आनंद प्रधान
ऐसा लगता है कि भारतीय टेलीविजन में स्वस्थ्य कल्पना और सृजनात्मकता का बिल्कुल अंत हो गया है। मनोरंजन टेलीविजन पिटे-पिटाए धारावाहिकों और कल्पनाहीन रीयलिटी टीवी के फार्मूलों के बीच फंस सा गया है। यही नही, अधिक से अधिक दर्शक खींचने के लिए रीयलिटी टीवी सभी हदें तोड़ता जा रहा है। ‘स्टार प्लस‘ का ‘सच का सामना‘ कार्यक्रम इस बात का एक और उदाहरण है कि रीयलिटी टीवी गिरने के मामले में कहां तक पहुंच सकता है। हाल ही में शुरू हुआ यह कार्यक्रम अमेरिकी टेलीविजन चैनलों के एक कार्यक्रम की नकल है। इस कार्यक्रम के शुरूआती ऐपीसोड से साफ है कि इसका मकसद आम से लेकर खास लोगों के जीवन के अंदर खासकर उन गोपनीय रहस्यों में ताकझांक करना है जो आमतौर पर सबसे छिपे रहते हैं। इसमें ज्यादा जोर व्यक्ति के निजी पारिवारिक जीवन, महिला-पुरूष संबंधों, उसके यौन संबंधों और नाते-रिश्तों से जुड़े पहलुओं को उजागर करने पर होता है।
जाहिर है कि यह कार्यक्रम दर्शकों को एक खास तरह का परपीड़क और रतिसुख (वॉयरिज्म) आनंद लेने के लिए उकसाता है। यह काफी हद तक उसी प्रवृत्ति का विस्तार है जिसमें लोग अपने पड़ोसी या सहकर्मी के निजी जीवन में ताक-झांक करने की कोशिश करते हैंै। यह कार्यक्रम इस अनुचित प्रवृत्ति को न सिर्फ प्रोत्साहित करता है बल्कि उसे एक खास तरह की वैधता भी देता है। इसमें दर्शक उस कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे व्यक्ति और उसके परिवार के अन्दरूनी जीवन में न सिर्फ ताक-झांक करता है बल्कि उस व्यक्ति की पीड़ा, शर्म, बेचैनी और घबराहट को देख-सुनकर आनंदित होता है।
साफ तौर पर यह दर्शकों की आदिम भावनाओं को भुनाने की कोशिश है। इस प्रक्रिया में दर्शकों को परपीड़क रतिसुख का अभ्यस्त बनाया जा रहा है। इसके निहितार्थ बहुत गहरे हैं। पहली बात तो यह है कि यह कार्यक्रम किसी व्यक्ति की व्यक्तिवादिता को खत्म कर देता है। किसी व्यक्ति की व्यक्तिवादिता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने निजी व्यक्तिगत जीवन को किस हद तक नियंत्रित करता है या उसका अपने जीवन पर किस हद तक अधिकार है। इसी आधार पर निजता के अधिकार का सिद्धांत खड़ा है। यह सिद्धांत इस बात को कानूनी मान्यता देता है कि किसी के निजी और व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप का अधिकार किसी दूसरे व्यक्ति को नही है।
निजता का यह अधिकार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की गारंटी करता है। लेकिन ‘सच का सामना‘ कार्यक्रम परोक्ष रूप से व्यक्ति के निजता के अधिकार का न सिर्फ उल्लंघन करता है बल्कि सीधे-सीधे उसकी व्यक्तिवादिता को चुनौती देता है। यह ठीक है कि इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले आम और खास व्यक्ति खुद अपनी इच्छा से शामिल होते हैं। लेकिन यह गांधी जी के सच के साथ प्रयोग जैसी निजी ईमानदारी का नतीजा नही होता है। न ही इसका मकसद गांधी जी की तरह अपनी गलतियों से सीखना होता है। इसके उलट पूरा सच यह है कि उन्हें अपनी जिंदगी के सच्चे-झूठे रहस्यांे को सार्वजनिक करने के बदले ईनाम में अच्छी-खासी रकम का लोभ दिया जाता है।
साफ है कि यह कार्यक्रम किसी भी तरह से ‘सच का सामना‘ करना नही है। क्या किसी व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा सच उसके यौन संबंधों या टुच्चे निजी स्वार्थो तक सीमित होता है? जाहिर है कि नहीं। किसी के निजी जीवन के बड़े सच सार्वजनिक जीवन से न जुड़े हों तो वे हमारे आपके लिए क्यों महत्वपूर्ण होने चाहिए? यही कारण है कि वास्तव में, यह सच से भागने या उससे मुंह चुराने का कार्यक्रम है। इसमें सच सामने नही आ रहा है। इसमें सच को गढ़ा जा रहा है। यहां एक बनाया हुआ सच है जिसे पूरे नाटकीय मेलोड्रामा के साथ पेश किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में दर्शकों को परपीड़क रतिसुख का आदती बनाया जा रहा है। यह एक गहरी चिंता की बात है।
शुक्रवार, जुलाई 31, 2009
रविवार, जुलाई 26, 2009
चैनलों की तर्क शक्ति पर सूर्य ग्रहण
आनंद प्रधान
समाचार मीडिया खासकर हिन्दी समाचार चैनलों का पहले भी तर्क और विज्ञान से कोई खास लगाव नहीं था लेकिन अब ऐसा लगता है कि उनसे इसकी अपेक्षा करना भी बेकार है। सूर्यग्रहण जैसी नितांत प्राकृतिक और खगोलीय परिघटना को जिस तरह से कुछ प्रमुख हिन्दी समाचार चैनलों और अखबारों ने अंधविश्वास फैलाने और उसे मज़बूत बनाने का मौका बना दिया, उससे एक बार फिर इस बात की पुष्टि हो गई कि उनके शब्दकोष से विज्ञान और तर्क जैसे शब्द बेदखल हो गए हैं। ऐसा लगा कि जैसे चैनलों की तर्कशक्ति और विवेक पर सूर्यग्रहण लग गया हो। सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे बताए जाने वाले कुछ समाचार चैनलों ने सूर्यग्रहण जैसी निश्चित खगोलीय परिघटना को रहस्यमय घटना बना दिया। उन्होंने सूर्यग्रहण के बहाने तमाम तरह के अनिष्टों का भय दिखाते हुए दर्शकों को डराना शुरू कर दिया। सूर्यग्रहण जैसी खगोलीय परिघटना की व्याख्या के लिए वैज्ञानिकों और खगोलविदों से चर्चा करने के बजाय चैनलों और अखबारों ने ज्योतिषियों को कमान थमाकर जिस तरह से दर्शकों का भयादोहन किया, वह हैरान करनेवाला था।
सूर्यग्रहण के कुछ दिनों पहले से ही कुछ समाचार चैनलों और अखबारों ने इसके काल्पनिक कुप्रभावों को लेकर जिस तरह से उन्मादपूर्ण माहौल बनाने की कोशिश की, वह ना सिर्फ देश में वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नुकसान पहुंचानेवाला था बल्कि वह टेलीविजन चैनलों की कार्यक्रम आचारसंहिता का भी उल्लंघन था। हैरत की बात यह है कि हमारे जनसंचार माध्यम यह सब उस समय कर रहे हैं जब भारत दुनिया में अपने वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संसाधनों के कारण विशेष पहचान बना रहा है और दूसरी ओर, देश वैज्ञानिक प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए विशेष अभियान चला रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि विज्ञान का विकास किसी शून्य में नहीं होता। विज्ञान के विकास के लिए समाज में व्यापक वैज्ञानिक मानसिकता का प्रसार होना ज़रूरी है।
ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जनसंचार माध्यमों खासकर समाचार मीडिया की है। उसमें भी भाषाई मीडिया की ज़िम्मेदारी सबसे अधिक है क्योंकि आमलोगों से सबसे अधिक जुड़ाव उनका ही है। ऐसा नहीं है कि समाचार मीडिया ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में कोई भूमिका नहीं निभायी है या उसकी दिलचस्पी सिर्फ अंधविश्वास फैलाने में रही है। सच तो यह है कि सूर्यग्रहण के मौके पर अंधविश्वास फैलानेवाले देश के सबसे तेज़ चैनल ने कोई एक दशक पहले गणेश को दूध पिलानेवाली घटना का जिस तरह पर्दाफाश किया था, वह इस बात का शानदार उदाहरण था कि ऐसे मौकों पर समाचार मीडिया क्या कुछ कर सकता है। यह सचमुच बहुत अफसोस की बात है कि वही चैनल आज अंधविश्वास फैलाने में सबसे आगे दिखाई पड़ रहा है। सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि चैनलों ने अपनी अतीत की ग़लतियों से कोई सबक न लेने की कसम सी खा ली है। वे हर बार उन्ही ग़लतियों को दोहराते दिखाते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे वे इसे ग़लती मानते ही नही हैं बल्कि उन्हे लगता है कि वे बिल्कुल सही कर रहे हैं।
निश्चय ही, यह केबल नेटवर्क रेग्यूलेशन कानून के तहत कार्यक्रम आचार संहिता का भी उल्लंघन है जिसमें साफतौर पर अंधविश्वास फैलाने पर रोक का प्रावधान है। लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों को इसकी कोई परवाह नहीं रह गई है। यही नहीं, सूर्यग्रहण को लेकर कुछ हिन्दी समाचार चैनलों ने जिस तरह से अंधविश्वास फैलाने और लोगों में डर पैदा करने का काम किया, वह समाचार चैनलों के आत्मनियमन के दावे की भी पोल खोलने के लिए काफी था। इस प्रकरण से एक बार फिर यह बात साफ हो गई कि टीआरपी की अंधी होड़ में समाचार चैनलों के लिए आत्मनियमन सबसे पहला शिकार होता है।
यही नहीं, सूर्यग्रहण प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि समाचार चैनल टीआरपी की जिस भेड़चाल में फंस गए हैं, वह एक ऐसी अंधी सुरंग है जिससे बाहर निकलने का रास्ता दिखाने में आत्मनियमन की व्यवस्था बार बार विफल साबित हो रही है। लेकिन चैनलों का यही रवैया बना रहा तो वो दिन दूर नही जब उनके सार्वजनिक रेग्युलेशन की माँग ना सिर्फ़ और ज़ोर पकड़ने लगेगी बल्कि उसे एक तरह की सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति भी मिल जाएगी। जाहिर है इसके लिए सबसे अधिक समाचार चैनल ही ज़िम्मेदार होंगे. हालाँकि ये अभिव्यक्ति की आज़ादी के व्यापक अधिकार के लिए एक बड़ी ट्रजेडी साबित हो सकती है लेकिन इसे चैनल ही आमंत्रित कर रहे हैं।
इस बार एक अच्छी बात यह हुई कि कुछ गिने-चुने समाचार चैनलों और अखबारों ने इस भेड़चाल में शामिल होने के बजाय सूर्यग्रहण को एक खगोलीय परिघटना के रूप में ही दिखाया और खुद को अंधविश्वासों से दूर रखा। निश्चय ही, ऐसे चैनलों और अखबारों की तारीफ की जानी चाहिए जो भेड़चाल में शामिल होने इनकार कर रहे हैं। इससे यह संभावना बनती है कि अंधविश्वास फैलाने और दर्शकों का भयादोहन के ज़रिए टीआरपी बटोरने के शार्टकट से अलग रास्ता भी है। लेकिन इन चैनलों से ये भी अपेक्षा है कि वे अपने संगठन न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोयियेशन के मंच पर उन चैनलों के खिलाफ आवाज़ ज़रूर उठाएं जिन्होने आत्मनियमन की धज्जियाँ उड़ा दी।
इससे इतर, यह उन वैज्ञानिक एजेंसियों की विफलता का भी प्रमाण है जिनपर वैज्ञानिक मानसिकता के विकास का जिम्मा है और जो हर साल करोड़ों रुपया विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्च करती हैं। सूर्य ग्रहण के मौके पर वे भी गायब दिखीं जबकि ये एक शानदार अवसर था जब वे लोगों में वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचार-प्रसार के लिए इस मौके का इस्तेमाल कर सकती थी। उन्हें भी अपनी रणनीति पर ज़रूर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में उनकी भी बड़ी भूमिका है। लेकिन हर ऐसे मौके पर वे मौका चूकने के लिए अभिशप्त सी हो गई हैं।
