आनंद प्रधान
क्या आपको मालूम है कि बांग्लादेश की सम्मानित प्रधानमंत्री शेख हसीना का अंडरवर्ल्ड से ताल्लुक है। वे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहीम की छोटी बहन हैं ? या ये कि वे पाकिस्तान की बड़ी नेता हैं और अपने नाम के मुताबिक वाकई हसीन हैं? या फिर यह कि वे विश्व सुंदरी हैं। और यह भी कि वे श्रीलंका की राष्ट्रपति हैं? ..... आपका सर चकरा दनेवाली ये जानकारियां किसी बेहूदा मजाक या चुटकुले का हिस्सा नहीं हैं। ये वे कुछ उत्तर है जो देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा की प्रवेश परीक्षा में शेख हसीना और उन जैसी ही कई और चर्चित हस्तियों के बारे में दो-तीन वाक्यों में लिखने के जवाब में आए।
लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा नमूना भर है। ऐसा जवाब देनवाले प्रवेशार्थियों की संख्या काफी थी जिन्हें महिंदा राजपक्से, रामबरन यादव, अरविंद अडिगा,हैरोल्ड पिंटर आदि के बारे में पता नहीं था। सबसे अधिक अफसोस और चिंता की बात यह थी कि इन छात्रों को जो पत्रकार बनना चाहते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे और दक्षिण एशियाई पत्रकारों के संगठन साफमा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। ऐसे छात्रों की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर थी जिन्होने जस्टिस जी एन रे और साफमा के बारे में सही उत्तर दिया। हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश छात्रों ने लगता है कि नई दुनिया के संपादक और जाने-माने पत्रकार आलोक मेहता का नाम कभी नहीं सुना था।
नतीजा यह कि प्रवेशार्थियों ने अपने काल्पनिक और सृजनात्मक ष्सामान्य (अ) ज्ञानष् से इन प्रश्नों के ऐसे-ऐसे उत्तर दिए हैं कि उन्हें पढ़कर हंसी से अधिक पीड़ा और चिंता होती है। हैरत होती है कि इन छात्रों ने ग्रेजुएशन की परीक्षा कैसे पास की होगी? यह सचमुच अत्यधिक चिंता की बात है कि पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में बैठनेवाले छात्रों का न सिर्फ सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है बल्कि उनकी भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का हाल तो और भी दयनीय है। वर्तनी, लिंग और वाक्य संरचना संबंधी अशुद्धियों के बारे में तो कहना ही क्या? इन छात्रों की भाषा पर पकड़ इतनी कमजोर है कि वे अपने विचारों को भी सही तरह से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं।
यह ठीक है कि इनमें से बहुतेरे छात्रों की भाषा, अभिव्यक्ति क्षमता, तर्कशक्ति और सामान्य ज्ञान का स्तर बाकी की तुलना में बहुत बेहतर और संतोषजनक था। इससे संभव है कि संस्थान को छान और छांटकर जरूरी छात्र मिल जाएं लेकिन बाकी छात्र कहां जाएंगे ? जाहिर है कि बचे हुए छात्रों की बड़ी संख्या दूसरे विश्वविद्यालयों और निजी पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में दाखिला पा जाएगी। उनमें से काफी बड़ी संख्या में छात्र डिग्रियां लेकर पत्रकार बनने के पात्र भी बान जाएंगे। संभव है कि पत्रकारिता पाठ्क्रम में प्रशिक्षण के दौरान उनमें संधार हो लेकिन आज अधिकांष विश्वविद्यालयों और निजी संस्थानों में प्रशिक्षण और अध्यापन का जो हाल है, उसे देखकर बहुत उम्मीद नहीं जगती है।
निश्चय ही, समाचार माध्यमों के लिए अच्छी खबर नहीं है। अधिकांश समाचार माध्यमों और मीडिया उद्योग के लिए यह चिंता की बात है। वे पहले से ही प्रतिभाशाली मीडियाकर्मियों की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कारण समाचार मीडिया उद्योग का न सिर्फ विस्तार और विकास प्रभावित हो रहा है बल्कि उसकी गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया उद्योग का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, उसके अनुसार उपयुक्त प्रतिभाओं के न मिलने के कारण समाचारपत्रों और चैनलों के बीच वेतनमानों से लेकर सेवा शर्तों तक में बहुत विसंगतियां पैदा हो गयी हैं।
ऐसे में, समाचार मीडिया उद्योग के स्वस्थ विकास के लिए जरूरी है कि बेहतर प्रतिभाएं मीडिया प्रोफेशन में आएं। लेकिन इसके लिए समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ देश के प्रमुख मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों को मिलकर कोशिश करनी होगी। समाचार मीडिया उद्योग को मीडियाकर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया को तार्किक, पारदर्शी, व्यवस्थित और आकर्षक बनाना होगा और दूसरी ओर, प्रशिक्षण संस्थानों को बेहतर छात्रों को आकर्षित करने और उन्हें श्रेष्ठ प्रशिक्षण देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने के बारे में तुरंत सोचना होगा। यह एक चुनौती है जिसे अब और टालना समाचार मीडिया उद्योग के साथ-साथ पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों के लिए बहुत घातक हो सकता है।
शनिवार, जून 20, 2009
मंगलवार, जून 09, 2009
शिक्षा का या घृणा का कारोबार ?
आनंद प्रधान
आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा हासिल करने गए भारतीय छात्रों को वहां की सरकार द्वारा पूरी सुरक्षा देने का वायदों के बावजूद उनपर नस्ली और आपराधिक जानलेवा हमले रूक नहीं रहे हैं। पिछले कुछ सप्ताहों में एक दर्जन से ज्यादा भारतीय छात्र इन हमलों का निशाना बने हैं। सिर्फ छात्र ही नहीं, जिस तरह से एक भारतीय टैक्सी ड्राइवर पर भी हमला हुआ है, उससे साफ है कि इन नस्ली और आपराधिक हमलों से भारतीय कामगार और प्रोफेशनल्स भी सुरक्षित नहीं हैं। इससे एक गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के सुरक्षित केंद्र के बतौर आस्ट्रेलिया की छवि को गहरा धक्का लगा है।
ऐसा नहीं है कि आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स पर पहली बार इस तरह के हमले हुए हैं। तथ्य यह है कि पिछले तीन सालों में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स को सैकड़ों छोटे-बड़े नस्ली और आपराधिक हमलों का निशाना बनाया गया है। लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे हमलों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। आस्ट्रेलियाई पुलिस के अनुसार इस एक महीने में भारतीय छात्रों पर हमले और मारपीट-गाली गलौज की 500 से ज्यादा रिपोर्ट दर्ज की गयी हैं। इनमें से ज्यादातर घटनाएं मेलबोर्न, सिडनी और एडीलेड में घटी हैं। इन घटनाओं के बाद भारतीय छात्र गहरे सदमे, दहशत और गुस्से में हैं।
साफ है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। आस्ट्रेलियाई सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेने और शुरूआत में ही सख्ती बरतने में देर कर दी है। इससे उन गोरे नस्लवादी हमलावरों और अपराधियों की हिम्मत बहुत बढ़ गयी है। अगर आस्ट्रेलियाई सरकार ने शुरू में ही इन हमलों और अपमानजनक व्यवहार को नोटिस लेकर कार्रवाई की होती तो स्थिति इस हद तक नहीं बिगड़ती। अब आस्टेªलियाई सरकार को अपनी पुलिस और प्रशासन को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि भारतीय या अन्य किसी भी विदेशी छात्र या प्रोफेशनल्स के खिलाफ नस्लवादी हमलों के प्रति ष्जीरो टालरेंसष् का रवैया होना चाहिए। आस्ट्रेलियाई सरकार को ऐसे नस्ली हमलों पर रोक के लिए हेट क्राइम रोकथाम कानून बनाने से भी हिचकिचाना नहीं चाहिए।
