शनिवार, नवंबर 10, 2007

पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का राज...

अंतर्राष्ट्रीय बाजार नहीं घरेलू नीतियों के कारण बढ़ रही है कीमतें
 
आखिरकार मनमोहन सिंह सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी वृद्धि का बहाना बनाते हुए पेट्रोल और डीजल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी करने का फैसला कर ही लिया। पेट्रोल की कीमत में 2.50 रुपये और डीजल की कीमतों में 2 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी के बाद अब दिल्ली में पेट्रोल 40.49 रुपये प्रति लीटर और डीजल 28.45 रुपये प्रति लीटर मिल रहा है। सरकार का तर्क है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का भाव 50 डालर प्रति बैरल से ऊपर पहुंच गया है और उसके अनुरूप दाम न बढ़ाए जाने के कारण घरेलू पेट्रोलियम कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था।

इसलिए सरकार को न चाहते हुए भी मजबूरी में पेट्रोल और डीजल की कीमतों मे इजाफा करना पड़ा है। लेकिन ऐसा करते हुए यह ध्यान रखा गया है कि बढ़ोत्तरी कम से कम हो और आम लोगों की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए किरोसिन और घरेलू गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। इसमें कोई शक नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार भारी वृद्धि का रुख देखा जा रहा है और अपनी जरूरत का 70 प्रतिशत से अधिक पेट्रोलियम आयात करने के कारण देशी कंपनियों द्वारा घरेलू बाजार में उनकी कीमतों में वृद्धि का दबाव बनाया जा रहा था।

लेकिन यह तो सिर्फ एक बहाना है। सच्चाई यह है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में मौजूदा वृद्धि की असली वजह इस साल के केन्द्रीय बजट में पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले उत्पाद करों में की गई बढ़ोत्तरी है। इसका अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है। तथ्य यह है कि पेट्रोल की कीमत में की गई  2.50 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि में 2.20 रुपये बढ़े हुए उत्पाद कर और 30 पैसे गुणवत्ता में सुधार के नाम लिए जाएंगे। इसी तरह  डीजल की कीमत में की गई 2 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि में 1.06 रुपये बढ़े हुए उत्पाद कर, 24 पैसे गुणवत्ता सुधार और 70 पैसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हुई वृद्धि के वास्ते लिए जाएंगे। इस तरह स्पष्ट है कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में मौजूदा वृद्धि का अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों से कोई खास लेना-देना नहीं है।

दरअसल, मामला यहीं तक सीमित नहीं है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में करो का हिस्सा क्रमश: 57 और 35 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। उदाहरण के लिए दिल्ली में पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों को लिया जाए तो पेट्रोल की प्रति लीटर कीमत 40.49 रुपये में सीमा शुल्क, उत्पाद कर और बिक्री कर का हिस्सा 22.98 रुपये है जबकि डीजल की प्रति लीटर कीमत 28.45 रुपये में करों का हिस्सा 9.92 रुपये है। साफ है कि केन्द्र और राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम उत्पादों को दुधारू गाय समझ लिया है। सच तो यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि से सरकार की बांछे खिल उठती हैं क्योंकि बढ़ी हुई कीमतों के अनुसार उसे कर भी ज्यादा मिलता है।

लेकिन आम आदमी के लिए यह दोहरा बोझ साबित होता है। उसे पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी हुई कीमतों के साथ-साथ बढ़े हुए करों की मार भी झेलनी पड़ती है। लेकिन आम आदमी का साथ देने का वायदा कर सत्ता में पहुंची कांग्रेस और यूपीए इस व्यवस्था को बदलने के लिए तैयार नहीं है। इसकी वजह यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों के जरिए करों को उगाहने में सरकार को कोई खास हाथ-पांव नहीं चलाना पड़ता है।
 
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि मनमोहन सिंह सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के कारणों की ओर से जानबूझकर आंखे मूंदे हुए है। पश्चिम एशिया में अमेरिकी नीतियों और ईराक पर हमले के बाद से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम की कीमतों में लगातार वृद्धि का रुझान बना हुआ है। जबतक पश्चिम एशिया और ईराक में अमेरिका की दखलंदाजी बंद नहीं होगी, पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट आने की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन खुद को अमेरिकी विदेश नीति के साथ बांध चुकी यूपीए सरकार इस मामले में कोई पहल कदमी लेने की स्थिति में नहीं है। यहां तक कि अमेरिका ने भारत-ईरान गैस पाइप लाईन का खुला विरोध किया है और मनमोहन सिंह सरकार की बोलती बंद है।

इसी से जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उदारीकरण और निजीकरण की होड़ में सार्वजनिक परिवहन सेवा को लगातार कमजोर किया गया है और उसकी कीमत पर निजी वाहनों को प्रोत्साहित किया गया है। इससे देशी विदेशी ऑटोमोबाइल कंपनियों को तो भारी फायदा हुआ है लेकिन इसके साथ ही पेट्रोलियम की खपत में भी भारी इजाफा हुआ है। पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर हर साल अरबों डालर खर्च हो रहा है। इसकी कीमत अर्थव्यवस्था और आम आदमी को चुकानी पड़ रही है।
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को मजबूत किया जाए तो न सिर्फ आम लोगों को आवागमन की बेहतर सुविधा मिल सकेगी बल्कि बहुतेरे लोग निजी वाहन नहीं खरीदेंगे और इससे पेट्रोलियम उत्पादों की खपत कम होगी। लेकिन यूपीए सरकार इसके लिए कतई तैयार नहीं दिख रही है।

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