आखिर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी पर इतना शोर क्यों मचाया जाता है जबकि टैक्स दरों में कटौती और छूट भी एक तरह की सब्सिडी है.
लेकिन सच्चाई यह है कि उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में केंद्रीय बजट का महत्व उसी तरह घटता गया है जैसे अर्थव्यवस्था में भारतीय राज्य की भूमिका सिकुड़ती गई है.
अब बजट सरकारी आय-व्यय के हिसाब और सार्वजनिक क्षेत्र की योजनाओं की फंडिंग तक सीमित हो गया है. वह नियोजन आधारित अर्थव्यवस्था के नेतृत्वकारी बजट से सिमटकर नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का पिछलग्गू बजट बन गया है.
वह भारतीय अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने के बजाय निजी क्षेत्र के एक मददगार के बतौर खड़ा हो गया है.
इसके बावजूद बजट को लेकर मीडिया, उद्योग और वाणिज्य जगत में इतनी हचचल और चर्चाओं की वजह यह है कि बजट से जैसे-जैसे उसका वास्तविक सत्व कम होता चला गया है, वैसे-वैसे उसके साथ ड्रामा और धूम-धड़ाके का जोर बढ़ता चला गया है.
दरअसल, बजट सिर्फ आय-व्यय का ब्यौरा नहीं बल्कि वह सरकार की अर्थनीति की दिशा और उसकी राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धताओं का ऐलान है.
उसकी भूमिका पूरी अर्थव्यवस्था को दिशा देने की है लेकिन सच यह है कि बजट न सिर्फ अपनी यह भूमिका खो चुका है बल्कि पूरी तरह से प्रभावशाली औद्योगिक, वाणिज्यिक लॉबी, संगठनों और विश्व बैंक-मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कब्जे में चला गया है.
बजट का राजनीतिक और आर्थिक महत्व घटने की सबसे बड़ी वजह यह है कि उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में अर्थनीति लगभग पूरी तरह से राजनीति से अलग और स्वतंत्र हो चुकी है.
जाहिर है यह अपने आप नहीं हुआ है. वह उदारवाद का आर्थिक दर्शन इसी विचार पर टिका हुआ है कि अर्थनीति को राजनीति से अलग कर देना चाहिए.
सतही तौर पर विचार बहुत लुभावना लगता है लेकिन अर्थनीति यानी बजट को राजनीति से अलग या स्वतंत्र करने की मांग वास्तव में अर्थनीति को आम लोगों खासकर कमजोर वर्गों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को स्वतंत्र करने की मांग है.
आखिर राजनीति क्या है ? राजनीति वास्तव में जनसमुदाय के विभिन्न वर्गों की अपनी मांगों, आकांक्षाओं और उम्मीदों को अभिवयक्त करने और उसे आगे बढ़ाने की कला है.
सवाल यह है कि अर्थनीति राजनीति से स्वतंत्र क्यों होनी चाहिए. कारण बिल्कुल साफ है. अर्थनीति आम लोगों खासकर गरीबों और कमजोर वर्ग की इच्छाओं और आकांक्षाओं का बोझ उठाने को तैयार नहीं है.
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थनीति का राजनीति से कोई संबंध नहीं रह गया है. राजनीति अब भी है लेकिन वह अमीर और प्रभावशाली वर्गों की राजनीति है जिसने अर्थनीति और बजट को अपने कब्जे में ले लिया है.
अगर ऐसा नहीं है तो हर बजट से पहले वित्तमंत्री पर टैक्स में कटौती का दबाव क्यों बढ़ जाता है ? क्यों पी चिदंबरम के उसी बजट को ड्रीम बजट माना जाता है जिसमें उन्होंने अमीरों और मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए भारी कटौती की थी.
आखिर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी पर इतना शोर क्यों मचाया जाता है जबकि टैक्स दरों में कटौती और छूट भी एक तरह की सब्सिडी है.
दरअसल, अर्थनीति और बजट को राजनीति से अलग करने के नाम पर उसे देश के बहुसंख्यक समुदाय की जरूरतों और इच्छाओं से अलग कर दिया गया है.
इसका एक और प्रमाण है एनडीए सरकार द्वारा पारित वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन कानून (एफआरबीएम) जिसे यूपीए सरकार ने अपने पहले बजट से ठीक एक सप्ताह पहले लागू कर दिया था.
यह कानून वित्तमंत्री के साथ-साथ पूरी संसद का हाथ बांध देता है कि वह जीडीपी की एक पूर्व निर्धारित सीमा से अधिक वित्तीय और राजस्व घाटा बजट में नहीं आने दे सकते हैं.
यह कानून इसलिए पारित किया गया था कि वित्तमंत्री इसकी दुहाई देकर बजट में जनकल्याण के कार्यक्रमों पर खर्च करने की मांग से बच सकेंगे.
आश्चर्य नहीं है कि चिदंबरम अपने हर बजट में इस कानून का हवाला जरूर देते हैं और वित्तीय घाटा कम करने के लिए अपनी पीठ ठोंकते हैं.
लेकिन इस कारण बजट न सिर्फ अपना महत्व खोता जा रहा है बल्कि वह आम लोगों के जीवन और उनके सुख-दुख से भी दूर होता जा रहा है.
आज निजीकरण और अर्थव्यवस्था से भारतीय राज्यों के पीछे हटने के कारण अर्थनीति की दिशा बड़ी देशी-विदेशी पूंजी तय कर रही है.
जाहिर है कि इस पूंजी की जान शेयर बाजार में बसती है. आश्चर्य नहीं है कि हर वित्तमंत्री बजट पेश करते हुए शेयर बाजार के सूचकांक पर निगाह लगाए रहता है.
लेकिन बजट जब शेयर बाजार को खुश करने के लिए बनने लगे तो उस बजट की राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है.