सोमवार, नवंबर 12, 2007

बोतल से बाहर मंहगाई का जिन्न..

मुद्रास्फीति की दर वास्तविक मंहगाई का आईना नहीं है?
 
आखिरकार मनमोहन सिंह सरकार ने एक ही झटके में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 2 से 2.50 रुपए प्रति लीटर की भारी-भरकम बढ़ोत्तरी कर दी। हालांकि सरकार का दावा है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी इजाफे के बावजूद उसने पेट्रोलियम पदार्थों की घरेलू कीमतों में अपेक्षाकृत काफी कम बढ़ोत्तरी की है और वह भी कई महीनों बाद। लेकिन तथ्य यह है कि पिछले एक वर्ष में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में चार बार बढ़ोत्तरी की गयी है और इस बीच पेट्रोल की कीमत में कुल  10.50 रुपए प्रति लीटर और डीजल की कीमतों में 7.25 रुपए का इजाफा हो चुका है।

इसलिए पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर का यह कहना तथ्यों के विपरीत है कि यूपीए सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी का बोझ सरकार, तेल कंपनियों और उपभोक्ताओं पर बराबर-बराबर डाल रही है। सच यह है कि ज्यादा बोझ उपभोक्ताओं पर डाला जा रहा है। यही नहीं पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी से सरकार को कर राजस्व में छप्पर फाड मुनाफा होगा। इसकी वजह यह है कि पेट्रोल और डीजल की मौजूदा कीमतों में 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा करों का है। इसके उलट आम उपभोक्ताओं को न सिर्फ पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी का पूरा बोझ उठाना होगा बल्कि उसके चौतरफा असर के कारण बढ़नेवाली मंहगाई की मार भी झेलनी पड़ेगी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि से मंहगाई की सुरसा को अपने पहले से बढ़े बदन को और फैलाने का मौका मिल जाएगा। हालांकि वित्त मंत्रालय का दावा है कि इससे मंहगाई पर कोई खास असर नहीं पडेग़ा। उसका तर्क है कि मुद्रास्फीति की दर 4 जून को समाप्त हुए सप्ताह में   4.22 प्रतिशत थी जो कि पिछले 13 महीनों की सबसे न्यूनतम दर है और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी से यह अधिक से अधिक 5 से 5.50 प्रतिशत तक जा सकती है।

वित्त मंत्रालय का मानना है कि 5 से 5.50 फीसदी मुद्रास्फीति की दर ज्यादा नहीं है और सरकार इसको आराम से 'मैनेज` कर सकती है। एक सामान्य मध्यवर्गीय और गरीब उपभोक्ता के बतौर आप भले ही 4.22 फीसदी की मुद्रास्फीति से ही त्रस्त हों लेकिन 'आम आदमी` के हितों का ख्याल रखने का वायदा करके सत्ता में आई यूपीए सरकार के लिए 5 से  5.50 फीसदी मुद्रास्फीति की दर चिंता की बात नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि वह 5 से 5.50 फीसदी मुद्रास्फीति की दर को भारत जैसी विकासमान अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए जरूरी मानती है और यही कारण है कि सरकार चालू वित्तीय वर्ष (05-06) में औसतन  5.50 फीसदी तक मुद्रास्फीति का अनुमान लेकर चल रही है।

इसलिए वामपंथी दलों के विरोध को छोड़ दिया जाए तो सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोत्तरी को लेकर कोई हिचकिचाहट नहीं थी। जाहिर है वह मुद्रास्फीति की ताजा दर 4.22 फीसदी को ढाल की तरह इस्तेमाल कर रही है। लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर किसी काले जादू से कम नहीं है। उसमें आंकड़ों का ऐसा गड़बड़झाला है कि मुद्रास्फीति की दर और आम उपभोक्ता जिस मंहगाई को झेल रहा है, उसके बीच जमीन-आसमान से कुछ ही कम का फर्क रहता है।
 
दरअसल, सरकार 4.22 फीसदी मुद्रास्फीति दर को अपनी उपलब्धि की तरह पेश करते हुए उससे दो जुड़े तथ्यों को चालाकी से नजरअंदाज कर देती है। पहली बात यह कि 4 जून को समाप्त हुए सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर कम इसलिए दिखती है कि पिछले साल इसी समय मुद्रास्फीति की दर  6.7 फीसदी थी। सांख्यिकी के नियम के मुताबिक आधार वर्ष में ऊंची दर के कारण चालू वर्ष में ऊंची दर भी अपेक्षाकृत कम दिखती है। दूसरे, अगर पिछले एक वर्ष की औसत मुद्रास्फीति दर पर ध्यान दें तो वह 6.5 प्रतिशत की ऊंचाई को छू रही है। यहां तक कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले दो महीनों में मुद्रास्फीति की औसत दर  5.3 फीसदी थी।

यह गड़बड़झाला यहीं नहीं खत्म होता। मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़े प्रारंभिक आकलन भर होते हैं और दो महीने बाद जब संशोधित आकलन आता है तो उसमें 90 फीसदी मौकों पर मुद्रास्फीति की दर में और बढ़ोत्तरी ही दर्ज की जाती है लेकिन आमतौर पर उसकी कहीं चर्चा नहीं होती है। लेकिन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति दर की सबसे बड़ी खामी यह है कि सूचकांक में आम आदमी की जरुरत की चीजों का वजन कम है। जैसे चावल  2.5 प्रतिशत, गेहूं 1.4 प्रतिशत, फल और सब्जियां 2.9 प्रतिशत, खाने का तेल 2.8 प्रतिशत, दाल 0.6 प्रतिशत आदि की तुलना में अकेले रसायन उत्पादों का वजन 11.9 प्रतिशत, मशीनरी 8.4 प्रतिशत और टेक्सटाइल्स 9.8 प्रतिशत है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि आम आदमी की रोटी-दाल से जुड़ी चीजों की कीमतों में भारी वृद्धि के बावजूद सूचकांक की सेहत पर तब तक कोई खास फर्क नहीं पड़ता है जब तक विनिर्मित वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी नहीं होती है।

इसके अलावा थोक मूल्यों और खुदरा मूल्यों के बीच कितना अंतर होता है, यह किसी से छुपा नहीं है। अगर आपने दिल्ली सरकार द्वारा समय-समय पर अखबारों में प्रकाशित आजादपुर सब्जी मंडी की दरों और अपने मुहल्ले के सब्जीवाले की कीमतों में कभी तुलना की हो तो आप थोक और खुदरा कीमतों के बीच के अंतर को अच्छी तरह समझ सकते हैं। लेकिन सरकार इस फर्क को जानबूझकर नजरअंदाज करती है। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी का सीधा प्रभाव खुदरा कीमतों पर पडेग़ा क्योंकि मालों/उत्पादों के परिवहन का बढ़ा हुआ खर्च आम आदमी पर डाल दिया जाता है।

लेकिन इस पूरे परिदृश्य में सबसे बड़ी चिंता यह है कि मानसून में विलंब और सूखे की आशंका के कारण मुद्रास्फीतिय अपेक्षाएं काफी बढ़ गयी है। पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि ने इसे और हवा दी है। जमाखोरों और मुनाफाखोरों की सक्रियता बढ़ने का समय आ गया चुकी है। मंहगाई का जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है और आम आदमी को उसका तांडव झेलने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यूपीए सरकार की यही इच्छा है। अलबत्ता वह जले पर नमक छिड़कने की तरह मुद्रास्फीति की कम दर का ढोल जरूर पीटती रहेगी।

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