सोमवार, नवंबर 12, 2007

गरजने वाले बादल हैं कमलनाथ...

फिसल पड़े तो हर हर गंगे...
 
कहते हैं कि गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं। लगता है कि वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ऐसे ही गरजने वाले बादल हैं। जून के आखिरी सप्ताह में जेनेवा में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की बैठक से वे जिस तरह गरजते हुए बाहर निकले, उससे कई लोगों को भ्रम हो गया। ऐसा लगा जैसे कमलनाथ ने दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं में विकसित देशों के तौर-तरीकों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है। उन्होंने बैठक का 'बहिष्कार` करते हुए कहा कि वे व्यापार के बारे में बातचीत करने आए हैं न कि करोड़ों लोगों के जीवन निर्वाह से कोई समझौता करने। कमलनाथ के इस कड़े रूख पर बहुत लोगों ने तालियां भी बजाईं।

लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि बादल इस बार भी बरसने वाले नहीं है। कमलनाथ के तीखे तेवर की हकीकत जल्दी ही सामने आ गई। सच यह है कि उन्होंने बैठक का बहिष्कार नहीं किया बल्कि सदस्य देशों के बीच तीखे मतभेदों के कारण बैठक विफल हो गई थी और उस स्थिति में जेनेवा में बैठे रहने का कोई तुक नहीं था। इसे ही कहते हैं कि फिसल पड़े तो हर हर गंगे। जब बैठक किसी समझौते पर न पहुंच पाने के कारण पहले ही विफल हो गई थी तो उसके बहिष्कार का क्या मतलब है ? फिर कमलनाथ इस कदर गरज-बरस क्यों रहे थे ?

दरअसल, कई बार अतिरिक्त आक्रामकता किसी चीज पर परदा डालने के लिए भी होती है। कमलनाथ की अतिरिक्त आक्रामक मुद्रा भी शक पैदा करती है। जेनेवा और दिल्ली से जिस तरह छन-छनकर खबरें आ रही हैं, उससे यह आशंका पैदा हो रही है कि कहीं परदे के पीछे कोई सौदेबाजी तो नहीं हो रही है। कमलनाथ के तीखे तेवरों के बावजूद खबर है कि भारत औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार को और उदार बनाने और बाजार पहुंच के मामले में अपने पिछले रूख से पलटते हुए विकसित देशों की मांग के आगे झुकने के लिए तैयार हो गया है।

अगर यह खबर सच है तो कमलनाथ की यह सौदेबाजी भारतीय उद्योगों के लिए बहुत भारी पड़ने जा रही है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जेनेवा की बैठक में जिन दो मुद्दों पर सबसे अधिक मतभेद थे, उनमें कृषि व्यापार के अलावा दूसरा मुद्दा औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार को और उदार बनाने का था। अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित दूसरे विकसित देश अपने औद्योगिक उत्पादों के लिए विकासशील देशों के बाजार को अधिक से अधिक खोलने के लिए जबरदस्त दबाव बनाए हुए हैं। एक तरह से वे इस मांग को सौदेबाजी के हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करते रहे हैं। कृषि व्यापार के मुद्दे पर विकासशील देश जब भी विकसित देशों द्वारा दी जा रही भारी कृषि सब्सिडी का मुद्दा उठाते हैं, विकसित देश बदले में अपने औद्योगिक वस्तुओं के लिए विकासशील देशों से बाजार खोलने की मांग करने लगते हैं।

इसके पीछे विकसित देशों की दोहरी रणनीति है। इसके जरिए एक तो वे कृषि सब्सिडी में कटौती के मुद्दे पर विकासशील देशों की न्यायोचित मांग ंको पूरा करने के बजाय उसे औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार से जोड़कर लेन-देन का मुद्दा बना देते हैं। जबकि दोनों मुद्दों का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे, वे अपने औद्योगिक उत्पादों के लिए विकासशील देशों के बाजार को और खोलना चाहते हैं। इसके लिए वे विकासशील देशों से आयात शुल्क में भारी कटौती की मांग कर रहे हैं। लेकिन उरूग्वे दौर की व्यापार वार्ताओं के अनुभव से स्पष्ट है कि डब्ल्यूटीओ बनने के बाद आयात शुल्कों में कटौती और मात्रात्मक प्रतिबंधों के समापन के साथ विकासशील देशों के लिए अपने उद्योगों की रक्षा करना मुश्किल हो रहा है।

अब अगर दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं में भी विकसित देशों की मांग के अनुसार विकासशील देशों को औद्योगिक वस्तुओं पर आयात शुल्कों में और कटौती करनी पड़ी तो उनके उद्योगों खासकर छोटे और मंझोले उद्योगों को बचा पाना असंभव हो जाएगा। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर रॉबर्ट वेड का मानना है कि अगर इस मामले में विकसित देशों द्वारा पेश किए गए फार्मूले को स्वीकार करते हुए आयात शुल्कों में कटौती की गई तो विकासशील देशों से उद्योगों का सफाया यानी 'विऔद्योगिकरण` की स्थिति आ सकती है।

