शनिवार, नवंबर 10, 2007

भेल और वाम राजनीति...

मनमोहन सिंह सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के 10 प्रतिशत शेयर बेचने के फैसले पर वामपंथी दलों और कांग्रेस के बीच दांव-पेंच का खेल दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। दम साधने की इस लड़ाई में किसकी पलके पहले झपकेगी, यह अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन वामपंथी पार्टियों के कडे  तेवर को देखकर तो यही लगता है कि इस बार वे सिर्फ भौंक नहीं रहे है बल्कि काटने के लिए भी तैयार हैं। माकपा महासचिव प्रकाश करात का कहना है कि सरकार को भेल के विनिवेश के फैसले को वापस लेना ही पडेग़ा क्योंकि यह न्यूनतम साझा कार्यक्रम का स्पष्ट उल्लंघन है। वामपंथी पार्टियां इस मुद्दे पर इससे कम किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करेंगी और वे किसी भी लेन-देन के लिए तैयार नहीं हैं।
 
लेकिन कांग्रेस नेतृत्व और प्रधानमंत्री को अब भी विश्वास है कि बातचीत से इस मुद्दे का हल ढूंढ़ लिया जाएगा। यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वाम नेताओं को बातचीत के लिए बुलाने का फैसला किया है। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व बातचीत से क्या निकालना चाहता है, यह अस्पष्ट है। क्यांेकि सवाल बहुत सीधा सा है कि क्या सरकार भेल के विनिवेश का फैसला वापस लेगी? अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं है। प्रधानमंत्री का कहना है कि यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है और वामपंथी दलों को कुछ भ्रम है जिन्हें दूर कर लिया जाएगा। उधर, वित्तमंत्री को विश्वास है कि विनिवेश की प्रक्रिया जारी रहेगी।

स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह सरकार भी भेल के विनिवेश के फैसले से पीछे नहीं हटना चाहती है। उल्टे उसने इस साल सार्वजनिक क्षेत्र की 35 कंपनियों के विनिवेश से 10 हजार करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा है। भेल के 10 प्रतिशत शेयर बेचकर वह लगभग 2 हजार करोड़ रुपए जुटाना चाहती है। लेकिन वामपंथी पार्टियों का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की मुनाफा देने वाली विशेषकर नवरत्न कंपनियों के  विनिवेश का फैसला साझा कार्यक्रम के खिलाफ है और चूकिं यूपीए सरकार साझा कार्यक्रम का पालन नहीं कर रही है इसलिए यूपीए और वामदलो की समन्वय समिति की बैठकों में भाग लेने का कोई तुक नहीं है।

लेकिन कांग्रेस और सरकार का कहना है कि साझा कार्यक्रम में निजीकरण नहीं करने की बात कही गई है और विनिवेश पर कोई रोक नहीं है। सरकार का तर्क है कि निजीकरण और विनिवेश में अंतर है और साझा कार्यक्रम में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा शेयर बेचकर बाजार से पैसा उगाहने पर कोई रोक नहीं है। लेकिन वामपंथी दल इस तर्क से सहमत नहीं है। उनकी दलील है कि विनिवेश और निजीकरण मंे कोई खास अंतर नहीं है और थोड़े-थोड़े विनिवेश के जरिए सरकारी कंपनियों के धीरे-धीरे निजीकरण का रास्ता साफ किया जा रहा है।
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि वामपंथी दलों की शिकायत और तर्कों में दम है। विनिवेश और निजीकरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनके बीच अंतर ढूढ़ना हास्यास्पद है। एनडीए के शासन काल में पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने इस अंतर को खत्म करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि उनकी सरकार विनिवेश के बजाय निजीकरण शब्द का इस्तेमाल करना बेहतर समझती है क्योंकि विनिवेश का मकसद निजीकरण है। मारुति सरीखे ऐसे कई उदाहरण है जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियों को थोड़े-थोड़े विनिवेश के बाद अंतत: निजी हाथों में सौंप दिया गया।
 
एनडीए के शासन काल में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बेचने के मामलों में इतनी अनियमितताएं बरती गई कि विनिवेश और निजीकरण बेहद बदनाम शब्द बन गए। यही कारण था कि एनडीए के पराजय के बाद यूपीए के गठन के समय साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करते हुए उसमें विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया को रोकने की बात कही गई लेकिन उसमें जानबूझकर कई अस्पष्टताएं और छिद्र भी छोड़ दिए गए। इसकी वजह यह थी कि कांग्रेस खुद भी सिद्दांतत: विनिवेश और निजीकरण के खिलाफ कभी नहीं थी बल्कि उसे ही विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय जाता है। यूपीए के गठन के समय तो जनादेश के तात्कालिक दबाव में कांग्रेस साझा कार्यक्रम में विनिवेश और निजीकरण पर रोक लगाने और विनिवेश मंत्रालय को बंद करने पर राजी हो गई।
 
लेकिन कांग्रेस सरकारी कंपनियों को बेचने के लोभ को बहुत दिनों तक रोक नहीं पाई क्योंकि वह सिद्दांतत: विनिवेश और निजीकरण की समर्थक है। उसने सरकार गठन के छह महीने के अंदर ही सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनी नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन (एनटीपीसी) के 5 प्रतिशत शेयर खुले बाजार में बेचने का फैसला कर लिया। आश्चर्य की बात यह है कि भेल के 10 प्रतिशत शेयर बेचने के मुद्दे पर अब इतनी गरज रहीं वामपंथी पार्टियों ने पिछले साल एनटीपीसी के शेयर बेचे जाने के समय आह भी नहीं भरी। संभवत: यही कारण है कि भेल विवाद में भी कुछ लोग समझौते के रास्ते के बतौर भेल के 10 के बजाय 5 प्रतिशत शेयर बेचने का सुझाव दे रहे हैं। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि अगर नवरत्न कंपनियों में विनिवेश पर कोई आपत्ति नहीं है तो फिर 5 और 10 प्रतिशत में कितना फर्क है? 
 
दरअसल, वामपंथी दलों को पिछले साल एनटीपीसी के शेयरों की बिक्री के समय ही तीखा विरोध करना चाहिए था। उस समय उनके चुप रहने के कारण ही आज यूपीए सरकार का साहस इतना बढ़ गया है कि वह एक-दो नही बल्कि 35 कंपनियों में विनिवेश की तैयारी कर रही है। वामपंथी दलों को इस मामले पर निश्चय ही सफाई देनी पड़गी कि पिछले साल एनटीपीसी के मामले पर वे चुप क्यों रहे? क्या पिछले साल उनकी चुप्पी और भेल के मामले में इस साल इतना हंगामा करने के पीछे कारण अगले साल के शुरू में केरल और पश्चिम बंगाल में होने वाले विधान सभा चुनाव हैं? क्या इन चुनावों के मद्देनजर ही वामपंथी दल विशेषकर माकपा कांग्रेस से दूरी बनाने की कोशिश कर रहे है?

यूपीए सरकार खासकर कांग्रेस के प्रति वामपंथी दलों विशेषकर माकपा के अवसरवादी और समझौता परस्त रवैये के कारण ही इन आरोपों को बल मिला है। भेल के मुद्दे पर इतना गरज-बरस रही माकपा के पास इस बात की क्या सफाई है कि उसने जनविरोधी और बहुराष्ट्रीय कंपनी समर्थक पेटेंट बिल को पास कराने में यूपीए सरकार का साथ दिया? क्या पेटेंट का मुद्दा भेल के विनिवेश से कम महत्वपूर्ण मुद्दा था? इसी तरह यूपीए सरकार ने रोजगार गारंटी कानून को भी मजाक बना दिया लेकिन वामपंथी दलों ने कागजी विरोध से आगे बढ़ने की जरूरत नहीं समझी। इसके अलावा यूपीए सरकार ने अन्य कई मुद्दों पर साझा कार्यक्रम की अनदेखी की है या उसे तोड-म़रोड़कर लागू किया है लेकिन वामपंथी दलों ने रस्मी विरोध से अपनी जिम्मेदारी निपटा दी।
 
इन सब वजहों से ही यह आशंका जताई जा रही है कि वामपंथी दल विशेषकर माकपा भेल के मुद्दे पर टकराव को बहुत आगे तक नहीं ले जाएगी और बीच का कोई रास्ता निकालने की कोशिश की जाएगी। यही कारण है कि कई विश्लेषकों को कांगेस और वामपंथी पार्टियों के बीच यह टकराव नूरा कुश्ती अधिक दिखाई पड़ती है।  इसकी वजह यह है कि माकपा के राजनीतिक रूप से कांग्रेस के इतनी नजदीक पहुंच चुकी है कि वह कुछेक आर्थिक मुद्दों पर रस्मी विरोध से आगे नहीं जा सकती। वाम धु्रवीकरण पर आधारित स्वतंत्र दावेदारी और कांग्रेस-भाजपा से अलग तीसरे रास्ते की तलाश से मुह मोड़ चुकी माकपा के लिए इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है।

कोई टिप्पणी नहीं: