अलविदा मित्र!
आर अनुराधा चलीं गईं. कैंसर से १७ साल लड़ीं और लड़ते-लड़ते ही गईं. उनसे एक मई को मिलकर आया था. बीमारी की उस हालत में भी जब शायद उनसे बहुत बैठा नहीं जा रहा था,वे अपने कमरे से चलकर आईं, थोड़ी देर कुर्सी पर बैठीं और हालचाल पूछा. चेहरे पर वही हल्की, स्मित और अनुराधा मुस्कान थी.
मैं उन्हें उसी मुस्कुराहट से जानता था. कोई २० साल पहले जब उनसे पहली बार मिला था और अब इस आख़िरी मुलाक़ात तक उनकी उस मुस्कान में कोई अंतर नहीं आया था.
हाँ, इस बार चेहरे पर दर्द की लकीरें ज़रूर थीं. लेकिन उनपर डर या हताशा के चिन्ह नहीं थे. कैंसर के आख़िरी स्टेज में होते हुए भी उनके चेहरे पर अपनी कविताओं की नई किताब को लेकर संतोष का एक भाव था.
हाँ, इस बार चेहरे पर दर्द की लकीरें ज़रूर थीं. लेकिन उनपर डर या हताशा के चिन्ह नहीं थे. कैंसर के आख़िरी स्टेज में होते हुए भी उनके चेहरे पर अपनी कविताओं की नई किताब को लेकर संतोष का एक भाव था.
असहायता को बोध छाता जा रहा था.
लेकिन अनुराधा जी की जीजिविषा में कोई कमी नहीं थी. ऐसा लग रहा था कि हम नहीं, वे हमें ढाँढस बँधा रही हैं. उनकी कविताओं की तारीफ़ की जिसपर उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट दौड़ गई. मेरा जैसे दिल डूबा जा रहा था.
जानता हूँ कि खुद गहरी पीड़ा में होने के बावजूद उन्होंने दिलीप जी को कहकर मुझे घर पर क्यों बुलाया था. मैं खुद उस दिन हाल की घटनाओं के कारण बहुत परेशान और तनाव में था. अकेला महसूस कर रहा था. अनुराधा स्वस्थ होतीं तो शायद खुद घर आतीं लेकिन अपनी बीमारी के उस हाल में भी दिलीप जी मैसेज करवा के मुझे बुलाया। कहा कुछ नहीं लेकिन मैं उनके व्यवहार में वह ढाँढस महसूस कर सकता था.
हालाँकि उनसे मेरी कोई गहरी दोस्ती नहीं थी. अलबत्ता कैंसर से उनकी अनथक लड़ाई, उनके उन अनुभवों की किताब, उनके लेखन-संपादन और सक्रियताओं के कारण अनेकों लोगों की तरह मैं भी उनका चुप्पा फ़ैन बन चुका था. हालाँकि उनसे मुलाक़ात या बातचीत बहुत कम ही हो पाती थी. लेकिन मन ही मन उनके हौसले और सक्रियता और दिलीप जी के धैर्य, दृढ़ता, निष्ठा और समर्पण का कायल था.
महीनों में कभी कहीं किसी सभा-सेमिनार या कार्यक्रम में मुलाक़ात हो जाती थी. इन बीस सालों में मैं तीन-चार बार उनके घर
गया और एक बार वे दिलीप जी के साथ मेरे यहाँ खाने पर आईं. उस दिन वे एक पेंटिंग भी दे गईं जो मेरे कमरे में हमेशा उनकी याद दिलाती है. कभी-कभार फ़ोन पर भी बात हो जाती थी.
गया और एक बार वे दिलीप जी के साथ मेरे यहाँ खाने पर आईं. उस दिन वे एक पेंटिंग भी दे गईं जो मेरे कमरे में हमेशा उनकी याद दिलाती है. कभी-कभार फ़ोन पर भी बात हो जाती थी.
इसके बावजूद वे जब भी मिलीं, उसी अनुराधा मुस्कान के साथ मिलीं. वे एक मिसाल हैं जिनसे जीवन जीने का सलीक़ा सीखा जा सकता है.
वे अपने जीवन के हर मिनट की क़ीमत जानती थीं और उसे भरपूर जी कर गईं. वे पी.एचडी करना चाहती थीं, लेकिन कैंसर ने उन्हें वह मौक़ा नहीं दिया. उसे उन्हें यह मौक़ा देना चाहिए था.
वे अपने जीवन के हर मिनट की क़ीमत जानती थीं और उसे भरपूर जी कर गईं. वे पी.एचडी करना चाहती थीं, लेकिन कैंसर ने उन्हें वह मौक़ा नहीं दिया. उसे उन्हें यह मौक़ा देना चाहिए था.
वे चली गईं लेकिन अपने लेखन, कामों, इरादों और जिजीविषा के साथ वे हमारे साथ हैं. वे हम में से हर उस औरत या मर्द में जीवित रहेंगीं जो जीवन को अपनी शर्तों पर और मुस्कुराहट के साथ जीता है और जो कैंसर के पार भी इंद्रधनुष देखता है.
अलविदा मित्र आर अनुराधा!