बोलनेवाला, सबसे अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में पढ़नेवाले युवाओं से लेकर क्षेत्रीय भाषाएं बोलनेवाला और पढ़ाई बीच में छोड़कर पुलिस, सेना और अद्र्धसैनिक बलों से लेकर संगठित और असंगठित क्षेत्र की निजी कंपनियों में एक अदद नौकरी की खोज में भटक रहा युवा भी है। इन युवाओं के सपनों में फर्क है, लक्ष्यों और महत्वाकांक्षाओं में फर्क है, जीवन जीने के अंदाज और दिशा में फर्क है।
लब्बोलुआब यह कि इस 25 करोड़ के युवा भारत में भी कई भारत हैं लेकिन पार्टियों, नेताओं के साथ-साथ कई बार मीडिया भी इस हकीकत को अनदेखा करने की कोशिश करता है। आमतौर पर युवा के नाम पर केवल कुछ बड़े शहरों खासकर मेट्रो के युवाओं को ही समूचे युवा भारत के प्रतिनिधि के बतौर पेश करने की कोशिश की जाती है। लेकिन सच यह है कि कुल युवा आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में है। उसके बाद छोटे शहरों और कस्बों के युवाओं का नंबर आता है। मेट्रो के युवाओं की संख्या कुल युवा आबादी के दस फीसदी से भी कम है। गांवों और छोटे शहरों -कस्बों के युवाओं के लिए सबसे बड़ी जद्दोजहद सस्ती, बेहतर और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा और एक सम्मानित नौकरी की तलाश से जुड़ी हुई है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के इस दौर में उनकी यह जद्दोजहद न सिर्फ और कठिन और तकलीफदेह हो गयी है बल्कि उनकी सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता (मोबिलीटी)की गति काफी धीमी पड़ गयी है। मंदी के कारण तो स्थिति और बदतर हो गयी है। यही कारण है कि इस युवा भारत में एक तरह का अलगाव, विचलन, आक्रोश, विद्रोह और उम्मीद एक साथ दिख रहे हैं। देश के एक बड़े हिस्से में चाहे वह माओवादी आंदोलन हो, अल्फा और उस जैसे दूसरे संगठन हो या फिर माफिया गैंग हों, या सड़कों पर कभी क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और धार्मिक शक्लों में फूटता गुस्सा हो या फिर सेना और अद्र्धसैनिक बलों के भर्ती कैंपों में जुटी भीड़ में भगदड़ में कुचलनेवाला हो-इस युवा को समझने और उस तक पहुंचने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है-न युवराज, न लौह पुरूष, न विकास पुरूष और न ही सर्वजन साम्राज्ञी! उल्टे कांग्रेस और भाजपा का ज्यादा जोर उस शहरी मध्यमवर्गीय युवा तक पहुंचने में है जो एक वर्चुअल दुनिया में रहता है और जिसे उदारीकरण और भूमंडलीकरण का सबसे अधिक लाभ मिला है। दूसरी ओर, सपा, बसपा,राजद,जद,(यू),रालोद, शिव सेना,मनसे जैसे क्षेत्रीय दलों को लगता है कि जातियों, धर्मो, समुदायों और क्षेत्रों के दायरे में बंटा युवा उसे छोड़कर कहां जाएगा, उसे वोट देना उसकी मजबूरी है। तीसरी ओर,सीपीएम जैसी मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां हैं जिन्होंने एक जमाने में आदर्शवादी और बदलाव चाहनेवालों युवाओं को आकर्षित किया लेकिन अब उनके अवसरवाद और वैचारिक विचलन के कारण युवा उनसे छिटकते जा रहे हैं। इन सबसे अलग सीपीआइ-एमएल जैसी क्रांतिकारी वामपंथी पार्टियों और मेधा पाटकर, अरूणा राय और संदीप पांडेय जैसे सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने युवाओं के एक हिस्से को आकर्षित और सामाजिक बदलाव के आंदोलनों से जोड़ा है।
लेकिन इसके बीच, यह सवाल सचमुच चिंतित करता है कि जिस देश की दो तिहाई आबादी 35 साल से कम उम्र की हो और जो जनसांख्यिकीय तौर पर दुनिया के सबसे युवा देशों में हो, वहां एक ताकतवर युवा आंदोलन नहीं दिख रहा है जिसके एजेंडे पर बदलाव का मुद्दा सबसे उपर हो। इतिहास गवाह है कि दुनिया के जो भी देश जनसांख्यिकीय तौर पर इस स्थिति से गुजरे, वहां युवा बेचैनी ने जबरदस्त बदलाव और उथलपुथल को जन्म दिया है। लेकिन भारतीय युवा अब भी चुप है। क्या यह तूफान के पहले की खामोशी है? 2009 में सत्ता के शिखरों के आकांक्षी इस खामोशी से सतर्क रहें।