समाचार मीडिया खासकर हिन्दी समाचार चैनलों का पहले भी तर्क और विज्ञान से कोई खास लगाव नहीं था लेकिन अब ऐसा लगता है कि उनसे इसकी अपेक्षा करना भी बेकार है। सूर्यग्रहण जैसी नितांत प्राकृतिक और खगोलीय परिघटना को जिस तरह से कुछ प्रमुख हिन्दी समाचार चैनलों और अखबारों ने अंधविश्वास फैलाने और उसे मज़बूत बनाने का मौका बना दिया, उससे एक बार फिर इस बात की पुष्टि हो गई कि उनके शब्दकोष से विज्ञान और तर्क जैसे शब्द बेदखल हो गए हैं। ऐसा लगा कि जैसे चैनलों की तर्कशक्ति और विवेक पर सूर्यग्रहण लग गया हो। सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे बताए जाने वाले कुछ समाचार चैनलों ने सूर्यग्रहण जैसी निश्चित खगोलीय परिघटना को रहस्यमय घटना बना दिया। उन्होंने सूर्यग्रहण के बहाने तमाम तरह के अनिष्टों का भय दिखाते हुए दर्शकों को डराना शुरू कर दिया। सूर्यग्रहण जैसी खगोलीय परिघटना की व्याख्या के लिए वैज्ञानिकों और खगोलविदों से चर्चा करने के बजाय चैनलों और अखबारों ने ज्योतिषियों को कमान थमाकर जिस तरह से दर्शकों का भयादोहन किया, वह हैरान करनेवाला था।
सूर्यग्रहण के कुछ दिनों पहले से ही कुछ समाचार चैनलों और अखबारों ने इसके काल्पनिक कुप्रभावों को लेकर जिस तरह से उन्मादपूर्ण माहौल बनाने की कोशिश की, वह ना सिर्फ देश में वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नुकसान पहुंचानेवाला था बल्कि वह टेलीविजन चैनलों की कार्यक्रम आचारसंहिता का भी उल्लंघन था। हैरत की बात यह है कि हमारे जनसंचार माध्यम यह सब उस समय कर रहे हैं जब भारत दुनिया में अपने वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संसाधनों के कारण विशेष पहचान बना रहा है और दूसरी ओर, देश वैज्ञानिक प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए विशेष अभियान चला रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि विज्ञान का विकास किसी शून्य में नहीं होता। विज्ञान के विकास के लिए समाज में व्यापक वैज्ञानिक मानसिकता का प्रसार होना ज़रूरी है।
ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक मानसिकता के प्रसार में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जनसंचार माध्यमों खासकर समाचार मीडिया की है। उसमें भी भाषाई मीडिया की ज़िम्मेदारी सबसे अधिक है क्योंकि आमलोगों से सबसे अधिक जुड़ाव उनका ही है। ऐसा नहीं है कि समाचार मीडिया ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में कोई भूमिका नहीं निभायी है या उसकी दिलचस्पी सिर्फ अंधविश्वास फैलाने में रही है। सच तो यह है कि सूर्यग्रहण के मौके पर अंधविश्वास फैलानेवाले देश के सबसे तेज़ चैनल ने कोई एक दशक पहले गणेश को दूध पिलानेवाली घटना का जिस तरह पर्दाफाश किया था, वह इस बात का शानदार उदाहरण था कि ऐसे मौकों पर समाचार मीडिया क्या कुछ कर सकता है। यह सचमुच बहुत अफसोस की बात है कि वही चैनल आज अंधविश्वास फैलाने में सबसे आगे दिखाई पड़ रहा है। सबसे अधिक अफ़सोस की बात यह है कि चैनलों ने अपनी अतीत की ग़लतियों से कोई सबक न लेने की कसम सी खा ली है। वे हर बार उन्ही ग़लतियों को दोहराते दिखाते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे वे इसे ग़लती मानते ही नही हैं बल्कि उन्हे लगता है कि वे बिल्कुल सही कर रहे हैं।
निश्चय ही, यह केबल नेटवर्क रेग्यूलेशन कानून के तहत कार्यक्रम आचार संहिता का भी उल्लंघन है जिसमें साफतौर पर अंधविश्वास फैलाने पर रोक का प्रावधान है। लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों को इसकी कोई परवाह नहीं रह गई है। यही नहीं, सूर्यग्रहण को लेकर कुछ हिन्दी समाचार चैनलों ने जिस तरह से अंधविश्वास फैलाने और लोगों में डर पैदा करने का काम किया, वह समाचार चैनलों के आत्मनियमन के दावे की भी पोल खोलने के लिए काफी था। इस प्रकरण से एक बार फिर यह बात साफ हो गई कि टीआरपी की अंधी होड़ में समाचार चैनलों के लिए आत्मनियमन सबसे पहला शिकार होता है।
यही नहीं, सूर्यग्रहण प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि समाचार चैनल टीआरपी की जिस भेड़चाल में फंस गए हैं, वह एक ऐसी अंधी सुरंग है जिससे बाहर निकलने का रास्ता दिखाने में आत्मनियमन की व्यवस्था बार बार विफल साबित हो रही है। लेकिन चैनलों का यही रवैया बना रहा तो वो दिन दूर नही जब उनके सार्वजनिक रेग्युलेशन की माँग ना सिर्फ़ और ज़ोर पकड़ने लगेगी बल्कि उसे एक तरह की सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति भी मिल जाएगी। जाहिर है इसके लिए सबसे अधिक समाचार चैनल ही ज़िम्मेदार होंगे. हालाँकि ये अभिव्यक्ति की आज़ादी के व्यापक अधिकार के लिए एक बड़ी ट्रजेडी साबित हो सकती है लेकिन इसे चैनल ही आमंत्रित कर रहे हैं।
इस बार एक अच्छी बात यह हुई कि कुछ गिने-चुने समाचार चैनलों और अखबारों ने इस भेड़चाल में शामिल होने के बजाय सूर्यग्रहण को एक खगोलीय परिघटना के रूप में ही दिखाया और खुद को अंधविश्वासों से दूर रखा। निश्चय ही, ऐसे चैनलों और अखबारों की तारीफ की जानी चाहिए जो भेड़चाल में शामिल होने इनकार कर रहे हैं। इससे यह संभावना बनती है कि अंधविश्वास फैलाने और दर्शकों का भयादोहन के ज़रिए टीआरपी बटोरने के शार्टकट से अलग रास्ता भी है। लेकिन इन चैनलों से ये भी अपेक्षा है कि वे अपने संगठन न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोयियेशन के मंच पर उन चैनलों के खिलाफ आवाज़ ज़रूर उठाएं जिन्होने आत्मनियमन की धज्जियाँ उड़ा दी।
इससे इतर, यह उन वैज्ञानिक एजेंसियों की विफलता का भी प्रमाण है जिनपर वैज्ञानिक मानसिकता के विकास का जिम्मा है और जो हर साल करोड़ों रुपया विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्च करती हैं। सूर्य ग्रहण के मौके पर वे भी गायब दिखीं जबकि ये एक शानदार अवसर था जब वे लोगों में वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचार-प्रसार के लिए इस मौके का इस्तेमाल कर सकती थी। उन्हें भी अपनी रणनीति पर ज़रूर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में उनकी भी बड़ी भूमिका है। लेकिन हर ऐसे मौके पर वे मौका चूकने के लिए अभिशप्त सी हो गई हैं।
मंगलवार, जुलाई 07, 2009
यह बजट किस आम आदमी का है?
आनंद प्रधान
फरवरी में अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि मौजूदा असामान्य आर्थिक और वित्तीय परिस्थितियों से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत हैं। लेकिन उस समय वित्त मंत्री ने संवैधानिक परम्पराओं और बाध्यताओं का उल्लेख करते हुए यह जिम्मेदारी अगली सरकार पर डाल दी थी। यूपीए सरकार की दूसरी पारी की शुरूआत कर रहे वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से यह अपेक्षा थी कि वे मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को महसूस करते हुए उससे निपटने के लिए अपने कहे मुताबिक एक साहसिक बजट पेश करेंगे। उनसे यह भी अपेक्षा थी कि यूपीए खासकर कांग्रेस उस आम आदमी को जिसके कारण उसकी चुनावी जीत संभव हो पायी, उसे महंगाई, बेरोजगारी से मुक्त कराने और उसकी दूसरी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए बजट में ठोस उपाय करेगी।
लेकिन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी से कन्नी काट गए। नतीजा सबके सामने है। यूपीए सरकार की दूसरी पारी के पहले बजट में कोई बड़ी सोच नहीं दिखाई पड़ती है। इसमें निरंतरता अधिक है और परिवर्तन न के बराबर। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बारे में यह कहा जा सके कि उसमें मौजूदा आर्थिक और वित्तीय संकट से निपटने के लिए कोई बड़ी पहल की गई है। अलबत्ता वित्त मंत्री ने कोई बड़ी और साहसिक पहल की कमी को आंकड़ों की उलट फेर के जरिए भरने की कोशिश की है। उन्होंने इसके लिए एक बहुत आसान रास्ता यह चुना है कि चालू वित्तीय वर्ष के बजट में सारे प्रावधान पिछले वित्तीय वर्ष के बजट अनुमानों से तुलना करते हुए पेश किए हैं। इससे एकबारगी ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री ने पूरी उदारता के साथ विभिन्न मदों और क्षेत्रों के लिए प्रावधान किया है।
लेकिन, यह सच नहीं है। उदाहरण के लिए खुद प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए कहा था कि मौजूदा आर्थिक मंदी से निपटने के लिए जरूरी है कि सरकार योजना व्यय में जीडीपी की कम से कम आधे से लेकर एक फीसदी रकम और खर्च करे। अपना नया बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने दावा किया है कि चालू वित्तीय वर्ष के बजट में उन्होंने योजना व्यय में 34 फीसदी की वृद्धि की है। लेकिन यह अधूरा सच है। यह ठीक है कि पिछले वित्तीय वर्ष (2008-09) के बजट अनुमान की तुलना में चालू वित्तीय वर्ष (2009-10) योजना व्यय में 34 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन पूरा सच यह है कि योजना व्यय में पिछले वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 282957 करोड़ रूपये की तुलना में सिर्फ पन्द्रह फीसदी की बढ़ोत्तरी के साथ 325149 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है।
दरअसल, वित्त मंत्री ने इस मामले में चतुराई दिखाते हुए पूरे बजट भाषण में आंकड़ों की बाजीगरी की है। उन्होंने चालू वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान पेश करते हुए पिछले वर्ष के बजट अनुमान को आधार बनाया है। इस कारण विभिन्न मदों और क्षेत्रों में किए गए बजटीय प्रावधान काफी भारी-भरकम दिखाई पड़ते हैं। लेकिन उनके नए बजट में किए गए प्रावधानों को पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमानों के आधार पर तौला जाए तो साफ है कि अधिकांश मदों में बहुत कम या न के बराबर वृद्धि हुई है।
उदाहरण के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के बजट को लीजिए। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में दावा किया है कि ग्रामीण रोजगार योजना के लिए पिछले वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान की तुलना में 144 फीसदी वृद्धि करते हुए 39100 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। लेकिन सच यह है कि पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान के मुताबिक राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना पर 30 हजार करोड़ रूपये और संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना पर 6750 करोड़ रूपये यानि कुल 36750 करोड़ रूपये खर्च किए गए। चालू वित्तीय वर्ष के बजट अनुमानों में संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना को समाप्त करके राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में समाहित कर दिया गया है। इस तरह चालू वित्तीय वर्ष में ग्रामीण रोजगार योजना पर पिछले वर्ष के संशोधित बजट अनुमानों की तुलना में सिर्फ 2350 करोड़ रूपये यानि 6.39 प्रतिशत की मामूली वृद्धि की गई है।
हैरत की बात है कि वित्त मंत्री ने उस योजना के लिए ऐसी कंजूसी दिखाई है जिसे यूपीए खासकर कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जा रहा है। इससे सरकार की प्राथमिकताओं का भी पता चलता है। कहां तो यह अपेक्षा थी कि यूपीए सरकार ग्रामीण गरीबों और बेरोजगारों के राजनीतिक समर्थन के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करने और उन्हें सचमुच राहत पहुंचाने के लिए इस कानून के तहत 100 दिन के बजाय कम से कम 150 से 200 दिनों के रोजगार और न्यूनतम 150 रूपये प्रति दिन मजदूरी की व्यवस्था करेगी, वहां चालू वित्तीय वर्ष के बजट प्रावधान से ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के प्रति ईमानदार नहीं है।
कहने की जरूरत नहीं है कि अगर वह रोजगार गारंटी को लागू करने और ग्रामीण गरीबों को न्यूनतम 100 दिनों का रोजगार उपलब्ध कराने के प्रति सचमुच ईमानदार है तो उसे बजट में कम से कम 50 हजार करोड़ रूपये का प्रावधान करना चाहिए था। यह इसलिए भी जरूरी था कि इस साल मानसून मंे विलम्ब और बारिश कम होने की आशंकाओं के बीच कृषि क्षेत्र के प्रभावित होने के कारण ग्रामीण मजदूरों को काम कम मिलने की उम्मीद है। ऐसे ग्रामीण मजदूरों के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ही उम्मीद की आखिरी किरण हैं। तीसरे, मानसून में गड़बड़ी और कृषि क्षेत्र की विकास दर में गिरावट के मद्देनजर भी यह जरूरी था कि ग्रामीण रोजगार योजना को और प्रभावी बनाने के लिए बजट में पर्याप्त प्रावधान किया जाए।
बजट में यूपीए सरकार की ऐसी ही वायदा खिलाफी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून और शिक्षा के अधिकार कानून के प्रति भी दिखायी पड़ती है। सरकार ने 100 दिन के एजेंडे में यह वायदा किया है कि रोजगार गारंटी कानून की तर्ज पर लोगों के भोजन के अधिकार यानि खाद्य सुरक्षा और बहुत लम्बे अरसे से लटके शिक्षा के अधिकार के कानून को अमली जामा पहनाया जाएगा। इस वायदे का उल्लेख राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी था। लेकिन वित्त मंत्री ने बजट में इन दोनों अधिकारों को लागू करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया है। उन्होंने बजट भाषण में खाद्य सुरक्षा कानून का उल्लेख तो किया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया है कि यह कानून और कितने दिनों में लागू होगा। इसके बजाय उन्होंने कहा है कि सरकार प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का मसौदा सार्वजनिक बहस और विचार-विमर्श के लिए जल्दी ही पेश करेगी।
कहने की जरूरत नहीं है कि भूखमरी के शिकार लोगों के साथ इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे ही रवैये की खिल्ली उड़ाते हुए मशहूर शायर दुष्यंत कुमार ने बहुत पहले लिखा था कि ‘‘भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ/आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस ये मुद्दआ।’’ सवाल यह है कि भूखे लोगों को रोटी उपलब्ध कराने के लिए और कितने दिन बहस चलेगी? यह सवाल इसलिए भी और महत्वपूर्ण और दुखी करनेवाला है कि आज भारत में दुनिया के सबसे अधिक भूखे लोग रहते हैं जिन्हें दो जून का भर पेट भोजन भी नहीं मिल पाता है। इससे अधिक और शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि तेज विकास दर के बावजूद देश में कुपोषण और भूखमरी की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि 1998-99 में तीन वर्ष से कम आयु के 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार थे और अगले सात वर्षों में तीव्र विकास दर के बावजूद 2005-06 में भी ऐसे बच्चों की संख्या 46 फीसदी पर बनी हुई थी।
वित्त मंत्री ने कुछ ऐसा ही रवैया शिक्षा के अधिकार के कानून के प्रति भी दिखाया है। उन्हांेने बजट भाषण में शिक्षा के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद शिक्षा के अधिकार के कानून का न तो कोई जिक्र किया और न ही उसके लिए कोई बजटीय प्रावधान किया। उल्टे बजट में प्राथमिक शिक्षा के मद में पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 19488 करोड़ रूपये की तुलना में चालू वित्तीय वर्ष में सिर्फ 194 करोड़ रूपये यानि एक फीसदी की बढ़ोत्तरी की है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा के अधिकार के कानून को ईमानदारी से लागू करने के लिए कम से कम 55 हजार से लेकर एक लाख करोड़ रूपये की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन न तो पिछली यूपीए सरकार और न अब नई यूपीए सरकार इतनी बड़ी रकम खर्च करने के लिए तैयार हैं। यही कारण है कि शिक्षा के अधिकार का विधेयक पिछले कई वर्षों से लटका पड़ा है। वित्त मंत्री के रवैये को देखकर लगता नहीं है कि सरकार शिक्षा के अधिकार के कानून को लागू करने को लेकर कहीं से भी उत्साहित है।
निश्चय ही, वित्त मंत्री सामाजिक क्षेत्र की इन महत्वपूर्ण योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने के मामले में अपनी कंजूसी का बचाव यह कहकर कर सकते हैं कि सीमित संसाधनों के बीच इससे अधिक कर पाना संभव नहीं है। वे यह भी कह सकते हैं कि मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में राजस्व वसूली में गिरावट के कारण उनके हाथ बंधे हुए थे। लेकि न यह भी अधूरा सच है। यह ठीक है कि आर्थिक मंदी के कारण सरकार के राजस्व में उस रफ्तार से वृद्धि होने की उम्मीद नहीं है जितनी पिछले कुछ वर्षों में रही है। लेकिन अगर यह सच है तो वे अमीर और उच्च मध्यवर्ग को करों में छूट देने के मामले में इतने उदार क्यों हो गए? उन्होंने काॅरपोरेट क्षेत्र को खुश करने के लिए फ्रिंज बैनिफिट टैक्स खत्म कर दिया है। लेकिन 2007-08 में फ्रिंज बैनिफिट टैक्स से सरकारी खजाने को 6533 करोड़ रूपये की आय हुई थी। इसका अर्थ यह हुआ कि वित्त मंत्री ने एक झटके में काॅरपोरेट क्षेत्र को लगभग 7 हजार करोड़ रूपये का तोहफा दे दिया।
इसी तरह उन्होंने निजी आयकर पर दस प्रतिशत के सरचार्ज को समाप्त कर दिया है। इसका फायदा दस लाख रूपये से अधिक की आय वाले अमीर वर्गों को होगा। उन्होंने मध्यवर्ग को भी खुश करने के लिए टैक्स के स्लैब में मामूली फेर-बदल किया है। यही नहीं, उन्होंने जिंसों के कारोबार में सक्रिय सटोरियों को काबू में रखने के लिए उन पर लगने वाले कमोडिटी ट्रांजैक्शन टैक्स को भी समाप्त कर दिया है। उल्लेखनीय है कि जिंसों के वायदा कारोबार का कुल टर्न ओवर 2008 में लगभग 50 लाख करोड़ रूपये तक पहुंच गया और यह माना जाता है कि कई जिंसों और खाद्यान्नों की कीमतों में असामान्य वृद्धि की एक बड़ी वजह उनका वायदा कारोबार भी है। कहने की जरूरत नहीं है कि कमोडिटी ट्रांजक्शन टैक्स समाप्त कर वित्त मंत्री ने किसकी मदद की है?
इससे स्पष्ट है कि वित्त मंत्री नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से हटने के लिए तैयार नहीं है। यह बजट भी उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की निरंतरता का एक और सबूत है जो गरीबों के बजाय कारपोरेट समूहों, अमीरों और उच्च मध्यवर्गों के हितों का अधिक ध्यान रखता है। अलबत्ता पहले की तुलना में एक रणनीतिक फर्क सिर्फ यह आया है कि यूपीए सरकार यह सब गरीबों और आम आदमी का नाम लेकर कर रही है। जाहिर है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के स्थायित्व और भविष्य के लिए यह जरूरी हो गया है कि गरीबों और आम आदमी का राग जोर-शोर से गाया जाए। यह बजट भी इसी रणनीति का एक और उदाहरण है।
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