शनिवार, नवंबर 10, 2007

विकास के नाम पर जमीन लूट अभियान...

हाल के महीनों में विकास के नाम पर उद्योगों, बांधों, आवासीय कालोनियों और अब विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए जमीन विशेषकर कृषि भूमि के अधिग्रहण का मुद्दा गर्माता जा रहा है। वैसे यह मुद्दा नया नहीं है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में और खासकर पिछले कुछ महीनों में सरकार और कारपोरेट क्षेत्र ने जिस बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण करना शुरू किया है, उसके कारण इस मुद्दे ने एक नया आयाम ग्रहण कर लिया है। देश के कई हिस्सों में किसान और आदिवासी अपनी जमीन छीने जाने का विरोध कर रहे हैं, वहीं कारपोरेट क्षेत्र को जमीन हथियाने में मदद कर रही केन्द्र और खासकर राज्य सरकारें बौखलाहट में किसानो और आदिवासियों के दमन पर उतर आई हैं।

इस साल की शुरूआत में ही उड़ीसा के कलिंग नगर में टाटा स्टील की इकाई लगाने के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे आदिवासियों पर पुलिस फायरिंग में 12 लोग मारे गए। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। इस हत्याकांड के बाद पिछले कुछ महीनों में देश के कई राज्यों में छोटे-बड़े कारपोरेट समूहों को सेज के लिए हजारों एकड़ जमीन आवंटित की गई है। हालांकि व्यापक पैमाने पर चल रहे इस भूमि अधिग्रहण अभियान का विरोध बढ़ता जा रहा है। लेकिन कारपोरेट क्षेत्र की जमीन की भूख खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।

जमीन नाम की लूट है लूट सके  तो लूट

ऐसा लगता है कि इस समय पूरे देश में जमीन लूट का एक संगठित अभियान चल रहा है। पिछले साल पारित हुए सेज कानून के लागू होने के बाद से पिछले कुछ महीनों में केन्द्र सरकार ने लगभग 200 विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) को औपचारिक और सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक अब तक औपचारिक रूप से स्वीकृत सेज के लिए 30 हजार हेक्टेयर भूमि अधिगृहीत कर ली गई है या जल्दी ही अधिगृहीत कर ली जाएगी। इसके अलावा सेज के जिन प्रस्तावों को सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दी जा चुकी है या जो सरकार के पास विचारार्थ हैं, उनके लिए और 95 हजार हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत करने की योजना है।

इस तरह से सेज के लिए लगभग 1.25 लाख हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत करने की तैयारी है। यह जमीन राजधानी दिल्ली के कुल क्षेत्रफल से थोड़ी सी ही कम है। हालांकि बढ़ते विरोधों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के इस निर्देश के बाद कि सरकार सेज के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण न करे, केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों से यह आग्रह करके अपना हाथ झाड़ लिया है कि वे सेज के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण न करें। लेकिन व्यवहार में कोई राज्य इस निर्देश पर अमल नहीं कर रहा है। अधिकांश मामलों में सेज के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण जारी है।

मुद्दा सिर्फ कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का ही नहीं है। मुद्दा यह भी है कि सेज के लिए जरूरत से कई गुना ज्यादा जमीन कब्जाने की कोशिश की जा रही है। जैसे मुंबई के पास रिलायंस के सेज के लिए 35 हजार एकड़ जमीन अधिगृहीत करने की कोशिश की जा रही है। इसी तरह रिलायंस के एक और सेज के लिए हरियाणा में झज्जर में 25 हजार एकड़ जमीन अधिगृहीत करने की तैयारी चल रही है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनके बारे में खुद केन्द्र सरकार का मानना है कि सेज की जरूरतों के लिहाज से कहीं ज्यादा जमीन अधिगृहीत की जा रही है। इसमें दो और तीन फसली जमीन की मात्रा ज्यादा है जबकि केन्द्र सरकार का स्पष्ट निर्देश है कि सेज के लिए बेकार और अनुर्वर जमीन ही ली जाए और अगर फिर भी जरूरत पूरी न हो तो कुल सेज क्षेत्र के 10 प्रतिशत हिस्से तक एक फसली जमीन ली जा सकती है।

लेकिन इन निर्देशों को खुलेआम ठेंगा दिखाकर किसानों से जमीन छीनी जा रही है। चिंता की बात यह है कि जमीन की यह लूट केवल सेज तक सीमित नहीं है। सेज से बाहर भी औद्योगिक इकाईयों के निर्माण के लिए जमीन की मारामारी मची हुई है। कलकत्ता के पास सिंगुर में टाटा की कार फैक्टरी के लिए जमीन अधिगृहीत करने का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में है। लेकिन यह कोई अकेला मामला नहीं है। ऐसे दर्जनों और मामले हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय राजमार्गों और बांधों आदि के लिए भी हजारों एकड़ जमीन अधिगृहीत की गई है।  

इन दिनों प्रापर्टी क्षेत्र में भी जबरदस्त तेजी देखी जा रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि बड़े महानगरों के अलावा देश के अधिकांश शहरों के ईद-गिर्द आवासीय फ्लैटों के निर्माण के लिए बड़े बिल्डर, डेवलपर्स और कॉलोनाइजर भारी पैमाने पर कृषि योग्य भूमि कब्जाने में जुटे हुए है। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक राजधानी दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में कारपोरेट समूहों और प्रोपर्टी बिल्डरों ने कोई  4.20 लाख एकड़ जमीन किसानों से खरीदी है।

दरअसल, हाल के वर्षों में अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के कारण जमीन की मांग काफी ज्यादा बढ़ गई है। यही नहीं, जमीन निवेश का भी एक आकर्षक माध्यम बन गई है। निवेश के मामले में उसे सोने से भी ज्यादा लुभावना माना जा रहा है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों और बिल्डरों में अधिक से अधिक जमीन बटोरने की होड़ सी शुरू हो गई है। इसके लिए वे हर उपाय का सहारा ले रहे हैं। किसानों को लोभ-लालच देकर, धमकाकर, राज्य सरकार की मदद से बाध्य करके जमीन औने-पौने दामों में बेचने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

जमीन लूट अभियान से उठते सवाल

इस जमीन लूट अभियान से कई सवाल खड़े हो गए है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया जा रहा है कि कृषि योग्य भूमि के मनमाने तरीके से अधिग्रहण का कृषि उत्पादन और इस तरह खाद्य सुरक्षा पर बहुत नकारात्मक असर पड़ेगा। निश्चय ही, यह एक गंभीर चिंता का विषय है। एक ऐसे समय जब देश में कृषि उत्पादकता में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है, कृषि योग्य भूमि के रकबे का कम होना खतरे की घंटी है। इससे खाद्यान्न उत्पादन गिर सकता है जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।

हालांकि कई लोगों का मानना है कि कृषि योग्य भूमि को जब विकसित करके उद्योग या अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो उससे न सिर्फ कृषि की तुलना में आर्थिक आय बढ़ती है बल्कि उस भूमि के मूल्य में भी वृद्धि होती है। इसके अलावा यह भी तर्क दिया जा रहा है कि अगर भारत को एक विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में खड़ा होना है तो उसे कृषि पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी और औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देना होगा जिसके लिए कृषि योग्य भूमि पर औद्योगिक इकाईयों का विस्तार अपरिहार्य है। उनका यह भी कहना है कि अगर भारत में औद्योगिक विकास की गति तेज होती है तो उसके कारण कृषि उत्पादन में होनेवाली कमी की भरपाई अनाज के आयात से हो सकती है।

सतही तौर पर इन तर्कों में दम दिखता है लेकिन सैद्धांतिक और व्यवहारिक तौर पर इसमें कई छिद्र हैं। पहली बात यह है कि कृषि भूमि लेते हुए इस तथ्य को कहीं न कहीं नजरअंदाज किया जा रहा है कि आज भी देश की कुल आबादी का लगभग 60 फीसदी हिस्सा अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। उनके वैकल्पिक रोजगार का इंतजाम किए बगैर उनसे जमीन छीनने का कोई तुक नहीं है। आमतौर पर जिन किसानों और आदिवासियों की जमीन परियोजनाओं के लिए छीनी जाती है, उन्हें उसमें कोई रोजगार नहीं मिलता और दूसरे, उसमें जो रोजगार मिलता भी है, वह जमीन छिनने से विस्थापित हुए लोगों की तुलना में काफी कम होता है।

जाहिर है उद्योगों और सेवा क्षेत्र के विकास का बहुत कम लोगों को लाभ मिल पा रहा है। ऐसे में, अगर खेती से उजड़े हुए लोगों को आजीविका के वैकल्पिक साधन नहीं उपलब्ध होंगे तो आयातित अनाज उनके पहुंच से बाहर होगा। इस तरह उनकी खाद्य सुरक्षा का सवाल आयातित अनाज से नहीं हल किया जा सकता है। संभव है कि इस तरह से कागज पर भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था बन जाए लेकिन इस समृद्धि का लाभ देश के एक बड़े हिस्से तक नहीं पहुंच पाएगा। इससे सामाजिक और आर्थिक विषमता और गहरी होगी और सामाजिक तनाव बढ़ेगा।

जमीन लूट अभियान से जुड़ा दूसरा अहम सवाल यह है कि जिन किसानो और आदिवासियों से जमीन छीनी जा रही है, उन्हें न तो पूरा मुआवजा मिल रहा है और न ही उनके पुनर्वास का मुकम्मल इंतजाम किया जा रहा है। विकास परियोजनाओं के साथ जुड़ी यह कोई नई समस्या नहीं है। जानेमाने समाज वैज्ञानिक वाल्टर फर्नाडिज के मुताबिक 1947 से 2000 के बीच परियोजनाओं के कारण विस्थापित होनेवाले या उससे प्रभावित लोगों की तादाद लगभग छह करोड़ के आसपास है। हालांकि यह बहुत उदार अनुमान नहीं है लेकिन अगर इसे स्वीकार कर लें तो 2000 से 2006 के बीच जिस तरह से जमीन की लूट हुई है, उसे देखते हुए एक मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बीच कम से कम 4 करोड़ और लोग विस्थापित या योजनाओं से प्रभावित हुए हैं।

ये वे लोग हैं जो औद्योगीकरण और विकास परियोजनाओं का वास्तविक खामियाजा चुकाते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश की कुल आबादी का लगभग 10 फीसदी हिस्सा होने के बावजूद विस्थापित लोगों के लिए आजतक देश में कोई राष्ट्रीय पुनर्वास नीति या कानून नहीं है। 1980 के दशक में ऐसी पुनर्वास नीति बनाने की कोशिश शुरू भी हुई तो उसे सामने आने में 20 साल लग गए। 2003 में एनडीए सरकार ने एक आधी-अधूरी और सीमित पुनर्वास नीति पेश की थी जिसे अब 2006 में यूपीए सरकार ने और तोड़-मरोड़कर विचार के लिए पेश किया है। यह एक ऐसी पुनर्वास नीति है जिसका विस्थापितों को शायद ही कोई लाभ मिले।

जरूरत है राष्ट्रीय पुनर्वास कानून की

दरअसल, देश को राष्ट्रीय पुनर्वास नीति की नही ंबल्कि एक लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण और विस्थापितों के हक में बनने वाले राष्ट्रीय पुनर्वास कानून की जरूरत है। इस कानून की जरूरत इसलिए भी है ताकि विस्थापितों के हक की कानूनी रूप से हिफाजत की जा सके। जबतक ऐसा कानून नहीं बनता है, यूपीए सरकार को तत्काल जमीन अधिग्रहण पर रोक लगा देनी चाहिए। कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून को तैयार करने की जिम्मेदारी नौकरशाहों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती है। इसके लिए उन जनसंगठनों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ विस्थापित लोगांे के प्रतिनिधियों को भी लेकर एक समिति बनाई जानी चाहिए जो इस कानून का मसौदा तैयार करे।

निश्चय ही इस कानून में कुछ बुनियादी चीजों का होना बहुत जरूरी है। उसमें सबसे पहली बात यह है कि सैद्धांतिक तौर पर विस्थापन को अमान्य घोषित किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जबतक जमीन का अधिग्रहण बिलकुल अपरिहार्य न हो तब तक जमीन नहीं ली जानी चाहिए। इस अपरिहार्यता को साबित करने की एक ही  कसौटी हो सकती है कि यह परियोजना किसी के निजी हित के बजाय सार्वजनिक हित को पूरा करती हो। दूसरे, उसमें यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जरूरत से एक इंच ज्यादा जमीन नहीं ली जाएगी। साथ ही यह भी देखा जाए कि क्या उसका कोई और विकल्प है जो कम विस्थापक है। तीसरे, विस्थापन न्यूनतम होना चाहिए।

इसके अलावा किसी भी परियोजना के लिए जमीन लेते हुए इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उस क्षेत्र के लोगों को पहले से विश्वास में लिया जाएगा और उनसे विचार-विमर्श के बाद ही परियोजना को अंतिम रूप दिया जाएगा। परियोजना में स्थानीय समुदाय की भागीदारी और उनकी सहमति हर हालत में अनिवार्य होनी चाहिए। यह उनपर किसी भी हालत में थोपी नहीं जानी चाहिए।

जहां तक मुआवजे और पुनर्वास का सवाल है, इसका निर्धारण पारदर्शी और परस्पर सहमति से होना चाहिए। खासकर राज्य सरकारों को कारपोरेट समूहों और बिल्डरों के लिए जमीन अधिग्रहण करने के बजाय यह मसला उनके और किसानों के बीच छोड़ देना चाहिए। यह बिल्कुल अनुचित और अन्यायपूर्ण है कि सरकार औने-पौने दामों में किसानों से जमीन खरीदकर निजी क्षेत्र को सौपें। इसके बजाय सरकार को केवल यह देखना चाहिए कि कारपोरेट समूह किसानों को दबाव और धोखे में जमीन देने के लिए बाध्य न करें और उन्हें बाजार दर से मुआवजा मिले। साथ ही, जमीन का मालिकाना हक निजी क्षेत्र को देने के बजाय इसे उन्हें लीज पर दिया जाना चाहिए। इसके अलावा निजी परियोजना में विस्थापितों को शेयर देने पर भी विचार किया जा सकता है।

परियोजनाओं के कारण विस्थापित होनेवाले जमीन के मालिक किसानों के साथ-साथ उन खेतीहर मजदूरों को भी मुआवजा मिलना चाहिए जो परियोजना के कारण अपनी आजीविका गंवा बैठते हैं। परियोजना के विस्थापितों और उससे प्रभावित लोगों को परियोजना में न सिर्फ रोजगार देने की व्यवस्था की जानी चाहिए बल्कि उनके वैकल्पिक रोजगार के लिए भी उपाय किए जाने चाहिए। साथ ही, विस्थापितों का  परियोजना के आस-पास ही पुनर्वास किया जाना चाहिए और उन्हें वे सभी सुविधाएं मिलनी चाहिए जो परियोजना में काम करनेवाले कार्मिकों को मिलती है। जैसे, मकान, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल आदि। 

स्पष्ट है कि जब तक विकास परियोजनाओं में उससे प्रभावित होनेवाले लोगों को पूरी भागेदारी नहीं मिलती है, इन परियोजनाओं के नाम पर जमीन लूट का  विरोध होता रहेगा। अब यह बहुत दिनों तक यह अन्याय नहीं चल सकता है कि विकास के नाम पर उसका अमृत तो देवता पिएं लेकिन उसका जहर विस्थापितों के हिस्से आए।

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