सोमवार, मार्च 30, 2009

वैश्विक आर्थिक संकट और समूह बीस


आनंद प्रधान

वैश्विक आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार दोनों में इस साल गिरावट दर्ज होने के आसार बढ़ गए हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार इस साल वैश्विक जी डी पी की वृद्धि अपनी क्षमता से 5 फीसदी नीचे रह सकती है जबकि वैश्विक व्यापार में पिछले 80 वर्षो के इतिहास में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की जा सकती है। इस रिपोर्ट के बाद इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक मंदी के संकट में फंस चुकी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस वैश्विक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से साफ है कि यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों के दावों के विपरीत अर्थव्यवस्था की हालत न सिर्फ दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है बल्कि वह एक गहरे संकट में फंसती हुई दिखाई दे रही है। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजर अब भी इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और इस बेमानी बहस में लगे हुए हैं कि वृद्धि दर में गिरावट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है और इस कारण वह मंदी की चपेट से बाहर है।
तकनीकी और पारिभाषिक तौर पर यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में नहीं है लेकिन यह पूरी बहस इसलिए बेमानी है कि शास्त्रीय तौर पर मंदी की चपेट में न होने के बावजूद अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा काफी हद तक मंदी जैसी स्थिति से गुजर रहा है। पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से लाखों श्रमिकों /कर्मचारियों को श्मंदीश् के नाम पर नौकरियों से निकाला गया है और अभी भी निकाला जा रहा है, उनके लिए इस बहस का कोई मतलब नहीं है। यही नहीं, चाहे वह औद्योगिक उत्पादन खासकर मैन्यूफैक्चरिंग का क्षेत्र हो या निर्यात का, शेयर बाजार हो या नए निवेश का सवाल-हर ओर से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं।
सच यह है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अनुमानों से कहीं ज्यादा खराब है। अभी कुछ सप्ताह पहले केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने चालू वित्तीय वर्ष 2008-09 में जी डी पी की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही (अक्तूबर-दिसम्बर 08) के बारे में उसके ताजा अनुमान 5.3 प्रतिशत की वृद्धि दर से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत के बजाय 6 से 6.5 प्रतिशत के बीच रह सकती है। इसकी वजह यह है कि चालू वित्तीय वर्ष में 7.1 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने के लिए अर्थव्यवस्था को चैथी तिमाही (जनवरी -मार्च09) में कम से कम 7.5 प्रतिशत की गति से बढ़ना होगा जो कि मौजूदा स्थितियों में संभव नहीं दिख रहा है।
वैसे मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में 6 से 6।5 प्रतिशत की वृद्धि दर भी कम नहीं है लेकिन इसे लेकर निश्चिंत होने या अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर गुलाबी पर्दा डालने की भी जरूरत नहीं है। दरअसल, यह वृद्धि दर भी अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति की सूचक नहीं है। तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था का एक सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र- मैन्यूफैक्चरिंग पिछले अक्तूबर से लगातार बदतर प्रदर्शन कर रहा है। याद रहे कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के प्रदर्शन से लाखों श्रमिकों की रोजी -रोटी जुड़ी हुई है। इसी तरह, निर्माण और रीयल इस्टेट क्षेत्र की स्थिति भी लगातार बिगड़ती जा रही है और इसका असर लाखों मजदूरों की आजीविका पर पड़ रहा है। निर्यात का हाल यह है कि अक्टूबर के बाद से पिछले चार महीनों में निर्यात की वृद्धि दर लगातार नकारात्मक बनी हुई है।
इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी का प्रवाह न सिर्फ कम हुआ है बल्कि काफी बड़े पैमाने पर विदेशी वित्तीय पूंजी देश से बाहर जा रही है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक आर्थिक संकट के कारण विकासशील देशों में प्रवासी श्रमिकों द्वारा भेजी जानेवाली आय में भी काफी गिरावट के आसार हैं। इस सबका असर रूपए की कीमत पर पड़ रहा है जो डालर के मुकाबले गिरकर 52 रूपए प्रति डालर के आसपास पहुंच गया है। लेकिन इस सबसे अधिक और बड़ी चिंता की बात यह है कि वैश्विक मंदी और उसके बीच लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था की असली कीमत उन लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को अपना रोजगार गंवाकर चुकानी पड़ रही है जिनके लिए यूपीए सरकार ने किसी राहत या बचाव पैकेज का एलान नहीं किया है।
हालांकि इस बीच, मनमोहन सिंह सरकार ने उद्योग जगत खासकर बड़े कारपोरेट समूहों की मदद के लिए एक के बाद एक तीन राहत और बचाव पैकेजों का एलान किया है लेकिन छंटनी और तालाबंदी के शिकार लाखों श्रमिकों के लिए राहत पैकेज के एलान के मामले में उसकी कंजूसी किसी से छिपी नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि इन बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों का असली मकसद मंदी के बावजूद कारपोरेट क्षेत्र के मुनाफे को बनाए रखना है न कि मंदी की मार झेल रहे वर्गो को राहत पहुंचाना है। अगर ऐसा न होता तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी श्रमिक सम्मेलन में कारपोरेट क्षेत्र से श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी के बजाय उनकी तनख्वाह में कटौती की अपील करने के बजाय अपने मुनाफे में कटौती की अपील करते।
लेकिन छंटनी के बजाय कर्मचारियों की तनख्वाह में कटौती की अपील करके वित्त मंत्री ने साफ कर दिया है कि अगर कारपोरेट क्षेत्र ने मंदी से निपटने के नाम पर श्रमिकों के वेतन और मजदूरी में कटौती का अन्यायपूर्ण फैसला लिया तो यूपीए सरकार को कोई आपत्ति नहीं होगी। एक तरह से मुखर्जी ने कारपोरेट क्षेत्र को श्रमिकों के साथ मनमानी करने का एकतरफा लाइसेंस दे दिया है। इससे इस बात की आशंका बढ़ गयी है कि पहले से ही न्यूनतम मजदूरी की मांग से लेकर मुनाफे के अनुपात में घटते वेतन से जूझ रहे श्रमिकों को अपने रोजगार की कीमत घटती मजदूरी और वेतन के रूप में चुकानी पड़ेगी।
