मंगलवार, फ़रवरी 26, 2008

बजट बे-धड़क…

आखिर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी पर इतना शोर क्यों मचाया जाता है जबकि टैक्स दरों में कटौती और छूट भी एक तरह की सब्सिडी है.

 

एक बार फिर हर ओर बजट को लेकर चर्चाओं, अनुमानों, आकलनों और उत्सुकताओं का बाजार गर्म है. इससे बजट की महिमा का अंदाजा लगाया जा सकता है.

 

लेकिन सच्चाई यह है कि उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में केंद्रीय बजट का महत्व उसी तरह घटता गया है जैसे अर्थव्यवस्था में भारतीय राज्य की भूमिका सिकुड़ती गई है.

 

अब बजट सरकारी आय-व्यय के हिसाब और सार्वजनिक क्षेत्र की योजनाओं की फंडिंग तक सीमित हो गया है. वह नियोजन आधारित अर्थव्यवस्था के नेतृत्वकारी बजट से सिमटकर नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का पिछलग्गू बजट बन गया है.

 

वह भारतीय अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने के बजाय निजी क्षेत्र के एक मददगार के बतौर खड़ा हो गया है.

 

इसके बावजूद बजट को लेकर मीडिया, उद्योग और वाणिज्य जगत में इतनी हचचल और चर्चाओं की वजह यह है कि बजट से जैसे-जैसे उसका वास्तविक सत्व कम होता चला गया है, वैसे-वैसे उसके साथ ड्रामा और धूम-धड़ाके का जोर बढ़ता चला गया है.

 

दरअसल, बजट सिर्फ आय-व्यय का ब्यौरा नहीं बल्कि वह सरकार की अर्थनीति की दिशा और उसकी राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धताओं का ऐलान है.

 

उसकी भूमिका पूरी अर्थव्यवस्था को दिशा देने की है लेकिन सच यह है कि बजट न सिर्फ अपनी यह भूमिका खो चुका है बल्कि पूरी तरह से प्रभावशाली औद्योगिक, वाणिज्यिक लॉबी, संगठनों और विश्व बैंक-मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कब्जे में चला गया है.

 

बजट का राजनीतिक और आर्थिक महत्व घटने की सबसे बड़ी वजह यह है कि उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशकों में अर्थनीति लगभग पूरी तरह से राजनीति से अलग और स्वतंत्र हो चुकी है.

 

जाहिर है यह अपने आप नहीं हुआ है. वह उदारवाद का आर्थिक दर्शन इसी विचार पर टिका हुआ है कि अर्थनीति को राजनीति से अलग कर देना चाहिए.

 

सतही तौर पर विचार बहुत लुभावना लगता है लेकिन अर्थनीति यानी बजट को राजनीति से अलग या स्वतंत्र करने की मांग वास्तव में अर्थनीति को आम लोगों खासकर कमजोर वर्गों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को स्वतंत्र करने की मांग है.

 

आखिर राजनीति क्या है ?  राजनीति वास्तव में जनसमुदाय के विभिन्न वर्गों की अपनी मांगों, आकांक्षाओं और उम्मीदों को अभिवयक्त करने और उसे आगे बढ़ाने की कला है.

 

सवाल यह है कि अर्थनीति राजनीति से स्वतंत्र क्यों होनी चाहिए. कारण बिल्कुल साफ है. अर्थनीति आम लोगों खासकर गरीबों और कमजोर वर्ग की इच्छाओं और आकांक्षाओं का बोझ उठाने को तैयार नहीं है.

 

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थनीति का राजनीति से कोई संबंध नहीं रह गया है. राजनीति अब भी है लेकिन वह अमीर और प्रभावशाली वर्गों की राजनीति है जिसने अर्थनीति और बजट को अपने कब्जे में ले लिया है.

 

अगर ऐसा नहीं है तो हर बजट से पहले वित्तमंत्री पर टैक्स में कटौती का दबाव क्यों बढ़ जाता है ? क्यों पी चिदंबरम के उसी बजट को ड्रीम बजट माना जाता है जिसमें उन्होंने अमीरों और मध्यम वर्ग को खुश करने के लिए भारी कटौती की थी.

 

आखिर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी पर इतना शोर क्यों मचाया जाता है जबकि टैक्स दरों में कटौती और छूट भी एक तरह की सब्सिडी है.

 

दरअसल, अर्थनीति और बजट को राजनीति से अलग करने के नाम पर उसे देश के बहुसंख्यक समुदाय की जरूरतों और इच्छाओं से अलग कर दिया गया है.

 

इसका एक और प्रमाण है एनडीए सरकार द्वारा पारित वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन कानून (एफआरबीएम) जिसे यूपीए सरकार ने अपने पहले बजट से ठीक एक सप्ताह पहले लागू कर दिया था.

 

यह कानून वित्तमंत्री के साथ-साथ पूरी संसद का हाथ बांध देता है कि वह जीडीपी की एक पूर्व निर्धारित सीमा से अधिक वित्तीय और राजस्व घाटा बजट में नहीं आने दे सकते हैं.

 

यह कानून इसलिए पारित किया गया था कि वित्तमंत्री इसकी दुहाई देकर बजट में जनकल्याण के कार्यक्रमों पर खर्च करने की मांग से बच सकेंगे.

 

आश्चर्य नहीं है कि चिदंबरम अपने हर बजट में इस कानून का हवाला जरूर देते हैं और वित्तीय घाटा कम करने के लिए अपनी पीठ ठोंकते हैं.

 

लेकिन इस कारण बजट न सिर्फ अपना महत्व खोता जा रहा है बल्कि वह आम लोगों के जीवन और उनके सुख-दुख से भी दूर होता जा रहा है.

 

आज निजीकरण और अर्थव्यवस्था से भारतीय राज्यों के पीछे हटने के कारण अर्थनीति की दिशा बड़ी देशी-विदेशी पूंजी तय कर रही है.

 

जाहिर है कि इस पूंजी की जान शेयर बाजार में बसती है. आश्चर्य नहीं है कि हर वित्तमंत्री बजट पेश करते हुए शेयर बाजार के सूचकांक पर निगाह लगाए रहता है.

 

लेकिन बजट जब शेयर बाजार को खुश करने के लिए बनने लगे तो उस बजट की राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है.

रविवार, फ़रवरी 03, 2008

उदारीकरण के डेढ़ दशक...

इस आर्थिक समुद्र मंथन का अमृत अमीरों और विष गरीबों के हिस्से

भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को शुरू हुए डेढ़ दशक से अधिक हो गए. इन पंद्रह वर्षों में, गंगा से गोदावरी तक बहुत पानी बह गया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन डेढ़ दशकों में "इंडिया" की सूरत बहुत बदल गई है. इस समय दुनिया भर में "इंडिया" अपने अरबपतियों की लगातार बढ़ती संख्या के लिए सुर्खियों में है.
 
अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है. हिंदू विकास दर अतीत की बात हो चुकी है. "इंडिया" चमक रहा है और माना जा रहा है कि देश अगले दशक के मध्य तक विकसित देशों की कतार में पहुंच जाएगा.
 
लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि देश में अरबपतियों और खरबपतियों की तेजी से बढ़ती संख्या के साथ गरीबों की तादाद में उस तेजी से कमी नहीं आ रही है जिसकी आर्थिक उदारीकरण से अपेक्षा की गई थी. इस मायने में यह एक उदास करनेवाली परिघटना है.
 
यह एक कड़वी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समुद्र मंथन से पिछले 15 सालों में निकले तीव्र आर्थिक विकास का अमृत अमीर पी रहे हैं जबकि गरीबों के हिस्से में एक बार फिर विष आया है.
 
विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रतिदिन एक डॉलर से कम की आय में गुजर-बसर करनेवाले लोगों की तादाद 1994 में कुल आबादी की 45 फीसदी थी जो पिछले दस सालों में घटने के बावजूद अब भी 34.3 फीसदी पर बनी हुई है.
 
स्वयं योजना आयोग ने स्वीकार किया है कि 1993 से 2004 के बीच गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले भारतीयों की तादाद में प्रति वर्ष सिर्फ 0.74 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि इससे पहले 1983 से 1993-94 के बीच गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लागों की तादाद में प्रति वर्ष 0.85 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी.
 
स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले 15 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि के बावजूद उसका फायदा गरीबों को नहीं मिला है. हालांकि आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समर्थकों का यह दावा रहा है कि तीव्र आर्थिक विकास दर के साथ आने वाली समृद्धि की बाढ़ में गरीबों की नौकाएं भी उपर आ जाती हैं.
 
लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है. सच यह है कि जिस तेजी से कॉरपोरेट क्षेत्र के मुनाफे में वृद्धि हो रही है, उसकी तुलना में लोगों के वेतन में वृद्धि  नहीं हो रही है बल्कि उसमें गिरावट दर्ज की जा रही है.
 
पिछले पांच वर्षों में जीडीपी के अनुपात में कॉरपोरेट क्षेत्र का मुनाफा वर्ष 2002 के 3.7 प्रतिशत से उछल कर 2007 में 9.1 प्रतिशत तक पहुंच गया है जबकि वेतन जीडीपी की तुलना में 2002 के 31 फीसदी से घटकर 28.7 फीसदी रह गया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि तीव्र आर्थिक विकास दर से देश में गरीबी घटने की बजाए आर्थिक विषमता और गैर-बराबरी बहुत तेजी से बढ़ी है. अमीर और गरीब, अर्धशहरी और ग्रामीण तथा समृद्ध और पिछड़े राज्यों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है.
 
विश्व बैंक ने भी स्वीकार किया है कि भारत में आय/ उपभोग पर आधारित असमानता तेजी से बढ़ रही है. इसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में आई समृद्धि मुख्यत: तीन क्षेत्रों- शेयर बाजार, रियल इस्टेट और प्रॉपर्टी तथा सोने तक सीमित रही है.

दुनिया की जानी-मानी कंसल्टेंसी कंपनी मार्गन स्टेनली के भारतीय कार्यकारी निदेशक चेतन आहया के मुताबिक पिछले चार वर्षों में भारत की संपदा में लगभग एक खरब डॉलर से अधिक की वृद्धि हुई है. लेकिन इस संपदा वृद्धि का लाभ बहुत सीमित तबके को मिला है.
 
आहया के अनुसार भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण मार्च 2003 के 120 अरब डॉलर से बढ़कर मई 2007 में एक खरब डॉलर तक पहुंच गया है. अगर इसमें विदेशी और सरकारी कंपनियों के स्वामित्व वाले हिस्से को निकाल दिया जाए तो घरेलू शेयरधारकों की परिसंपत्तियों में लगभग 570 अरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गई है.
 
लेकिन इसका लाभ कितने लोगों को मिला है?
 
सेबी के अनुसार देश में कुल आबादी के सिर्फ 4 से 7 फीसदी लोगों के पास शेयर हैं. इसमें भी कंपनियों के मालिकों का हिस्सा बहुत बड़ा है. आहया के मुताबिक 570 अरब डॉलर में 350 अरब डॉलर कंपनियों के मालिकों के हिस्से में गया है.
 
दरअसल, अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने का राज भी इसी में छिपा हुआ है. दोनों के खरबपति होने की वजह यह है कि उनकी कंपनियों के शेयरों की कीमतों में हाल के महीनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है. इस कारण उनका बाजर पूंजीकरण खरबों में पहुंच गया है और उन कंपनियों में उनका हिस्सा 55 फीसदी से अधिक होने के कारण ही वे भी खरबपति हो गए हैं.
 
लेकिन अनिल और मुकेश अंबानी के खरबपति होने से जुड़ी एक विडंबना यह भी है कि एक आम भारतीय और इन खरबपति भाईयों के बीच आय का अनुपात जो कुछ वर्षों पहले तक 1,90,000 का था, वह बढ़कर 11,00,000 से ऊपर पहुंच गया है.
 
