मंगलवार, अगस्त 11, 2009

मीडिया के नियमन से डर क्यों?

आनंद प्रधान

मीडिया के नियमन (रेग्यूलेशन) का मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया है। ’सच का सामना’ को लेकर संसद में हुई तीखी बहस के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने वायदा किया है कि यूपीए सरकार अगले सात सप्ताहों में मीडिया के नियमन को लेकर एक मसौदा प्रस्ताव देश के सामने बहस के लिए पेश करेगी। लेकिन दूसरी ओर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘सच का सामना’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग करनेवाली जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा है कि जिन्हें ऐसे कार्यक्रम पसंद नही हैं, वे रिमोट का इस्तेमाल करके ऐसे चैनल और कार्यक्रम बदल दें। इसके साथ ही, मीडिया के नियमन के मसले पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है।

जाहिर है कि मीडिया खासकर उसकी अंतर्वस्तु (कंटेंट) के नियमन की यह बहस नयी नही है। पिछले कई वर्षों से यह बहस चल रही है। यह भी सच है कि इस मुद्दे पर देश में एक राय नहीं है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि मीडिया खासकर उसके कंटेंट के नियमन और वह भी सरकारी नियमन को लेकर बिलकुल सहमति नही है। तथ्य यह है कि कोई दो साल इन्ही दिनों यूपीए सरकार ने मीडिया के नियमन के लिए भारतीय प्रसारण नियामक प्राधिकरण (बीआरएआई) के गठन का प्रस्ताव रखते हुए उसका मसौदा जारी किया था। वह मसौदा प्रस्ताव आज भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की वेबसाइट पर ‘व्हाट इज न्यू’ के तहत पड़ा हुआ है। लेकिन इस मसौदे का प्रसारकों और नागरिक समाज ने कड़ा विरोध किया, जिसके कारण सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये थे।

इसी तरह, समाचार मीडिया के नियमन का मुद्दा भी जब-तब उछलता रहता है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मौके आए, जब समाज के अलग-अलग हिस्सों से समाचार मीडिया के नियमन की मांग जोर-शोर से उठी। इसके बावजूद सच यह है कि समाचार मीडिया के नियमन को लेकर अब भी गहरे मतभेद बने हुए हैं। मुम्बई में 26/11 के आतंकवादी हमलों की रिपोर्टिेग को लेकर उठे सवालों के बाद समाचार मीडिया के नियमन की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी थी लेकिन सरकार और समाचार चैनलों के बीच बातचीत के बाद यह सहमति बनी कि समाचार चैनल खुद को आत्मनियमन (सेल्फ रेग्यूलेशन) के जरिये संचालित करेंगे। इसके लिए समाचार चैनलों ने अपने एक संगठन-न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन का गठन किया है और एक शिकायत निवारण और नियमन समिति का भी बनाई है।

लेकिन अनुभव यह बता रहा है कि टीवी चैनल और उसमें भी खासकर समाचार चैनलों में वायदे के बावजूद आत्मनियमन की व्यवस्था काम नही कर रही है। समाचार चैनलों के मामले में खुद अपने द्वारा बनायी गई व्यवस्था को इंडिया टीवी ने जिस तरह से चुनौती दी, उससे यह स्पष्ट हो गया कि मौजूदा गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में आत्मनियमन बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं चलनेवाला है। इसी तरह से मनोरंजन चैनलों के मामले में भी यह साफ दिख रहा है कि बढ़ती प्रतियोगिता के साथ किसी तरह का कोई नियमन काम नही कर रहा है। असल में, भारत ही नही दुनिया भर का अनुभव बताता है कि खुली प्रतियोगिता में अगर कोई अम्पायर या रेफरी न हो तो कोई नियमन काम नही करता है।

