सोमवार, जून 16, 2008

तेल के खेल में सट्टेबाजों की लीला

सुरसा की तरह बदन बढ़ाती महंगाई की आठ प्रतिशत से अधिक की दर के असहनीय बोझ और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में एक झटके में दस प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी की मार से पीठ सहला रहे लोगों के लिए बुरी खबर है. अनाजों की बढ़ती कीमतों के अलावा महंगाई के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में हर दिन एक नया रिकार्ड बना रही है.

पिछले सप्ताह सिर्फ एक दिन में न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज- नाइमेक्स- में कच्चे तेल की कीमत में 11 डॉलर प्रति बैरल से अधिक की रिकार्ड बढ़ोतरी दर्ज की गई. इसके साथ ही कच्चे तेल की कीमत एक झटके में आठ प्रतिशत की उछाल के साथ 128 डॉलर से बढ़कर 139 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई.

लेकिन जैसे इतना ही काफी नहीं हो, जाने-माने निवेशक बैंक मॉर्गन स्टैनली ने भविष्यवाणी की है कि चार जुलाई तक कच्चे तेल की कीमत 150 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाएगी. इससे पहले, एक और बहुराष्ट्रीय वित्तीय कंपनी गोल्डमान सैक्स कह चुकी है कि अगले छह से चौबीस महीनों में कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल से उपर पहुंच जाएगी. इन दोनों बयानों से साफ है कि दुनिया को कच्चे तेल की लगातार चढ़ती कीमतों से आने वाले महीनों में भी राहत मिलने की उम्मीद नहीं है.

ये दोनों बयान सामान्य बयान नहीं हैं. जब दुनिया की दो सबसे ताकतवर वित्तीय संस्थाएं- मॉर्गन स्टैनली और गोल्डमान सैक्स कोई बात कह रही हों तो उन्हें दुनिया भर के शेयर बाजारों और जिंस बाजारों के छोटे-बड़े खिलाड़ी बड़े गौर से सुनते हैं. हैरत की बात नहीं है कि इन दोनों बयानों ने कच्चे तेल के बाजार में पहले से लगी आग में घी डालने का काम किया है. इससे कच्चे तेल की कीमतें और भड़क उठी हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि मॉर्गन स्टैनली और गोल्डमान सैक्स के बयानों ने तेल के वायदा कारोबार में सक्रिय सट्टेबाजों, खासकर तेजड़ियों को कच्चे तेल की कीमतों को मनमाने तरीके से उपर चढ़ाने का अच्छा बहाना दे दिया है. अगर ये कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि इन दोनों बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने जान-बूझकर ऐसा बयान दिया ताकि कच्चे तेल की कीमतों में असामान्य और कृत्रिम तेजी बनी रहे और इसका लाभ तेल कंपनियों से लेकर उनके कारोबार में भारी मुनाफा बना रहे सट्टेबाजों को मिलता रहे.

दरअसल, कच्चे तेल के बाजार में डेढ़-दो वर्षों, खासकर पिछले कुछ महीनों से जारी तेजी के पीछे बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों, बड़ी वित्तीय-निवेश संस्थाओं और सट्टेबाजों की सबसे बड़ी भूमिका रही है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार के बड़े विश्लेषकों सहित ये वित्तीय कंपनियां इसे स्वीकार नहीं करती हैं कि कच्चे तेल के बाजार में सट्टेबाजी की कोई भूमिका है. उनका कहना है कि तेल की बढ़ती मांग के अनुरूप उत्पादन में बढ़ोतरी न होने के कारण तेल की कीमतों पर भारी दबाव है जो तेल के प्रमुख उत्पादक मध्य-पूर्व के देशों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से और बेकाबू हो गई है.

लेकिन तथ्य इसके बिल्कुल उलट हैं. तथ्यों से साफ है कि कच्चे तेल की कीमतों में असामान्य तेजी के पीछे मांग में बढ़ोतरी और आपूर्ति में कमी के बजाय सट्टेबाजी की सबसे अहम भूमिका है. खुद दुनिया के एक बड़े और प्रभाववशाली सट्टेबाज जार्ज सोरोस ने कबूल किया है कि कच्चे तेल की कीमतों में तेजी के पीछे सट्टेबाजी की सबसे बड़ी भूमिका है. सोरोस ने अमरीकी सीनेट की वाणिज्य समिति के सामने कहा है कि सट्टेबाजी ने तेल के बाजार में एक बुलबुला बना दिया है जो कभी भी फूट सकता है जिसका असर शेयर बाजार को भी डुबो देगा.

