सोमवार, नवंबर 12, 2007

लोकलुभावन राजनीति और कारपोरेट अर्थनीति की चासनी में पगा है रेल बजट

अपनी खास शैली में रेलवे के कारपोरेटीकरण को आगे बढ़ा रहे हैं लालू प्रसाद

लालू प्रसाद का चौथा बजट भी उनकी खास छाप लिए हुए है। यह राजनेता से सीईओ और कारपोरेट जगत के दुलरूआ बनते लालू प्रसाद का बजट है। इसमें अपेक्षा के अनुरूप हैरान करनेवाली कोई बात नहीं है। यह एक टिपीकल राजनेता का ऐसा लोक लुभावन लेकिन उससे ज्यादा भारतीय रेल के कारपोरेट हितों का ध्यान रखनेवाला बजट है जो रेलवे के निजीकरण की कड़वी गोली को किरायों में कमी और गरीब रथों की मीठी चासनी में लपेटकर पेश करता है। आश्चर्य नहीं कि आमतौर पर लोक लुभावन कार्यक्रमों और योजनाओं का विरोध करनेवाले कारपोरेट जगत ने एक सुर से इस रेल बजट की तारीफ की है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह रेल बजट राजनीति से बिल्कुल अछूता है। सच यह है कि इस पर टिपीकल लालू मार्का राजनीति की छाप है। यह आर्थिक सुधारों की नई राजनीति है। इसे कारपोरेट जगत का पूरा समर्थन प्राप्त है। इस राजनीति की खासियत यह है कि यह आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को आम लोगों के गले में सीधे उतारने के बजाय उसे लोक लुभावन घोषणाओं की चासनी में लपेटकर पेश किया जा रहा है। असल में, रेल जैसे बड़े सार्वजनिक उपक्रमों में आर्थिक सुधारों को लागू करने की राह आसान नहीं थी और उसका राजनीतिक विरोध बहुत था। दूसरी ओर, रेलवे पर सुधारों को लागू करने का दबाव बढ़ता जा रहा था।

ऐसे में, लालू की लोक लुभावन राजनीति और कारपोरेट अर्थनीति के कॉकटेल ने रेलवे में आर्थिक सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया को आसान बना दिया है। यह तथ्य किसी से छुपा हुआ नहीं है कि लालू प्रसाद अपने पूर्ववर्ती रेलमंत्री नीतिश कुमार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि लालू की शैली नीतिश से बिल्कुल अलग है। लेकिन दोनों की अन्तर्वस्तु एक ही है। दरअसल, रेलवे में आर्थिक सुधारों की पटरी राकेश मोहन समिति ने तैयार की थी जिसपर चलने की शुरूआत नीतिश ने की और जिस पर अब लालू प्रसाद की रेल दौड़ रही है। इसकी मंजिल रेलवे के कारपोरेटीकरण पर जाकर खत्म होती है।

इसलिए यात्री किरायों और मालभाड़े में कटौती से खुश होने की जरूरत नहीं है। आर्थिक सुधारों और नवउदारीकरण की उस मशहूर सूक्ति को हमेशा याद रखना चाहिए कि 'यहां कोई भी चीज मुफ्त नहीं है (देयर इज नो फ्री लंच)।' सच यह है कि यात्री किरायों और मालभाड़े में कटौती लोक लुभावन से ज्यादा कारोबारी फैसला है। रेलवे को सड़क और हवाई यातायात से जिस तरह कड़ी चुनौती मिल रही है, उसे देखते हुए उसके पास प्रतियोगिता में बने रहने के लिए किरायों में कटौती के अलावा और कोई चारा भी नहीं रह गया था। इसी तरह डीजल की कीमतों मे गिरावट और बढ़ती महंगाई के मद्देनजर माल भाड़े में भी वृद्धि के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी।

एक तेज तर्रार कारोबारी की तरह लालू प्रसाद जानते हैं कि अब माल ढुलाई और आवाजाही के लिए रेल एकमात्र साधन नहीं है। ऐसे में, निजी क्षेत्र के अपने प्रतियोगियों से निपटने के लिए उन्हें भी सभी कारोबारी और मार्केटिंग के हथकंडे अपनाने पड़ रहे हैं। इसी तरह वे किरायों में कटौती या उन्हें स्थिर रखकर अधिक से अधिक यात्री और माल ढुलाई पर जोर दे रहे हैं। इस तरह वे 'इकनॉमी आफ स्केल` की रणनीति पर चल रहे हैं। रेलवे को इसका लाभ भी हो रहा है। यही कारण है कि पिछले दो-तीन वर्षों से रेलवे के मुनाफे में लगातार वृद्धि हो रही है।

लेकिन रेलवे के मुनाफे में वृद्धि की सिर्फ यही वजह नहीं है। लालू प्रसाद को भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी का लाभ भी मिल रहा है। यह संयोग है कि पिछले तीन-चार वर्षों से अर्थव्यवस्था की विकासदर 8 से 9 प्रतिशत तक पहुंच गई है। इस कारण जैसे अर्थव्यवस्था के अन्य सभी क्षेत्रों को इसका लाभ मिला है, उसी तरह रेलवे को भी छप्पर फाड़ मुनाफा हो रहा है। चालू वित्तीय वर्ष में जीडीपी की  9.2 प्रतिशत की तेज रफ्तार के कारण रेलवे की माल आय में 17 फीसदी, यात्री आय में 14 फीसदी, अन्य कोचिंग आय में 48 फीसदी और फुटकर आय में 11 फीसदी की वृद्धि हुई है।

इन सब कारणों से ही रेलवे के परिचालन अनुपात में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। अब यह सुधरकर लगभग 78.7 प्रतिशत हो गया है। निश्चय ही कारोबारी लिहाज से यह एक बेहतर प्रदर्शन है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि परिचालन अनुपात में यह सुधार किस कीमत पर हो रहा है ? क्या मुनाफे के लिए यात्रियों की सुरक्षा को दांव पर लगाया जा रहा है? हालांकि जब हर ओर लालू प्रसाद की जय-जयकार हो रही है, उस समय इस तरह के असुविधाजनक सवाल उठाना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन यह एक तथ्य है कि रेलवे में कारोबार बढ़ने के बावजूद कर्मचारियों की संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इस कारण पटरियों की देख-रेख से लेकर रेलवे सुरक्षा और यात्री सुविधाओं की उपेक्षा बढ़ी है।

कर्मचारियों में कमी की भरपाई इस तरह के कई कामों को निजी क्षेत्र को सौंपकर की जा रही है। लेकिन इस कारण उस काम की गुणवत्ता पर असर पड़ रहा है। यही नहीं, पिछले एक-डेढ दशक में रेलवे के आर्थिक खस्ताहाली के कारण पटरियों में बदलाव और सुधार, जर्जर पुलों के पुनर्निर्माण और नई सुरक्षा प्रणालियों पर बहुत मामूली निवेश किया गया है। इसी तरह, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए जिस तेजी से रेलवे के नेटवर्क में बढ़ोत्तरी और उसका आधुनिकीकरण जरूरी था, उसकी भी उपेक्षा हुई है। इस कारण यात्रियों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी रेलवे की जर्जर हालत की कीमत चुकानी पड रही है।

अफसोस की बात यह है कि बड़े-बड़े दावों और भारी मुनाफे के बावजूद लालू प्रसाद का चौथा रेल बजट भी इस स्थिति को बदलने की बड़ी पहल करने से चूक गया है। हालांकि उन्होंने लगभग 31 हजार करोड़ रूपये की वार्षिक योजना की घोषणा की है लेकिन रेलवे के सामने जिस तरह की चुनौती है, उसे देखते हुए यह रकम भी बहुत छोटी दिखाई पड़ती है। यही नहीं, इसमें से सिर्फ 7,611 करोड़ रूपये ही सामान्य राजाकोष से आएगा बाकी 17,323 करोड़ रूपये आंतरिक संसाधनों से और 5,740 करोड़ रूपये गैर बजटीय संसाधन के रूप में जुटाने में रेलवे कहां तक कामयाब हो पाएगा, यह देखना अभी बाकी है।

कुल मिलाकर यह रेल बजट दूरदृष्टि का परिचय देने के बजाय निकटदृष्टि दोष का शिकार दिखता है। लालू प्रसाद रेलवे के स्वास्थ्य में सुधार के बजाय उसे दुधारू गाय समझकर जिस तरह से दूह रहे हैं, उससे तात्कालिक तौर पर उनकी जितनी वाह-वाही हो रही हो लेकिन दूरगामी तौर पर आम लोगों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

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