यही कारण है कि दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया के नियमन के लिए अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएं काम कर रही हैं। ऐसा शायद ही कोई देश होगा जहां मीडिया के नियमन की कोई व्यवस्था न हो। इसलिए अब इस मांग का कोई औचित्य नहीं रह गया है कि देश में मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियमन की जरूरत नही है। सच यह है कि आज भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियमन का काम दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) कर रहा है। लेकिन उसे कंटेंट के नियमन का अधिकार नही है। यह अधिकार अब भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास है जो जब-तब चैनलों को नोटिस आदि भेजता रहता है। कुछ मामलों में चैनलों के खिलाफ मंत्रालय ने कार्रवाई भी की है।

ऐसे में, सच पूछिए तो इस तरह के सरकारी नियंत्रण से डरने की जरूरत है। यह नियंत्रण कहीं ज्यादा खतरनाक है। इसके बजाय इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए नियमन की एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था का गठन कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प होगा। निश्चय ही, इस तरह की किसी संस्था को सरकारी नियंत्रण से न सिर्फ बाहर रखा जाना चाहिए बल्कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह वास्तव में, सरकार और निजी क्षेत्र दोनों के दबावों से पूरी तरह से मुक्त हो। यह चैनलों के साथ-साथ दर्शकों और पूरे समाज के हित मंे होगा। इससे डरने के बजाय इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

शुक्रवार, अगस्त 07, 2009

राष्ट्रीय हितों का सौदा करके सरकार को याद आई राष्ट्रीय संपत्ति की

आनंद प्रधान

कृष्णा-गोदावरी बेसिन गैस को लेकर दोनों अंबानी भाइयों मुकेश अंबानी की रिलायंस इंड्रस्ट्रीज ( आरआईएल) और अनिल अंबानी की रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेस ( आरएनआरएल) के बीच छिडा़ कॉरपोरेट युद्ध दिन पर दिन गहराता और तीखा होता जा रहा है। इस विवाद का दायरा फैलता हुआ संसद से सड़क तक पहुंच चुका है। यहां तक कि इस विवाद के लपेटे में पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा और अब मनमोहन सिंह सरकार भी आ गई है। इस विवाद का फैसला अब सुप्रीम कोर्ट को करना है, जहां 1 सितंबर को सुनवाई तय है। ध्यान रहे कि इससे पहले मुंबई हाई कोर्ट ने इस विवाद में छोटे भाई अनिल अंबानी के हक में फैसला सुनाया था, जिसे मुकेश अंबानी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है।

दूसरी ओर, लंबी नींद से जागने के बाद इस विवाद को दूर खडे़ देऱ रही मनमोहन सिंह सरकार भी अब मैदाने-जंग में कूद पड़ी है। इस पूरे विवाद में अनिल अंबानी की ओर से लगाए गए पक्षपात के आरोपों को झेल रहे पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने संसद में और उससे बाहर भी ऐलान किया है कि कृष्णा-गोदावरी ( केजी) बेसिन की गैस दोनों भाइयों की निजी संपत्ति नहीं बल्कि राष्ट्रीय संपत्ति है। उन्होंने यह भी सफाई दी है कि इस विवाद में सरकार दोनों भाइयों में से किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं कर रही है। लेकिन सरकार अपने हितों की रक्षा के लिए कटिबद्ध है।

कहना पड़ेगा कि देर से ही सही, यूपीए सरकार को यह एहसास हुआ है कि केजी बेसिन की गैस राष्ट्रीय संपत्ति है। अन्यथा पिछले कुछ महीनों से सरकार हाथ पर हाथ धरे इंतजार करती रही कि दोनों भाइयों के बीच का विवाद आपसी सहमति से सुलझ जाए। लेकिन जब दोनों भाइयों के बीच विवाद बढ़ता हुआ इस स्थिति तक पहुंच गया कि उसकी गर्मी से सरकार भी नहीं बच। पाई तो मजबूरी में पेट्रोलियम मंत्री को यह कहने का कष्ट उठाना पड़ा कि केजी बेसिन की गैस राष्ट्रीय संपत्ति है।