असल में, तेल के जिंस बाजार खासकर न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज, शिकागो एक्सचेंज और लंदन आईसीई बाजार में जबर्दस्त सट्टेबाजी चल रही है. इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बाजार में सक्रिय इंडेक्स फंड्स का निवेश पिछले पांच वर्षों में 13 अरब डॉलर से बढ़कर 260 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. तेल बाजार के जाने-माने विश्लेषक एफ विलियम इंगडाल के मुताबिक कच्चे तेल की मौजूदा कीमत में लगभग 60 फीसदी योगदान सट्टेबाजी का है.

इसकी वजह यह है कि अमरीका में जिंस वायदा कारोबार आयोग -सीएफटीसी- किसी भी निवेशक को यह इजाजत देता है कि वह नाइमैक्स में कच्चे तेल के वायदा सौदे की कुल कीमत का सिर्फ छह फीसदी अदा कर कारोबार कर सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी वायदा कारोबारी मौजूदा कीमतों यानी 139 डॉलर प्रति बैरल में सिर्फ 8.34 डॉलर का भुगतान करके सौदा पक्का कर सकता है. इस नरम और ढीले-ढ़ाले नियम के कारण सट्टेबाजों की चांदी हो गई है.

तेल बाजार में सक्रिय सट्टेबाजों को इस बात का भी फायदा मिला है कि अमरीका सहित दुनिया के अधिकांश विकसित देशों में ब्याज दरें काफी गिर गई हैं और वास्तविक ब्याज दर नकारात्मक हो गई है. इस कारण बाजार में पैसा इफरात में उपलब्ध है. सट्टेबाज इसी पैसे का इस्तेमाल तेल के वायदा कारोबार में कर रहे हैं.  इसके अलावा, इंडेक्स और पेंशन फंड्स भी इस चढ़ते बाजार में माल काटने में जुटे हैं.

उधर, सब-प्राइम संकट में काफी पैसा डुबा चुके बड़े बैंक और वित्तीय संस्थाएं भी कच्चे तेल के वायदा कारोबार में सट्टेबाजी के जरिए अपने नुकसान की भरपाई और नई कमाई में जुटे हैं. विश्लेषक और इस बाजार के अंदरूनी जानकार इस खेल में गोल्डमान सैक्स, मॉर्गन स्टैनली, ब्रिटिश पेट्रोलियम, फ्रेंच बैंक सोसायते जेनरल, बैंक ऑफ अमरीका और स्विस बैंक मरक्यूरिया की भूमिका पर उंगली उठा रहे हैं.

आश्चर्य की बात यह है कि दुनिया भर में तेल की बढ़ती कीमतों पर मचे कोहराम के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मंचों और सरकारी बैठकों में सट्टेबाजों की भूमिका पर अंकुश लगाना तो दूर, कोई चर्चा तक नहीं हो रही है. वह चाहे इस मुद्दे पर जापान में हुई जी-8 देशों की बैठक हो या फिर पांच प्रमुख तेल उपभोक्ता देशों की बैठक, हर जगह गरीब और विकासशील देशों में पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जा रही कथित सब्सिडी का मुद्दा ही विकसित देशों के निशाने पर बना रहा.

अफसोस की बात यह है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने भी कच्चे तेल के बाजार में जारी सट्टेबाजी और कीमतों में तोड़-मरोड़ पर अंकुश लगाने के सवाल को उठाना जरूरी नहीं समझा. यही नहीं, इन मंचों और बैठकों में जिस तरह से कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों के लिए मांग की तुलना में उसकी आपूर्ति में असंतुलन को प्रमुख कारण बताया गया, उससे उन सट्टेबाजों के ही हाथ मजबूत हुए जो इसकी आड़ में तेल की कीमतें कृत्रिम रूप से चढ़ाने में लगे हुए हैं.