दरअसल, विकसित देशों ने औद्योगिक उत्पादों के व्यापार को और उदार बनाने के बाबत जो स्विस फार्मूला पेश किया है, उसे स्वीकार करने का अर्थ यह है कि जिन देशों में आयात शुल्क अधिक है, उन्हें अधिक कटौती करनी पड़ेगी। विकसित देशों में पहले से ही आयात शुल्क बहुत कम है लेकिन विकासशील देशों में आयात शुल्क की दरें उंची हैं। इसकी ऐतिहासिक वजहें हैं। विकसित देशों ने अपने औद्योगीकरण के शुरूआती दौर में घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात शुल्क की दरें उंची रखीं ताकि उन्हें असमान प्रतियोगिता का सामना न करना पड़े। लेकिन जब उनके उद्योगों ने अपने पैर जमा लिए तो उन्होंने दूसरे देशों के बाजार खोलने के लिए मुक्त व्यापार यानी आयात शुल्कों में कटौती की पैरवी शुरू कर दी। लेकिन विकासशील देशों के लिए जहां उद्योग अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हैं, यह संभव नहीं है क्योंकि उन्हें अपने उद्योगों को सस्ते आयात से बचाने के लिए संरक्षण देना जरूरी है।

इसके अलावा विकसित देश आज भी अपने उद्योगों को आयात शुल्क के बजाय गैर शुल्कीय बाधाओं के जरिये संरक्षण दे रहे हैं। इन बाधाओं के कारण ही आज भी आयात शुल्क कम होने के बावजूद विकासशील देशों के औद्योगिक उत्पादों के लिए विकसित देशों के बाजार पहुंच से बाहर हैं। यही कारण है कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के दौरान शुरूआत में विकासशील देशों ने स्विस फार्मूले का लगातार विरोध किया। लेकिन डब्ल्यूटीओ की हांगकांग बैठक में विकसित देश स्विस फार्मूले को आगे बढ़ाने में कामयाब रहे। हालांकि विकासशील देशों की ओर से भारत, ब्राजील और अर्जेटीना ने मिलकर एक वैकल्पिक फार्मूला - एबीआई - पेश किया था जिसमें इस बात का प्रावधान था कि हर देश अपनी स्थितियों के मुताबिक आयात शुल्कों में कटौती का प्रस्ताव रख सकता है।

लेकिन अब अगर भारत अपने इस फार्मूले से पीछे हटता है और स्विस फार्मूले को स्वीकार करता है तो यह विकासशील देशों के लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है। ऐसा लगता है कि भारत समेत कुछ और विकासशील देशों को उम्मीद है कि औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार के मामले में विकसित देशों की मांग को स्वीकार करने के बदले में उन्हें कृषि व्यापार के मामले में विकसित देशों से बड़ी रियायत मिल सकती है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सिवाय भ्रम के और कुछ नहीं है। कम से कम भारत को तो कृषि व्यापार में कुछ नहीं मिलने जा रहा है। भारत कृषि बाजार का बहुत छोटा खिलाड़ी है और पिछले कुछ वर्षों के अनुभव से साफ है कि उसके लिए कृषि व्यापार का नहीं बल्कि लाखों किसानों और ग्रामीण लोगों के लिए जीवनयापन का विषय है।

खुद कमलनाथ भी इसे जानते और स्वीकार करते हैं। लेकिन जेनेवा में कृषि व्यापार को उदार बनाने के बावत जो प्रस्ताव रखा गया, अगर उसे स्वीकार किया गया तो वायदे के विपरीत विकसित देशों को अपनी भारी भरकम कृषि सब्सिडी में कटौती करने के बजाय उसे मौजूदा स्तर से और बढ़ाने का मौका मिल जाएगा। लेकिन, बदले में विकासशील देशों से कृषि वस्तुओं के व्यापार को उदार बनाने के लिए आयात शुल्कों में जितनी कटौती की मांग की जा रही है उसे स्वीकार करने का अर्थ घरेलू बाजार को विकसित देशों के सस्ते कृषि आयात से पाट देना होगा।

सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि हांगकांग बैठक के दौरान विकासशील देशों को सस्ते आयात से अपने हितों की रक्षा के लिए जिन दो औजारों -विशेष सुरक्षा उपाय और विशेष उत्पाद उपलब्ध कराने की बात की गई थी और जिनका कमलनाथ ने काफी ढ़िढ़ोरा पीटा था, अमेरिका उन्हें कमजोर करने की पूरी कोशिश कर रहा है। अमेरिका विशेष उत्पादों की संख्या को कुल टैरिफ लाइंस के 5 प्रतिशत के भीतर सीमित करने की मांग कर रहा है। जबकि विकासशील देशों का कहना है कि उन्हें कुल टैरिफ लाइंस के कम से कम 20 प्रतिशत उत्पादों को विशेष उत्पाद के तहत घोषित करने का अधिकार मिलना चाहिए जिन पर किसी किस्म की शुल्क कटौती नहीं की जाएगी। इसके अलावा विकासशील देश 50 प्रतिशत अन्य उत्पादों को भी विशेष उत्पाद के तहत रखना चाहते हैं जिन पर शुल्कों में 10 प्रतिशत की कटौती की जाएगी।  

