गुरुवार, सितंबर 16, 2010

अंग्रेजी से पहले हिंदी दुरुस्त कीजिए श्रीमान !

आज से कोई 184 साल पहले 30 मई 1826 को हिंदी का पहला साप्ताहिक अखबार ‘उदंत मार्तंड’ छपना शुरू हुआ था. हालांकि वह सिर्फ डेढ़ वर्ष ही जीवित रह पाया लेकिन उसके बाद हिंदी अख़बारों/पत्रिकाओं ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 184 साल पहले 30 मई को शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता की वह यात्रा आज भी तमाम उतार-चढावों से होती हुई अनवरत जारी है.

आज अपनी पहुंच और प्रसार के लिहाज से देश में शिखर पर पहुंच चुके हिंदी अख़बारों के पास व्यावसायिक सफलता के रूप में कामयाबी की अनोखी कहानियां हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि आज की इस कामयाबी के पीछे हिंदी पत्रकारिता को एक लड़ाकू तेवर और देश-समाज के सरोकारों से जोड़कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का साहस देनेवाले अख़बारों/पत्रिकाओं और उनके पत्रकारों के संघर्ष, त्याग और बलिदान की विरासत भी है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इसी विरासत ने हिंदी पत्रकारिता को देश-समाज में वह पहचान और जगह दी जिसपर खड़े होकर हिंदी अख़बारों ने व्यावसायिक सफलता के नए मानदंड बनाए हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि पिछले दो दशकों में हिंदी अखबारों की व्यावसायिक सफलता हिंदी पत्रकारिता की इसी विरासत की कीमत पर आई है. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोडकर आज व्यावसायिक रूप से सफल अधिकांश हिंदी अखबारों और उनके प्रबंधन को इस शानदार विरासत की कोई परवाह नहीं है. कई मामलों में तो कुछ बड़े और सफल अख़बारों के प्रबंधन के रुख से यह लगता है कि व्यावसायिक सफलता के लिए वे हिंदी पत्रकारिता की उस विरासत और पहचान से जल्दी से जल्दी पीछा छुडाने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

उदाहरण के लिए हिंदी के व्यावसायिक रूप से अत्यधिक सफल एक अखबार के इस फैसले को लीजिए जिसमें उसने अपने पाठकों को अंग्रेजी सिखाने के लिए बाकायदा एक अभियान शुरू किया है. अख़बार और पत्रिकाएं अपने पाठकों को देश-दुनिया की भाषाएं सिखाएं, इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? यह भी एक तथ्य है कि देश में लाखों पाठकों ने हिंदी भाषा हिंदी के अख़बारों/पत्रिकाओं को पढकर सीखी है. उनमें से एक पाठक मैं भी हूं. मैंने हिंदी को बरतना धर्मयुग, दिनमान, रविवार, जनसत्ता और नवभारत टाइम्स जैसे अख़बारों और पत्रिकाओं से सीखा है. यहां यह भी याद दिलाते चलें कि हिंदी भाषा को बनाने-मांजने-खड़ा करने में हिंदी के अखबारों/पत्रिकाओं की शायद सबसे बड़ी भूमिका रही है.

आश्चर्य नहीं कि एक ज़माने में हिंदी के अखबारों/पत्रिकाओं ने हिंदी के प्रचार-प्रसार को सबसे ज्यादा अहमियत दी. उनके लिए यह देशसेवा का ही एक और माध्यम था. लेकिन अब ऐसा लगता है कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी को देशसेवा का माध्यम मान लिया गया है. इसलिए हिंदी के अखबार अब अंग्रेजी सिखाने में जुट गए हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या जो अखबार अपने पाठकों की ‘हीन भावना’ को दूर करने के लिए उन्हें अंग्रेजी सिखाने के अभियान में जुटे हुए हैं, वे अंग्रेजी के बजाय कोई और दूसरी देशी या विदेशी भाषा सिखाने की कोशिश नहीं करते? आखिर अंग्रेजी ही क्यों? फ्रेंच या जर्मन या स्पैनिश या चीनी या जापानी क्यों नहीं? उर्दू, तमिल, तेलुगु, मराठी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, गुजराती आदि क्यों नहीं? क्या हिंदी के पाठकों को ये भाषाएं नहीं सिखाई जानी चाहिए?

असल में, यह बड़े और सफल हिंदी अखबारों की अपनी ‘अंग्रेजी ग्रंथि’ है जो पहुंच और प्रसार में अंग्रेजी अखबारों से आगे निकल जाने के बावजूद व्यावसायिक सफलता के मामले में अभी भी अंग्रेजी अखबारों से पीछे हैं. लेकिन सवाल है कि पाठकों को अंग्रेजी सिखाने से पहले क्या हिंदी सिखाने की जरूरत नहीं है? आपको यह सवाल मजाक लग सकता है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हिंदी क्षेत्रों में जहां ये अखबार सबसे ज्यादा बिकते हैं, वहां पढ़ी-लिखी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी तो दूर हिंदी भी साफ-साफ और शुद्ध नहीं लिख पा रहा है. यह ठीक है कि इसके लिए सिर्फ अखबार जिम्मेदार नहीं हैं. शिक्षा व्यवस्था सबसे अधिक जिम्मेदार है.

लेकिन इस कारण क्या यह ज्यादा जरूरी नहीं है कि अंग्रेजी सिखाने निकला अखबार सबसे पहले अपने पाठकों को हिंदी लिखना सिखाए? इसके लिए उसे अलग से कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं है. अख़बारों को सिर्फ अपनी खुद की भाषा ठीक करनी पड़ेगी और कापी संपादन को दुरुस्त करना पड़ेगा. यह कहने के लिए मुझे माफ़ करें लेकिन यह कडवी हकीकत है कि अंग्रेजी सिखाने निकले अखबार में हर दिन संपादन और प्रूफ की इतनी गलतियाँ होती हैं कि उसे पढ़कर सही हिंदी सीख पाना बहुत मुश्किल है. अंग्रेजी सिखाने से पहले क्या अखबार अपनी हिंदी को लेकर अपने अंदर झांकेंगे? 30 मई इसके लिए शायद बहुत उपयुक्त अवसर है.
(प्रभात खबर, मीडियानामा, 29 मई 10 )

7 टिप्‍पणियां:

Rajeev Ranjan Jha ने कहा…

आनंद जी, एक बार हिंदी पर बात हो रही थी तो एक बड़े संपादक ने मुझसे कहा कि हमारा काम भाषा सिखाना नहीं, खबरें देना है और खबर जैसी भी भाषा में लोगों को ठीक से समझ में आ जाये वही भाषा ठीक है। लेकिन आपने जो प्रसंग छेड़ा, उससे यही दिखता है हिंदी अखबार (और चैनल भी) वह सब करने के लिए तैयार हैं जिसके बिकने की उम्मीद हो। और अंग्रेजी सिखाने का कारोबार देश में कितना बड़ा है, यह तो आपको भी पता ही है!
राजीव रंजन झा

Unknown ने कहा…

rashtra ka lea jrure ha ke hindi rastrabhasa ho jeshsa logo m aatmneata baraha our y hindi ka shman he nahi rashtra ka shman hogo.

lalbahadur ने कहा…

Bahut achha Jaari rakhein. Ummid hai akhbaron ko isase akl aayegi..

केशव कुमार ने कहा…

yah ham sabke man ki aawaz hai,
ghar me andhera ho to maszid me diya jalane ki sochne jaisha hai yah angrejiparashat akhbari karnama. pahle log akhbar padhkar hindi sikhte aur sudharte the...aajkal bigarte hain.

आवारापन.. ने कहा…

सर आपने अत्यंत ज्वलंत प्रश्न उठाया है। इसका जवाब शायद ही किसी समाचार पत्र या पत्रिका के पास हो। हम शायद भाषाई गुलामी की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं । चूंकि गुलाम का सबसे बड़ा गुण होता है कि वह स्वयं को सबसे दीन-हीन समझने लगता है, उसका स्वयं का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान खत्म हो जाता है। वही लक्षण आज हिंदी को पढ़ने,लिखने और उसे बेचने वालों के लग रहें हैं। अभी तक अंग्रेजों ने राज किया था अब शायद अंग्रेजी करेगी।

कुलदीप मिश्र ने कहा…

सर नमस्कार,
वैसे तो मैं आम तौर पर हिन्दी भाषा का ही प्रयोग करता हूँ मगर उस रोज फेसबुक पर अंग्रेज़ी में कुछ लिखा था और एक शब्द गलत हो गया...मित्रों ने मुझे उस शब्द के लिये उधेड़ना शुरू किया तो उन तात्कालिक अंग्रेज़ो के सामने मेरी हिन्दी सवर्णों के सताए किसी दलित की तरह मुझे ही रह-रह कर घूरने लगी...वह एक ग़लती थी, मगर काश कि ऐसी डांट-डपट हिन्दी में होने वाली गलतियों पर भी पड़ती..
बहुत सटीक आलेख है..

कुलदीप मिश्र ने कहा…

अभी २-३ दिन पहले के नवभारत टाइम्स में मुखपृष्ठ पर एक हेडिंग भाषाई रूप से बिलकुल गलत थी. वाक्य ही नहीं बन रहा था. मैंने खबर पर तुरंत कलम से गोला लगा दिया. शाम को एक मित्र के कमरे पर गया तो उसी खबर पर कई गोले लगे हुए थे और उन पर कुछ कमेंट्स भी लिख दिए थे. यह वाक़या इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि जुगाड़ू पत्रकारिता के इस दौर में इस तरह की घटनाएं रोज़-रोज़ नहीं होतीं. पत्रकारिता के छात्र अख़बारों में काम करने वाले प्रोफेशनल्स की गलतियाँ पकड़ने लगें तो पत्रकारिता के भविष्य पर चिंता होने लगती है. लेकिन पाठकों का एक वर्ग जागरूक है यह सोचकर गहन अँधेरे में एक छोटी ज्योति सी प्रतीत होती हैं. दुआ करता हूँ कि हमारी गोला लगाने की यह आदत बनी रहे.. :)