सच यह है कि अब तक सरकार का रवैया इसके ठीक उलट था। पिछले चार बरसों से सरकार का रवैया यह था कि यह विवाद दो भाइयों के बीच का आपसी विवाद है, जिससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन जब मुंबई हाई कोर्ट ने अनिल अंबानी के पक्ष में फैसला दे दिया तो सरकार की नींद खुली। इसके पीछे भी वजह सरकार के हितों की रक्षा नहीं, बल्कि इस विवाद में एक पक्ष- मुकेश अंबानी के हितों की रक्षा करना था। इस मामले में अनिल अंबानी के आरोपों में काफी हद तक दम है कि गैस को लेकर छिडे़ विवाद में यूपीए सरकार, खासकर पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा मुकेश का पक्ष ले रहे हैं।

असल में, यह कॉरपोरेट युद्ध इतने स्तरों पर लडा़ जा रहा है कि उसकी तमाम परतों को समझे बिना यह तय कर पाना मुश्किल है कि इस विवाद में किसका पक्ष ज्यादा न्यायसंगत है? इसके लिए इस पूरे विवाद को समझना बहुत जरूरी है। प्रकरण की शुरुआत वर्ष 2000 में नई एक्सप्लोरेशन पॉलिसी के तहत आंध्र प्रदेश के कृष्णा-गोदावरी बेसिन के डी-6 ब्लॉक में मिले गैस भंडारों से गैस निकालने का ठेका रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) को मिलने से हुई। लेकिन 2005 में दोनों अंबानी भाइयों के बीच बंटवारे के बाद एक आपसी समझौते के तहत यह तय हुआ था कि केजी बेसिन से जो गैस निकाली जाएगी, उसमें से प्रतिदिन 28 मिलियन मीट्रिक स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर्स गैस ( एमएमएससीएमडी) अनिल अंबानी की रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेस लिमिटेड ( आरएनआरएल) को दी जाएगी। इसी तरह एनटीपीसी को प्रतिदिन 12 एमएमएससीएमडी गैस की आपूर्ति की जाएगी। इसके बाद बची गैस में से 60:40 के अनुपात में 60 फीसदी गैस मुकेश की आरआईएल और 40 फीसदी अनिल की आरएनआऱएल को दी जाएगी। इस गैस की कीमत 2।34 डॉलर प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट (एमबीटीयू) तय की गई थी।

यह कीमत इस आधार पर तय की गई थी कि जून 2004 में आरआईएल ने एक अंतर्राष्ट्रीय निविदा के तहत एनटीपीसी के साथ इसी दर पर गैस मुहैया कराने का करार किया था। इस करार के तहत आरआईएल ने वायदा किया था कि वह इस दर पर एनटीपीसी को अगले 17 बरसों तक 12 एमएमएससीएमडी गैस उपलब्ध कराएगी। लेकिन बाद में आरआईएल ने गैस की कीमत बढ़ाने की मांग की। इसके लिए उसने तर्क दिया कि तेल की खोज और उसे निकालने के काम में आने वाली लागत बढ़ गई है। उसने गैस की कीमत बढ़ाने की मांग करते हुए एनटीपीसी के साथ गैस की खरीद-बिक्री समझौता करने को लेकर टालमटोल करना शुरू कर दिया। एनटीपीसी ने पहले कई स्तरों पर मामले को सुलझाने की कोशिश की, जिसे खुद यूपीए सरकार के ऊर्जा मंत्री ने स्वीकार किया है।

लेकिन जब आरआईएल ने समझौते पर दस्तखत नहीं किए तो मजबूर होकर एनटीपीसी को कोर्ट की शरण लेनी पड़ी। वह मामला अभी भी मुंबई हाईकोर्ट के विचाराधीन है। उस समय यूपीए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनटीपीसी का साथ देने और सार्वजनिक हितों के हक में काम करने के बजाय आरआईएल के दबाव में गैस की कीमतों को तय करने का पूरा मामला पहले केंद्र सरकार के सचिवों की एक उच्चस्तरीय समिति को और बाद में प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाली मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति को सौंप दिया। इस समिति ने 12 सितंबर 2007 को मनमाने तरीके से आरआईएल के हक में गैस की कीमतें 4।2 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू तय कर दी।