असल में, यह इसलिए भी जरूरी है कि इन नस्ली हमलों के बाद भारतीय छात्रों का यह विश्वास टूटा है कि आस्ट्रेलिया ष्गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने का एक सुरक्षित, उदार और आकर्षक केंद्रष् है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आस्ट्रेलिया को ही होगा। आस्ट्रेलिया ने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने आने के लिए आकर्षित करने की खूब कोशिश की है। इसके लिए विज्ञापन और मार्केटिंग अभियान से लेकर एजूकेशन फेयर और रोड शो तक हर तौर-तरीका अपनाया गया है। लेकिन आस्ट्रेलिया ने भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित करने की यह कोशिश किसी उदारता या दयानतदारी या ज्ञान की रोशनी बांटने के उच्च आदर्शों के तहत नहीं की है।
इसके पीछे मकसद साफ तौर पर आस्ट्रेलिया में शिक्षा के कारोबार को आगे बढ़ाने का था। ध्यान रहे कि भारत उच्च शिक्षा के बड़े कारोबारियों के लिए एक बहुत बड़े ग्राहक के रूप में उभरा है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और फैलते हुए मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं जिस तेजी से बढ़ी हैं, उसे पूरा करने में भारतीय उच्च शिक्षा का ढांचा नाकाम साबित हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में भारत से बाहर जाकर उच्च शिक्षा हासिल करनेवाले छात्रों की तादाद तेजी से बढ़ी है। इसका एक सबूत यह है कि अकेले आस्ट्रेलिया में इस समय लगभग 97 हजार भारतीय छात्र उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ रहे हैं जिससे आस्ट्रेलिया को करोड़ों डालर की आमदनी हो रही है।
आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था के लिए यह कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शिक्षा का कारोबार उसका तीसरा सबसे बड़ा निर्यात उद्योग है। इससे आस्ट्रेलिया को पिछले साल 15.5 अरब डालर (लगभग 700 अरब रूपए) की कमाई हुई। यह कमाई आस्ट्रेलिया में पढ़ने आए कुल 4 लाख 30 हजार छात्रों से हुई जिसमें लगभग 22 प्रतिशत यानी 96739 छात्र भारतीय थे। तथ्य यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया, अमेरिका के बाद भारतीय छात्रों की दूसरी सबसे प्रमुख पसंद बन गया है। यही कारण है कि 2007 की तुलना में 2008 में आस्ट्रेलिया जानेवाले भारतीय छात्रों की संख्या में 54 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है।
जाहिर है कि आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था इन छात्रों को गंवाने और इस तरह अपने शिक्षा कारोबार को चैपट होने देने का जोखिम नहीं उठा सकती है। खासकर तब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था भी मंदी की मार से निढाल है। शिक्षा को मंदी से अप्रभावित कारोबार माना जाता है। ऐसे मंे, यह पूरी तरह से आस्ट्रेलिया के खुद के हित में है कि वह भारतीय छात्रों का विश्वास बनाए रखे। यह इसलिए भी जरूरी है कि भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी आपराधिक हमलों से अन्य देशों से आए छात्रों में भी दहशत है और गलत संदेश गया है। उन्हें लग रहा है कि भारतीय छात्रों की तरह कल को उन्हें भी इन हमलों का निशाना बनाया जा सकता है।
यही नहीं, आस्ट्रेलियाई सरकार भारतीय छात्रों को गंवाने का जोखिम और कई कारणों से नहीं उठा सकती है। पहली बात तो यह है कि भारतीय छात्रों ने अपनी प्रतिभा, मेधा और परिश्रम से पूरी दुनिया में एक अलग पहचान बनायी है। किसी भी विश्वविद्यालय या पाठ्यक्रम में भारतीय छात्रों की उपस्थिति से उसका शैक्षणिक स्तर और मान उंचा हो जाता है। इससे उन विश्वविद्यालयों और पाठ्यक्रमों की न सिर्फ प्रतिष्ठा बढ़ती है बल्कि वे इससे अन्य देशी-विदेशी छात्रों को आकर्षित कर पाते हैं। भारतीय छात्रों का एक बड़ा वर्ग आस्ट्रेलिया में अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए पार्ट टाइम काम भी करता है। इससे आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था को सस्ते, कुशल और परिश्रमी कामगार भी मिल रहे हैं जिससे उसकी उत्पादकता और प्रतियोगी क्षमता बढ़ रही है।
