बुधवार, नवंबर 13, 2013

डौंडिया खेडा की कौतुक कथा

चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक है

भारत को भले ही गांवों का देश कहा जाता हो लेकिन अपने न्यूज चैनलों पर गांव बिरले ही दिखाई देते हैं. ऐसा नहीं है कि गांवों में खबरें नहीं हैं.
गहराते कृषि संकट से लेकर किसानों की आत्महत्याओं तक और गरीबी-भूखमरी से लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मामूली बीमारियों से होनेवाली मौतों तक और सामंती जुल्म और मध्ययुगीन खाप पंचायतों की बर्बरता से लेकर विकास योजनाओं की लूट के बीच ग्रामीण समाज खासकर दबे-कुचले वर्गों, युवाओं और महिलाओं की उमड़ती आकांक्षाओं तक गांवों में खबरें ही खबरें हैं. 
लेकिन चैनलों की इन खबरों और उन्हें रिपोर्ट करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. कारण, उन्हें ये खबरें ‘डाउन मार्केट’ लगती हैं. उनका मानना है कि उनके शहरी मध्यवर्गीय दर्शकों की इसमें कोई रूचि नहीं है. नतीजा, चैनलों से गांव गायब हैं. कुछ इस हद तक कि उन्हें देखकर नहीं लगेगा कि भारत में गांव भी हैं जहाँ इस देश के ६० फीसदी से ज्यादा लोग रहते हैं.

चैनलों पर अगर कभी भूले-भटके गांव दिखते भी हैं तो उसकी वजह किसी बड़े नेता का उस गांव का दौरा होता है जिसके पीछे-पीछे चैनल और उनके पत्रकार गांव तक जाते और वैसे ही लौट आते हैं. फोकस नेता पर होता है और गांव पृष्ठभूमि में ही रहता है. राहुल गाँधी की टप्पल यात्रा याद कीजिए.

लेकिन ठहरिये, चैनल खुद अपनी पहले पर भी कभी-कभार गांव जाते हैं. उन्हें गांव की याद तब आती है जब वहां कोई बहुत असामान्य, अजीबोगरीब और कौतुकपूर्ण घटना हो. जैसे कुछ सालों पहले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में एक ज्योतिषी कुंजीलाल ने एलान कर दिया कि वह दो दिन बाद मरनेवाला है.
फिर क्या था? उत्साह और उत्तेजना से भरे सारे चैनल अपनी ओ.बी वैन के साथ वहां पहुँच गए और कई दिनों तक कुंजीलाल को लाइव दिखाया गया. ऐसे ही, चैनलों ने हरियाणा के एक गांव में बोरवेल में गिरकर फंस गए ५ साल के प्रिंस को बचाने के अभियान की ७२ से ९६ घंटों तक लाइव कवरेज की थी.
इसी तरह, कारगिल युद्ध के दौरान लापता घोषित सैनिक के कुछ सालों पहले अचानक मेरठ के अपने गांव पहुँचने, वहां उसकी पूर्व पत्नी की दूसरी शादी और उससे पैदा हुए प्रसंग को चैनलों ने जबरदस्त मेलोड्रामा बनाकर पेश किया. कई दिनों तक उस गांव में चैनलों का मेला लगा रहा.

इसी कड़ी में इस बार उन्नाव के डौंडिया खेडा की लाटरी खुल गई जहाँ एक बाबा शोभन सरकार को सपना आया कि गांव के एक किले के नीचे हजार टन सोना दबा है. कहते हैं कि बाबा और उनके शिष्यों ने एक केन्द्रीय मंत्री को प्रेरित किया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई) वहां खुदाई करने पहुँच गया.

ऐसे में, चैनल कहाँ पीछे रहनेवाले थे? ए.एस.आई के पीछे-पीछे चैनल भी बाबा के सपने सोने पर दांव लगाने पहुँच गए. चैनलों पर डौंडिया खेडा लाइव शुरू हो गया. गांव में मीडिया का पूरा मेला सा लग गया. चैनलों की उत्तेजना और उत्साह देखते ही बनता था.
डौंडिया खेडा जल्दी पीपली लाइव में बदल गया. 24x7 पल-पल की रिपोर्ट दी जाने लगी- ‘कितनी, कैसे और कहाँ खुदाई हुई, किन औजारों का इस्तेमाल किया गया, खुदाई की नई तकनीक क्या है, वहां क्या माहौल है’ से लेकर बाबा शोभन सरकार के रहस्य और सोना मिलेगा या नहीं, कितना सोना मिलेगा, उसपर किसका अधिकार होगा और हजार टन सोने से देश की कितनी समस्याएं हल हो जाएंगी आदि-आदि.
यह और बात है कि यहाँ भी डौंडिया खेडा पृष्ठभूमि में और सोने की खोज की कौतुक कथा फोकस में थी. अफ़सोस, अन्धविश्वास के सोने की चमक से चौंधियाए चैनलों को एक बार फिर डौंडिया खेडा जैसे गांवों का असली दर्द नहीं दिखाई दिया.

असल में, कुंजीलाल, गुडिया, प्रिंस से शोभन सरकार तक चैनलों की गांव यात्रा और कुछ नहीं, कौतुक कथाओं की खोज भर है. चैनलों के लिए गांव का मतलब अभी भी कौतुक बना हुआ है. डौंडिया खेडा इसका ताजा सबूत है. 

('तहलका' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)             

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