दूसरी ओर, विश्व बैंक का अपनी रिपोर्ट में यह भी कहना है कि मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण विकासशील देशों में लगभग 4.6 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। निश्चय ही, ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद भारत में भी होगी जो मंदी के कारण रोजगार गंवाकर या मजदूरी में कटौती के कारण एक बार फिर गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। इसकी वजह यह है कि भारत में ऐसे लोगों की तादाद कुल आबादी में काफी है जो बिल्कुल गरीबी रेखा के उपर हैं और किसी भी छोटे-बड़े आर्थिक/वित्तीय झटके से तुरंत गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा मंदी जैसी स्थिति हाशिए पर पड़े ऐसे लोगों को फिर से गरीबी रेखा के नीचे ढकेल देगी।लेकिन लगता नहीं है कि अर्थव्यवस्था के मौजूदा मैनेजर मंदी जैसी स्थिति की असली कीमत चुका रहे इन वर्गों को लेकर चिंतित हैं या बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों में उनका ध्यान रख रहे हैं। इन पैकेजों का एकमात्र उद्देश्य उस बड़ी पूंजी को राहत देना है जिसके बेलगाम तौर-तरीकों के कारण यह संकट पैदा हुआ है। लेकिन धीरे-धीरे लोग इस सच्चाई को समझने लगे हैं। यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों में यूरोप में फ्रांस से लेकर ग्रीस और आइसलैंड तक लाखों श्रमिक, किसान और आम लोग सड़कों पर निकलकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं।
सच यह है कि यूरोप में आर्थिक मंदी अब सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन गयी है आश्चर्य नहीं कि इस समय यूरोप में अधिकांश उदार पूंजीवादी राष्ट्रीय सरकारें राजनीतिक वैधता के गहरे संकट का सामना कर रही हैं। और उनके लिए आम लोगों के बढ़ते गुस्से का सामना करना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। नव उदारवादी पूंजीवाद का जादू टूट चुका है और उसे बड़े-बड़े आर्थिक पैकेजों के सहारे फिर से खड़ा करने की कोशिशें कामयाब नहीं हो रही हैं आम लोग उसके विकल्प की मांग कर रहे हैं लेकिन गोर्डन ब्राउन से लेकर निकोलस सरकोजी तक किसी के पास न तो वह वैकल्पिक दृष्टि है और न ही वह साहस कि नव उदारवादी पूंजीवादी मॉडल से आगे देख सकें।
दूसरी ओर, अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा ने श्परिवर्तनश् और 21 वीं शताब्दी के नए डील की जो उम्मीद जगायी थी, वह उनकी सरकार द्वारा घोषित 800 अरब डालर के भारी भरकम बचाव और उत्प्रेरक पैकेज के बावजूद बहुत तेजी से धूमिल पड़ती दिखाई दे रही है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि ओबामा प्रशासन का विशाल और ऐतिहासिक पैकेज भी बुनियादी तौर पर नव उदारवादी अर्थनीति की उन्हीं कमियों और खामियों का शिकार है जो ऐसे सभी पैकेजों का ट्रेडमार्क बन गया है। यह पैकेज भी बड़ी वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए तैयार किया गया है। आश्चर्य नहीं कि इस पैकेज के बावजूद न तो आर्थिक/वित्तीय संकट काबू में आता दिख रहा है और न ही आम लोगों को कोई राहत मिलने की उम्मीद बन रही है। इसकी वजह यह है कि ओबामा ने कुछेक जज्बाती और लच्छेदार भाषणों से आगे मौजूदा आर्थिक-वित्तीय ढांचे में बुनियादी परिवर्तन की राह पकड़ने के बजाय उसी राह पर बढ़ने की मंशा जताई है जिसपर चलकर दुनिया यहां पहुंच गयी है।
ऐसे में, अप्रैल के पहले सप्ताह में समूह 20 (जी-20) के देशों की लंदन में होने जा रही शिखर बैठक से क्या उम्मीद की जा सकती है? हालांकि इस बैठक को लेकर काफी माहौल बनाने और मौजूदा संकट का हल खोजने जैसे दावे किए जा रहे हैं लेकिन लंदन, वाशिंगटन,पेरिस और बाॅन से आ रहे संकेतों से साफ है कि इस आर्थिक मंदी और वित्तीय संकट ने नव उदारवादी पूंजीवादी खेमे में गहरे मतभेद पैदा कर दिए हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जहां दुनिया के तमाम देशों खासकर समूह-20 के देशों से एक समन्वित वित्तीय उत्प्रेरक पैकेजों के जरिए मंदी से मुकाबले की रणनीति को आगे बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं जर्मनी और फ्रांस के नेतृत्व में यूरोपीय देश सख्त वित्तीय और बैंकिंग रेग्यूलेशन की मांग कर रहे हैं। लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे उसे उन वित्तीय कम्पनियों और बैंकों के कामकाज पर अंकुश लगाना पड़ सकता है जो नव उदारवादी वित्तीय पूंजीवाद के केन्द्र में रही हैं। वित्तीय संकट के बावजूद इन वित्तीय संस्थानों, कंपनियों और बैंको के राजनीतिक प्रभाव में कोई खास कमी नहीं आयी है। ओबामा प्रशासन उन्हीं के सुर में बोल रहा है लेकिन फ्रांस और जर्मनी समेत अन्य यूरोपीय देशों के सामने मुश्किल यह है कि वे उसी सुर में बोलकर आम लोगों के गुस्से का सामना नहीं कर सकते हैं। इस तरह मंदी से निपटने की रणनीति को लेकर मतभेद बने हुए हैं।
इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भी शामिल होने की चर्चा है। सवाल यह है कि इस बैठक में भारत की भूमिका क्या होगी? यूपीए सरकार ने इस बारे में अपना दृष्टिकोण साफ नहीं किया है लेकिन समूह-20 की पिछली बैठकों को कोई संकेत माना जाए तो साफ है कि मनमोहन सिंह कोई स्वतंत्र, आलोचनात्मक और वैकल्पिक नजरिया रखने के बजाय काफी हद तक ओबामा के साथ खड़े नजर आएंगे।
यही नहीं, इस बात की भी बहुत कम संभावना है कि वैश्विक मंदी के नकारात्मक प्रभावों से विकासशील खासकर अत्यधिक गरीब देशों के बचाव और सहायता के लिए राहत कोष गठित करने के विश्व बैंक के सुझाव पर कोई्र ईमानदार पहल हो। विश्व बैंक का प्रस्ताव है कि दुनिया के विकसित देश अपने भारी -भरकम बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों का एक छोटा हिस्सा इस राहत कोष के लिए दे दें तो गरीब और विकासशील देशों की काफी मदद हो सकती है। जाहिर है कि समूह -20 की लंदन शिखर बैठक के लिए यह मुद्दा और नव उदारवादी पूंजीवादी माॅडल से बाहर वैकल्पिक रास्ते की तलाश का सवाल वैश्विक मंदी से निपटने की उनकी गंभीरता और ईमानदारी के लिए एक नैतिक और रातनैतिक परीक्षा है। क्या समूह -20 इस परीक्षा में पास हो पाएगा? आसार कम हैं क्यांेकि ऐसी मानसिक तैयारी नहीं दिख रही है।

शुक्रवार, मार्च 13, 2009

मुंतज़र अल जैदी की पत्रकारिता

आनंद प्रधान


मुंतज़र अल जैदी को जार्ज बुश पर जूते फेंकने के लिए तीन साल के कैद की सजा सुनाई गई है। ऐसे में यह लेख एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है।

इराकी टीवी पत्रकार मुंतज़र अल जैदी ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर जूते फेंककर प्रतिरोध की पत्रकारिता के इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया है। मुंतज़र न सिर्फ अरब जगत में बल्कि पूरी दुनिया में अमेरिकी नीतियों खासकर राष्ट्रपति बुश की आक्रामक और मनमानी विदेश नीति से नाराज लोगों के नायक बन गए हैं। उन्हें रिहा करने के लिए पूरी दुनिया में प्रदर्शन हुए हैं।
लेकिन दूसरी ओर, कारपोरेट और प्रतिष्ठानी पत्रकारिता संस्थानों में पत्रकारिता के मूल्यों, उसूलों और आचार संहिता का हवाला देते हुए मुंतज़र की आलोचना भी शुरू हो गयी है। कहा जा रहा है कि एक पत्रकार को जूते का नहीं, कलम और कैमरे का इस्तेमाल करना चाहिए। यह भी कि अगर मुंतज़र को बुश की नीतियों से कोई शिकायत और नाराजगी थी तो उसे बुश को सवाल पूछकर घेरना चाहिए था। मुंतज़र की कार्रवाई को अलोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रतिकूल बताया जा रहा है। इसके साथ ही एक और पुरानी बहस भी शुरू हो गयी है कि एक पत्रकार, आंदोलनकारी (एक्टिविस्ट) हो सकता है या नहीं?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुंतज़र ने जो किया, आमतौर पर सामान्य समय में एक आम पत्रकार से उसकी अपेक्षा नहीं की जाती है। लेकिन मुंतज़र के आलोचकों को याद रखना चाहिए कि इराक में स्थितियां बिल्कुल असामान्य हैं। बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने इराक पर एक गैर कानूनी, अन्यायपूर्ण और एकतरफा हमला किया, अब उसपर कब्जा कर रखा है और पिछले पांच वर्षों में लाखों इराकी नागरिक मारे गए हैं। इराक इस हमले और अमेरिकी कब्जे के कारण पूरी से तबाह हो चुका है। कहने की जरूरत नहीं है कि इराक अमेरिकी हमले के बाद से जिस असामान्य परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसमें सामान्य पत्रकारिता संभव ही नहीं हैं।
विदेशी कब्जे के बीच वहां कलम और कैमरे से अपनी बात कहने की गुंजाइश नहीं रह गयी है। जाहिर है कि मुंतज़र ने जो किया, वह उसकी पहली पसंद नहीं था लेकिन हम- आप सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि इराक में बुश प्रशासन और उसकी पिट्ठू नूरी अल मलिकी की सरकार ने लोगों को जिस कदर बिल्कुल दीवार तक ठेल दिया है उसमें उनके पास और कोई रास्ता नहीं रह गया है। इस दमघोंटू माहौल में पत्रकारिता संभव नहीं रह गयी है। अलबत्ता, इस माहौल में ‘हम बिस्तर’ (इम्बेडेड) पत्रकारिता जरूर हो सकती है। मुंतज़र से भी इसी तरह की पत्रकारिता की अपेक्षा की जा रही थी।
सच यह है कि मुंतज़र ने राष्ट्रपति बुश पर जूते फेंककर इस ‘हम बिस्तर’ पत्रकारिता के खिलाफ प्रतिरोध की पत्रकारिता की है। असल में, मुंतज़र का जूता इस ‘हम बिस्तर’ पत्रकारिता पर फेंका गया जूता भी है। जब देश विदेशी कब्जे के खिलाफ लड़ रहा हो तो पत्रकार उस लड़ाई से अलग कैसे हो सकते हैं ? निष्पक्षता का अर्थ अन्याय से आंखें मूदना नहीं है। पत्रकारिता का मूल स्वर हमेशा अन्याय के खिलाफ न्याय, गुलामी के खिलाफ आजादी और झूठ के खिलाफ सच के हक में खड़ा होने का रहा है। जब तक यह कलम और कैमरे से संभव हो तो उससे और जब यह संभव न रह जाए तो जूते और प्रतिरोध के अन्य तरीकों से भी अपनी बात कहना पत्रकारिता ही है।
मुंतज़र के साहस और हौसले को देखते हुए मुझे दो दशक पहले का बिहार याद आ रहा है जब जहानाबाद में जनसंहारों की राजनीति के खिलाफ विरोध जताते हुए कवि, लेखक, पत्रकार वीरेंद्र विद्रोही ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के चेहरे पर कालिख पोत दी थी। ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। इसीलिए कहना पड़ेगा कि मुंतज़र ने प्रतिरोध के इस इतिहास में एक नया अध्याय लिखा है।

सोमवार, मार्च 09, 2009

कितना प्रासंगिक और प्रभावी है प्रेस परिषद ?

आनंद प्रधान
एक ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश विकसित देशों में अखवारों की प्रसार संख्या लगातार गिर रही है और अखबारों की मौत की भविष्यवाणियां आम हो गयी हैं, यह निश्चय ही एक अच्छी और राहत देनेवाली खबर है कि भारत में अखबारों की प्रसार संख्या और उनका कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में अखबारों के प्रकाशन का 228 वर्षो का लंबा और कुलमिलाकर शानदार इतिहास इस बात का गवाह है कि वे भारतीय जनमानस के संघर्षो, उम्मीदों और आकांक्षाओं को स्वर देने में काफी हद तक सफल रहे हैं। भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दायरे के विस्तार में उनकी उल्लेखनीय भूमिका को अनदेखा करना मुश्किल है।

लेकिन पिछले दो दशकों में अखबारों की दुनिया में भारी बदलाव आया है। अखबारों पर न सिर्फ बाजार का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है बल्कि कुछ बड़े अखबार समूह तो पूरी तरह से व्यावसायिक हितों और मुनाफे की भूख से परिचालित हो रहे हैं। इस प्रक्रिया में अखबारो के भीतर न सिर्फ संपादकीय नियंत्रण कमजोर और प्रबंधकों के मातहत आ गया है बल्कि पत्रकारीय आचार संहिता, उसूलों, मूल्यों और परम्पराओं की खुलेआम धज्जियां उड़ाने में भी संकोच नहीं हो रहा है। समाचार और विज्ञापन के बीच की पवित्र दीवार कब की ढह चुकी है और समाचार रिपोर्टिंग में वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यों की शुध्दता (एक्यूरेसी) जैसे मानदंडों को लगभग भुला दिया गया है। यही नहीं, हाल के वर्षो में अखबारों के टीवीकरण ने रही-सही कसर पूरी कर दी है। इस कारण अखबारों ने न सिर्फ अपनी विश्वसनीयता खोनी शुरू कर दी है बल्कि उनपर अंकुश लगाने की मांग भी उठने लगी है।
निश्चय ही, प्रेस की स्वतंत्रता बहुत कीमती विचार है जिसके साथ किसी तरह का खिलवाड़ या समझौता नहीं किया जा सकता है। लेकिन समय आ गया है जब इस स्वतंत्रता की हिफाजत और उसे व्यापक जनहित में इस्तेमाल करने के लिए टी. वी समाचार चैनलों के साथ-साथ अखबारों को भी अपने कामकाज में पारदर्शी, लोकतांत्रिक, जवाबदेह और पत्रकारीय आचार संहिता के प्रति प्रतिबध्द बनाया जाए। अफसोस की बात है कि अखबारों की आजादी की हिफाजत और उन्हें व्यापक पत्रकारीय मूल्यों और आचार संहिता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए गठित आत्म नियमन की मौजूदा मशीनरी- भारतीय प्रेस परिषद-लगभग अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच गयी हों। कि उसके निर्देशों की न तो सरकारी मकहमे परवाह करते हैं और न ही अखबार। कुछ बड़े अखबार समूहो ने तो इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है जैसे प्रेस परिषद का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया हो।
जाहिर है कि इसकी वजह यह है कि प्रेस परिषद के पास कोई दंडात्मक अधिकार नहीं है। क्या प्रेस परिषद को दंडात्मक अधिकार दिए जाने चाहिए? यह बहस पिछले कुछ सालों में तेज हुई है। प्रेस परिषद के मौजूदा अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे ने परिषद को कुछ दंडात्मक अधिकार देने की वकालत करते हुए केन्द्र सरकार को यह सिफारिश करने का फैसला किया है कि प्रेस परिषद के निर्देशों की बार-बार अवहेलना करनेवाले अखबारों का सरकारी विज्ञापन तीन-चार महीने के लिए रोक लिया जाए। जस्टिस रे के बयान में झलकती निराशा, खीज और गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पानी किस तरह सिर के उपर से बहने लगा है।
ऐसे में, अब जरूरत इस बात की है कि प्रेस परिषद को एक सक्रिय, प्रो-एक्टिव, प्रभावी, स्वतंत्र लोकतांत्रिक और प्रासंगिक नियामक संस्था बनाने के लिए, उसे दंडात्मक अधिकार देने से लेकर अन्य सुधारों के बाबत गंभीर बहस हो और उसे किसी निर्णय तक पहुंचाया जाए। खुद अखबारों के भविष्य और साख के लिए यह पहल जरूरी हो गयी है। अब इसकी और उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

गुरुवार, मार्च 05, 2009

सुपर अमीरों और सफल लोगों का अलगाववाद

आनंद प्रधान
कौन कहता है कि दुनिया और उसके साथ भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है? चर्चित उद्योगपति अनिल अंबानी ने नए साल के तोहफे के बतौर अपनी पत्नी टीना अंबानी को लगभग 400 करोड़ रूपये की एक सुपर लग्ज़री नौका (याट) देने की घोषणा की है। याद रहे कि पिछले साल उनके बड़े भाई मुकेश अंबानी ने अपनी पत्नी नीता अंबानी को 240 करोड़ रूपये का एक लग्ज़री जेट भेंट किया था। मुकेश गए साल मुंबई में सैकड़ों करोड़ की लागत से बन रहे अपने बंगले के लिए भी सुर्खियों में थे जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें स्विमिंग पूल, सिनेमा हाल से लेकर हैलीकाप्टर उतरने के लिए हैलीपैड तक की व्यवस्था होगी। 2008 के गुजरने से ठीक पहले दिल्ली के वसंत विहार इलाके में जानी-मानी रीयल इस्टेट कम्पनी डीएलएफ ने अपने नए शापिंग मॉल खोलने की घोषणा की। इस शापिंग मॉल - डीएलफ इम्पोरिया की खूबी यह है कि इसमें केवल विदेशी लग्ज़री ब्रांडों जैसे अरमानी, वर्सेक, कार्टियर, लुईवितां आदि की दुकाने हैं जिसमें कीमतों की सूची किसी भी आम भारतीय के होश फाख्ता करने के लिए काफी है। जैसे कि किसी शर्ट की कीमत 35 हजार, लेडिज बैग 2 लाख, घड़ी 5 लाख, साड़ी 2.5 लाख और कोट की कीमत १.५ लाख से ऊपर हो सकती है। इन कीमतों के बावजूद देश में लग्ज़री उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि भारत में लग्ज़री उत्पादों की बिक्री में सालाना 18 से 20 फीसदी की रफ्तार से वृद्धि हो रही है।

आखिर इन समानों को कौन खरीद रहा है? ऐसा नहीं है कि इनके खरीददार विदेशी हैं। तथ्य यह है कि इन लग्ज़री उत्पादों के खरीददार वे भारतीय हैं जिनकी तादाद पिछले डेढ़ दो दशकों में तेजी से बढ़ी है। याद कीजिए पिछले कुछ वर्षों से नियमित अंतराल पर अखबारों मंे छपने वाली उन सुर्खियों को जिसमें देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की लगातार बढ़ती संख्या को आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की सफलता के रूप में पेश किया जाता रहा है। जाहिर है कि इन लग्ज़री ब्रांडों के खरीददार यही सफल भारतीय हैं। इन्हीं खरीददारों को लक्षित करके देश के एक बड़े अखबार समूह ने लग्ज़री ब्रांडों का सालाना सम्मेलन करना शुरू कर दिया है। कौन कहता है कि भारतीय गरीब हैं? अगर आपको इस बात पर यकीन नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि आपने कारपोरेट मीडिया की चतुराई के कारण एक बहुत महत्वपूर्ण खबर नहीं पढ़ी है। हाल ही में, स्विस बैंकिंग एसोसिएशन के हवाले से एक खबर आई है जिसकी हमारी मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुई है। इसके मुताबिक स्विस बैंकों में सबसे अधिक धन भारतीयों का जमा है। एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीय नागरिकों का कुल 1456 अरब डॉलर यानि 1।45 खरब डॉलर जमा है। भारतीय नागरिकों के बाद दूसरे नम्बर पर रूसी नागरिक हैं जिनका लगभग 470 अरब डॉलर, तीसरे पर ब्रिटिश नागरिक हैं जिनका लगभग 390 अरब डॉलर, चैथे पर यूक्रेन के नागरिक हैं जिनका लगभग 100 अरब डॉलर और पांचवे स्थान पर चीनी नागरिक हैं जिनका लगभग 96 अरब डॉलर स्विस बैंकों में जमा है। इससे स्पष्ट है कि स्विस बैंकों में रूसियों, ब्रिटिशों, यूक्रेनियों और चीनियों के कुल जमा से भी अधिक पैसा भारतीयों का जमा है। स्विस बैंकों के व्यक्तिगत खातों में जमा भारतीयों की कुल रकम देश के कुल विदेशी ऋण के तेरह गुने से भी अधिक है। यह देश के कुल विदेशी मुद्रा भंडार की छह गुना रकम है। याद रहे कि स्विस बैंकों की (कु)ख्याति दुनियाभर के गैर कानूनी काले धन को सुरक्षित और अत्यंत गोपनीय तरीके से जमा रखने के लिए है। वे अपने खातेदारों का परिचय गोपनीय रखते हैं और उनसे उनके पैसे का स्रोत नहीं पूछा जाता है। इस कारण दुनियाभर के देशों के भ्रष्ट राजनेता, अफसर, उद्योगपति और अपराधी स्विस बैंकों में पैसा जमा करते रहे हैं। भारतीय भी इसके अपवाद नहीं हैं।

आखिर ये ‘सुपर अमीर’ भारतीय कौन हैं जिनका अरबों डॉलर स्विस बैंकों में जमा है? एक अनुमान के मुताबिक हर साल कोई 80 हजार भारतीय स्विट्जरलैंड की यात्रा करते हैं जिसमें कोई 25 हजार ऐसे हैं जो नियमित रूप से स्विट्जरलैंड जाते रहते हैं। जाहिर है कि ये भारतीय स्विट्जरलैंड सिर्फ घूमने नहीं जाते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक एशिया में सबसे तेज गति से डॉलर अरबपतियों की संख्या भारत में बढ़ रही है। इस मामले में भारत ने चीन, जापान, कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड जैसे देशों को भी पीछे छोड़ दिया है। इस समय भारत में सबसे अधिक डॉलर अरबपति हैं। एनसीएईआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 लाख रूपये सालाना से अधिक आय वाले परिवारों की संख्या 10 लाख से अधिक और 10 लाख रूपये सालाना की आय वाले परिवारों की संख्या 3।25 लाख से अधिक हो चुकी है। यही नहीं, लगभग 1 करोड़ रूपये सालाना से अधिक की आय वाले परिवारों की संख्या भी 10 हजार के आस-पास पहुंच चुकी है। लेकिन यह उस इंडिया की तस्वीर थी जिसे आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समुद्र मंथन से निकले अमृत का लाभ मिला है। जाहिर है कि इन नए देवताओं (नवदौलतियों) की संख्या देश की कुल आबादी में अभी भी चार-पांच फीसदी से अधिक नहीं है। पर इस समुद्र मंथन से विष भी निकला है जो भारत के हिस्से आया है। इस विष को करोड़ों भारतीयों को पीना पड़ रहा है। इसके कुछ त्रासद और हिला देने वाले उदाहरण हम सब के सामने हैं- असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की स्थिति की जांच के लिए बनी अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश में लगभग 78 फीसदी आबादी की दैनिक आय 20 रूपये प्रति दिन से भी कम है। यह रिपोर्ट पिछले साल ही आई है और मंदी की चर्चाओं के बीच सबसे अधिक गाज इसी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर गिरी है। उनके लिए किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा जैसी चीज उपलब्ध नहीं है।

एनएसएसओ के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1991-92 और 2003-4 के बीच किसानों पर कर्ज 21 प्रतिशत से दोगुना बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। बढ़ती ऋणग्रस्तता और घाटे की खेती के कारण 1998 से 2003 के बीच 5 वर्षों में 1 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली। हालांकि सरकार का दावा है कि गरीबी घट रही है लेकिन सच्चाई यह है कि गरीबी केवल आंकड़ों में घट रही है। विश्वबैंक की गरीबी की नई परिभाषा के आधार पर भारत में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद कुल आबादी के 42 फीसदी से ज्यादा है। उदारीकरण के पिछले डेढ-दो दशकों में रोजगार वृद्धि की दर लगातार घटती चली गई है। यही कारण है कि इसे रोजगार विहीन विकास (जोब्लेस ग्रोथ) की परिघटना के रूप में भी देखा जाता है। इस तरह उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने एक देश के अंदर दो देश पैदा कर दिए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशक से जारी आर्थिक सुधारों और उदारीकरण का फायदा देश के मध्यवर्ग और अमीरों के एक बड़े हिस्से को मिला है। इसीलिए उसे उदारीकरण और भूमंडलीकरण की संतान भी कहा जाता है। इस नवदौलतिया वर्ग की आय में पिछले वर्षों में कई गुना की वृद्धि हुई है। इसके कारण अपने रहन-सहन, खान-पान और आचार-विचार में यह वर्ग दुनिया के अन्य विकसित देशों खासकर यूरोप और अमेरिका के उच्च वर्गों की कतार में शामिल हो गया है।

इस नवदौलतियां वर्ग की महत्वाकांक्षाएं, इच्छाएं और जरूरतें एक आम भारतीय से बिल्कुल अलग हो चुकी हैं। वह वास्तव में एक ‘ग्लोबल विलेज’ का नागरिक हो चुका है। उसे भारत और उसकी कठिनाइयों, संकटों, गरीबी, गैर बराबरी और भूखमरी आदि से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। अगर किसी कारणवश शारीरिक रूप से संभव नहीं है तो वह मानसिक रूप से इस भारत से अलग हो चुका है। यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही जा रही बात नहीं है। अगर आप हाल के वर्षों में दिल्ली और इस जैसे अन्य महानगरों के अंदर और उसके आस-पास बन रहे कालोनियों और शापिंग माल्स को देखें तो साफ हो जाएगा कि यह देश के अंदर ही एक अलग ‘देश’ है। दिल्ली के पास गुड़गांव में सुपर अमीरों के इन अपार्टमेंटस के नाम सुनिए जो सीधे अमेरिका से आयात किए गए हैं- बेवरली पार्क, बेलवेडियर पार्क, रिचमंड पार्क, द पाम्स, पिनैकल, मलीबू टाउन, रोजवुड़ विला आदि। कहने की जरूरत नहीं है कि जो किन्हीं कारणों से देश छोड़कर नहीं जा पाए और अनिवासी भारतीय (एनआरआई) होने का गौरव हासिल नहीं कर पाए, उन्होंने देश में ही अपना विदेश बना लिया है। ये भारतीय अनिवासी (आरएनआई यानि रेसिडेंट नॉन इंडियन्स) हैं। ये सिर्फ मजबूरी में इंडिया यानि भारत में रहते हैं अन्यथा इनके सपने, इनकी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं भारत के दायरे से बाहर निकल चुकी हैं।

जाहिर है कि यह सुपर अमीर भारतीयों का अलगाववाद है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड रिच ने ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखकर भूमंडलीकरण की परिभाषा ‘सफल लोगों के अलगाव’ (सेसेसन ऑफ सक्सेसफुल) के बतौर की थी। हालांकि जब भी भारत की एकता और अखण्डता के सामने मौजूद खतरों और चुनौतियों की बात होती है तो इस अलगाववाद का जिक्र तक नहीं होता है। लेकिन यह एक कडवी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया ने ‘इंडिया बनाम भारत’ की खाई और विभाजन और उससे जुड़ी बहस को और गहरा कर दिया है। आप मानें या न मानें लेकिन यह एक तथ्य है कि ‘इंडिया बनाम भारत’ के बीच बढ़ती दूरी और विद्वेष राष्ट्रीय एकता के लिए एक ऐसी ‘फाल्टलाइन’ का निर्माण कर रहे हैं जिसके बढ़ते तनाव को आप कई रूपों में उभरते और फूटते हुए देख सकते हैं। यह लोकतांत्रिक और गैर लोकतांत्रिक दोनों रूपों में प्रकट हो रहा है। 2004 के आम चुनावों में जब ‘इंडिया शाइनिंग’ का जश्न और हल्ला मचा हुआ था, आम भारतीयों ने बैलेट के जरिए उसके पैरोकारों को नकार दिया था। उस चुनाव के नतीजे कई मायनों में आंख खोलने वाले थे। उससे यह जाहिर हो गया था कि देश के एक छोटे से हिस्से को उदारीकरण से निकली समृद्धि का लाभ भले मिला हो लेकिन एक बड़ी आबादी अभी भी हाशिए पर पड़ी हुई है। उसे न सिर्फ इस उदारीकरण का कोई लाभ नहीं मिला बल्कि उसकी स्थिति बद से बदतर होती चली गई। किसानों और बुनकरों को आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

लेकिन इनमें बहुतेरे भारतीय ऐसे भी हैं जो आत्महत्या करने के लिए तैयार नहीं है। वे इस सब के खिलाफ संसदीय और गैर संसदीय, शांतिपूर्ण और हथियारबंद यानि हर तौर-तरीके से लड़ रहे हैं। इसमें गांधीवादी भी हैं, समाजवादी भी हैं, पर्यावरण वादी भी हैं, आदिवासी भी हैं और नक्सलवादी और माओवादी भी हैं। हालत यह हो गई है कि देश के कोई 150 जिलों में सरकार और प्रशासन के कोई मायने नहीं रहे गए हैं। खुद प्रधानमंत्री को कहना पड़ा है कि ‘देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।’ लेकिन इस सवाल का जवाब कोई नहीं देना चाहता है कि यह नक्सलवाद आया कहां से है? ये नक्सलवादी कौन है? वे किसकी सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं? इनमें से कुछ सवालों का जवाब योजना आयोग की एक समिति ने पिछले साल पेश अपनी रिपोर्ट में दिया है। योजना आयोग की बंद्योपाध्याय समिति के मुताबिक नक्सलवाद का विकास, व्यवस्था के प्रति लोगों के घोर असंतोष और उसके प्रति विश्वास के पूरी तरह से खत्म हो जाने के कारण हुआ है। समिति के मुताबिक यह एक राजनीतिक आंदोलन है जिसकी जड़े गरीब किसानों और आदिवासियों के बीच हैं। इससे राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि समिति की सिफारिश के ठीक उलट नए गृहमंत्री पी। चिदम्बरम ने नक्सलवाद को आतंकवाद के बराबर बताते हुए उसे भी नए कड़े कानूनों के दायरे में शामिल कर लिया है।

असल में, इंडिया और उसका सत्ता प्रतिष्ठान अपने अंदर झांकने के लिए तैयार नहीं है। वह उस कडवी हकीकत से लगातार नजरें चुरा रहा है या उस पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है जो इस देश की एकता के लिए नए-नए फाल्टलाइन पैदा कर रही है। आखिर अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई का सवाल हो या देश के विभिन्न राज्यों और उनके अंदर विभिन्न क्षेत्रों के बीच बढ़ती असमानता का मुद्दा हो- इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि इनके कारण देश की एकता पर दबाव बढ़ रहा हैं? उदाहरण के लिए जब रेलवे की कुछ सौ-हजार नौकरियों के लिए असम और बिहार, दूसरी ओर महाराष्ट्र और उत्तर भारत के बीच गृह युद्ध जैसी नौबत आ जाती है तो वह सिर्फ किसी राज ठाकरे के कारण नहीं बल्कि देश के अंदर बन रही क्षेत्रीय विषमता की फाॅल्टलाइन का भी नतीजा होता है।इसी तरह, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से भी समाज में गहरी बेचैनी और तनाव बढ़ रहा है। देशभर में जिस तरह से बात-बात पर हिंसा का लावा फूट पड़ रहा है, लोग बेकाबू हो रहे हैं और अराजकता एक नियम सी बनती जा रही है, वह इस बात का संकेत है कि भारतीय समाज के अंदर एक जबरदस्त उथल-पुुथल चल रही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस उथल-पुथल का संबंध बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और समाज के एक हिस्से की अश्लीलता की हद तक उपभोग से है।

खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में इस ओर इशारा करते हुए कहा था कि उन्हें उदार होना चाहिए, दिखावे से बचना चाहिए और गैर जरूरी उपभोग से दूर रहना चाहिए। इससे समाज पर अवांछित प्रभाव पड़ता है। लेकिन बाद में प्रधानमंत्री के सुझावों का जिस तरह से मजाक उडाया गया, उससे साफ हो गया कि इंडिया और भारत के बीच दूरी किस हद तक बढ़ गई है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में देश के अलग-अलग हिस्सों में सेज बनाने या औद्योगिकीकरण के लिए जमीन लेने की कोशिशों का जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है। किसान, मजदूर, बुनकर, मछुवारे और आदिवासी जान देने के लिए तैयार हैं लेकिन जमीन देने के लिए राजी नहीं है। अफसोस की बात यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान जनभावना को समझने के बजाय उसे विकास विरोधी और देश के लिए खतरा बता रहा है। आखिर अपनी जमीन देने से इंकार करनेवाले किसान किस देश के लिए खतरा हैं? सवाल यह भी है कि हम किस देश की बात कर रहे हैं? क्या देश सिर्फ एक नक्शा है, एक भूगोल है, एक सरकार है, या वह करोड़ों लोगों के सपनों, आकांक्षाओं और उम्मीदों मंे धड़कता एक ऐसा विचार है जो तभी तक जीवित रह सकता है जब तक सबके दुःख-दर्द और रोजी-रोटी की चिंता करता है। ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आजादी के बाद पिछले साठ वर्षों खासकर पिछले डेढ़-दो दशकों में विकास का जो मॉडल आगे बढ़ाया गया है उसमें देश के विचार को सफल और सुपर अमीरों ने हाइजैक कर लिया है।

क्या यही कारण नहीं है कि जब भी इसे चुनौती देने की कोशिश होती है तो देश में सफल और ताकतवर लोगों की ओर से भारतीय राज्य को एक ‘नरम राज्य’ (सॉफ्ट स्टेट) बताते हुए एक ‘सख्त राज्य’ (हार्ड स्टेट) की मांग उठने लगती है। कड़े कानूनों और अनुशासन पर्व की वकालत की जाने लगती है। भारतीय राज्य को और अधिक हथियारबंद बनाने के तर्क ढूंढे जाने लगते हैं। ऐसा कहने के पीछे कोई ‘षडयंत्र सिद्धांत’ (कान्सपिरेसी थियरी) नहीं है बल्कि पिछले दो-ढाई दशकों के अनुभव बोल रहा है। चाहे टाडा हो या पोटा- यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनका सबसे अधिक इस्तेमाल मजदूर नेताओं और जनांदोलनों के कार्यकर्ताओं-नेताओं के खिलाफ किया गया। यही नहीं, युद्ध के नारों के पीछे भी यही सोच काम करती है। युद्ध के बहाने जो उन्माद पैदा किया जाता है उसका इस्तेमाल आम लोगों के सवालों, मुद्दों और संकटों को दबाने और उस पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है। युद्ध का अपना एक अर्थशास्त्र भी है। इससे वह सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान सबसे अधिक लाभान्वित होता है जिसका धंधा हथियारों की खरीद बिक्री से चलता है। इस धंधे से बहुतेरे सुपर अमीरों के हित भी जुड़े हुए होते हैं।

क्या यह सच नहीं है कि हथियारों की सौदों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार यानि किकबैक चलता है? स्विस बैंकों में जिन भारतीयों के पैसे जमा हैं, उनमें दर्जनों हथियारों के दलाल और वे अफसर और राजनेता हैं जिन्होंने देश को मजबूत बनाने के नाम पर हर साल रक्षा बजट में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी की है। अगर पिछले एक दशक के रक्षा बजट पर बारीकी से निगाह डाली जाए तो साफ तौर पर दिखाई पड़ता है कि किसी भी अन्य मद की तुलना में उसमें सबसे तेजी से वृद्धि हुई है। आश्चर्य नहीं कि आज देश का कुल रक्षा बजट शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास आदि के कुल बजट से भी अधिक है। एक ऐसे देश में जहां 78 प्रतिशत नागरिक प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम की आय में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हों, वहां देश की सुरक्षा के नाम पर लगभग एक लाख करोड़ रूपये के रक्षा बजट से किसकी सुरक्षा हो रही है? साफ है कि देश को आतंकवाद और नक्सलवाद से कहीं ज्यादा और कहीं बड़ा खतरा सफल और सुपर अमीरों के उस अलगाववाद से है जो इस देश को दो हिस्सों में बांट रहा है। इंडिया, गरीब-भूखे और बेरोजगार भारत और उसके दुःख-दर्द से जितना कटता जाएगा, देश अंदर से उतना ही कमजोर और छीजता चला जाएगा। यह भी सच है कि देश आज तक एक है तो वह सिर्फ और सिर्फ इन्हीं गरीब किसानों, मजदूरों, बुनकरों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के कारण एक है। सफल और सुपर अमीर इस देश से अलग हो सकते हैं, अपने लिए मलीबू टाउन और बेवर्ली हिल्स बना सकते है। लेकिन गरीब कहां जाएंगे? उनके पास तो केवल उनका अपना देश है।

b

सोमवार, मार्च 02, 2009

26/11 के जख्म को हरा रखने के फायदे

आनंद प्रधान
मुंबई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के ढाई महीनों बाद एक बार फिर प्रमुख समाचार चैनलों पर हमले के दौरान आतंकवादियों और उनके कथित आकाओं के बीच हुई बातचीत के आडियो टेप से लेकर होटलों में सी सी टी वी में रिकार्ड वीडियो फुटेज दिखाने और सुनाने की होड़ सी शुरू हो गयी है। सबसे तेज चैनल ने सबसे पहले प्राइम टाइम में घंटों आतंकवादियों और उनके बाहर बैठे साथियों की टेलीफोन पर हुई बातचीत का टेप सुनाया। आदत के अनुसार उसने जहां तक संभव हो सकता था, इस एक्सक्लूसिव प्रस्तुति को सनसनीखेज और सांस रोकनेवाले खुलासे की तरह पेश किया। इसके बाद पिछले कुछ महीनों से गिरते टीआरपी से परेशान "देश के सर्वश्रेष्ठ चैनल" ने ताल ठोंकते हुए "आडियो नहीं, मुंबई पर हमला करनेवाले आतंकवादियों की जिंदा तस्वीरें टी वी पर पहली बार" दिखाते हुए "पाकिस्तान के मांओं-बापों, चाचा-चाचियों और भाई-बहनों" को उन्हें पहचानने की चुनौती दे डाली। जाहिर है कि इसके बाद श्खबर हर कीमत परश् का दावा करनेवाला चैनल भी कैसे चुप रह सकता था? उसने भी ट्राइडेंट होटल में घुसे जिंदा आतंकवादियों के वीडियो वैसे ही अंदाज में "एक्सक्लूसिव" दिखाए। इसके साथ ही, समाचार चैनलों पर मुंबई पर आतंकवादी हमलों "एक्सक्लूसिव" दिखाने-सुनाने और बताने का एक सिलसिला सा शुरू हो गया है।
सवाल उठता है कि मुंबई पर आतंकवादी हमले के दस सप्ताह बाद ये आॅडियो टेप और वीडियो क्लिप क्यों दिखाए-सुनाए और बताए जा रहे हैं? इन प्रमुख समाचार चैनलों को लगभग एक ही समय ये श् एक्सक्लूसिवश्आडियो/वीडियो टेप कौन मुहैया करा रहा है और उसका मकसद क्या है? इस सवाल का उत्तर जानने के लिए बहुत कयास लगाने की जरूरत नहीं है। ये चैनल चाहे जो दावे करें लेकिन सच यह है कि ये श्एक्सक्लूसिवश्टेप उन्हें पुलिस और खुफिया एजेंसियों के जरिए मुहैया करवाए जा रहे हैं। ऐसा सिर्फ पाकिस्तान के श्झूठश् का पर्दाफाश करने के लिए नहीं किया जा रहा है। इसकी बड़ी वजह कुछ और है।
दसअसल, चुनाव नजदीक हैं और यूपीए सरकार मुंबई हमले के जख्म को हरा रखकर उसकी राजनीतिक फसल काटने की कोशिश कर रही है। समाचार चैनल इसमें जाने-अनजाने इस्तेमाल हो रहे हैं। चैनलों और अखबारों में उबकाई की हद तक जिस तरह से रात-दिन पाकिस्तान की धुलाई के साथ-साथ अल कायदा, ओसामा और तालिबान को हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, उससे न सिर्फ देश और आम आदमी के जरूरी मुद्दे और सवाल हाशिए पर चले गए हैं बल्कि यह आशंका बढ़ती जा रही है कि यूपीए खासकर कांग्रेस चुनावों में लोगों के डर को कैश कराने की तैयारी कर रही है। वह पाकिस्तान के खिलाफ एक सख्त और आक्रामक मुद्रा अपनाकर चैनलों द्वारा तैयार पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को भुनाने की हरसंभव कोशिश कर रही है।
अफसोस की बात यह है कि चैनल और सरकार (राजनीतिक दल) दोनों आम लोगों की असुरक्षा और डर को अपने-अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह एक तरह का भयादोहन है। राजनीतिक दलों को इस खून का स्वाद बहुत पहले ही लग गया था, चैनलों को इसका स्वाद अब मिला है। शायद यही कारण है कि वे सरकार और राजनीतिक दलों की तुलना में पाकिस्तान/तालिबान/आतंकवाद/ जिहाद का नकली हौव्वा खड़ा करने और फिल्मी अंदाज में उसकी दैनिक पिटाई में कहीं ज्यादा उत्साह से जुटे हुए हैं।