हैरत की बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनी ओएनजीसी एनटीपीसी को 1।8 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू की दर से गैस आपूर्ति कर रही है। इस तरह सरकार ने एक झटके में गैस की कीमतें लगभग साढ़े तीन गुना बढ़ा दीं। लेकिन दूसरी ओर, अनिल अंबानी की आरएनआरएल ने मुकेश पर यह दबाव बनाए रखा कि उनके दादरी बिजली संयंत्र के लिए 2005 में हुए पारिवारिक समझौते के तहत तय कीमतों पर ही गैस दी जाए। आरएनआरएल ने इस मुद्दे पर मुंबई हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कोर्ट ने हाल ही में अनिल के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसके बाद से विवाद समाप्त होने के बजाय और बढ़ गया है।

अब यूपीए सरकार कह रही है कि केजी बेसिन की गैस राष्ट्रीय संपत्ति है। लेकिन सवाल यह है कि यह बात उसे तब क्यों याद नहीं आई, जब आरआईएल एनटीपीसी के साथ समझौते के बावजूद निर्धारित दरों पर गैस देने से मुकर गई। निश्चय ही इससे एनटीपीसी के 2700 मेगावॉट के कवास और गंधार बिजली संयंत्रों की प्रगति पर असर पड़ा है। अनिल अंबानी के इन आरोपों में भी दम है कि गैस की बढ़ी कीमतों के कारण एनटीपीसी को 20-30 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ सकता है। मुकेश के साथ जारी झगड़े के कारण ही सही अनिल ने केजी बेसिन गैस की कीमतों को लेकर कई ऐसे सवाल उठाए हैं, जो अगर यह कॉरपोरेट युद्ध नहीं छिड़ता तो गोपनीय फाइलों में बंद रह जाते। उस स्थिति में शायद ही मुरली देवड़ा को याद आता कि केजी बेसिन की गैस राष्ट्रीय संपत्ति है।

लेकिन सवाल यह भी है कि अनिल अंबानी को ये बातें अभी ही क्यों याद आ रही हैं? जब उनके अपने व्यावसायिक हितों पर चोट पहुंची तो उन्हें सार्वजनिक हितों की भी चिंता सताने लगी। दूसरी ओर, मुकेश अंबानी सरकार की आड़ लेकर इस समय राष्ट्रीय हितों के सबसे बड़े रक्षक बन गए हैं। सच यह है कि इस पूरे मामले में चाहे अनिल हों या मुकेश या फिर यूपीए सरकार, किसी को भी राष्ट्रीय हितों की कोई परवाह नहीं है। इस पूरे प्रकरण से यह सचाई भी खुलकर सामने आ गई है कि गैस और उस जैसे अन्य कीमती खनिजों के प्रबंधन में सरकार किस कदर नाकाम साबित हुई है।

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि संविधान की धारा 297 के तहत केजी बेसिन की गैस राष्ट्रीय संपत्ति है और राष्ट्रीय हित इसी में है कि इसे दो भाइयों की निजी संपत्ति न बनने दिया जाए। लेकिन सवाल यह है कि यह मोटी बात सरकार को इतनी देर से क्यों समझ में आई? यही नहीं, इस राष्ट्रीय संपत्ति को सार्वजनिक हितों को ताक पर रखते हुए जिस तरह से इस या उस औद्योगिक घराने को अरबों रुपयों का मुनाफा कमाने का माध्यम बना दिया गया है, वह इस कॉरपोरेट युद्ध के कारण खुलकर पूरे देश के सामने आ गया है। अगर सरकार को राष्ट्रीय संपत्ति की इतनी ही चिंता है तो वह केजी बेसिन को अधिग्रहीत क्यों नहीं कर लेती है?