शनिवार, नवंबर 10, 2007

छब्बे बनने गए कमलनाथ दुबे बनकर लौटे...

आशंकाओं के विपरीत हांगकांग में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का छठा मंत्रीस्तरीय सम्मेलन सीएटल या कानकुन के मंत्रीस्तरीय सम्मेलनों की तरह विफल नहीं हुआ। हालांकि सम्मेलन शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि विकसित और विकासशील देशों के बीच विभिन्न मुद्दों पर इतने तीखे मतभेद हैं कि उनके बीच कोई समझौता हो पाना संभव नहीं है। इसलिए डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक पास्कल लामी से लेकर वाणिज्य मंत्री कमल नाथ तक हांगकांग सम्मेलन से उम्मीदें कम करने की बात कह रहे थे। लेकिन इसके बावजूद हांगकांग में समझौते का होना किसी चमत्कार से कम नहीं है।

सवाल यह है कि यह चमत्कार कैसे संभव हुआ ? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विकसित और विकासशील देशों के बीच जितने गहरे और तीखे मतभेद थे, उसे देखते हुए समझौते की गुंजाइश न के बराबर थी। वाणिज्य मंत्री कमलनाथ का यकीन करें तो हांगकांग सम्मेलन में विकासशील देशों की जीत हुई है और विकसित देशों को पीछे हटना पड़ा है। उनका यह भी दावा है कि हांगकांग में भारत न सिर्फ सफलतापूर्वक अपने हितों की रक्षा करने में कामयाब रहा बल्कि उसने विकासशील देशों को एकजुट करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विकासशील देशों की इस एकजुटता के कारण ही विकसित देशों को न चाहते हुए भी इस बार कई रियायते देनी पड़ीं।
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि डब्ल्यूटीओ के इतिहास में हांगकांग सम्मेलन की सबसे बड़ी कामयाबी विकासशील और गरीब देशों का एक मंच पर आना था। हालांकि इस प्रक्रिया की शुरूआत कानकुन सम्मेलन से ही हो गई थी लेकिन हांगकांग सम्मेलन में विकासशील और गरीब देशों के विभिन्न समूह जैसे जी-20, जी-33 और जी-90 के अलावा अफ्रीकी कैरीबियाई और प्रशांत क्षेत्र के देश जिस तरह से एकजुट होकर खडे  हुए और जी-110 देशों के समूह के रूप में उभरे, वह ऐतिहासिक घटना थी। विकसित देशों के रवैये के खिलाफ विकासशील और गरीब देशों की इस एकता का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि अमरीका और यूरोपीय संघ ने इस एकजुटता को तोड़ने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी उपायों का सहारा लिया।
यह सच है कि भारत और ब्राजील विकासशील और गरीब देशों के इस एकजुट समूह के नेता के रूप में उभरे लेकिन अफसोस की बात यह है कि वे इसे एक तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाने में नाकामयाब रहे। उनके पास एक शानदार मौका था और अगर वे दृढ़ता और ईमानदारी से टिके रहते तो हांगकांग में एक दूसरा इतिहास लिखा जाता। लेकिन वे मौका चूक गए। वे टिके नहीं रह पाए। वे विकसित देशों के इस झांसे में आ गए कि अगर विकासशील देश इसी तरह डटे रहे तो हांगकांग में कोई समझौता नहीं हो पाएगा और इसका पूरा दोष भारत और ब्राजील पर जाएगा।

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सच्चाई नहीं थी। विकसित देश किसी भी कीमत पर हांगकांग सम्मेलन को असफल होते नहीं देखना चाहते थे। अगर विकासशील देश अपनी जायज मांगों पर अडे रहते तो अधिक से अधिक यही होता कि हांगकांग सम्मेलन में कोई समझौता नहीं हो पाता। सम्मेलन विफल हो जाता। लेकिन सम्मेलन की सफलता के लिए विकासशील देशों को जितनी कुर्बानी देनी पड़ी है, उसकी तुलना में सम्मेलन का विफल हो जाना ही शायद ज्यादा बेहतर होता। कम से कम विकासशील देशों को हांगकांग में जितना गवाना पड़ा है, वह तो बच जाता।
 