जाहिर है अमेरिका इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यही नहीं, वह विकासशील देशों के लिए किए गए विशेष सुरक्षा के प्रावधानों को भी स्थायी प्रावधान के बजाय संक्रमणकालीन प्रावधान के रूप में घोषित किए जाने की मांग कर रहा है। डब्ल्यूटीओ के तहत विशेष सुरक्षा प्रावधानों की व्यवस्था विकासशील देशों के लिए अपने घरेलू उद्योगों और कृषि को सस्ते आयात की मार से बचाने के लिए की गई है। मात्रात्मक प्रतिबंधों के समाप्त हो जाने के बाद विकासशील देशों के लिए अपने उद्योगों और कृषि को बचाने का कोई और उपाय नहीं रह गया है। ऐसे में विशेष सुरक्षा प्रावधानों को स्थायी के बजाय संक्रमण कालीन मानने का अर्थ विकासशील देशों को पूरी तरह से निहथा कर देना है। मजे की बात यह है कि वह खुद अपनी कृषि सब्सिडी में कटौती करने के लिए तैयार नहीं है। सच तो यह है कि जेनेवा बैठक अमेरिका के अडियल रवैये के कारण ही विफल हो गई।

सही है कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताएं बहुत नाजुक दौर में पहुंच गई हैं। सही मायनों में विकासशील देशों के लिए 'करो या मरो` की स्थिति है। उरूग्वे दौर की व्यापार वार्ताओं के दौरान विकासशील देशों को बहुत कुछ गंवाना पड़ा था। एक बार फिर वही कहानी दोहराए जाने की स्थितियां बन रही हैं। इस दौर में विकासशील देशों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। हालांकि दावा तो यह किया गया था कि दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं के केन्द्र में विकासशील देश होंगे और उनके उत्पादों को विकसित देशों के बाजारों तक पहुंचाने के लिए हर संभव उपाय किए जाएंगे। लेकिन पिछले पांच सालों में ये वार्ताएं जहां पहुंची हैं, वहां विकासशील देशों के लिए उम्मीदें कम से कमतर होती जा रही हैं।

उल्टे ऐसा लग रहा है कि कहीं चौबे जी छब्बे बनने गए और दुब्बे बनकर लौटे वाली स्थिति न हो जाए। कमलनाथ को इसका कुछ ज्यादा ही ध्यान रखना होगा। वे पहले भी अति उत्साह और डींग मारने के चक्कर में हांगकांग में काफी कुछ गंवा चुके हैं। एक बार फिर ऐसी ही स्थितियां बनती हुई दिखाई पड़ रही हैं। कमलनाथ की सबसे बड़ी भूल यह है कि वे अमेरिका को अपना दोस्त मानकर चल रहे हैं। उन्हें यह भ्रम इसलिए हो रहा है क्योंकि अमेरिका ने एक रणनीति के तहत भारत और ब्राजील को उन छह देशों के समूह में शामिल कर लिया है जो दोहा व्यापार वार्ताओं का भविष्य तय कर रहे हैं। इस समूह में अमेरिका के अलावा यूरोपीय संघ, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत तथा ब्राजील शामिल हैं।

माना जा रहा है कि दोहा व्यापार वार्ताओं का पूरा एजेंडा यही समूह तय कर रहा है। हालांकि इस समूह में आपस में काफी मतभेद हैं और इन मतभेदों के कारण ही दोहा व्यापार दौर की वार्ताएं अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची हैं। लेकिन 149 सदस्यी डब्ल्यूटीओ के अलोकतांत्रिक चरित्र का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वार्ताओं में अधिकांश सदस्य देशों की कोई भूमिका नहीं है और सब कुछ इन्हीं छह देशों के बीच चल रहा है। यह सचमुच अफसोस की बात है कि भारत इस अलोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सेदार बना हुआ है। यही नहीं, भारत और ब्राजील को छह देशों के समूह में शामिल कर विकसित देशों ने उन्हें विकासशील देशों के समूह से अलग कर दिया है।

लेकिन इस गुट में भारत की उपस्थिति न सिर्फ अस्वाभाविक है बल्कि दूरगामी हितो के लिहाज से अनुचित भी हैं। भारत के लिए इसमें खतरा यह है कि जब कृषि और औद्योगिक व्यापार के मामले में और रियायतें देने के लिए विकसित देशों का दबाव बढ़ेगा तो भारत के पास वापस विकासशील देशों के खेमे में लौटने का दावा बहुत कमजोर पड़ चुका होगा। इसलिए भारत के लिए बेहतर यह होगा कि वह विकासशील देशों के साथ खड़ा रहे, भले ही इसके कारण व्यापार वार्ताएं निर्धारित समय सीमा के भीतर पूरी न हो पाएं। सच यह है कि दोहा व्यापार वार्ताएं विफल हो जाएं तो भारत को शायद उतना नुकसान नहीं होगा जितना अभी की स्थिति में सफल होने पर हो सकता है।
 
दोबारा फिर जेनेवा लौटने से पहले कमलनाथ को यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए। देश को गरजने वाले नहीं, बरसने वाले बादल चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं: