सोमवार, नवंबर 12, 2007

सातवें आसमान पर अर्थव्यवस्था...

सबसे बड़ी चुनौती है ऊंची विकास दर का लाभ आम आदमी तक पहुंचाना
 
अगर वित्तमंत्री पी चिदम्बरम की मानें तो भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल सातवें आसमान पर है। नहीं, यह कोई मजाकिया टिप्पणी नहीं है। दरअसल, वित्तमंत्री ने संसद में पिछले सप्ताह पेश मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की विकास दर 7 प्रतिशत से अधिक रहने की उम्मीद जाहिर की है। यानी अर्थव्यवस्था सातवें आसमान।
 
हालांकि चालू वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में जीडीपी की विकास दर 8.1 प्रतिशत दर्ज की गई है और अधिकांश विश्लेषकों और आर्थिक एजेंसियों का कहना है कि चालू साल में अर्थव्यवस्था की विकास दर कम से कम 7.5 फीसदी रहेगी लेकिन मध्यावधि समीक्षा में बड़ी विनम्रता से इसके 7 प्रतिशत के आसपास रहने का भरोसा जताया गया है।

चिदम्बरम को उम्मीद है कि चालू वित्तीय वर्ष में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र की विकास दर 8.5 फीसदी से लेकर 10 फीसदी के बीच रहेगी जबकि अच्छे मानसून के कारण कृषि क्षेत्र की विकास दर 3 से 3.5 फीसदी तक पहुंच जाएगी। इस आधार पर वित्तमंत्री को वर्ष 2005-06 में 7 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेने का भरोसा है। कहने की जरूरत नहीं है कि जिस दौर में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का एकमात्र पैमाना जीडीपी की विकास दर हो गई हो, उसमें 7 फीसदी की विकास दर को हासिल कर लेना भी एक बड़ी उपलब्धि है। खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि मानसून की गड़बड़ी के बावजूद पिछले वित्तीय वर्ष में भी जीडीपी की विकास दर  6.9 प्रतिशत रही थी। उससे पहले वर्ष 2003-04 में विकास दर 8.5 प्रतिशत तक पहुंच गई थी।
 
इस तरह पिछले तीन वर्षों (2003-06) से अर्थव्यवस्था की सालाना औसत विकास दर 7 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। हालांकि यह दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में 8 फीसदी सालाना औसत विकास दर की तुलना में कम है लेकिन उससे पहले के वर्षों की तुलना में इस प्रदर्शन को भी कम नहीं माना जा सकता है। गौरतलब है कि दसवी पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष (2002-03) में जबरदस्त सूखे और औद्योगिक मंदी के कारण विकास दर गिरकर मात्र  4.1 फीसदी रह गई थी। इस कारण दसवी योजना के शुरूआती तीन वर्षों की औसत सालाना विकास दर 6.5 प्रतिशत रह गई जो कि 8 फीसदी के लक्ष्य से काफी दूर है।
 
लेकिन दसवी योजना के शुरूआती वर्ष के खराब प्रदर्शन को अलग कर दिया जाए तो अर्थव्यवस्था एक उच्च विकास दर की ओर बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उंची विकास दर में एक स्थिरता और निरंतरता आती हुई दिखाई पड़ रही है। असल में, उंची विकास दर हासिल करना बड़ी चुनौती नहीं होती है, उसे बनाए रखना बड़ी चुनौती होती है। इस कारण अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारतीय अर्थव्यवस्था अगले चार-पांच सालों तक 7 प्रतिशत या उससे अधिक की सालाना औसत विकास दर को बनाए रख सकेगी या नहीं ?
 
ऐसी आशंका के पीछे कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन लगातार बद से बदतर होता जा रहा है। कृषि न सिर्फ अब भी इन्द्र देव की कृपा पर निर्भर है बल्कि उदारीकरण और विश्व व्यापार संगठन के बाद के दौर में भारतीय कृषि का संकट लगातार गहराता जा रहा है। इसका सीधा असर कृषि क्षेत्र की विकास दर में दिखाई पड़ रहा है। कृषि की विकास दर सबसे ज्यादा अस्थिर है। वह किसी वर्ष 9 फीसदी से ऊपर चली जाती है और अगले ही वर्ष (-)10 फीसदी नीचे गिर जाती है। कृषि के इस संकट को मध्यावधि समीक्षा में भी स्वीकार किया गया है। 
 
इसी तरह औद्योगिक क्षेत्र के प्रदर्शन में भी स्थायित्व का अभाव दिखाई पड़ता है। हालांकि पिछले दो वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र विशेषकर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर प्रतीत हो रहा है लेकिन यह बिजनेस साइकिल का असर है या वास्तव में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र प्रतियोगी और सक्षम हुआ है, यह कहना मुश्किल है। दरअसल, 1995 से 97 तक मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर 14 फीसदी से उपर चली गई थी लेकिन बाद के वर्षों में न सिर्फ उसे बनाए नहीं रखा जा सका बल्कि वह मंदी का शिकार हो गया। एक बार फिर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में हलचल दिखाई पड़ रही है लेकिन इसे स्थाई बनाने के लिए वित्त मंत्री को काफी सावधानी से और सोच समझकर कदम आगे बढ़ाना पडेग़ा।
 
पर मुश्किल यह है कि पी चिदम्बरम द्वारा पेश मध्यावधि आर्थिक समीक्षा में अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए जो उपाय सुझाए गए हैं, वे वही पिटे-पिटाए नवउदारवादी आर्थिक सुधारों से प्रेरित हैं जो हर वित्त मंत्री के लिए गीता बने हुए है। मध्यावधि समीक्षा के मुताबिक टेक्सटाइल क्षेत्र की संभावनाओं को साकार करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि श्रम सुधारों से तात्पर्य कंपनी प्रबंधकों को छटनी नीति और ''हायर एंड फायर`` का अधिकार देने के अलावा न्यूनतम मजदूरी के कानून को खत्म करना है। श्रमिकों को संगठन बनाने और मोलतोल का अधिकार नहीं होगा और न ही वे हड़ताल कर सकते है।
 
साफ है कि श्रम सुधारों के नाम पर मजदूरों के खुले और कानूनी शोषण की मांग की जा रही है। इसी तरह कृषि क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिए जो सुझाव दिए जा रहे हैं, उनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समाप्त करने और ठेका खेती को बढ़ावा देने के सुझाव प्रमुख हैं। हालांकि यह सुझाव नए नहीं हैं और पिछले कई वर्षों से दोहराए जा रहे हैं लेकिन यूपीए की सरकार ने वायदा किया था कि वह आम आदमी का ख्याल रखेगी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उंची विकास दर हासिल करने के लिए जो सुझाव दिए जा रहे हैं वे बुनियादी रूप से आम आदमी के हितों के खिलाफ हैं।
 
दरअसल, जिस तरह से उंची विकास दर को साधन मानने की बजाए  साध्य मान लिया गया है, उससे सारा जोर इस बात पर है कि अधिक से अधिक विकास दर कैसे हासिल की जाए ? आश्चर्य नहीं कि इस सोच के कारण नब्बे के दशक में उंची विकास दर के बावजूद आम लोगों को उसका लाभ नहीं मिला है। इसी वजह से इसे 'रोजगार विहीन विकास` का दशक भी कहते हैं। लेकिन ''आम आदमी`` का नारा लगाकर सत्ता में पहुंची यूपीए के लिए भी लक्ष्य आम आदमी नहीं बल्कि उंची विकास दर है जिसका लाभ अब भी आम आदमी को नहीं बल्कि देश की दस से पन्द्रह फीसदी की आबादी को मिल रहा है।

ऐसे में अर्थव्यवस्था भले सातवें आसमान पर हो लेकिन आम आदमी के लिए तो यह अब भी एक सपना ही बनी हुई है।

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