यानि सुपर अमीरों और आम आदमी के बीच की खाई और गहरी और चौड़ी होती जा रही है. साफ है कि उदारीकरण की लक्ष्मी गरीबों और आम आदमियों के घर का रुख करने की बजाय आबादी के एक छोटे हिस्से सुपर अमीरों के घर में कैद होकर रह गई है.
 
जाहिर है कि यह खुश होने का नहीं बल्कि उदास होने का वक्त है.
 
इसे देखकर ऐसा लगता है कि लक्ष्मी अमीरों के घर कैद हो गई है. इस लक्ष्मी का रंग काला है.
 
तथ्य यह है कि देश में काले धन में लगातार वृद्धि हो रही है. हालांकि आर्थिक उदारीकरण और कर सुधारों के समर्थकों का दावा था कि जैसे-जैसे आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, देश में काला धन कम होता जाएगा. लेकिन सच यह है कि 1983 में देश में कुल काले धन का अनुमान लगभग 36,786 करोड़ रुपए का था जो आज बढ़कर लगभग नौ लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है.
 
एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में हर साल जीडीपी के 40 फीसदी के आसपास काला धन पैदा होता है. यही वह काला धन है जो शॉपिंग मॉल्स में चमकता और बिखरता हुआ दिखाई पड़ता हैं.
 
यह यूंही नहीं है कि देश में अचानक दुनिया भर के सभी लग्जरी ब्रांडों के निर्माता भागे चले आ रहे हैं. लुई विंता से लेकर पोर्शे कार तक दुनिया का कोई भी ऐसा लग्जरी ब्रांड नहीं है जो आज भारत में उपलब्ध नहीं है.
 
करोड़ों रुपए की लग्जरी फ्लैट से लेकर कारों तक के खरीददारों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. एक अनुमान के अनुसार पिछले साल अमीर भारतीयों ने लगभग पचास हजार करोड़ का सोना और छह हजार करोड़ रुपए के हीरे खरीदे.
 
कहने की जरूरत नहीं है कि सोना, हीरा और दूसरे सभी लग्जरी ब्रांड्स काले धन को छुपाने और खर्चने के सबसे आसान रास्ते हैं.
 
सच पूछिए तो लक्ष्मी की वास्तविक कृपा इस देश के अरबपतियों और करोड़पतियों पर हुई है. गुलाबी अखबारों में आए दिन भारत के अरबपतियों और करोड़पतियों की बढ़ती तादाद पर खबरें छपती रहती हैं. अरबपतियों और करोड़पतियों की बढ़ती संख्या और उनकी वृद्धि दर के मामले में भारत एशिया के तमाम देशों को पीछे छोड़ चुका है. उनकी संख्या हर साल अर्थव्यवस्था की विकास दर से भी दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है.
 
लेकिन यूएनडीपी का कहना है कि अरबपतियों और करोड़पतियों के साथ देश में गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है. देश की लगभग 80 फीसदी आबादी आज भी प्रतिदिन 2 डॉलर से कम की आय पर अपना जीवन निर्वाह कर रही है.
 
असल में, अरबपतियों और करोड़पतियों के घरों में लक्ष्मी बरस रही है. यह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण संभव हुआ है.
 
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1987-88 से 1999-2000 के बीच देश के सबसे अमीर 0.1 फीसदी हिस्से की आय में 285 फीसदी की वृद्धि हुई है और वह सालाना लगभग 1,60,000 डॉलर प्रतिव्यक्ति तक पहुंच गई है.
 
पिछले पांच वर्षों में यह प्रक्रिया और सघन हुई है. शेयर बाजार से लेकर कमोडिटी बाजार तक जो बूम दिखाई पड़ रहा है, उसका लाभ कुल आबादी के मुश्किल से चार से पांच फीसदी लोगों को मिला है. उनके लिए यह उदारीकरण दिवाली है लेकिन बाकी लोगों के लिए यह दिवाला है.