यही कारण है कि आस्ट्रेलियाई सरकार देर से ही सही हरकत में आई है और भारतीयों पर नस्लवादी और आपराधिक हमलों से पैदा हुई स्थिति से निपटने और डैमेज कंट्रोल में जुट गयी है। कहने की जरूरत नहीं है कि पहले चिंता जाहिर करनेवाले बयान और आस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त को अपनी चिंता से अवगत कराके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान चुकी मनमोहन सिंह सरकार इससे और निश्चिंत हो गयी है। उसे लग रहा है कि भारतीय छात्रों की सुरक्षा और उनका उचित ध्यान रखना आस्ट्रेलिया की आर्थिक मजबूरी है। लेकिन मुद्दा सिर्फ आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की सुरक्षा का नहीं है बल्कि उससे कहीं बड़ा और बुनियादी है।
असली मुद्दा यह है कि इतनी बड़ी संख्या में हर साल भारतीय छात्र विदेशों का रूख क्यों कर रहे हैं? क्या यह भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था की विफलता नहीं है कि भारतीय छात्र भारतीय शैक्षणिक संस्थानों की तुलना में आस्ट्रेलिया यहां तक कि न्यूजीलैंड और सिंगापुर जैसे देशों को पसंद कर रहे हैं? यह सिर्फ हर साल भारत से अरबों डालर विदेशी मुद्रा विदेशी शैक्षणिक संस्थानों को जाने का ही मसला नहीं है बल्कि प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) का भी सवाल है। यही नहीं, मुद्दा यह भी है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था विस्तार के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने में विफल क्यों हुई है? क्या इसकी वजह यह नहीं है कि 90 के दशक में उच्च शिक्षा को जिस तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया, उससे भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है?
अफसोस और चिंता की बात यह है कि खुद यूपीए सरकार की ओर से इसका समाधान विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश का दरवाजा खोलने के रूप में पेश किया जा रहा है। यह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचने का एक और उदाहरण है बल्कि एक और बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण है।
आस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा हासिल करने गए भारतीय छात्रों को वहां की सरकार द्वारा पूरी सुरक्षा देने का वायदों के बावजूद उनपर नस्ली और आपराधिक जानलेवा हमले रूक नहीं रहे हैं। पिछले कुछ सप्ताहों में एक दर्जन से ज्यादा भारतीय छात्र इन हमलों का निशाना बने हैं। सिर्फ छात्र ही नहीं, जिस तरह से एक भारतीय टैक्सी ड्राइवर पर भी हमला हुआ है, उससे साफ है कि इन नस्ली और आपराधिक हमलों से भारतीय कामगार और प्रोफेशनल्स भी सुरक्षित नहीं हैं। इससे एक गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा के सुरक्षित केंद्र के बतौर आस्ट्रेलिया की छवि को गहरा धक्का लगा है।
ऐसा नहीं है कि आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स पर पहली बार इस तरह के हमले हुए हैं। तथ्य यह है कि पिछले तीन सालों में भारतीय छात्रों या प्रोफेशनल्स को सैकड़ों छोटे-बड़े नस्ली और आपराधिक हमलों का निशाना बनाया गया है। लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे हमलों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। आस्ट्रेलियाई पुलिस के अनुसार इस एक महीने में भारतीय छात्रों पर हमले और मारपीट-गाली गलौज की 500 से ज्यादा रिपोर्ट दर्ज की गयी हैं। इनमें से ज्यादातर घटनाएं मेलबोर्न, सिडनी और एडीलेड में घटी हैं। इन घटनाओं के बाद भारतीय छात्र गहरे सदमे, दहशत और गुस्से में हैं।
साफ है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। आस्ट्रेलियाई सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लेने और शुरूआत में ही सख्ती बरतने में देर कर दी है। इससे उन गोरे नस्लवादी हमलावरों और अपराधियों की हिम्मत बहुत बढ़ गयी है। अगर आस्ट्रेलियाई सरकार ने शुरू में ही इन हमलों और अपमानजनक व्यवहार को नोटिस लेकर कार्रवाई की होती तो स्थिति इस हद तक नहीं बिगड़ती। अब आस्टेªलियाई सरकार को अपनी पुलिस और प्रशासन को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि भारतीय या अन्य किसी भी विदेशी छात्र या प्रोफेशनल्स के खिलाफ नस्लवादी हमलों के प्रति ष्जीरो टालरेंसष् का रवैया होना चाहिए। आस्ट्रेलियाई सरकार को ऐसे नस्ली हमलों पर रोक के लिए हेट क्राइम रोकथाम कानून बनाने से भी हिचकिचाना नहीं चाहिए।
असल में, यह इसलिए भी जरूरी है कि इन नस्ली हमलों के बाद भारतीय छात्रों का यह विश्वास टूटा है कि आस्ट्रेलिया ष्गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने का एक सुरक्षित, उदार और आकर्षक केंद्रष् है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आस्ट्रेलिया को ही होगा। आस्ट्रेलिया ने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने आने के लिए आकर्षित करने की खूब कोशिश की है। इसके लिए विज्ञापन और मार्केटिंग अभियान से लेकर एजूकेशन फेयर और रोड शो तक हर तौर-तरीका अपनाया गया है। लेकिन आस्ट्रेलिया ने भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए आकर्षित करने की यह कोशिश किसी उदारता या दयानतदारी या ज्ञान की रोशनी बांटने के उच्च आदर्शों के तहत नहीं की है।
इसके पीछे मकसद साफ तौर पर आस्ट्रेलिया में शिक्षा के कारोबार को आगे बढ़ाने का था। ध्यान रहे कि भारत उच्च शिक्षा के बड़े कारोबारियों के लिए एक बहुत बड़े ग्राहक के रूप में उभरा है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और फैलते हुए मध्यवर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं जिस तेजी से बढ़ी हैं, उसे पूरा करने में भारतीय उच्च शिक्षा का ढांचा नाकाम साबित हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में भारत से बाहर जाकर उच्च शिक्षा हासिल करनेवाले छात्रों की तादाद तेजी से बढ़ी है। इसका एक सबूत यह है कि अकेले आस्ट्रेलिया में इस समय लगभग 97 हजार भारतीय छात्र उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ रहे हैं जिससे आस्ट्रेलिया को करोड़ों डालर की आमदनी हो रही है।
आस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था के लिए यह कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शिक्षा का कारोबार उसका तीसरा सबसे बड़ा निर्यात उद्योग है। इससे आस्ट्रेलिया को पिछले साल 15.5 अरब डालर (लगभग 700 अरब रूपए) की कमाई हुई। यह कमाई आस्ट्रेलिया में पढ़ने आए कुल 4 लाख 30 हजार छात्रों से हुई जिसमें लगभग 22 प्रतिशत यानी 96739 छात्र भारतीय थे। तथ्य यह है कि पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया, अमेरिका के बाद भारतीय छात्रों की दूसरी सबसे प्रमुख पसंद बन गया है। यही कारण है कि 2007 की तुलना में 2008 में आस्ट्रेलिया जानेवाले भारतीय छात्रों की संख्या में 54 फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है।
जाहिर है कि आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था इन छात्रों को गंवाने और इस तरह अपने शिक्षा कारोबार को चैपट होने देने का जोखिम नहीं उठा सकती है। खासकर तब जब वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था भी मंदी की मार से निढाल है। शिक्षा को मंदी से अप्रभावित कारोबार माना जाता है। ऐसे मंे, यह पूरी तरह से आस्ट्रेलिया के खुद के हित में है कि वह भारतीय छात्रों का विश्वास बनाए रखे। यह इसलिए भी जरूरी है कि भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लवादी आपराधिक हमलों से अन्य देशों से आए छात्रों में भी दहशत है और गलत संदेश गया है। उन्हें लग रहा है कि भारतीय छात्रों की तरह कल को उन्हें भी इन हमलों का निशाना बनाया जा सकता है।
यही नहीं, आस्ट्रेलियाई सरकार भारतीय छात्रों को गंवाने का जोखिम और कई कारणों से नहीं उठा सकती है। पहली बात तो यह है कि भारतीय छात्रों ने अपनी प्रतिभा, मेधा और परिश्रम से पूरी दुनिया में एक अलग पहचान बनायी है। किसी भी विश्वविद्यालय या पाठ्यक्रम में भारतीय छात्रों की उपस्थिति से उसका शैक्षणिक स्तर और मान उंचा हो जाता है। इससे उन विश्वविद्यालयों और पाठ्यक्रमों की न सिर्फ प्रतिष्ठा बढ़ती है बल्कि वे इससे अन्य देशी-विदेशी छात्रों को आकर्षित कर पाते हैं। भारतीय छात्रों का एक बड़ा वर्ग आस्ट्रेलिया में अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए पार्ट टाइम काम भी करता है। इससे आस्ट्रेलियाई अर्थव्यवस्था को सस्ते, कुशल और परिश्रमी कामगार भी मिल रहे हैं जिससे उसकी उत्पादकता और प्रतियोगी क्षमता बढ़ रही है।
यही कारण है कि आस्ट्रेलियाई सरकार देर से ही सही हरकत में आई है और भारतीयों पर नस्लवादी और आपराधिक हमलों से पैदा हुई स्थिति से निपटने और डैमेज कंट्रोल में जुट गयी है। कहने की जरूरत नहीं है कि पहले चिंता जाहिर करनेवाले बयान और आस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त को अपनी चिंता से अवगत कराके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान चुकी मनमोहन सिंह सरकार इससे और निश्चिंत हो गयी है। उसे लग रहा है कि भारतीय छात्रों की सुरक्षा और उनका उचित ध्यान रखना आस्ट्रेलिया की आर्थिक मजबूरी है। लेकिन मुद्दा सिर्फ आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की सुरक्षा का नहीं है बल्कि उससे कहीं बड़ा और बुनियादी है।
असली मुद्दा यह है कि इतनी बड़ी संख्या में हर साल भारतीय छात्र विदेशों का रूख क्यों कर रहे हैं? क्या यह भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था की विफलता नहीं है कि भारतीय छात्र भारतीय शैक्षणिक संस्थानों की तुलना में आस्ट्रेलिया यहां तक कि न्यूजीलैंड और सिंगापुर जैसे देशों को पसंद कर रहे हैं? यह सिर्फ हर साल भारत से अरबों डालर विदेशी मुद्रा विदेशी शैक्षणिक संस्थानों को जाने का ही मसला नहीं है बल्कि प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) का भी सवाल है। यही नहीं, मुद्दा यह भी है कि भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था विस्तार के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने में विफल क्यों हुई है? क्या इसकी वजह यह नहीं है कि 90 के दशक में उच्च शिक्षा को जिस तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया, उससे भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है?
अफसोस और चिंता की बात यह है कि खुद यूपीए सरकार की ओर से इसका समाधान विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश का दरवाजा खोलने के रूप में पेश किया जा रहा है। यह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचने का एक और उदाहरण है बल्कि एक और बड़ी दुर्घटना को आमंत्रण है।
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