सोमवार, नवंबर 12, 2007

कमलनाथ की जीत, देश की हार...

मीडिया की माने तो विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) की संख्या सीमित रखने के विवाद में वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की जीत हुई है क्योंकि रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाले केन्द्रीय मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह ने वित्त मंत्रालय और वामपंथी दलों की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की कुल संख्या को एक निश्चित सीमा के भीतर रखने के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है।
 
ध्यान रहे कि यूपीए सरकार ने पहले विशेष आर्थिक क्षेत्रों की संख्या 150 के अंदर रखने का एलान किया था। लेकिन कमलनाथ के अलावा कुछ राज्य सरकारें और कारपोरेट समूह इस सीमा को हटाने के लिए दबाव बनाए हुए थे। इस मायने में निश्चय ही, कमलनाथ को कामयाबी मिली है कि मंत्रियों के समूह ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना पर अंकुश 150 के भीतर रखने से मना कर दिया है। हालांकि मंत्रियों का समूह छह महीने के भीतर या 75 विशेष आर्थिक क्षेत्रों के कामकाज शुरू कर देने के बाद इस मुद्दे की समीक्षा के लिए फिर बैठेगा लेकिन संकेत बिल्कुल साफ है कि यूपीए सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्रों की संख्या पर किसी तरह का अंकुश लगाने के पक्ष में नहीं है।
 
यह कोई मामूली फैसला नहीं है। इसके बहुत दूरगामी नतीजे होंगे। इसका अनुमान सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि निर्यात को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से स्थापित किए जानेवाले इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना के लिए लाइसेंस लेने के वास्ते कारपोरेट समूहों में होड़ लगी हुई है। सिर्फ छह महीने में यूपीए सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना के 150 प्रस्तावों को मंजूरी दे दी है और कोई 200 और प्रस्ताव मंजूरी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कमलनाथ की चली तो उन्हें भी जल्दी ही मंजूरी मिल जाएगी और अगर यही रफ्तार बनी रही तो यूपीए सरकार का कार्यकाल खत्म होते-होते करीब-करीब पूरा देश विशेष आर्थिक क्षेत्र में तब्दील हो जाएगा!

ऐसा लगता है कि जैसे कारपोरेट समूहों को विशेष आर्थिक क्षेत्र नहीं, सोने की खान मिल गयी है। कोई पीछे नहीं रहना चाहता है और बड़े कारपोरेट समूह एक साथ कई विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना का लाइसेंस हथियाने में कामयाब हुए हैं। दरअसल, विशेष आर्थिक क्षेत्र वास्तव में सोने की खान हैं और देशी-विदेशी कारपोरेट समूह जिस तरह से उनके लिए लार टपका रहे हैं, उससे साफ है कि आनेवाले दिनों में यह होड़ और बढ़ेगी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए इस आकर्षण की वैसे तो कई वजहें हैं लेकिन सबसे बड़ी और लुभावनी वजह यह है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र सभी तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से मुक्त 'टैक्स हैवन` (कर रहित स्वर्ग) हैं।

जाहिर है कि देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों में विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए इसीलिए होड़ मची हुई है। यह कोई मामूली छूट नहीं है। इसकी वास्तविक कीमत सरकारी खजाने को चुकानी पड़ेगी। राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त और नीति संस्थान (एनआइपीएफपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के कारण 2005 से 2010 के बीच केन्द्र सरकार को लगभग 97,695 करोड़ रूपये के राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा। असल में, यही वजह थी जिसके कारण वित्त मंत्री पी.चिदम्बरम विशेष आर्थिक क्षेत्रों की संख्या 150 से अधिक बढ़ाए जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ और विशेष आर्थिक क्षेत्रों की संख्या बढ़ाने के पक्षधरों का तर्क था कि राजस्व नुकसान का अनुमान काल्पनिक है और निर्यात बढ़ाने और अंतराष्ट्रीय व्यापार में प्रतियोगी बने रहने के लिए करों में छूट जरूरी है।
 
कमलनाथ का यह भी कहना है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों बढ़ने से लोगों को रोजगार मिलेगा और उनकी आय बढ़ेगी जिससे सरकार को आगे चलकर 44,000 करोड़ रुपए का राजस्व हासिल होगा।

आखिर सच्चाई क्या है ? पहली बात तो यह है कि वित्त मंत्री के विरोध पर गौर करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वह स्वयं आर्थिक उदारीकरण और सुधारों के कट्टर समर्थक हैं। कारपोरेट समूहों को छूट और रियायतें देने में वे कमलनाथ से पीछे नहीं हैं लेकिन वित्त मंत्री के बतौर उनकी बड़ी चिंता इन छूटों और वित्तीय घाटे के बीच संतुलन बनाए रखने की है। चिदम्बरम की मुश्किल यह है कि वे एफआरबीएम कानून के तहत वित्तीय घाटे को निरंतर कम करते जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन अगर विशेष आर्थिक क्षेत्रों की संख्या ऐसे ही बढ़ती रही तो राजस्व को हानेवाले नुकसान के कारण वित्तीय घाटे को काबू में रखना नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की अवधारणा का समर्थक होने के बावजूद चिदम्बरम उनही संख्या को एक सीमा में रखना चाहते हैं।

ऐसे में, यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अगर विशेष आर्थिक क्षेत्रों से कमलनाथ के कहे मुताबिक सरकारी खजाने को इतना लाभ होना है तो चिदम्बरम इसका इस तरह से विरोध करते। लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्रों को लेकर चिंताएं और आशंकाएं सिर्फ यही नहीं हैं। सरकारी राजस्व से होनेवाले नुकसान से भी बड़ी चिंताएं और आशंकाएं है जिनकी ओर कमलनाथ के साथ-साथ चिदम्बरम भी आंखें मूंदें हुए हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र देश के अंदर समृद्धि के ऐसे टापूओं के रूप में विकसित हो रहे हैं जो न सिर्फ पहले से ही बढ़ रही गैर बराबरी और क्षेत्रीय विषमता को और मजबूत और सघन करेंगे बल्कि देशी संसाधनों की कीमत पर विदेशी बाजारों और उपभोक्ताओं के लिए सस्ते उत्पाद तैयार करेंगे।

यह कोई काल्पनिक चिंता नहीं है। केन्द्र सरकार ने अब तक विशेष आर्थिक क्षेत्र के जिन 150 प्रस्तावों को मंजूरी दी है, उनमें से एक भी बिहार जैसे राज्य में नहीं है। एक तिहाई विशेष आर्थिक क्षेत्र तो केवल तीन राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनापडु में सिमटे हुए हैं। इसी तरह करीब तीन चौथाई आर्थिक क्षेत्र देश के विकसित राज्यों में स्थित हैं और गरीब व पिछड़े राज्यों में कुछ अपवादों को छोड़कर कोई कंपनी विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना के लिए तैयार नहीं है। इसका एक और खतरनाक परिणाम यह हुआ है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना के मामले में कारपोरेट समूहों को आकर्षित करने में नाकामयाब रहे गरीब और पिछड़े राज्य कारपोरेट समूहों को लुभाने के लिए और भी कई रियायतें जैसे कौड़ियों के मोल जमीन, सस्ती बिजली और पानी आदि दे रहे हैं।
 
नतीजा यह कि किसानों से कृषि योग्य उपजाऊ भूमि कौडियों के भाव छीनी जा रही है और गरीब राज्यों के कीमत संसाधन कारपोरेट समूहों को गैरजरूरी रियायतें देने में जाया हो रहे हैं। आशंका यह भी है कि कर रियायतों के लालच में विशेष आर्थिक क्षेत्रों से बाहर की औद्योगिक इकाइयां भी कहीं विशेष आर्थिक क्षेत्रों में शिफ्ट न करने लगें। हालांकि कमलनाथ का दावा है कि ऐसा नहीं होगा क्योंकि विशेष आर्थिक क्षेत्रों में केवल नई इकाइयों और निवेश को ही इजाजत दी जाएगी लेकिन अगर ऐसे दावों के इतिहास पर गौर करें तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इसका क्या हश्र होगा ?
 
कंपनियों को चोर दरवाजा खोजते देर नहीं लगती है। इसका अर्थ यह हुआ कि देश के कई हिस्सों में काम रही औद्योगिक इकाईयां धीरे-धीरे विशेष आर्थिक क्षेत्रों में शिफ्ट करने लगेंगी और नतीजे में कई क्षेत्र विऔद्योगीकरण या उद्योगों के सफाए के शिकार हो जाएंगे। नए उद्योग तो खैर नहीं ही लगेंगे और इस स्थिति को रोकने और नए उद्योगों को आकर्षित करने के लिए एक दिन पूरे देश को विशेष आर्थिक क्षेत्र घोषित करने की नौबत आ जाएगी। अन्यथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों से बाहर कौन उद्योग लगाना चाहेगा ?
 
विशेष आर्थिक क्षेत्रों के साथ एक बड़ी आशंका यह भी जुड़ी हुई है कि वे रीयल इस्टेट के केन्द्र न बन जाएं। नियमों के मुताबिक विशेष आर्थिक क्षेत्रों के मालिकों को यह छूट है कि वे आर्थिक क्षेत्र की कुल भूमि के 65 प्रतिशत हिस्से में आवासीय और अन्य सामाजिक ढांचा (स्कूल, अस्पताल, मनोरंज, पार्क होटल आदि) खड़ा कर सकते हैं और पिछड़े इलाकों में यह छूट 75 प्रतिशत जमीन के लिए है।
 
यही कारण है कि कई कारपोरेट समूह इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों को 'हॉट प्रापर्टी` की तरह देख रहे हैं। और सस्ती दरों पर जमीन हासिल कर तत्काल भारी मुनाफा कमाने का सपना उन्हें सक्रिय किए हुए हैं। लेकिन इसमें आम मध्यवर्गीय लोगों के लिए कोई जगह नहीं होगी। यह वास्तव में देश के अंदर एक 'विदेश` (यानी न्यूयार्क, लंदन, पेरिस जैसी सुख सुविधाओंवाला) होगा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अपने गोरे साहबों और व्यापार के लिए ऐसे ही इलाके विकसित किए थे। विशेष आर्थिक क्षत्रों पर उसकी छाप देखी जा सकती है। क्या अब भी कहना जरूरी है कि कमलनाथ की जीत में देश की हार है।

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