सोमवार, नवंबर 12, 2007

अरबपतियों और करोड़पतियों पर मेहरबान लक्ष्मी

इस दीपावली पर ऐसा लगता है कि लक्ष्मी देश पर पूरी तरह से मेहरबान हो गई हैं। शेयर बाजार का सेंसेक्स रोज नई उचाईंयां छू रहा है। अर्थव्यवस्था की विकास दर नौ फीसदी से ऊपर चल रही है। निर्यात तेजी से बढ़ रहा है। देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 150 अरब डॉलर से अधिक की रिकॉर्ड विदेशी मुद्रा जमा हो गई है। इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि डॉलर के मुकाबले रूपए की कीमत लगातार बढ़ रही है।

दूसरी ओर, शॉपिंग मॉल देशी-विदेशी ब्रांडेड सामानों से भरे पड़े हैं और बाजार में खरीददार एक-दूसरे के कंधे छील रहे हैं। गुलाबी अखबारों में रोज भारत की आर्थिक कामयाबी की शानदार कहानियां छप रही हैं। अखबारों और आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की प्रगति की यही रफ्तार बनी रही तो अगले कुछ वर्षों में लोग यह भूल जाएंगे कि भारत एक गरीब देश है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि लक्ष्मी सचमुच भारत पर मेहरबान हो गई हैं और हमारी दरिद्रता अब अतीत की बात हो गई है?

काश यह बात सच होती। यह सच है कि भारत में न जाने कितनी शताब्दियों से लक्ष्मी की पूजा होती आई है। लेकिन हकीकत में वह अपने करोड़ों भारतवासी भक्तों पर कभी मेहरबान नहीं हुईं। अलबत्ता मुट्ठी भर भारतीयों पर उनकी उदारता हमेशा से बनी रही है। बचपन में अपने गांव में हम बच्चे अपने घर के बड़ों के साथ दीपावली की अगली सुबह मुंह अंधेरे सूप बजाते हुए घर के कमरे-कमरे में ``अइसर-पइसर दरिदर निकसे, लछमी घरवास हो`` कहते जाते और दरिदर को घर से खदेड़ने की कोशिश करते। जाहिर है कि यह सिर्फ मेरे गांव तक सीमित प्रथा नहीं थी। देश के अधिकांश गांवों में आज भी लक्ष्मी पूजा की यह या कोई और दूसरी रिवायत जारी है।

लेकिन अफसोस की बात यह है कि दरिद्रता को हटाने की हर प्रार्थना को लक्ष्मी ने लगभग अनसुना कर दिया है। हमारे गांवों पर लक्ष्मी की अब तक वैसी कृपा नहीं हुई है, जैसी उन्होंने देश के बड़े शहरों पर दिखाई है। इस बीच यह भी सच है कि लक्ष्मी का खुद का रूप बहुत बदल गया है। अमीरों के साथ रहते-रहते उनके चरित्र में भी ऐसा बदलाव आया है कि वे गांवों और गरीबों की झोपड़ियों से बिलकुल मुंह मोड़ चुकी हैं। यही नहीं उनका रंग भी कुछ और काला पड़ गया है।

दोहराने की जरूरत नहीं है कि उदारीकरण के पिछले दो दशकों में देश में जबरदस्त आर्थिक समृद्धि आई है। लेकिन इस समृद्धि का समुचित बंटवारा नहीं हुआ है। अमीर और अमीर हुए हैं और गरीब और गरीब। दरअसल, अगर हम उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को मिथकीय सागर मंथन से जोड़कर देखें तो एक बार फिर उदारीकरण और भूमंडलीकरण के सागर मंथन से जो भी रत्न और अमृत निकला है उसे आज के देवता यानी अमीर हड़प ले रहे हैं। जबकि इस सागर मंथन से निकला विष गरीबों के हिस्से आया है।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की सालाना मानव विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार भारत में आर्थिक विषमता और गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के सबसे गरीब दस प्रतिशत लोगों को देश की कुल आय में सिर्फ 3.9 फीसदी हिस्सा मिलता है। लेकिन दूसरी ओर देश के सर्वाधिक अमीर दस प्रतिशत आबादी की झोली में देश की कुल आय का 28.5 प्रतिशत हिस्सा चला जाता है। इसी तरह देश की सर्वाधिक गरीब 20 प्रतिशत आबादी को देश की कुल आय में से सिर्फ 8.9 फीसदी में अपना काम चलाना पड़ता है जबकि देश की सर्वाधिक अमीर 20 प्रतिशत आबादी देश की की कुल आय का  43.3 प्रतिशत हिस्सा ले उड़ती है।

साफ है कि लक्ष्मी किन लोगों पर मेहरबान हैं। गांधी जी ने आजादी की लड़ाई के दौरान वॉयसराय को मिलने वाली तनख्वाह पर यह कहते हुए सवाल उठाया था कि एक आम भारतीय की तुलना में वॉयसराय की आमदनी पांच हजार गुना अधिक कैसे हो सकती है? लेकिन आजाद भारत में एक आम भारतीय और एक सबसे अमीर भारतीय की आमदनी के बीच का यह फर्क लगातार बढ़ता जा रहा है। आज गांधीजी होते तो यह कहना मुश्किल है कि वे इन खबरों पर किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करते कि आज भारत में एक आम आदमी की आय और सबसे अमीर आदमी की आय के बीच नब्बे लाख गुने का अंतर आ चुका है।

सच पूछिए तो लक्ष्मी की वास्तविक कृपा इस देश के अरबपतियों और करोड़पतियों पर हुई है। गुलाबी अखबारों में आए दिन भारत के अरबपतियों और करोड़पतियों की बढती तादाद पर खबरें छपती रहती हैं। अरबपतियों और करोड़पतियों की बढ़ती संख्या और उसकी वृद्धिदर के मामले में भारत एशिया के तमाम देशों को पीछे छोड़ चुका है। उनकी संख्या हर साल अर्थव्यवस्था की विकास दर से भी दोगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। लेकिन यूएनडीपी का कहना है कि अरबपतियों और करोड़पतियों के साथ देश में गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। देश की लगभग 80 फीसदी आबादी आज भी प्रतिदिन 2 डॉलर से कम की आय पर अपना जीवन निर्वाह कर रही है।

असल में, अरबपतियों और करोड़पतियों के घरों में लक्ष्मी बरस रही हैं। यह आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण सभव हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1987-88 से 1999-2000 के बीच देश के सबसे अमीर 0.1 प्रतिशत हिस्से की आय में 285 फीसदी की वृद्धि हुई है और वह सालाना लगभग 1,60,000  डॉलर प्रति व्यक्ति तक पहुंच गई है। पिछले पांच वर्षों में यह प्रक्रिया और सघन हुई है। शेयर बाजार से लेकर कमोडिटी बाजार तक जो बूम दिखाई पड़ रहा है, उसका लाभ कुल आबादी के मुश्किल से चार से पांच फीसदी लोगों को मिला है। उनके लिए यह दीवाली है लेकिन बाकी लोगों के लिए यह दीवाला है।
 
इसे देखकर ऐसा लगता है कि लक्ष्मी अमीरों के घरों में कैद हो गई हैं। इस लक्ष्मी का रंग काला है। यह तथ्य है कि देश में काले धन में लगातार वृद्धि हो रही है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण और कर सुधारों के समर्थकों का दावा था कि जैसे-जैसे आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, देश में काला धन कम होता चला जाएगा। लेकिन सच यह है कि 1983 में देश में कुल काले धन का अनुमान लगभग 36,786 करोड़ रूपए का था जो आज बढ़कर लगभग 9 लाख करोड़ रूपए तक पहुंच गया है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में हर साल जीडीपी के 40 फीसदी के आसपास काला धन पैदा होता है।

यही वह काला धन है जो शॉपिंग मॉल्स में चमकता और बिखरता हुआ दिखाई पड़ता है। यह यूं ही नहीं है कि देश में अचानक दुनिया भर के सभी लक्जरी ब्रांडों के निर्माता भागे चले आ रहे हैं। लुई वितां से लेकर पोर्श कार तक दुनिया का कोई भी ऐसा लक्जरी ब्रांड नहीं है जो आज भारत में उपलब्ध नहीं है। करोड़ों रूपए के लक्जरी फ्लैट से लेकर कारों तक के खरीददारों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार पिछले साल अमीर भारतीयों ने लगभग पचास हजार करोड़ रूपए का सोना और छह हजार करोड़ रूपए के हीरे खरीदे। कहने की जरूरत नहीं है कि सोना, हीरा और दूसरे सभी लक्जरी ब्रांड्स काले धन को छुपाने और खर्चने के सबसे आसान रास्ते हैं।

निश्चय ही, इस दीपावली पर देश के बड़े महानगरों में पिछले साल की तुलना में कुछ ज्यादा रोशनी होगी और पटाखे छूटेंगे। जिनपर लक्ष्मी मेहरबान हुई हैं, उनके घरों में कुछ ज्यादा जोर-शोर से लक्ष्मी की आरती भी होगी। लेकिन उसी समय देश के एक बड़े हिस्से में जहां आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंची है और जिधर का रास्ता खुद लक्ष्मी भूल चुकी हैं, वहां अंधकार और गहरा होगा। लोगों में बेचैनी होगी। पटाखे तो नहीं लेकिन कुछ और युवाओं के हाथ में कट्टे और बम होंगे। इस तरह इस दीपावली पर एक बार फिर इंडिया और भारत के बीच का फासला थोड़ा और बड़ा हो जाएगा।

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