दरअसल, 2003 के इराक युद्ध के बाद से ही बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियां, बड़ी वित्तीय संस्थाएं और तेल के कारोबारी तेल के बाजार में 'पीक ऑयल` का एक हौवा खड़ा किए हुए हैं जिसके मुताबिक दुनिया में कच्चे तेल का भंडार सीमित है और इसका उत्पादन अपने चरम पर पहुंचने ही वाला है. इसके बाद उसमें कमी आने लगेगी. दूसरी ओर, विकाशील देशों खासकर चीन और भारत में तेल की खपत तेजी से बढ़ रही है. इससे मांग और आपूर्ति के बीच अचानक असंतुलन काफी बढ़ गया है जिसके कारण कीमतें चढ़ती जा रही हैं.

लेकिन इससे बड़ा अर्द्धसत्य और कुछ नहीं हो सकता है कि तेल की मांग में आपूर्ति की तुलना में अचानक कोई भारी बढ़ोतरी हो गई है. यह सिर्फ घबराहट और अफरा-तफरी का माहौल बनाने के लिए किया जा रहा है. तथ्य यह है कि 2004 के बाद से तेल की वैश्विक खपत में लगातार कमी आ रही है. यही नहीं, दुनिया के विकसित देशों में तो तेल की खपत में पिछले दो वर्षों से गिरावट दर्ज की जा रही है. विकासशील और गरीब देशों में भी तेल की खपत में वृद्धि की दर गिर रही है.

यही नहीं 'पीक ऑयल` की धारणा भी विवादास्पद और भ्रामक है. इस धारणा को लेकर भूगर्भ वैज्ञानिकों और विश्लेषकों में मतभेद है. साथ ही, अधिकांश विश्लेषक इसे पूरी तरह से नकारते हैं कि दुनिया अभी 'पीक ऑयल` की स्थिति में पहुंच गई है. सच यह है कि पिछले कुछ वर्षों में तेल के नए भंडार मिले हैं और तेल के उत्पादन में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है.

दरअसल, समस्या यह नहीं है कि तेल के नए भंडार नहीं मिल रहे हैं या उसके उत्पादन में गिरावट आ रही है बल्कि मुद्दा यह है कि बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियां जान-बूझकर तेल के भंडारों पर कब्जा जमाए बैठी हैं ताकि कच्चे तेल की मौजूदा मनमानी कीमतों को बनाए रखा जा सके. सच यह है कि तेल के बाजार में जरा भी पारदर्शिता और कड़े नियम-कानून होते तो इस समय अमेरिकी मंदी और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की सुस्ती के कारण कीमतों में बढ़ोतरी के बजाय गिरावट का रुख होता.

लेकिन तेल के बाजार को पूरी तरह से सट्टेबाजों के हवाले कर दिया गया है. इस खेल में बड़ी तेल कंपनियों, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के साथ-साथ तेल के कारोबारी भी शामिल हैं. इसे अमेरिकी सरकार के साथ-साथ ओपेक का भी आशीर्वाद मिला हुआ है. अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों से सांठ-गांठ किसी से छिपी नहीं है. अमेरिकी उपभोक्ताओं को भले ही पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी हुई कीमतों की मार झेलनी पड़ रही हो लेकिन बुश प्रशासन तेल कंपनियों, बैंकों- वित्तीय संस्थाओं और सट्टेबाजी पर रोक लगाने के बजाय भारत और चीन जैसे देशों को तेल पर सब्सिडी खत्म करने की हिदायत देने में जुटा हुआ है.

लेकिन तेल पर सब्सिडी कम या खत्म करना इस समस्या का हल नहीं है. मुद्दा यह है कि तेल के बाजार में जारी सट्टेबाजी और मुनाफाखोरी पर रोक कैसे लगाई जाए? इसके बिना तेल की कीमतों में लगी आग को बुझा पाना मुश्किल है. इसके लिए भारत को चीन के साथ मिलकर विकासशील और गरीब देशों को एकजुट करते हुए अमेरिकी सरकार और यूरोपीय संघ पर दबाव बनाना होगा कि वे तेल के वायदा कारोबार को सख्ती से विनियमित करें और सट्टेबाजी पर रोक लगाएं. भारत और अन्य विकासशील देशों को ओपेक से भी सीधी बात करनी चाहिए कि वे न सिर्फ तेल की आपूर्ति में स्थिरता लाएं बल्कि तेल कंपनियों की अवांछनीय और अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाएं.

अफसोस की बात यह है कि मनमोहन सिंह सरकार यह जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी सिर्फ एक वजह हो सकती है कि उसे अमेरिकी नाराजगी का डर सता रहा हो. इसी अमेरिकी नाराजगी के डर के कारण यूपीए सरकार ने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अगर पिछले चार वर्षों में सरकार ने इस पाइपलाइन पर पूरी सक्रियता और ईमानदारी से काम किया होता तो आज देश तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार के सट्टेबाजों के रहमोकरम पर निर्भर नहीं होता.

यही नहीं, यूपीए सरकार ने अगर अमेरिकी दादागिरी और उसकी तेल की राजनीति को स्वीकार करने के बजाय ईरान, वेनेजुएला, रूस और चीन के साथ एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय तेल व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश की होती तो खुद के साथ दुनिया को तेल की आग में झुलसने से बचाया जा सकता था. पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने इस दिशा में सीमित पहल की थी लेकिन उन्हें अमेरिकी दबाव में पद से हटा दिया गया. समय आ गया है जब प्रधानमंत्री देश को बताएं कि अय्यर को क्यों हटाया गया था? और सरकार ने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन के साथ-साथ तेल के एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को खड़ा करने की पहल क्यों नहीं की? सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका से सट्टेबाजी पर रोक लगाने की मांग क्यों नहीं कर रही है? देश पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी कीमतें चुकाने को तैयार है बशर्ते यूपीए सरकार इन सवालों का जवाब दे। क्या प्रधानमंत्री फिर राष्ट्र के नाम संदेश-सफाई देने के लिए टीवी पर आएंगे?
 
 
जनसत्ता से साभार

मंगलवार, जून 10, 2008

सरकार को मंजूर नहीं थे दूसरे विकल्प...

यह तर्क गले नहीं उतरता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. असल में, यूपीए सरकार कीमतों में भारी बढ़ोतरी के अलावा किसी और विकल्प पर विचार के उत्सुक ही नहीं थी.

 

 

 

 

आम आदमी के हितों का ख्याल रखने के वायदे के साथ सत्ता में आई यूपीए सरकार ने एक बार फिर जब चुनने का मौका आया तो महंगाई की मार से त्रस्त आम आदमी के बजाय तेल कंपनियों के मुनाफे को प्राथमिकता दी. पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में एक झटके में इतनी बढ़ोतरी के पीछे न तो कोई आर्थिक तर्क है और न ही राजनीतिक बुद्धिमता. लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अपनी अंधभक्ति में आर्थिक तर्क और राजनीतिक बुद्धिमता दोनों को ताक पर रख दिया है.

 

पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सहित प्रधानमंत्री और यूपीए सरकार का यह तर्क गले से नहीं उतरता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी उछाल के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. यह सच नहीं है. असल में, यूपीए सरकार कीमतों में भारी बढ़ोतरी के अलावा किसी और विकल्प पर विचार के उत्सुक ही नहीं थी. यही कारण है कि पिछले एक महीने खासकर कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद से मनमोहन सिंह सरकार और गुलाबी मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया, जैसे कीमतें तत्काल नहीं बढ़ीं तो सरकारी तेल कंपनियों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था भी दिवालिया हो जाएंगी.

 

खुद प्रधानमंत्री ने एसोचैम के सम्मेलन में हाथ खड़े करते हुए कहा कि अब सरकार पेट्रोलियम सब्सिडी का बोझ उठाने के लिए तैयार नहीं है और लोगों को इसका कुछ भार उठाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. गुलाबी अखबारों के जरिए यह सूचना देते हुए एक भयावह तस्वीर खींचने और कीमतों में बढ़ोतरी के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश की गई कि अगर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी नहीं हुई तो तेल कंपनियों को इस साल 2.46 लाख करोड़ रुपए का घाटा हो सकता है. इस तरह की खबरें जान-बूझकर 'लीक' की गईं कि कीमतों में पेट्रोल पर 15 रुपए प्रति लीटर, डीजल पर 10 रुपए प्रति लीटर और एलपीजी पर 250 रुपए प्रति सिलेंडर की वृद्धि जरूरी हो गई है.

 

ऐसा बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया गया ताकि जब आज कीमतों में बढ़ोतरी की घोषणा की गई तो आम लोगों को यह लगे कि वे सस्ते में छूट गए. इसके साथ ही, यूपीए और कांग्रेस लगा फाड़कर खुद को 'आम आदमी' का हितैषी साबित करने में जुट गए हैं कि देखो सरकार ने लोगों पर कितना कम बोझ डाला है ? लेकिन सच यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ने जान-बूझकर ऐसा डरावना माहौल बनाया ताकि पेट्रोलियम उत्पादों में बढ़ोतरी को 'मजबूरी में उठाया कदम' और उचित ठहराया जा सके. इसके लिए न सिर्फ उसने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया बल्कि लोगों की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है.

 

सच यह है कि तेल कंपनियों को 2.46 लाख करोड़ रुपए के घाटे का अनुमान इस गणित पर आधारित है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई है. लेकिन ऐसा नहीं है कि देशी तेल कंपनियां हर दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल खरीदती हैं और भारतीय बाजार में बेचती हैं. अधिकांश सौदे महीनों पहले और आज की तुलना में कम कीमत पर हुए हैं. यही नहीं, किसी एक दिन बाजार में कच्चे तेल की कीमत 135 डॉलर प्रति बैरल पहुंच जाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि आने वाले सप्ताहों और महीनों में भी यही कीमत बनी रहेगी. जैसे फिलहाल, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 124 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई है. यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों के आधार पर घरेलू तेल उत्पादक और शोधन कंपनियों को तेल बेचने की इजाजत देने का भी कोई तुक नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस स्थिति का लाभ उठाकर ओएनजीसी से लेकर रिलायंस तक जबर्दस्त मुनाफा कमा रहे हैं. आखिर सरकार गेहूं उत्पादक किसानों को भी यह अधिकार क्यों नहीं देती है कि वे अपना उत्पाद अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर बेचें, भले उनकी उत्पादन लागत अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से काफी कम क्यों नहीं हो ?

 

सवाल यह भी है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर इतना अधिक टैक्स क्यों है ? क्या यह सच नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम उत्पादों को दुधारू गाय की तरह टैक्स उगाहने का आसान माध्यम बना दिया है ? उदाहरण के लिए दिल्ली में पेट्रोल की वास्तविक कीमत 21.93 रुपए प्रति लीटर और डीजल की 22.45 रुपए प्रति लीटर है, जबकि उनकी खुदरा कीमत 45.52 रुपए और 31.76 रुपए प्रति लीटर है. तथ्य यह है कि पेट्रोल की खुदरा कीमत का 49 प्रतिशत यानी लगभग आधा और डीजल की खुदरा कीमत का 26 प्रतिशत केंद्रीय उत्पाद कर और वैट के बतौर जाता है. कोई भी वित्तमंत्री पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाली राजस्व आय छोड़ना नहीं चाहता है. यही कारण है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर करों के जरिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां 2003-04 में 1,04,375 करोड़ रुपए का राजस्व कमाया, वह यूपीए सरकार के तीसरे वर्ष में उछलकर 1,64,000 करोड़ तक पहुंच गई है. इसके अलावा, केंद्र सरकार तेल उत्पादक कंपनियों पर सेस के जरिए 7,500 करोड़ रुपए कमा रही है. जाहिर है, यह पैसा आम आदमी की जेब से ही जा रहा है.

 

यह ठीक है कि काफी दबाव और हो-हंगामे के कारण यूपीए सरकार खासकर वित्तमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों पर आयात शुल्क और अन्य करों में टोकन कटौती का ऐलान किया है. लेकिन यह कटौती कीमतों में हुई बढ़ोतरी की तुलना में काफी कम है. यही नहीं, इस कटौती का फायदा भी तेल कंपनियों को होगा. कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी का फैसला करते हुए तेल कंपनियों के मुनाफे का ध्यान ज्यादा रखा है.

 

यह फैसला आर्थिक और राजनीतिक रूप से सरकार पर बहुत भारी पड़ेगा. जाहिर है, इसका सीधा असर महंगाई की आग पर पड़ेगा जो और भभक उठेगी. मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से आर्थिक विकास को धक्का लगना तय है. इस तरह सरकार को न माया मिलेगी और न राम. महंगाई की बेकाबू सुरसा यूपीए सरकार को जरूर लील जाएगी लेकिन इसके लिए कांग्रेस किसी और को नहीं, खुद को ही कटघरे में पाएगी.