सोमवार, नवंबर 12, 2007

कारपोरेट खेती के खतरे...

भारतीय कृषि गहरे संकट से गुजर रही है। इस तथ्य को अब आर्थिक सुधारों के रचनाकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी स्वीकार कर रहे हैं। एक मायने में यह स्वीकारोक्ति कृषि क्षेत्र के मामले में आर्थिक उदारीकरण की विफलता को भी स्वीकार करना है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण न सिर्फ कृषि क्षेत्र को बाइपास करके आगे बढ़ रहा हैं बल्कि उदारीकरण की सबसे तगड़ी मार भी कृषि क्षेत्र को ही झेलनी पड़ रही है। लाखों किसानों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है।

लेकिन हजारों-लाखों किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद पहले एनडीए और अब यूपीए सरकार कृषि क्षेत्र के प्रति अपने रवैये को बदलने और उदारीकरण के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। कृषि संकट से निपटने के लिए वही उपाय सुझाए और आजमाए जा रहे हैं जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ और गहराया है। पूर्ववर्ती एनडीएसरकार की तरह मनमोहन सिंह सरकार भी कृषि संकट का हल कृषि के कारपोरेटीकरण यानी कृषि क्षेत्र में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश का रास्ता खोलने में देख रही है।

एक तरह से यूपीए सरकार ने मान लिया है कि कृषि संकट से निपटना उसके वश का नहीं है और न ही यह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के अनुकूल है। ध्यान रहे कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप और सक्रिय भूमिका की विरोधी रही है। असल में, कृषि क्षेत्र का मौजूदा संकट बहुत हद तक नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत उठाए गए कदमों जैसे कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश में भारी कटौती, सब्सिडी में कमी के नाम पर उर्वरकों, बिजली, बीज, कीटनाशकों आदि की कीमतों में वृद्धि और डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत घरेलू बाजार को सस्ते कृषि उत्पादों के लिए खोलने आदि के कारण पैदा हुआ है।

लेकिन कृषि क्षेत्र के संकट और किसानों की बढ़ती बदहाली को लेकर आंसू बहानेवाली यूपीए सरकार नव उदारवादी कृषि नीतियों से पीछे हटने या उसे पलटने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे वह इन नीतियों को उनकी तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए कृषि क्षेत्र को कारपोरेट क्षेत्र के हवाले करने की तैयारी कर रही है। यूपीए सरकार की समझ यह है कि भारतीय कृषि को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्द्धा में टिकने के लिए कॉरपोरेट कृषि ही एकमात्र रास्ता है क्योंकि कृषि में बड़ी पूंजी, तकनीक, आधुनिक बीज, खाद, संग्रहण, प्रसस्करण, बाजार तक पहुंचाने आदि का काम उसी के जरिए हो सकता है।

मनमोहन सिंह सरकार यह मान चुकी है कि छोटे और मंझोले किसानों के पास न तो उतना संसाधन और सामर्थ्य है कि वे अपने बलबूते कृर्षि उत्पादन बढ़ा सकें और न ही उनमें अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाजार में प्रतियोगिता करने की क्षमता है। यही नहीं, यूपीए सरकार छोटे और मंझोले किसानों को कृषि क्षेत्र में आर्थिक सुधारों को लागू करने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा मानती है। इसलिए वह छोटे और मंझोले किसानों की कीमत पर कृषि क्षेत्र में बड़ी पूंजी यानी कारपोरेट क्षेत्र को प्रोत्साहित कर रही है। केंद्र ने इसके लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) का एक मॉडल कानून बनाकर राज्य सरकारों को भेजा और उन्हें अपने यहां लागू करने के लिए बाध्य किया। भूमि हदबंदी कानून में कानून में ढील दी गयी ताकि बड़े कारपोरेट फार्म स्थापित करने में दिक्कत न आए।

इसी के तहत ठेका कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। ठेका कृषि में छोटी-बड़ी कंपनियां किसानों से अनुबंध पर किसी खास उत्पाद (विशेषकर व्यावसायिक कृषि उत्पादों) की खेती करवा रही हैं और उसकी उपज खरीदने का वायदा कर रही हैं, बशर्ते वह गुणवत्ता और अन्य शर्तों पर खरा उतरे। असल में, बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से ठेका खेती को तरजीह दी है जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें इसमें कोई जोखिम नहीं है और ठेके पर खेती करनेवाले किसान को सारा जोखिम उठाना पड़ता है।

