आनंद प्रधान
वैश्विक आर्थिक संकट लगातार गहराता जा रहा है। विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार दोनों में इस साल गिरावट दर्ज होने के आसार बढ़ गए हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार इस साल वैश्विक जी डी पी की वृद्धि अपनी क्षमता से 5 फीसदी नीचे रह सकती है जबकि वैश्विक व्यापार में पिछले 80 वर्षो के इतिहास में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की जा सकती है। इस रिपोर्ट के बाद इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक मंदी के संकट में फंस चुकी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस वैश्विक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से साफ है कि यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों के दावों के विपरीत अर्थव्यवस्था की हालत न सिर्फ दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है बल्कि वह एक गहरे संकट में फंसती हुई दिखाई दे रही है। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजर अब भी इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और इस बेमानी बहस में लगे हुए हैं कि वृद्धि दर में गिरावट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है और इस कारण वह मंदी की चपेट से बाहर है।
तकनीकी और पारिभाषिक तौर पर यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में नहीं है लेकिन यह पूरी बहस इसलिए बेमानी है कि शास्त्रीय तौर पर मंदी की चपेट में न होने के बावजूद अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा काफी हद तक मंदी जैसी स्थिति से गुजर रहा है। पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से लाखों श्रमिकों /कर्मचारियों को श्मंदीश् के नाम पर नौकरियों से निकाला गया है और अभी भी निकाला जा रहा है, उनके लिए इस बहस का कोई मतलब नहीं है। यही नहीं, चाहे वह औद्योगिक उत्पादन खासकर मैन्यूफैक्चरिंग का क्षेत्र हो या निर्यात का, शेयर बाजार हो या नए निवेश का सवाल-हर ओर से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं।
सच यह है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अनुमानों से कहीं ज्यादा खराब है। अभी कुछ सप्ताह पहले केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने चालू वित्तीय वर्ष 2008-09 में जी डी पी की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही (अक्तूबर-दिसम्बर 08) के बारे में उसके ताजा अनुमान 5.3 प्रतिशत की वृद्धि दर से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.1 प्रतिशत के बजाय 6 से 6.5 प्रतिशत के बीच रह सकती है। इसकी वजह यह है कि चालू वित्तीय वर्ष में 7.1 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने के लिए अर्थव्यवस्था को चैथी तिमाही (जनवरी -मार्च09) में कम से कम 7.5 प्रतिशत की गति से बढ़ना होगा जो कि मौजूदा स्थितियों में संभव नहीं दिख रहा है।
वैसे मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में 6 से 6।5 प्रतिशत की वृद्धि दर भी कम नहीं है लेकिन इसे लेकर निश्चिंत होने या अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर गुलाबी पर्दा डालने की भी जरूरत नहीं है। दरअसल, यह वृद्धि दर भी अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति की सूचक नहीं है। तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था का एक सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र- मैन्यूफैक्चरिंग पिछले अक्तूबर से लगातार बदतर प्रदर्शन कर रहा है। याद रहे कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के प्रदर्शन से लाखों श्रमिकों की रोजी -रोटी जुड़ी हुई है। इसी तरह, निर्माण और रीयल इस्टेट क्षेत्र की स्थिति भी लगातार बिगड़ती जा रही है और इसका असर लाखों मजदूरों की आजीविका पर पड़ रहा है। निर्यात का हाल यह है कि अक्टूबर के बाद से पिछले चार महीनों में निर्यात की वृद्धि दर लगातार नकारात्मक बनी हुई है।
इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी का प्रवाह न सिर्फ कम हुआ है बल्कि काफी बड़े पैमाने पर विदेशी वित्तीय पूंजी देश से बाहर जा रही है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक आर्थिक संकट के कारण विकासशील देशों में प्रवासी श्रमिकों द्वारा भेजी जानेवाली आय में भी काफी गिरावट के आसार हैं। इस सबका असर रूपए की कीमत पर पड़ रहा है जो डालर के मुकाबले गिरकर 52 रूपए प्रति डालर के आसपास पहुंच गया है। लेकिन इस सबसे अधिक और बड़ी चिंता की बात यह है कि वैश्विक मंदी और उसके बीच लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था की असली कीमत उन लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को अपना रोजगार गंवाकर चुकानी पड़ रही है जिनके लिए यूपीए सरकार ने किसी राहत या बचाव पैकेज का एलान नहीं किया है।
हालांकि इस बीच, मनमोहन सिंह सरकार ने उद्योग जगत खासकर बड़े कारपोरेट समूहों की मदद के लिए एक के बाद एक तीन राहत और बचाव पैकेजों का एलान किया है लेकिन छंटनी और तालाबंदी के शिकार लाखों श्रमिकों के लिए राहत पैकेज के एलान के मामले में उसकी कंजूसी किसी से छिपी नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि इन बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों का असली मकसद मंदी के बावजूद कारपोरेट क्षेत्र के मुनाफे को बनाए रखना है न कि मंदी की मार झेल रहे वर्गो को राहत पहुंचाना है। अगर ऐसा न होता तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी श्रमिक सम्मेलन में कारपोरेट क्षेत्र से श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी के बजाय उनकी तनख्वाह में कटौती की अपील करने के बजाय अपने मुनाफे में कटौती की अपील करते।
लेकिन छंटनी के बजाय कर्मचारियों की तनख्वाह में कटौती की अपील करके वित्त मंत्री ने साफ कर दिया है कि अगर कारपोरेट क्षेत्र ने मंदी से निपटने के नाम पर श्रमिकों के वेतन और मजदूरी में कटौती का अन्यायपूर्ण फैसला लिया तो यूपीए सरकार को कोई आपत्ति नहीं होगी। एक तरह से मुखर्जी ने कारपोरेट क्षेत्र को श्रमिकों के साथ मनमानी करने का एकतरफा लाइसेंस दे दिया है। इससे इस बात की आशंका बढ़ गयी है कि पहले से ही न्यूनतम मजदूरी की मांग से लेकर मुनाफे के अनुपात में घटते वेतन से जूझ रहे श्रमिकों को अपने रोजगार की कीमत घटती मजदूरी और वेतन के रूप में चुकानी पड़ेगी।
दूसरी ओर, विश्व बैंक का अपनी रिपोर्ट में यह भी कहना है कि मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण विकासशील देशों में लगभग 4.6 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। निश्चय ही, ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद भारत में भी होगी जो मंदी के कारण रोजगार गंवाकर या मजदूरी में कटौती के कारण एक बार फिर गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। इसकी वजह यह है कि भारत में ऐसे लोगों की तादाद कुल आबादी में काफी है जो बिल्कुल गरीबी रेखा के उपर हैं और किसी भी छोटे-बड़े आर्थिक/वित्तीय झटके से तुरंत गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा मंदी जैसी स्थिति हाशिए पर पड़े ऐसे लोगों को फिर से गरीबी रेखा के नीचे ढकेल देगी।लेकिन लगता नहीं है कि अर्थव्यवस्था के मौजूदा मैनेजर मंदी जैसी स्थिति की असली कीमत चुका रहे इन वर्गों को लेकर चिंतित हैं या बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों में उनका ध्यान रख रहे हैं। इन पैकेजों का एकमात्र उद्देश्य उस बड़ी पूंजी को राहत देना है जिसके बेलगाम तौर-तरीकों के कारण यह संकट पैदा हुआ है। लेकिन धीरे-धीरे लोग इस सच्चाई को समझने लगे हैं। यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों में यूरोप में फ्रांस से लेकर ग्रीस और आइसलैंड तक लाखों श्रमिक, किसान और आम लोग सड़कों पर निकलकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं।
सच यह है कि यूरोप में आर्थिक मंदी अब सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बन गयी है आश्चर्य नहीं कि इस समय यूरोप में अधिकांश उदार पूंजीवादी राष्ट्रीय सरकारें राजनीतिक वैधता के गहरे संकट का सामना कर रही हैं। और उनके लिए आम लोगों के बढ़ते गुस्से का सामना करना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। नव उदारवादी पूंजीवाद का जादू टूट चुका है और उसे बड़े-बड़े आर्थिक पैकेजों के सहारे फिर से खड़ा करने की कोशिशें कामयाब नहीं हो रही हैं आम लोग उसके विकल्प की मांग कर रहे हैं लेकिन गोर्डन ब्राउन से लेकर निकोलस सरकोजी तक किसी के पास न तो वह वैकल्पिक दृष्टि है और न ही वह साहस कि नव उदारवादी पूंजीवादी मॉडल से आगे देख सकें।
दूसरी ओर, अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा ने श्परिवर्तनश् और 21 वीं शताब्दी के नए डील की जो उम्मीद जगायी थी, वह उनकी सरकार द्वारा घोषित 800 अरब डालर के भारी भरकम बचाव और उत्प्रेरक पैकेज के बावजूद बहुत तेजी से धूमिल पड़ती दिखाई दे रही है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि ओबामा प्रशासन का विशाल और ऐतिहासिक पैकेज भी बुनियादी तौर पर नव उदारवादी अर्थनीति की उन्हीं कमियों और खामियों का शिकार है जो ऐसे सभी पैकेजों का ट्रेडमार्क बन गया है। यह पैकेज भी बड़ी वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए तैयार किया गया है। आश्चर्य नहीं कि इस पैकेज के बावजूद न तो आर्थिक/वित्तीय संकट काबू में आता दिख रहा है और न ही आम लोगों को कोई राहत मिलने की उम्मीद बन रही है। इसकी वजह यह है कि ओबामा ने कुछेक जज्बाती और लच्छेदार भाषणों से आगे मौजूदा आर्थिक-वित्तीय ढांचे में बुनियादी परिवर्तन की राह पकड़ने के बजाय उसी राह पर बढ़ने की मंशा जताई है जिसपर चलकर दुनिया यहां पहुंच गयी है।
ऐसे में, अप्रैल के पहले सप्ताह में समूह 20 (जी-20) के देशों की लंदन में होने जा रही शिखर बैठक से क्या उम्मीद की जा सकती है? हालांकि इस बैठक को लेकर काफी माहौल बनाने और मौजूदा संकट का हल खोजने जैसे दावे किए जा रहे हैं लेकिन लंदन, वाशिंगटन,पेरिस और बाॅन से आ रहे संकेतों से साफ है कि इस आर्थिक मंदी और वित्तीय संकट ने नव उदारवादी पूंजीवादी खेमे में गहरे मतभेद पैदा कर दिए हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जहां दुनिया के तमाम देशों खासकर समूह-20 के देशों से एक समन्वित वित्तीय उत्प्रेरक पैकेजों के जरिए मंदी से मुकाबले की रणनीति को आगे बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं जर्मनी और फ्रांस के नेतृत्व में यूरोपीय देश सख्त वित्तीय और बैंकिंग रेग्यूलेशन की मांग कर रहे हैं। लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि इससे उसे उन वित्तीय कम्पनियों और बैंकों के कामकाज पर अंकुश लगाना पड़ सकता है जो नव उदारवादी वित्तीय पूंजीवाद के केन्द्र में रही हैं। वित्तीय संकट के बावजूद इन वित्तीय संस्थानों, कंपनियों और बैंको के राजनीतिक प्रभाव में कोई खास कमी नहीं आयी है। ओबामा प्रशासन उन्हीं के सुर में बोल रहा है लेकिन फ्रांस और जर्मनी समेत अन्य यूरोपीय देशों के सामने मुश्किल यह है कि वे उसी सुर में बोलकर आम लोगों के गुस्से का सामना नहीं कर सकते हैं। इस तरह मंदी से निपटने की रणनीति को लेकर मतभेद बने हुए हैं।
इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भी शामिल होने की चर्चा है। सवाल यह है कि इस बैठक में भारत की भूमिका क्या होगी? यूपीए सरकार ने इस बारे में अपना दृष्टिकोण साफ नहीं किया है लेकिन समूह-20 की पिछली बैठकों को कोई संकेत माना जाए तो साफ है कि मनमोहन सिंह कोई स्वतंत्र, आलोचनात्मक और वैकल्पिक नजरिया रखने के बजाय काफी हद तक ओबामा के साथ खड़े नजर आएंगे।
यही नहीं, इस बात की भी बहुत कम संभावना है कि वैश्विक मंदी के नकारात्मक प्रभावों से विकासशील खासकर अत्यधिक गरीब देशों के बचाव और सहायता के लिए राहत कोष गठित करने के विश्व बैंक के सुझाव पर कोई्र ईमानदार पहल हो। विश्व बैंक का प्रस्ताव है कि दुनिया के विकसित देश अपने भारी -भरकम बचाव और उत्प्रेरक पैकेजों का एक छोटा हिस्सा इस राहत कोष के लिए दे दें तो गरीब और विकासशील देशों की काफी मदद हो सकती है। जाहिर है कि समूह -20 की लंदन शिखर बैठक के लिए यह मुद्दा और नव उदारवादी पूंजीवादी माॅडल से बाहर वैकल्पिक रास्ते की तलाश का सवाल वैश्विक मंदी से निपटने की उनकी गंभीरता और ईमानदारी के लिए एक नैतिक और रातनैतिक परीक्षा है। क्या समूह -20 इस परीक्षा में पास हो पाएगा? आसार कम हैं क्यांेकि ऐसी मानसिक तैयारी नहीं दिख रही है।