आखिर हांगकांग की सफलता में विकासशील देशों को क्या मिला है ? इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह बतलाई जा रही है कि विकसित देश 2013 तक कृषि उत्पादों पर निर्यात सब्सिडी खत्म करने पर राजी हो गए हैं। लेकिन क्या यह सचमुच में इतनी बड़ी कामयाबी है कि इसके लिए विकासशील देश औद्योगिक उत्पादों और सेवा क्षेत्र में विकसित देशों को मुहमांगी रियायते देने को तैयार हो गए? तथ्य यह है कि विकसित देशों में कृषि को मिलने वाली कुल सब्सिडी में निर्यात सब्सिडी का हिस्सा बहुत मामूली है। यूरोपीय संघ अपनी कुल कृषि सब्सिडी का मात्र  3.6 प्रतिशत निर्यात सब्सिडी के रूप में देता है।

असली मुद्दा तो घरेलू कृषि सब्सिडी का था क्योंकि विकसित देश निर्यात सब्सिडी में वैसे भी लगातार कटौती कर रहे थे और यूरोपीय संघ तो 2013 तक निर्यात सब्सिडी खत्म करने जा ही रहा था। लेकिन निर्यात सब्सिडी के उलट विकसित देश घरेलू कृषि सब्सिडी में लगातार वृद्धि कर रहे हैं जिसके कारण अन्तर्राष्ट्रीय कृषि व्यापार प्रभावित होता है। घरेलू कृषि सब्सिडी को बढ़ाने के लिए अमरीका और यूरोपीय संघ कई तरह की तिकड़में करते रहे हैं। घरेलू सब्सिडी के लिए कई बॉक्स बना दिए गए हैं जिनमें ग्रीन बॉक्स और कुछ हद तक ब्लू बॉक्स के तहत मिलने वाली सब्सिडी में कटौती नहीं होगी। इस नियम का फायदा उठाकर विकसित देश अधिकांश घरेलू सब्सिडी को इन्हीं दोनों बॉक्सों में डालते जा रहे हैं।

साफ है कि जब तक विकसित देश अरबों डॉलर की घरेलू सब्सिडी जारी रखेंगे तब तक कृषि व्यापार के उदारीकरण का कोई मतलब नहीं है और विकासशील देशों के लिए विकसित देशों का कृषि बाजार पहुंच से बाहर बना रहेगा। यही नहीं, विकासशील देशों के बाजारों में विकसित देशों द्वारा सस्ते कृषि उत्पादांे की डंपिंग जारी रहेगी। ऐसे में, वाणिज्य मंत्री कमल नाथ का यह दावा बहुत कमजोर है कि कृषि समझौते के तहत विशेष उत्पाद और विशेष सुरक्षा व्यवस्था के जरिए भारत अपने किसानों को सस्ते कृषि आयात की मार से बचाने में सक्षम होगा। सच यह है कि विकसित देश विकासशील देशों के इस प्रस्ताव को मानने को तैयार नहीं हुए कि कृषि उत्पादों के मामले में कुल टैरिफ लाइन के 20 प्रतिशत को विशेष उत्पादों के तहत रखा जाए और अभी यह मसला आगे की बातचीत में तय होगा।
 
भारत में कृषि क्षेत्र में 680 टैरिफ लाइने हैं और इनमें से कितने को विशेष उत्पादों के तहत रखकर सस्ते आयात से बचाया जा सकता है, यह कहना फिलहाल मुश्किल है। चिंता की बात यह है कि भारत समेत जी-20 के देशों में कृषि वार्ताओं के तहत यह प्रस्ताव रखा हुआ है कि वे विकसित देशों द्वारा कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क में की जाने वाली कटौती की दो तिहाई कटौती करने को तैयार हैं। इतने महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को देखते हुए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि विकसित देशों की घरेलू सब्सिडी के कारण कृत्रिम रूप से सस्ते कृषि उत्पादों को भारतीय बाजारों में घुसने में काफी आसानी हो जाएगी और इसका मुकाबला हमारे छोटे और मध्यम किसान नहीं कर पाएंगे। उस स्थिति में विशेष उत्पाद और विशेष सुरक्षा व्यवस्था जैसे प्रावधान भी बहुत सीमित मदद कर पाएंगे।

लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और खतरनाक बात यह है कि डब्ल्यूटीओ में कृषि व्यापार की उदारीकरण की जिस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है उसके कारण भारतीय कृषि में बड़ी पूंजी के प्रवेश का रास्ता खुल जाएगा और ठेका कृषि आदि के जरिए लाखों छोटे और मध्यम किसान अपनी आजीविका से बेदखल कर दिए जाएंगे। वास्तव में, कृषि व्यापार के क्षेत्र में भारत के सामने असली चुनौती विकसित देशों के बाजार खुलवाने की नहीं, अपने किसानों को कीमतों में उतार-चढ़ाव से बचाने और उन्हें लाभकारी मूल्य दिलाने का है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय कृषि के लिए कोई जगह तभी बन सकती जब घरेलू कृषि में बड़ी पूंजी का प्रवेश हो क्योंकि भारतीय कृषि अभी भी मूलत: निर्वाह कृषि है। इसलिए कृषि व्यापार के उदारीकरण का अर्थ कृषि का कारपोरेटीकरण है।
 
दरअसल, देशी-विदेशी कंपनियां भारतीय कृषि में प्रवेश करना चाहती हैं। इसके लिए वे कृषि नीति को बदलने पर जोर दे रही हैं। एनडीए के शासन काल में पेश नई कृषि नीति का मुख्य जोर कृषि में बड़ी पूंजी के प्रवेश का रास्ता खोलना था। मौजूदा यूपीए सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है। हांगकांग में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कमल नाथ जरूर कर रहे थे लेकिन वास्तविक नेतृत्व सीआईआई और दूसरे औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों के हाथ में था। वे ही भारतीय नीति तय कर रहे थे। दोहराने की जरूरत नहीं है कि सीआईआई और दूसरे औद्योगिक संगठन इस समय कृषि के कारपोरेटीकरण के पक्ष में जबरदस्त लॉबीइंग कर रहे हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि हांगकांग में हुए कृषि समझौते को लेकर कमलनाथ और सीआईआई खुशी और संतोष जाहिर कर रहे हैं। 

इसी तरह से हांगकांग सम्मेलन में अर्थव्यवस्था के दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्र औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार को और उदार बनाने के लिए शुल्कों में कटौती को लेकर विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित स्विस फार्मूले को ही थोड़े फेरबदल के साथ स्वीकार किया गया है। हालांकि शुरू में विकासशील देश इस फार्मूले का विरोध कर रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने जिस तरह से इसे स्वीकार किया, वह हैरत में डालने वाला है। इसके लिए मोलभाव का तर्क दिया जा रहा है। कहा जा रहा है  कि विकसित देशों ने कृषि के क्षेत्र में जो 'त्याग' किया है, उसके बदले में औद्योगिक वस्तुओं के लिए विकासशील देशों के बाजार को और खोलना जरूरी हो गया है। अन्यथा विकसित देशों के लिए अपना कृषि बाजार खोलने के वास्ते घरेलू जनमत तैयार करने में मुश्किल होगी।
 
