रविवार, नवंबर 04, 2007

बाजार के हवाले सामाजिक सुरक्षा...

आखिरकार काफी खींचातानी के बाद कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के केन्द्रीय ट्रस्टी बोर्ड ने चालू वित्तीय वर्ष (2005-06) के लिए कर्मचारी भविष्य निधि पर 8.5 प्रतिशत ब्याज देने का फैसला किया है। जाहिर है कि यह बीच का रास्ता निकालने की कोशिश है क्योंकि ट्रस्टी बोर्ड की वित्तीय और निवेश समिति ने 8 प्रतिशत ब्याज देने की सिफारिश की थी लेकिन ट्रेड यूनियनों की मांग  9.5 फीसदी की ब्याज दर को जारी रखने की थी।
 
हालांकि इस फैसले से टे्रड यूनियने खासकर वामपंथी टे्रड यूनियने खुश नहीं है और उन्होंने आंदोलन का ऐलान किया है लेकिन प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के ठंडे रवैये से बिलकुल नहीं लगता है कि यूपीए सरकार इस मुद्दे पर कहीं से भी पुनर्विचार करने के मूड में है।
 
एक तरह से यूपीए सरकार इस मसले से पूरी तरह हाथ झाड़कर अलग खड़ी हो गई है। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने भविष्य निधि संगठन को साफ-साफ कह दिया है कि भविष्य निधि पर ब्याज की दर से उनका कोई लेना-देना नहीं है और ईपीएफओ जितना चाहे ब्याज दे लेकिन सरकार अपने खजाने से उसकी कोई मदद नहीं करेगी। यूपीए सरकार का यह रवैया नया नहीं है। सच यह है कि उसने पिछले वर्ष भी यही स्टैंड लिया था। उसका यह तर्क है कि भविष्य निधि संगठन के पास जमा रकम पर जो भी कमाई होती है, कर्मचारियों को उसी के अंदर ब्याज दिया जाना चाहिए। भविष्य निधि पर ब्याज देने के लिए सरकार अपने खजाने से कोई मदद नहीं करेगी।

लेकिन भविष्य निधि संगठन की मुश्किल यह है कि उदारीकरण के बाद जब ब्याज की दरे बाजार तय कर रहा है और मौजूदा दौर कम ब्याज दरों का है तब भविष्य निधि में जमा होने वाली रकम पर भी कम ब्याज मिलने के कारण उसके लिए 9.5 फीसदी की ब्याज दर दे पाना लगभग असंभव हो गया है। कर्मचारी भविष्य निधि में जमा होने वाली अधिकांश रकम सरकार की लघु बचत योजनाओं, बॉडस और अन्य प्रतिभूतियों में निवेशित की जाती है जिसपर 6 से 8 फीसदी तक ब्याज मिलता है। ऐसे में यह एक कड़वी सच्चाई है कि बिना सरकारी सहायता के भविष्य निधि संगठन के लिए भविष्य निधि पर  9.5 फीसदी की दर से ब्याज दे पाना संभव नहीं रह गया है।

यही कारण है कि पिछले वर्ष भी जब भविष्य निधि संगठन ने 9.5 फीसदी की ब्याज दर की घोषणा की थी तो उस समय आय और व्यय के बीच के अंतर को भरने के लिए भविष्य निधि संगठन ने अपनी आरक्षित निधि से 716 करोड़ रुपये निकाले थे। आरक्षित निधि में जमा रकम वह पैसा है जो किन्ही कारणों से भविष्य निधि के खातेदारों ने नहीं निकाले या लंबे समय तक उन पर कोई दावा करने नहीं आया। लेकिन पिछले साल 716 करोड़ रुपये निकालने के बाद आरक्षित निधि में मात्र 144 करोड़ रुपये बच गए हैं और अगर भविष्य निधि संगठन इस साल भी  9.5 प्रतिशत की दर से ब्याज देने का ऐलान करता तो आय और व्यय के बीच 1,176 करोड़ रुपये के अंतर को भरने के लिए यह रकम पर्याप्त नहीं थी।

जाहिर है कि ऐसे में 9.5 फीसदी की दर से ब्याज देने का अर्थ भविष्य निधि संगठन को दिवालिया बनाने की राह पर धकेलना था। यूपीए सरकार के फैसले के बाद भविष्य निधि संगठन के लिए इस साल बहुत विकल्प नहीं रह गए थे। एक तरह से देखे तो यूपीए सरकार ने भविष्य निधि संगठन को बाध्य किया कि वह  9.5 फीसदी की दर से ब्याज देने के बजाय बाजार से निर्धारित दरों पर ब्याज दे। यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि मौजूदा यूपीए सरकार और इससे पहले एनडीए सरकार कर्मचारी भविष्य निधि पर बाजार आधारित दर से ब्याज देने का दबाव बनाए हुए थी। व्यवहारिक तौर पर इसका अर्थ 8 प्रतिशत या उससे कम की ब्याज दर थी।

अगर इस पूरे विवाद को नवउदारवादी अर्थनीति के आधार पर देखे तो यूपीए सरकार का तर्क बिल्कुल जायज है। जब बाजार में कहीं भी 9.5 फीसदी की दर से ब्याज नहीं मिल रहा हो और तमाम सरकारी बचत योजनाओं पर ब्याज दर में पहले ही कटौती कर दी गई हो तो भविष्य निधि पर उंची ब्याज दर का कोई तर्क नहीं बनता है। साफ है कि नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित बाजार अर्थव्यवस्था में सामाजिक सुरक्षा जैसी किसी अवधारणा और सब्सिडी के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि इसमें ''देयर इज नो फ्री लंच (यहां कोई भी चीज मुफ्त नहीं मिलती)।
 
आश्चर्य नहीं कि इस मुद्दे पर कई नवउदारवादी आर्थिक टिप्पणीकारों ने इसी दृष्टिकोण से ट्रेड यूनियनों पर हमला करते हुए लिखा है कि भविष्य निधि पर 9.5 फीसदी की ब्याज दर का अर्थ कर्मचारियों को आईसक्रीम खाने के लिए सब्सिडी देना है। उनका कहना है कि भविष्य निधि का लाभ केवल संगठित क्षेत्र के 4 करोड़ कर्मचारियों को ही मिलता है जबकि नब्बे फीसदी कर्मचारी और मजदूर असंगठित क्षेत्र में है और उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। इसलिए उनका तर्क है कि संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की भविष्य निधि पर बाजार दर से अधिक ब्याज देने के लिए सरकार को सब्सिडी देने का कोई तुक नहीं है।
 
लेकिन अगर आप मानते है कि बाजार भगवान नहीं है और वह सब लोगों का ध्यान नहीं रख सकता है तो आपको सरकार द्वारा प्रायोजित सामाजिक सुरक्षा की अवधारणा को स्वीकार करना पड़ेगा। भविष्य निधि किसी भी और बैंक जमा की तरह नहीं है और उसे शुरू से ही एक सामाजिक सुरक्षा स्कीम के रूप में खड़ा किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि कोई भी सामाजिक सुरक्षा की स्कीम बाजार पर निर्भर होकर नहीं चल सकती है। उसके लिए सरकार की सहायता जरूरी है। अगर 4 करोड़ कर्मचारियों के लिए बाजार दर से  1.5 फीसदी ज्यादा दर से ब्याज देने के लिए सरकार को सब्सिडी भी देना पड़े तो एक कल्याणकारी राज्य में यह मुद्दा ''नॉन-निगोशियेबल`` होना चाहिए।
 
आखिर जो सरकार बड़े पूंजीपतियों पर बैंको के अरबों रूपये के बकाये को हमेशा बट्टा खाता में डालने के लिए तैयार रहती हो उसे उस समय बाजार के नियमों की याद क्यों नहीं आती है? यही नहीं, बड़े पूंजीपतियों को लाभ पहुचाने के लिए बाजार में कम ब्याज दरों की व्यवस्था (लो इंटरेस्ट रेट रेजिम) को बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक की तत्परता भी किसी से छुपी हुई नहीं है। ऐसे में बाजार के नियम गरीबों और मध्यमवर्ग पर ही क्यों लागू होते हैं ? यही नहीं, ऐसी कंपनियों की संख्या सैकड़ो में होगी जो कर्मचारियों से वसूली के बावजूद न सिर्फ समय पर भविष्य निधि नहीं जमा कराते हैं बल्कि उसे डकारने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता है। लेकिन उनके खिलाफ कदम उठाने में सरकार के हाथ क्यों कांपते हैं ?
 
सवाल यह भी है कि अगर सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए आज तक सामाजिक सुरक्षा का ढांचा नहीं तैयार कर पाई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए बची-खुची सामाजिक सुरक्षा स्कीमों को भी ध्वस्त कर दे। यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि अगर लोकतंत्र को बाजार चलाने लगेगा तो वह लोकतंत्र नही बाजार तंत्र होगा जिसमें हर नागरिक को बाजार के नियमों के आधार पर चलना पडेग़ा।
 
यानि जिसकी जेब में पैसा होगा, उसे ही जीने का अधिकार होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत जैसे देश में इस बाजार तंत्र के हावी होने का मतलब करोड़ो लोगों को सम्मान पूर्वक जीने के अधिकार से वंचित करना होगा।

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