ठेका कृषि में सारी जिम्मेदारी और जवाबदेही किसान की होती है कि वह निश्चित समय और गुणवत्ता के साथ संबंधित उत्पाद एक पूर्व निश्चित कीमत पर उपलब्ध कराएगा। लेकिन खराब मौसम, कीड़ों की मार या किसी अन्रू कारण से फसल खराब होगयी या उसकी गुणवत्ता पर असर पड़ा तो कंपनी वह माल खरीदने से इंकार कर सकती है। उस स्थिति में सारा घाटा किसान का होगा। यह किसी काल्पनिक स्थिति का ब्यौरा नहीं है बल्कि पंजा से लेकर आंध्र प्रदेश तक में टमाटर, मटर से लेकर कपास की ठेका खेती करनेवाले हजारों किसानों का कड़वा अनुभव है। ऐसे सैकड़ों मामले सामने आए हैं जिसमें पेप्सिको (पेप्सी की अनुषांगिक कंपनी) से लेकर छोटी-बड़ी दर्जनों देशी-विदेशी कंपनियों ने इस या उस बहाने किसानों के साथ किए गए करार को माने से इंकार कर दिया है।

उस स्थिति में मजबूर किसानों को अपना माल औने-पौने दामों पर स्थानीय मंडी में बेचना और भारी घाटा उठाना पड़ा है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब किसी कंपनी ने ये देखकर करार तोड़ दिया है कि खरीद के समय स्थानीय मंडी में उस उत्पाद का भाव ठेके में तय भाव से कम था। आमतौर पर कंपनियां यह बहाना बनाती हैं कि फसल उस गुणवत्ता की नहीं है जो अनुबंध में तय हुई थी। उसके बाद वेवही माल बिचौलियों के जरिए स्थानीय मंडी से या कम कीमत पर किसान से खरीद लेती हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि कंपनियों के मुकाबले किसान की मोलतोल (बारगेन) की क्षमता न के बराबर है। किसानों की कहीं सुनवाई भी नहीं होती है क्योंकि अभी तक ठेका कृषि में अनुबंध को लेकर विवाद होने पर उसके निस्तारण की कोई न्यायपूर्ण, सक्षम और तीव्र व्यवस्था तो दूर कोई व्यवस्था ही नहीं है। वैसे भी किसान कंपनियों से कानूनी तौर पर लड़ने में सक्षम नहीं हैं।

जाहिर है कि किसानों को पूरी तरह से कंपनियों की दया पर छोड़ दिया गया है। ऐसा नहीं है कि कुछ मामलों में ठेका खेती से किसानों को लाभ नहीं हुआ है। लेकिन ऐसे मामले बहुत कम हैं और किसानों को ठेका खेती के लिए लुभाने के लिए उनका खूब प्रचार किया जाता है। यह सही है कि कृषि संकट की मार झेल रहे किसान कंपनियों की ओर से किए जा रहे लुभावने वायदों के कारण इस ओर आकर्षित भी हो रहे हैं। उनके पास विकल्प भी नहीं हैं। फिर वे कंपनियों के ट्रैप में फंस जा रहे हैं। कंपनियों की तिकड़म और मनमानी के आगे उनका कोई वश नहीं चलता और सरकार तथा स्थानीय प्रशासन भी उनकी मदद में आगे नहीं आते।

आश्चर्य नहीं कि देश के कई बड़े कारपोरेट समूहों जैसे रिलायंस, भारती, टाटा, महिन्द्रा, आइटीसी आदि के साथ-साथ कई क्षेत्रीय स्तर की छोटी-बड़ी कंपनियां भी ठेका खेती में कूद पड़ी हैं। इस प्रक्रिया को खुदरा व्यापार में बडी देशी-विदेशी कंपनियों के जोरशोर से प्रवेश से और बल मिला है। रिलायंस, भारती (वाल मार्ट) और आइटीसी तो बड़े पैमाने पर कारपोरेट कृषि और ठेका खेती के क्षेत्र में घुसने की तैयारी कर रही है। यूपीए सरकार न सिर्फ इसे प्रोत्साहित कर रही है बल्कि अपनी उपलब्धि के बतौर देख रही है। लेकिन वह अति उत्साह और जल्दबाजी में कारपोरेट कृषि और ठेका खेती के नतीजों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं है।

हकीकत यह है कि ठेका खेती और कृषि का कारपोरेटीकरण कृषि संकट को हल करने के बजाय और बढ़ाएगा। इससे बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और कुछ धनी किसानों को तो  लाभ होगा लेकिन करोड़ों सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाएगा। खासकर सीमांत और छोटे किसानों का तो पूरी तरह से सफाया हो जाएगा क्योंकि बड़ी कंपनियां सीमांत और छोटे किसानों से लाखों की संख्या मं अनुबंध करने के बजाय कुछ बड़े किसानों से अनुबंध करना पसंद करती हैं। इस कारण पंजाब  जैसे  राज्योंमें उल्टी बंटाईदारी (रिवर्स टीनेंसी) की व्यवस्था शुरू हो गई है जिसके तहत बड़े किसानों कंपनियों के दबाव मंे अपने कृषि रकबे को और बड़ा करने के लिए सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों की जमीन बंटाई पर ले ले रहे हैं। इस तरह बड़ी संख्या में सीमांत, छोटे और मंझोले किसान खेती से बाहर हो रहे हैं और कृषि या औद्योगिक मजदूर बनने को विवश हैं।

असल में, यह कृषि के कारपोरेटीकरण यानी पूंजीवादी कृषि का सहज और स्वाभाविक तर्क है कि कृषि जोत बड़ी से बड़ी हो ताकि कृषि का मशीनीकरण, लागत खर्च में कमी और 'इकॉनामी ऑफ स्केल` का अर्थशास्त्र लागू हो सके। यह भारतीय कृषि से सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों को बाहर किए बिना संभव नहीं है। लेकिन यह खुद में कितने बड़े संकट को निमंत्रण है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000-01 में छोटे किसान (2 हेक्टेयर से कम जमीनवाले) कुल ऑपरेशन जोतों के 81 प्रतिशत के स्वामी थे और अनुमान है कि 2010-11 तक छोटी जोतों की यह संख्या कुल जोतों की 83 प्रतिशत हो जाएगी। ये जोतें कुल जोतों के क्षेत्रफल की 39 फीसदी से बढ़कर 45 फीसदी हो जाएंगी।

कृषि अर्थव्यवस्था में छोटे किसानों के महत्व का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का 41 प्रतिशत उत्पादन छोटी जोतों से ही होता है। यही नहीं वे देश के कुल फल और सब्जी उत्पादन का आधा से अधिक पैदा करते हैं। तमाम समस्याओं और बाधाओं के बावजूद छोटे और सीमांत किसानों की उत्पादन बड़ी जोतों से कम नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि कृषि क्षेत्र देश के 60 फीसदी से अधिक श्रमशक्ति को रोजगार देता  है। जाहिर है कि इनमें तीन चौथाई से अधिक छोटे, सीमांत और मंझोले किसान या भूमिहीन मजदूर हैं जो अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं।

कारपोरेट खेती इन करोड़ों किसानों की आजीविका के लिए एक बड़ा खतरा है। इसमें उनके लिए कोई जगह नहीं है और बड़े फार्मों में भूमिहीन मजदूरों की जरूरत भी बहुत कम हो जाएगी क्योंकि कारपोरेट खेती में श्रम के बजाय पूंजी और तकनीक की भूमिका ज्यादा होती है। खासकर भूमिहीन मजदूरों के लिए कृषि का कारपोरेटीकरण जीवन-मरण का मुद्दा है। ध्यान रहे कि कुल ग्रामीण परिवारों में 42 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं और उनकी आर्थिक स्थिति सबसे दयनीय है। हालांकि वे पहले भी कृषि मजदूर थे और आगे भी रहेंगे लेकिन कारपोरेट खेती में उतने मजदूरों की जरूरत नहीं रह जाएगी। जिन्हें काम  मिलेगा, उनमें महिलाएं, बुजुर्ग और किशोर नहीं होंगे क्योंकि वयस्क पुरूषों की तादाद ही काफी होगी। इस तरह खेतिहर मजदूरों के  पास गांव छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाएगा।

साफ है कि कृषि क्षेत्र के कारपोरेटीकरण से ग्रामीण क्षेत्रों में जबरदस्त विस्थापन होगा। करोड़ों किसान और खेतिहर मजदूर अपनी जमीन से उखड़ जाएंगे क्योंकि कारपोरेट खेती के विस्तार के साथ छोटे किसानों के लिए उनके साथ प्रतियोगिता करना संभव नहीं रह जाएगा। क्या यूपीए सरकार इस ग्रामीण विस्थापन से निपटने के लिए तैयार है जो एक बड़ी मानवीय त्रासदी का रूप ले सकती हैं ? जाहिर है कि सरकार इसके लिए कतई तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि नीति नियंताओं ने इस भवितव्य  को  मान लिया है कि मौजूदा कृषि संकट से  बाहर निकलने और आर्थिक उदारीकरण को कृषि क्षेत्र तक ले जाने के लिए यह कीमत चुकानी ही पड़ेगी। आखिर 10 फीसदी की विकास दर हासिल करने के लिए कृषि क्षेत्र को सालाना औसतन 4 फीसदी की विकासदर तक पहुंचना ही होगा और मौजूदा विकास मॉडल में यह कारपोरेट कृषि के बिना संभव नहीं है।

सरकार ने विकल्प चुन लिया है। उसने कृषि के कारपोरेटीकरण की राह पकड़ ली है। अब गेंद छोटे, सीमांत, मंझोले किसानों और भूमिहीन मजदूरों के पाले में है। उन्हें अपना विकल्प चुनना है।

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