जबकि हकीकत यह है कि विकसित देशों ने कृषि के क्षेत्र में कोई रियायत नहीं दी है। लेकिन इस भ्रामक और काल्पनिक रियायत के बदले में उन्होंने विकासशील देशों से औद्योगिक वस्तुओ के व्यापार में खासी रियायत वसूल ली है। हांगकांग में स्वीकार किए गए स्विस फार्मूले के तहत विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों को औद्योगिक वस्तुओं के आयात शुल्क में ज्यादा कटौती करनी पडेग़ी। इसकी वजह यह है कि विकसित देशों में आमतौर पर पहले से ही आयात शुल्क की दरें कम है। दूसरे, विकसित देश विकासशील देशों के उन औद्योगिक उत्पादों पर बहुत अधिक आयात शुल्क थोपते रहे हैं जो विकसित देशों के बाजारों में प्रतियोगिता में भारी पड़ते रहे हैं। इसके अलावा विकसित देश विकासशील देशों के उत्पादों को गैर शुल्कीय बाधाओं (एनटीबी) के जरिए अपने घरेलू बाजार में आने से रोकते रहे हैं। 
 
विकसित देश भविष्य में इन तौर-तरीकों से बाज आएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके बावजूद विकासशील देश हांगकांग में न सिर्फ कृषि और औद्योगिक वस्तुओं के व्यापार के मामले में बल्कि सेवा क्षेत्र में भी विकसित देशों के झांसे में आ गए। अभी तक सेवा क्षेत्र में व्यापार के उदारीकरण के लिए डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों के बीच समझौता बातचीत स्वैच्छिक होती थी लेकिन अब इसे बहुपक्षीय बनाने की कोशिश की जा रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि भविष्य में सेवा क्षेत्र के उदारीकरण को लेकर होने वाले समझौते ने सभी देशों को किसी न किसी रूप में हिस्सेदारी करनी पड़ेगी।
कहने की जरूरत नहीं है कि सेवा क्षेत्र बहुत संवेदनशील क्षेत्र है। लेकिन कमलनाथ और सीआईआई-फिक्की के उनके साथी सेवा क्षेत्र के उदारीकरण को लेकर काफी उत्साहित हैं। इसकी वजह यह है कि उन्हें लगता है कि बीपीओ और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीय सेवा कंपनियों और प्रशिक्षित कार्मिकों के लिए बहुत शानदार अवसर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन दोनों ही क्षेत्रों (मोड-1 और मोड-4) में भारत के लिए बढ़त की स्थिति है। लेकिन इसके बदले में उसे अत्यंत संवेदनशील क्षेत्रों-स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, सीवेज, वित्तीय सेवाऐ और दूरसंचार आदि को विदेशी पूंजी और विेदेशी सेवा प्रदाता कंपनियों के लिए खोलना पड़ेगा।
 
यहां एक और बात स्पष्ट करना बहुत जरूरी है कि हांगकांग में कोई पूर्ण समझौता नहीं हुआ है बल्कि समझौते के लिए होने वाली बातचीत का तौर तरीका तय किया गया है। इसके आधार पर अगले एक साल तक दोहा दौर की व्यापार वार्ताए चलेगी जिसके बाद पूर्ण समझौता होगा। इसके पहले अधिकांश मामलों में 30 अप्रैल 2006 तक पूर्ण प्रक्रिया और 30 जुलाई 2006 तक सभी देशों को अंतिम रूप से अपने-अपने प्रस्ताव देने हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अभी बहुत से क्षेत्रों में वास्तविक तस्वीर अगले कुछ महीनों में ही साफ हो पाएगी। स्पष्ट है कि अगले कुछ महीनों में डब्ल्यूटीओ के मुख्यालय जेनेवा में दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए विकसित देश विकासशील और गरीब देशों पर जबरदस्त दबाव बनाएंगे।  

हांगकांग में विकसित देशों की साम-दाम-दंड-भेद की नीति कामयाब रही। वे विकासशील और गरीब देशों की एकजुटता के बावजूद दोहा दौर की व्यापार वार्ताओं का ऐजेंडा अपने पक्ष में मोड़ने में कामयाब रहे। इसके बावजूद पता नहीं कैसे कमल नाथ को भ्रम हो गया है कि वे हांगकांग में मैदान मारकर आए हैं। सच तो यह है कि वे हांगकांग कुछ इस अंदाज में गए थे जैसे चौबे जी छब्बे बनने जा रहे हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वे हांगकांग से दुबे बनकर वापस आए हैं।

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