शनिवार, फ़रवरी 28, 2009

कौन चाहता है एक्जिट पोल ?

आनंद प्रधान
यूपीए सरकार ने निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव सुनिश्चित करने के इरादे से एक्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है । इसका अर्थ है कि आम चुनावों के दौरान समाचार माध्यमों के पाठको और दर्शकों को मतदान प्रक्रिया पूरी तरह से समाप्त होने से पहले चुनावी नतीजों के रूझान का पता नहीें चल सकेगा। सरकार, चुनाव आयोग और अधिकांश राजनीतिक दलों का तर्क है कि इस फैसले से मतदाताओं को बिना किसी अवांछित प्रभाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्णय लेने में आसानी होगी।

लेकिन कई समाचार संगठनों खासकर समाचार चैनलों ने इस फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अभिव्यक्ति की आजादी में अनुचित हस्तक्षेप बताया है। इसके साथ ही मीडिया और राजनीतिक-अकादमिक हलकों में इस फैसले के गुण-दोशों को लेेकर एक बहस शुरू हो गयी है। एक्जिट पोल पर प्रतिबंध के समर्थकों का कहना है कि उसके नतीजों का मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव पड़ता है और इससे चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता, स्वच्छता और स्वतंत्रता प्रभावित होती है। इसकी वजह यह है कि आमतौर पर मतदाताओं में एक्जिट पोल में जीत रही पार्टी के पक्ष में मतदान करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। इसे बैंडवैगन प्रभाव भी कहा जाता है। लेकिन इस फैसले के विरोधी इन तर्को से सहमत नहीं हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हाल के वर्षो में चुनाव प्रक्रिया के कई चरणों में होने और समाचार माध्यमों के व्यापक विस्तार के कारण एक्जिट पोल की राजनीतिक माहौल और चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता कई गुना बढ़ गयी है। समाचार माध्यमों के विस्तार के साथ चुनावी सर्वेक्षण और एक्जिट पोल करनेवाली दर्जनों एजेंसियां बाजार में सक्रिय हो गयी हैं जिनमें से कई एजेंसियों की विश्वसनीयता और साख संदेहांे के घेरे में है। कहने की जरूरत नहीं है कि चुनावों में जैसे- जैसे दांव ऊंचे होते जा रहे हैं, उसे प्रभावित करने की कोशिशें भी बढ़ती जा रही हैं। हाल के वर्शो में एक्जिट पोल को भी इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अधिकांश मौकों पर ओपिनियन और एक्जिट पोल वास्तविक नतीजों से काफी दूर रहे हैं, हालांकि उनके कर्ता-धर्ता उसे हमेशा वास्तविक मतगणना की तरह पेश करते रहे हैं।

लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक्जिट पोल के प्रकाशन या प्रसारण से समूची राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को क्या लाभ होता है कि उसे जरूरी माना जाए? आखिर इससे किसका उद्वेश्य या हित सधता है? क्या सिर्फ कुछ सर्वेक्षण एजेंसियों और समाचार संगठनों के कारोबार को बनाए या बढ़ाए जाने के लिए एक्जिट पोल को जारी रखा जाना चाहिए या इसका चुनावी प्रक्रिया में कोई सार्थक योगदान है ? जाहिर है कि एक्जिट पोल के समर्थकों के पास इन प्रश्नों का कोई विश्वसनीय उत्तर नहीं है। ऐसे में, निश्चय ही सिर्फ कुछ चुनाव पंडितों, सर्वेक्षण एजेंसियों और चैनलों/अखबारों के कारोबार या बौद्धिक वाग्विलास के लिए पूरी चुनावी प्रक्रिया को अनुचित तरीके से प्रभावित करने की छूट नहीं दी जा सकती है। एक्जिट पोल नहीं होंगे तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। अलबत्त्ता, एक्जिट पोल होने दिए गए तो चुनावी प्रक्रिया की निश्पक्षता और स्वच्छता जरूर प्रभावित होती है। यही कारण है कि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में मतदान समाप्त होने से पहले एक्जिट पोल के प्रसारण/प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

बुधवार, फ़रवरी 25, 2009

जागते रहो देखनेवालो !

आनंद प्रधान
टेलीविजन समाचार चैनलों के संगठन-न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसियेशन (एनबीए) ने चैनलों की विस्तृत प्रसारण आचार संहिता और दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं। इन दिशानिर्देशों के मुताबिक अब समाचार चैनल अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र, भूत,-प्रेत परालौकिक और झाड़- फंूक को महिमामंडित करनेवाले या उनमें लोगों का विश्वास बढ़ानेवाले कार्यक्रमों का प्रसारण नहीं करेंगे। एनबीए के दिशानिर्देशों के अनुसार समाचार चैनलों की रिपोर्टिंग में लोकहित को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाएगा और कोई भी रिपोर्ट संदर्भ से काटकर नहीं दिखायी जाएगी। रिपोर्टिंग में वस्तुनिष्ठता और तथ्यों की शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाएगा। समाचारों को पर्याप्त जांच-पड़ताल और दो या उससे अधिक सूत्रों से पुष्टि के बाद ही प्रसारित किया जाएगा।
एनबीए ने समाचार चैनलों से यह भी कहा है कि स्टिंग आपरेशन आखिरी उपाय के बतौर और वह भी लोकहित में किया जाना चाहिए। यही नहीं, स्टिंग आपरेशन करते हुए यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि वह किसी अपराध या अनियमितता के सबूत जुटाने के लिए हो न कि खुद अपराध या अनियमितता में शामिल हो जाए। इन दिशानिर्देशों में समाचार चैनलों को अपराध और हिंसा के महिमामंडन से बचने और मीडिया ट्रायल से दूर रहने की सलाह दी गयी है। वे सभी जागरूक पाठक जो समाचार चैनलों की रिपोर्टों ओर कार्यक्रमों में दिलचस्पी रखते हैं या चैनलों के कवरेज में आई गिरावट को लेकर चिंतित रहते हैं, उन्हें इन दिशानिर्देशों को जरूर पढ़ना चाहिए। इसके लिए उन्हें एनबीए की वेबसाइट पर जाना होगा जहां समाचार चैनलों के कार्यक्रमों और रिपोर्टो को लेकर शिकायत करने की प्रक्रिया का ब्यौरा भी दिया गया है।
निश्चय ही, सभी जागरूक दर्शकों को अपने अधिकारों का अवश्य ही इस्तेमाल करना चाहिए। आप मानें या न मानें लेकिन समाचार चैनलों की अन्तर्वस्तु (कंटेंट)में आई गिरावट के लिए कुछ हद तक वे निष्क्रिय दर्शक भी जिम्मेदार हैं जो अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत के साथ-साथ अनुचित, अनैतिक और मनगढंत रिपोर्टों और कार्यक्रमों को चुपचाप बर्दाश्त करते रहते हैं। लेकिन याद रखिए कि समाचार चैनलों पर दिखाए जानेवाले कंटेंट से आपकी, हमारी और सबकी जिंदगी प्रभावित होती है। अगर समाचार चैनल भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वास और सतही तथा छिछोरे कार्यक्रम और रिपोर्टें दिखाने में ज्यादा समय खर्च कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि वे हमारी और आपकी जिंदगी को सीधे या परोक्ष रूप से प्रभावित करनेवाली खबरें और रिपोर्ट नहीं दिखाएंगे या उन्हें कम समय और महत्त्व देंगे या तोड़मरोड़कर दिखाएंगे।
उस स्थिति में हम सबके जीवन को प्रभावित करनेवाले मुद्दे, समस्याएं और सवाल सार्वजनिक एजंडे पर नहीं आ पाते हैं और हम परोक्ष रूप से उसकी भारी कीमत चुकाते हैं। इसलिए अब सभी देखनेवालों, पढ़नेवालों और सुननेवालों के जागने और अपनी बात सुनाने का समय आ गया है। यह कोई खास मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए आपको सिर्फ समाचार चैनल देखते हुए अपनी आंखें, कान और दिमाग खोलकर रखना है। चैनल देखते हुए जब भी ऐसा लगे कि यह एनबीए के दिशानिर्देशों या उसकी भावना के खिलाफ है, आप तत्काल एक शिकायत उस चैनल के शिकायत निपटारा अधिकारी को लिख भेजिए। एनबीए के दिशानिर्देशों के अनुसार हर समाचार चैनल ने अपने बेवसाइट पर शिकायत दर्ज कराने की प्रक्रिया और शिकायत अधिकारी का ब्यौरा दिया है। यही नहीं, अगर आप शिकायत अधिकारी के उत्तर से संतुष्ट नहीं हैं तो एनबीए में न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) जे एस वर्मा की अध्यक्षता वाले शिकायत निपटारा प्राधिकरण को शिकायत भेजकर चैनलों की खबर ले सकते हैं।
देर किस बात की है, उठाइए कलम और लिख भेजिए अपनी शिकायत। चैनलों को रास्ते पर ले आने का अब यही रास्ता बचा है।

मंगलवार, फ़रवरी 24, 2009

कारपोरेट पूंजीवाद की व्यवस्थागत बीमारी का नतीजा है सत्यम प्रकरण


आनंद प्रधान
सत्यम प्रकरण उजागर होने के पचास दिन पूरे होने वाले हैं। अभी तक इस मामले में होता तो बहुत कुछ दिख रहा है लेकिन अभी भी भ्रम बरकरार है। ऐसे हालात में एक बार फिर से आनंद प्रधान द्वारा इस मसले पर लिखा गया लेख प्रासंगिक हो गया है।



मंदी के दानव ने भारत में भी पहली बड़ी बलि ले ली है। देश की चैथे नम्बर की आईटी साॅफ्टवेयर कंपनी सत्यम कम्प्यूटर्स की तुलना भारत के एनराॅन के रूप में की जा रही है। एनराॅन के सीईओ केनेथ ले की तरह सत्यम के मालिक और चेयरमैन बी। रामलिंग राजू ने कंपनी के खातांे मंे लगभग 7 हजार करोड़ रूपये की हेराफेरी और धोखाधड़ी की बात स्वीकार कर ली है। जाहिर है कि भारत के अब तक के इस सबसे बड़े कारपोरेट घोटाले के भंडाफोड़ ने कारपोरेट जगत के साथ-साथ आर्थिक उदारीकरण के पैरोकारों को स्तब्ध कर दिया है।

यह ठीक है कि सत्यम कम्प्यूटर्स पिछले कुछ सप्ताहों से विवादों में था। कंपनी के निदेशक मंडल ने जिस तरह से रामलिंग राजू के बेटों की दो कंपनियों- मेटास इंफ्राॅस्ट्रक्चर और मेटास प्रोपर्टी को अधिग्रहित करने का फैसला किया, उसके बाद से ही कंपनी शेयरधारकों के गुस्से का निशाना बनी हुई थी। कंपनी के कारपोरेट गवर्नेंस को लेकर सवाल उठ रहे थे। लेकिन यह किसी को अंदाजा नहीं था कि आर्थिक उदारीकरण की सफलता के एक चमकते हुए प्रतीक सत्यम कम्प्यूटर्स की अंदरूनी स्थिति यह होगी कि अपनी आय को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए कंपनी अपने खातों मंे हजारों-करोड़ों रूपये की हेराफेरी कर रही थी।


एनराॅन ने भी एक जमाने में यही किया था। डूबने से पहले एनराॅन की ‘सृजनात्मक एकाउंटिंग’ और ‘वित्तीय इंजीनियरिंग’ के लिए खूब बलैयां ली जाती थी। लेकिन बाद में यह पता चला कि यह और कुछ नहीं, सिर्फ वित्तीय धोखाधड़ी और हेराफेरी थी। सत्यम कंप्यूटर्स में भी यह ‘वित्तीय इंजीनियरिंग’ और ‘सृजनात्मक एकाउंटिंग’ पिछले कई वर्षों से जारी थी। लेकिन जब शेयर बाजार आसमान छू रहा था और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ कारपोरेट क्षेत्र बूम के दौर से गुजर रहा था, किसी ने सत्यम कंप्यूटर्स के तौर-तरीकों को लेकर सवाल नहीं उठाया।


यहां तक कि उसके खाते की जांच-पड़ताल के लिए नियुक्त आॅडीटर और चार्टेड एकाउंटेंट भी आंखें मूंदे रहे। आश्चर्य की बात नहीं है कि सत्यम के मामले में भी आॅडीटर वही बहुराष्ट्रीय कंपनी- प्राइस वाटर हाउस है जिस पर इससे पहले भी ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के घोटाले से आंख मूंदने और उसके खातों को क्लीनचिट देने का आरोप है। एक बार फिर से आॅडीटर और चार्टेड एकाउंटेंट के साथ-साथ नियामक संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं।


लेकिन इसके साथ ही साथ डैमेज कंट्रोल भी शुरू हो गया है। कहा जा रहा है कि सत्यम कंप्यूटर्स का घोटाला एक अपवाद है। तर्क दिया जा रहा है कि यह घोटाला मालिकों और प्रबंधकों के अत्यधिक लालच के कारण हुआ है। इसके लिए आॅडिटरों और नियामक एजेंसियों की लापरवाही और मिली भगत को जिम्मेदार बताया जा रहा है। साथ ही, यह भी दुहाई दी जा रही है कि इससे भारतीय कारपोरेट जगत की विश्वसनीयता और साख पर धक्का जरूर लगा है लेकिन उससे अन्य कंपनियों पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा।


सवाल यह है कि क्या सचमुच सत्यम कंप्यूटर्स का प्रकरण सिर्फ एक कंपनी और उसके मालिकों और प्रबंधकों की लालच और उनके भाई-भतीजावादी पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपटलिज्म तक सीमित मामला है या यह उससे कहीं अधिक कारपोरेट जगत की व्यवस्थागत बीमारी की ओर संकेत करता है? निश्चय ही, सत्यम घोटाला सिर्फ एक कंपनी तक सीमित मामला नहीं है। यह न तो कारपोरेट धोखाधड़ी और हेराफेरी की यह पहली घटना है और न ही आखिरी घटना होने जा रही है।


असल में, सत्यम कंप्यूटर्स के मामले ने जिस तरह से कारपोरेट गवर्नेंस के तमाम दावों की कलई खोल दी है, उससे साफ है कि दावों और असलियत के बीच कितना बड़ा फासला अभी भी बना हुआ है। सत्यम के मामले में न सिर्फ आॅडीटर, चार्टेड अकाउंटंेट, नियामक एजेंसियां, कंपनी बोर्ड और निदेशक मंडल बेनकाब हुए हैं बल्कि इससे तमाम कंपनियों के कामकाज और उनके खातों को लेकर गहरे सवाल पैदा हो गए हैं। जो सत्यम के अंदर चल रहा था, वह अन्य कंपनियों में नहीं चल रहा होगा, इसकी क्या गारंटी है?


बहुत दूर क्यों जाएं, कुछ ही महीनों पहले अमेरिका में जब वाॅल स्ट्रीट का एक चमकता हुआ सितारा लीमन ब्रदर्स डूबा तो यह जताने की कोशिश की गई कि संकट गहरा नहीं है और यह सिर्फ लीमन ब्रदर्स तक सीमित मामला है। लेकिन कुछ ही सप्ताहों के अंदर यह साफ हो गया कि लीमन ब्रदर्स का डूबना सिर्फ एक कंपनी का डूबना नहीं था बल्कि यह पूंजीवाद के उस व्यवस्थागत संकट का सामने आना था जिस पर परदा डालने और ‘बेलआउट’ के जरिए संभालने की हर संभव कोशिश की गई।


इसलिए इस आशंका को झुठलाना बहुत मुश्किल है कि सत्यम शुरूआत भर है। आने वाले दिनों में अगर मंदी और गहराई और लंबी खिंची तो भारतीय कारपोरेट जगत की कई चमकती कंपनियों की चमक फीकी पड़ती दिख सकती है। सत्यम प्रकरण के बाद वे देशी-विदेशी निवेशक इन कंपनियों के कामकाज को बारीकी से देखने की कोशिश करेंगे। यही नहीं, ऐसी कई कंपनियां हैं जो सत्यम के रामालिंग राजू की तरह ‘‘यह जाने बिना शेर की सवारी कर रही हैं कि उसका शिकार बने बिना उससे उतरा कैसे जाए।’’


असल में, पिछले कुछ वर्षों में जब भारतीय अर्थव्यवस्था और खासकर शेयर बाजार सट्टेबाजी की कृपा से एक बूम के दौर से गुजर रहे थे, उस दौर में कई कंपनियों ने चादर से बाहर पैर फैलाकर विभिन्न प्रकार के संदिग्ध निवेश और खर्च किए हैं, उनके सीईओ-प्रबंधकों-मालिकों ने मनमाने तरीके से पैसे उड़ाए हैं और इसके लिए मनमानी शर्तों पर देश और विदेश से कर्ज उगाहा है। लेकिन अब जब अर्थव्यवस्था उतार पर है और सट्टेबाजी की कृपा से चढ़ा बाजार धूल-धूसरित हो चुका है, कंपनियों के लिए उसकी कीमत चुकाने का समय आ गया है।


यह सिर्फ संयोग है कि सत्यम ने सबसे पहले इसकी कीमत चुकाई है। देश को आनेवाले महीनों मंे और कई सत्यम और रामलिंग राजू देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन इस सब के लिए क्या केवल सत्यम के प्रबंधक और उसके मालिक ही जिम्मेदार हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर सत्यम घोटाला एक व्यवस्थागत बीमारी का सूचक है तो इस व्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं की जिम्मेदारी भी तय करने का समय आ गया है। आखिर सत्यम जैसी कंपनियां इस व्यवस्था की खामियों और इसके कर्ता-धर्ताओं के आशीर्वाद से ही फलती-फूलती हैं।


इसे हरगिज अनदेखा नहीं किया जा सकता है क्योंकि जल्दी ही रामलिंग राजू और उनके कुछ साथियों को कटघरे में खड़ा करके सत्यम के पच्चास हजार से अधिक कर्मचारियों और उसके लाखों निवेशकों के हितों की रक्षा के नाम पर सार्वजनिक धन से उसे बेल आउट करने की कोशिशें शुरू हो जाएंगी। इस तरह एक बार फिर असली अपराधी बच निकलेंगे। हर्षद मेहता से लेकर केतन पारिख तक यही कहानी रही है। क्या इस बार भी यह कहानी दोहराई जाएगी?

सोमवार, फ़रवरी 23, 2009

गंवाए हुए मौके का उदाहरण है अंतरिम बजट

आनंद प्रधान
मौके कैसे गंवाए जाते हैं, यह यूपीए सरकार को देखकर जाना जा सकता है। इस सरकार का अंतरिम बजट इसका एक और सबूत है। प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वित्त मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे प्रणब मुखर्जी ने एक ऐसा बजट पेश किया है जो बजट कम और यूपीए का चुनाव घोषणापत्र अधि लगता है। हालांकि खुद वित्तमंत्री ने बजट भाषण में यह स्वीकार किया है कि मौजूदा असामान्य आर्थिक परिस्थितियांे से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि बजट में कोई असामान्य उपाय तो दूर, यह बजट इस हद तक सामान्य है कि उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। यूपीए सरकार यह कह सकती है कि उसने संसदीय परम्पराओं का पालन करते हुए बजट में कोई बड़ी नीतिगत घोषणा नहीं की है या कोई लोक-लुभावन कदम नहीं उठाया है। लेकिन यह अधूरा सच है। वित्त मंत्री संसदीय परम्पराओं की आड़ में अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। असल में, वैश्विक वित्तीय संकट और उसके नतीजे में दुनियाभर को गिरफ्त में लेती आर्थिक मंदी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तरह से डगमगा रही है, उसे देखते हुए कोई भी सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है कि चुनावों के बाद नई सरकार मंदी से निपटने के उपाय करेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर यह सामान्य समय होता और अर्थव्यवस्था ठीक-ठाक चल रही होती तो यूपीए सरकार का एक सामान्य बजट पेश करने का फैसला बिल्कुल सही होता। लेकिन मौजूदा परिस्थिति में उससे यह अपेक्षा थी कि वह इस लीक को तोड़कर साहस के साथ आर्थिक और औद्योगिक मंदी से निपटने के उपाय करेगी। इसके लिए राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति भी थी। खुद पूर्व वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम ने हाल में ही अपने एक बयान में यह स्पष्ट किया था कि बजट में सरकार को बड़े फैसले करने से रोकने के लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। बजट भले अंतरिम हो लेकिन सरकार अंतरिम नहीं है। अगर उसमें इच्छाशक्ति होती तो वह एक साहसिक बजट पेश कर सकती थी। लेकिन यूपीए सरकार यह मौका चूक गई या कहिए कि उसने जानबूझकर यह मौका गंवा दिया।
इस बजट को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि यूपीए सरकार को मौजूदा आर्थिक परिस्थिति की गंभीरता का अंदाजा है। इसके उलट इस बजट से ऐसा संदेश जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ सब ठीक-ठाक चल रहा है। ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था को लेकर यूपीए सरकार एक खास तरह की खुशफहमी और निश्ंिचतता में जी रही है। इसका प्रमाण यह है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी उस वक्तव्य को अपने बजट भाषण में दोहरा दिया कि वैश्विक मंदी के इस दौर में चालू वित्तीय वर्ष (2008-09) में अर्थव्यवस्था की विकास दर में लगभग दो फीसदी की गिरावट के बावजूद 7.1 प्रतिशत की विकास दर के साथ भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में दूसरे नंबर पर है।
दरअसल, यह बजट यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों की सोच के बौनेपन और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के सीमित दायरे को तोड़ने की हिचक का नतीजा है। अन्यथा इस बजट से यह अपेक्षा थी कि वह लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए साहसिक पहल करेगा। यहां साहसिक पहल से आशय यह नहीं है कि वित्तमंत्री टैक्स दरों मंे कोई कटौती करते या नई छूटों/रियायतों का ऐलान करते। इसके बजाय प्रणब मुखर्जी से यह उम्मीद थी कि वे अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए वित्तीय घाटे की परवाह न करते हुए कृषि, सामाजिक क्षेत्र, संरचनागत ढांचे और उद्योग क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश की पेशकश करेंगे।
लेकिन भारी सार्वजनिक निवेश तो दूर वित्त मंत्री ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में योजना व्यय को चालू वित्तीय वर्ष के बराबर रखकर एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि यूपीए सरकार वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। इसका सबूत यह है कि अंतरिम बजट में वर्ष 2009-10 के लिए 2,85,149 करोड़ रूपये के योजना परिव्यय का प्रावधान किया गया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 2,43,386 करोड़ रूपये से मात्र 0.77 प्रतिशत अधिक है। इस कटौती का सीधा असर योजना व्यय के तहत पूंजी व्यय पर पड़ा है जिसमें सरकार ने लगभग 11 फीसदी की कटौती कर दी है।
हालांकि इस कटौती का असर चैतरफा है लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसकी मार से देश का सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान-एम्स भी नहीं बच पाया है। अभी कुछ दिन पहले ही खुद प्रधानमंत्री ने अपनी बाइपास सर्जरी के बाद एम्स की खासी प्रशंसा की थी। लेकिन उनकी प्रशंसा का नतीजा यह हुआ कि एम्स के बजट में लगभग 41 करोड़ रूपये की कटौती कर दी गयी है। एम्स को चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 573.42 करोड़ रूपये की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में सिर्फ 532.42 करोड़ रूपये देने का प्रावधान किया गया है।
लेकिन यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के बजट में भी मामूली वृद्धि की गई है। इसेे चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 17307 करोड़ रूपये की तुलना मंे अगले वित्तीय वर्ष में 173 करोड़ रूपये की बढ़ोत्तरी के साथ 17480 करोड़ रूपये देने का ऐलान किया गया है। ऐसे दर्जनों और उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे पता चलता है कि सामाजिक क्षेत्र की दुहाई देने के बावजूद यूपीए सरकार जब खर्च करने का मौका आता है तो पीछे हटती दिखाई पड़ती है।
असल में, यह प्राथमिकताओं का प्रश्न है। अंतरिम बजट में योजना व्यय मंे बढ़ोत्तरी करने से कन्नी काट गए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने रक्षा और गृह मंत्रालय के बजट में भारी बढ़ोत्तरी करने से परहेज नहीं किया है। उन्होंने रक्षा बजट को चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान 1,14,600 करोड़ रूपये से लगभग 24 फीसदी की वृद्धि के साथ अगले वित्तीय वर्ष में 1,41,703 करोड़ रूपये तक पहुंचा दिया है। इसी तरह केंद्रीय पुलिस के लिए अंतरिम बजट में 25,673 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान 20,711 करोड़ रूपये से लगभग 24 फीसदी अधिक है। जाहिर है कि रक्षा और पुलिस के बजट में इस भारी बढ़ोत्तरी के जरिए वित्त मंत्री ने चुनावों से पहले एनडीए खासकर भाजपा के हमलों की धार भोथरी करने की कोशिश की है।
लेकिन चुनावों के मद्देनजर भाजपा की काट खोजते हुए प्रणब मुखर्जी अगर अर्थव्यवस्था की दिन पर दिन बदतर होती स्थिति से निपटने के लिए एक ईमानदार और साहसिक पहल करते तो यह बजट सचमुच में ऐतिहासिक होता। लेकिन अब इस बजट को एक गंवाए हुए मौके के रूप में ही याद किया जाएगा। यह यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक रूप से बहुत भारी पड़ सकता है। लगता है कि 25 वर्षों बाद दुबारा बजट पेश कर रहे प्रणब मुखर्जी यह भूल गए कि पिछले दो दशकों में चार बार अंतरिम बजट पेश करने वाली सरकारों में से तीन को चुनावों में पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

शनिवार, फ़रवरी 21, 2009

गहराते आर्थिक संकट पर फील गुड का मरहम

आनंद प्रधान
यह तो सब को पता है कि जब विरोधी के खिलाफ क्रिकेट टीम संकट में हो तो सबकी उम्मीदें तेंडुलकर पर टिकी होती हैं। लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को भी अपने तेंडुलकर से बहुत उम्मीदें हैं खासकर ऐसे समय में जब वैश्विक और भारतीय अर्थव्यवस्था ढलान पर हंै और अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों से निराशाजनक खबरें आ रही हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए तेंडुलकर अच्छी खबर लेकर आए हैं। लेकिन यहां हम क्रिकेटर तेंडुलकर की नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) के अध्यक्ष और जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर सुरेश तेंडुलकर की बात कर रहे हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की है कि कि इस साल अक्तूबर से अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी और गति पकड़ने लगेगी।


यकीनन इस खबर से खुद बीमार और दिल के आपरेशन के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे प्रधानमंत्री को बहुत राहत मिली होगी। उनकी आर्थिक सलाहकार परिषद ने अपनी ताजा रिपोर्ट में चालू वित्तीय वर्ष 2008-09 में जीडीपी की वृद्धि दर के धीमे होकर 7।1 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त करते हुए उम्मीद जाहिर की है कि अगले वित्तीय वर्ष 2009-10 में जीडीपी की वृद्धि दर में सुधार होगा और वह 7 से 7.5 प्रतिशत या इससे भी अधिक तेज गति से बढ़ेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि इस रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का नजरिया काफी आशावान और उत्साह से भरा है।


इसकी खास वजह है। परिषद अपने सकारात्मक आकलन के जरिए अर्थव्यस्था को लेकर एक बार फिर फील गुड फैक्टर पैदा करना चाहती है। वह ऐसा एक खास समझदारी या रणनीति के तहत कर रही है। ईएसी के अध्यक्ष प्रोफेसर तेंडुलकर का मानना है कि मौजूदा वैश्विक संकट के बावजूद भारतीय अर्थव्यस्था के साथ कोई खास समस्या या गड़बड़ी नहीं है लेकिन मौजूदा माहौल के कारण एक तरह का विश्वास का संकट पैदा हो गया है। जाहिर है कि वे अपनी श्फील गुडश् रिपोर्ट के जरिए निवेशकों, कारोबारियोें और उपभोक्ताओं मेें अर्थव्यवस्था के प्रति भरोसा और उत्साह पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि इससे निवेश, मांग और उपभोग में तेजी आएगी और अर्थव्यवस्था फिर पहले की तरह दौड़ने लगेगी।


लेकिन इससे क्या सचमुच भारतीय अर्थव्यवस्था में श्फील गुडश् फैक्टर वापस लौट आएगा ? फिलहाल, इसके कोई संकेत नहीं हैं। अर्थव्यवस्था अनुमान से कहीं अधिक गहरे संकट में है। सारी आशावादिता के बावजूद अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति का अंदाजा खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की ताजी रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। परिषद ने अपनी पिछली रिपोर्ट मेें चालू वित्तीय वर्ष (08-09) में जीडीपी की वृद्धि दर 7।7 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन कुछ सप्ताहों के अंदर ही उसे अपने आकलन मेें बदलाव करते हुए ताजा रिपोर्ट में घटाकर 7।1 प्रतिशत करने के लिए मजबूत होना पड़ा है।


यही नहीं, परिषद अगले वित्तीय वर्ष (09-10) में अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन को लेकर भले ही आशान्वित हो लेकिन दुनिया भर की कई देशी/विदेशी और सरकारी/निजी संस्थाएं और वित्तीय संस्थानों मुताबिक अगला वित्तीय वर्ष और बदतर साबित होनेवाला है। विश्व बैंक और आईएमएफ के अलग-अलग आकलनों के अनुसार वर्ष 09-10 में जीडीपी की वृद्धिदर क्रमशः 5।8 प्रतिशत और 6.9 प्रतिशत रह सकती है। खबरों के मुताबिक आईएमएफ जल्दी ही अपना नया आकलन जारी करने की तैयारी कर रहा है जिसमें 6.9प्रतिशत जीडीपी वृध्दि दर के अनुमान को घटाकर 6 प्रतिशत या उससे नीचे करने के संकेत हैंै। दूसरी ओर, मार्गन स्टैनली, गोल्डमैन साक्स, सिटी बैंक और श्द इकाॅनोमिस्टश् के अलग-अलग आकलनों के मुताबिक अगले वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमशः 5.7,5.8,5.5 और 6.1 प्रतिशत के आसपास रहने के आसार हैं।


इन आकलनोें से साफ है कि चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति कहीं ज्यादा खराब और संकट के गहराने के संकेत हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मौजूदा वैश्विक मंदी के लंबा खिंचने की आशंकाएं जोर पकड़ रही हैं। अमेरिका और यूरोप सहित दुनिया के तमाम विकसित देशों और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं जो अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों के अनुमानों से कहीं बदतर हैं। ऐसी ताजा रिपोर्टो के मुताबिक ब्रिटिश अर्थव्यवस्था, अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तुलना में ज्यादा गहरे संकट में फंसती दिख रही है। कुछ ऐसी ही दशा जर्मनी से लेकर दक्षिण कोरिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाओं की भी दिख रही है। इस गहराते संकट का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि मौजूदा वैश्विक वित्तीय और आर्थिक संकट और मंदी की भविष्यवाणी करनेवाले अर्थशास्त्री और स्टर्न बिजनेेस स्कूल, न्यूयार्क में प्रोफेसर नोरिएल रूबिनी ने श्फोब्र्सश् पत्रिका में अपने स्तंभ में चेतावनी दी है कि अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति 2009 में और बदतर होगी और उसमें 2010-11 में बहुत कमजोर सुधार की उम्मीद की जा सकती है। रूबिनी के मुताबिक अर्थव्यवस्थाओं के लिए 2009 बहुत पीड़ादायक रहनेवाला है और अगर दुनिया के विकसित और विकासशील देशों ने समझदारी के साथ साझा पहल नहीं की तो अर्थव्यवस्थाओं के श्स्टैग -डीलेशनश् का शिकार होने की भी आशंका है। उस स्थिति में अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया श्यूश् आकार के बजाय श्एलश् आकार में होगी जिसका अर्थ होगा- सुधार की धीमी, लंबी और पीड़ादायक प्रक्रिया।


संदेश बिल्कुल साफ है। बदतर होती वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहेगी। इसलिए जुबानी जमाखर्च के फीलगुड से बात नहीं बननेवाली है। प्रधानमंत्री के तेंडुलकर से यह भी अपेक्षा है कि वे हवा में बैट भांजने के बजाय सतर्कता और साहस से अर्थव्यवस्था की बदतर होती स्थिति को संभालने और उसे संकट से बाहर निकालने का रास्ता सुझाएं। इसके लिए जरूरी है कि जबानी जमाखर्च के बजाय ठोस उपाय किए जाएं लेकिन अफसोस की बात यह है कि ईएसी को अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति से अधिक चिंता बढ़ते वित्तीय घाटे की है। यह सचमुच हैरान करनेवाली बात है कि एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया और खासकर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के मक्का-अमेरिका में वित्तीय घाटे की नव उदारवादी चिंता को छोड़कर कींसवादी पम्प प्राइमिंग यानी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में जबरदस्त बढ़ोत्तरी करके मंदी से निपटने पर जोर दिया जा रहा है, भारत में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद अभी भी बंदरिया की तरह मरे हुए विचार को छाती से चिपकाए हुए है। इसी सोच का नतीजा है कि यूपीए सरकार ने पिछले दो महीनों में काफी हिचक और संकोच के साथ आधे-अधूरे वित्तीय उत्प्रेरक पैकेजों की घोषणा की है। ये पैकेज ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं। इनसे अर्थव्यवस्था को कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है।


यूपीए सरकार और ईएसी के रवैये से ऐसा लगता है कि वे अर्थव्यवस्था को लेकर किसी चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैंै। वे यह मानकर चल रह हैं कि मौजूदा संकट एक बिजनेस और आर्थिक चक्र (साइकिल) का नतीजा है और चक्र के पूरा होते ही अर्थव्यवस्था खुद-ब-खुद पटरी पर लौट आएगी। इसलिए अलग से बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं है। लेकिन दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह आश्वस्ति और चमत्कार की अपेक्षा अर्थव्यवस्था के लिए बहुत भारी साबित हो रही है।

शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

औसत दर्जे का अंतरिम बजट

आनंद प्रधान
अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराने के लिए संविधान और परम्पराओं की आड़ लेने का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिले। कामचलाऊ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में यह स्वीकार करते हुए भी कि मौजूदा असामान्य आर्थिक परिस्थितियों से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत है, एक निहायत ही सामान्य और औसत दर्जे का अंतरिम बजट पेश करके साबित कर दिया है कि यूपीए सरकार न तो मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को समझ रही है और न ही उसके पास इस संकट से निपटने के लिए कोई स्पष्ट, साहसिक और लीक से अलग रणनीति है। हालांकि यूपीए सरकार से यह अपेक्षा थी कि वह मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को देखते हुए उससे निपटने की अपनी जिम्मेदारी को समझेगी और परम्परा को तोड़कर एक साहसिक बजट पेश करेगी। लेकिन इसके उलट यह बजट इस बात का एक और सबूत है कि यूपीए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट की चुनौती से निपटने की जिम्मेदारी से कन्नी काट रही है।
इसके लिए वह तरह-तरह के बहाने बना रही है। सबसे अधिक वह संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता की दुहाई दे रही है। उसका तर्क है कि मौजूदा सरकार के पास न सिर्फ एक पूर्ण बजट पेश करने का कोई संवैधानिक और राजनीतिक जनादेश नहीं है बल्कि ऐसी कोई परम्परा भी नहीं रही है। यह तर्क बिल्कुल सही है लेकिन यूपीए सरकार इसे न सिर्फ एक बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है बल्कि उसके मुंह से इसे सुनना हास्यास्पद भी लगता है। यूपीए सरकार संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता को लेकर इतनी चिंतित और दुबली कब से होने लगी? क्या यह सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज करने के लिए निकलने का मामला नहीं लगता है? सवाल यह है कि अगर यूपीए सरकार को संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता की इतनी ही परवाह है तो रेल मंत्री लालू प्रसाद ने एक लोकलुभावन चुनावी रेल बजट कैसे और क्यों पेश किया?
साफ है कि संवैधानिक परम्पराओं और मर्यादा की दुहाई सिर्फ और सिर्फ मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने की जिम्मेदारी से बचने और इस संकट से मुकाबले के लिए मुकम्मल रणनीति न बना पाने की कमजोरी को छुपाने के लिए दी जा रही है। यूपीए सरकार इसे स्वीकार करे या न करे लेकिन उसके अंतरिम बजट से संदेश यही गया है। इसमें कोई राय नहीं है कि अगर यह समय सामान्य होता और मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंसती हुई नहीं दिखाई देती तो प्रणब मुखर्जी से एक सामान्य और अंतरिम बजट की ही अपेक्षा रहती। उस स्थिति में उनका संवैधानिक परम्पराओं का पालन करना हर तरह से उपयुक्त और जरूरी होता।
लेकिन मौजूदा आर्थिक संकट के कारण परिस्थितियां बिल्कुल सामान्य नहीं हैं। अर्थव्यवस्था की हालत दिन पर दिन बदतर होती जा रही है। यूपीए सरकार चाहे तो इस खुशफहमी में जी सकती है कि चालू वित्तीय वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर में लगभग दो फीसदी की गिरावट के बावजूद 7.1 प्रतिशत की विकास दर के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे तेज से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में इसे दोहरा कर जता दिया है कि यूपीए सरकार न सिर्फ सच्चाइ्र्र से आंख चुराने की कोशिश कर रही है बल्कि एक ऐसी हास्यास्पद खुशफहमी में जी रही है जिसकी अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
तथ्य यह है कि यूपीए सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी मूलाधारों (फंडामेंटल्स) के मजबूत होने और मौजूदा आर्थिक संकट के लिए बाहरी कारणों को जिम्मेदार ठहराकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। इस लड़खड़ाहट के लिए बाहरी कारणों के साथ-साथ यूपीए सरकार की नव उदारवादी अर्थनीतियां भी जिम्मेदार हैं जिनके कारण अर्थव्यवस्था में ऐसी कई बुनियादी विसंगतियां पैदा हो गयी हैं जिनकी वजह से देर-सबेर अर्थव्यवस्था का पटरी से उतरना तय था। यह सिर्फ एक संयोग है कि अमेरिका से उठी वित्तीय संकट की सुनामी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ ज्यादा ही तेज झटका दे दिया।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि यूपीए सरकार अब भी भारतीय अर्थव्यवस्था के मूलाधारों के मजबूत होने और इस साल सितम्बर के बाद से अर्थव्यवस्था में सुधार और उसके फिर से गति पकड़ने की खुशफहमी में जी रही है। हकीकत यह है कि सरकारी अर्थशास्त्रियों और विशेशज्ञों को छोड़कर अधिकांश अर्थशास्त्री और देशी-विदेशी संस्थाएं यह चेतावनी दे रहे हैं कि अगले वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की विकास दर में न सिर्फ और गिरावट दर्ज की जाएगी बल्कि चैतरफा आर्थिक संकट और गहरा और आर्थिक स्थिति और बदतर हो सकती है। इसके पर्याप्त संकेत और सबूत सबके सामने हैं। अक्तूबर से दिसम्बरश् 08 के बीच औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर दो बार नकारात्मक हो चुकी है। निर्यात में लगातार तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। कृषि की विकास दर भी पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में लगभग आधी रह गयी है। शेयर बाजार बिल्कुल पस्त पड़ा है।
शास्त्रीय और पारिभाषिक तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओ की तरह मंदी की चपेट में भले न आई हो लेकिन हालात बिल्कुल मंदी की तरह ही हैं। निवेश और प्रोजेक्ट्स के क्रियान्वयन पर निगाह रखनेवाली संस्थाश् प्रोजेक्ट्स टुडेश् की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2008 में दो लाख नौ हजार करोड़ रूपए से ज्यादा के निवेश ठंडे बस्ते में चले गए हैं जिसमें लगभग 75 प्रतिशत प्रोजेक्ट्स सिर्फ आखिर तीन महीनों में बंद हुए हैं। इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है। रोजगार के अवसर किस तेजी से सूख रहे हैं, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के जाने-माने प्रबंधन, तकनीकी और अन्य प्रोफेशनल संस्थानों के उन छात्रों को भी इस बार नौकरी के लिए जूझना पड़ रहा है जिनके पास पिछले साल तक चार-चार, पांच -पांच नौकरियां रहती थीं।
लेकिन रोजगार के नए अवसरों की तो बात दूर है, मैन्यूफैक्चरिंग से रीयल इस्टेट तक कई क्षेत्रों में लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। खुद श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल अक्टूबर से लेकर दिसम्बर के बीच तीन महीनों में 5 लाख से अधिक श्रमिकों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। वाणिज्य मंत्रालय के सचिव जी के पिल्लई के मुताबिक मौजूदा स्थिति जारी रही तो मार्च तक 15 लाख से अधिक श्रमिकों का रोजगार छिनने की आशंका है। ध्यान रहे कि ये आंकडे़ संगठित क्षेत्र की कंपनियों/संस्थानों के हैं जबकि 92 फीसदी श्रमशक्ति असंगठित क्षेत्र में काम करती है। वहां मंदी के कहर का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लाखों लोगों की रोजी-रोटी भी संकट में है। ऐसे में, कोई भी संवैधानिक परम्परा किसी भी सरकार को ऐसी आपात स्थिति से निपटने से रोकती नहीं है। इसके उलट यह वक्त इस परम्परा को तोड़ने और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आम आदमी को तुरंत राहत पहुंचाने के उपाय करने का था। अंतरिम बजट इस जिम्मेदारी को पूरा करने का सबसे बड़ा और उचित मौका था। यूपीए सरकार अगर अपवादस्वरूप इस संवैधानिक परम्परा को तोड़कर एक साहसिक और मौजूदा चुनौती से निपटने- वाला बजट पेश करती तो शायद ही कोई उंगली उठाता। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यूपीए सरकार ने न सिर्फ यह मौका गंवा दिया बल्कि वह मौजूदा आर्थिक संकट और उससे पैदा हुई चुनौती का मुकाबला करने के बजाय मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई है।
इस लिहाज से देखा जाए तो अंतरिम बजट सोच और दृष्टि के स्तर पर न सिर्फ उसी बौनेपन, पिटी-पिटाई लीक पर चलनेवाला और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी का शिकार है जिसने वैश्विक के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी इस दशा में पहुंचा दिया है। इस सोच का ही नतीजा है कि इस बजट में भी वित्त मंत्री का ज्यादा ध्यान वित्तीय घाटे को काबू में करने पर रहा। यह और बात है कि चुनावी वर्ष होने की मजबूरी और ताकतवर उद्योग समूहों की लाॅबीइंग के कारण न चाहते हुए भी चालू वित्तीय वर्श (08-09) में वित्तीय और राजस्व घाटे का रिकार्ड टूट गया है। इसके बावजूद प्रणब मुखर्जी ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट प्रावधानों में कतरब्यौंत करके घाटे को कम करने की हरसंभव कोशिश की है।
लेकिन यूपीए सरकार का यह रवैया न सिर्फ हैरान करनेवाला बल्कि चिंतित करनेवाला भी है। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में मंदी से निपटने के लिए राज्य अर्थव्यवस्था में सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में उतर रहा है, मनमोहन सिंह सरकार वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। इस समय पूरी दुनिया में अर्थशास्त्रियों और विशेशज्ञों के एक बड़े हिस्से के बीच यह आम राय बन रही है कि मंदी को महामंदी में बदलने से रोकने के लिए राज्य को अर्थव्यवस्था में भारी सार्वजनिक निवेश करना चाहिए। लेकिन लगता है कि यूपीए सरकार नव उदावादी अर्थनीति के प्रति उसके सिद्धांतकारों से भी ज्यादा समर्पित और स्वामीभक्त है।
यही कारण है कि मनमोहन सिंह सरकार पिछले पांच वर्षों में अपनी जिन कामयाबियों के लिए सबसे ज्यादा ढिंढ़ोरा पीटती रही है, उन योजनाओं के बजट प्रावधानों में सबसे ज्यादा कटौती कर दी गयी है। उदाहरण के लिए रोजगार योजनाओं के मद में चालू वित्तीय वर्ष (08-09) में 36750 करोड़ रूपए खर्च किए गए लेकिन अगले वित्तीय वर्ष के लिए उसमें 6650 करोड़ रूपए की कटौती करके सिर्फ 30100 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। यह कटौती इसलिए भी समझ से बाहर है कि सरकार ने अभी इसे पिछले वर्ष से ही देश के सभी जिलों में लागू किया है और मंदी से प्रभावित वर्ष में रोजगार की मांग में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी ही होगी।
इसी तरह अंतरिम बजट में ग्रामीण विकास के बजट में भी भारी कटौती की गयी है। चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान में ग्रामीण विकास के लिए 64854 करोड़ खर्च होने का अनुमान है लेकिन अगले वर्ष के बजट में इस मद में 9684 करोड़ रूपए की कटौती के साथ 55170 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। टेक्सटाइल क्षेत्र पर मंदी की कितनी गहरी मार पड़ी है, यह किसी से छुपी नहीं है। लेकिन राहत देने की बात तो दूर टेक्सटाइल्स मंत्रालय के बजट में चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 1750 करोड़ रूपए की कटौती करते हुए 3389 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। बजट में किसानों को राहत देने की बहुत दुहाइ्र्र दी गयी है लेकिन फसल बीमा योजना के लिए दिए जानेवाले प्रीमीयम के बजट में चालू वित्तीय वर्ष के 794 करोड़ रूपए के बजाय अगले साल के लिए 100 करोड़ रूपए कम यानी 694 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
कुछ यही हाल उन चुनिंदा योजनाओं का भी है जिनका गुणगान आजकल रोज टीवी पर प्रचार विज्ञापनों में सुनाई देता है। सर्व शिक्षा अभियान पर चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान में 4659.67 करोड़ रूपए खर्च होने की उम्मीद है लेकिन अंतरिम बजट में इसमें लगभग 420 करोड़ रूपए की कटौती करके 4239.25 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। यही नहीं, पिछले साल प्रधानमंत्री ने खुद बड़े जोरशोर से घोषणा की थी कि सरकार 6000 से अधिक माध्यमिक स्तर के माॅडल स्कूल खोलेगी। इसके लिए बजट में 582.80 करोड़ की व्यवस्था भी की गयी थी लेकिन संशोधित अनुमान के मुताबिक इस मद में सिर्फ 130 करोड़ रूपए खर्च हुए। अंतरिम बजट में इसके लिए सिर्फ 310 करोड़ का प्रावधान किया गया है।
इस कटौती की मार से योजना व्यय भी अछूता नहीं रहा। कहां यूपीए सरकार से सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी की उम्मीद थी, उल्टे कामचलाऊ वित्त मंत्री ने योजना व्यय में इतनी मामूली वृद्धि की है कि अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि कम और कटौती ज्यादा मालूम पड़ती है। चालू वित्तीय वर्ष में योजना व्यय के संशोधित बजट अनुमान 2,82,957 करोड़ रूपए की तुलना में अंतरिम बजट में 0.77 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 2,85,149 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। हालांकि खुद प्रणव मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि योजना व्यय में जीडीपी के आधे से लेकर एक फीसदी यानी लगभग 50 हजार करोड़ रूपए की बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है। लेकिन उन्होंने यह जिम्मेदारी अगली सरकार के मत्थे छोड़ दी है। इस बीच, अर्थव्यवस्था बैठ जाए तो अगली सरकार की बला से। इससे यूपीए सरकार की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?